SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २६९ णव॒सयवेदोदएण विणा अण्णवेदोदएण किमह ण उप्पाइजदि १ ण, परोदएण चडिदस्स पलिदोवमस्स असंखे भागमेत्तचरिमफालिद्विददव्वं मोत्तूण एगुदयणिसेगदव्वाणुवलंभादो । जदि एगुदयणिसेगदव्वं चेव जहण्णददव होदि तो तिण्णि पलिदोवमभहियव छावहिसागरोवमेसु पुणो ण हिंडावेदव्वो, खविदगुणिदकम्मंसिएसु समाणपरिणामेसु गुणसेढिणिसेगं पडि भेदाभावादो ? ण, तिण्णि पलिदोवमन्भहियवछावद्विसागरोवमाणि परिभमिदखवगस्स एगहिदिपगदि-विगिदिगोवुच्छाहितो तत्थ अभमिदखवगस्स एगहिदिपगदिविगिदिगोवुच्छाणमसंखेजगुणत्तुवलंभादो। जदि एवं तो एसो ण मिच्छत्तं पडिवजावेदव्यो, तिण्णिपलिदोवमभहियवेछावहिसागरोवमेसु संचिदपुरिसवेददव्व दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगपंचिंदियसमयपबद्धमत्ते अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एगखंडे णवुसयव दम्मि संकंते अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मेण खवगसेढिमारूढणव सयवेदखवगस्स पगदि-विगिदिगोवुच्छाहिंतो एदस्स पगदिविगिदिगोवुच्छाणमसंखेजगुणत्तुवलंभादो १ ण एस दोसो, बंधपयडीणं सव्वासि पि समाधान-नपुसकवेदवाले मनुष्योंमें उत्पन्न करानेके लिये । का_नपसंकवेदके सिवा अन्य वेदके उदयसे क्यों नहीं उत्पन्न कराया गया ? समाधान नहीं, क्योंकि अन्य वेदके उदयसे चढ़े हुए जीवके क्षपणाके अन्तिम समयमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तिम फालिमें स्थित नपुसकवेदका द्रव्य पाया जाता है, उदयगत एक निषेकका द्रव्य नहीं पाया जाता, इसलिये नपुसकवेदके सिवा अन्य वेदके उदयसे नहीं उत्पन्न कराया। शंका-यदि उदयगत एक निषेकका द्रव्य ही जघन्य सत्कर्मरूपसे विवक्षित है तो तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर कालके भीतर पुनः नहीं घुमाना चाहिये, क्योंकि समान परिणामवाले क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश जीवके गुणश्रेणिके निषेक समान होते हैं, उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता ? समाधान नहीं, क्योंकि जो तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करनेके बाद क्षपक हुआ है उसके एक स्थितिगत प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छासे वहां नहीं भ्रमण करके जो क्षपक हुआ है उसकी एक स्थितिगत प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी पाई जाती है। शंका-यदि ऐसा है तो (घुमाने के बाद) इस जीवको मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये, क्योंकि तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर कालके भीतर पुरुषवेदका डेढ़ गुणहानिगुणित पंचेन्द्रियका एक समयप्रबद्धप्रमाण जो द्रव्य संचित होता है उसमें अधःप्रवृत्त भागहारका भाग देने पर उसमेंसे एक भागका नपुंसकवेदमें संक्रमण होता है। अब यदि कोई जीव अभव्यके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ क्षपकणिपर चढ़ा तो उसके नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें जो प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा होगी उससे इस पूर्वोक्त जीवके प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी पाई जाती है ? समाधान-यही कोई दोष नहीं है, क्योंकि सभी बन्ध प्रकृतियोंकी आय व्ययके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy