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________________ २२ जयवधलास दे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती५ अपज०देव-भवणादि जाव अवराइदो ति। मणुसपञ्ज०मणुसिणी०-सव्वट्ठसिद्धिम्हि जहण्णाजहण्णपदेस० संखेज्जा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ६२८. खेत्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो जिद्द सोओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्कस्सपदेसवि० केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। अणुक्क० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु उक्कस्साणुक्क० लोग० असंखे०भागे । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । $ २९. जहण्णए पयदं । जहण्णाजहण्णपदेस० उक्कस्साणुकस्सभंगो। ३०. पोसणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं। दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क०-अणुक्क० खेत्तभंगो। एवं तिरिक्खोघं । भवनवासीसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले संख्यात हैं। इस प्रकार अनाहारीपर्यन्त जानना चाहिये। विशेषार्थ-जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका प्रमाण ओघसे और आदेशसे भी संख्यात ही होता है, क्योंकि क्षपितकर्माश ऐसे जीवोंका परिमाण संख्यात ही होता है और अजघन्य विभक्तिवालोंका परमाण अपनी अपनी राशिके अनुसार अनन्त, असंख्यात और संख्यात होता है। २८. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तियश्चोंमें जानना चाहिये । शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ६२९. जघन्यसे प्रयोजन है । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका क्षेत्र उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंके समान है। विशेषार्थ—ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशधिभक्तिवाले जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले शेष सब जीव हैं और ये सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिये इनका क्षेत्र सर्वलोक कहा है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें इसी प्रकार क्षेत्र घटित कर लेना चाहिये। शेष गतियोंमें क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए उनमें दोनों विभक्तियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है। तथा आगे एकेन्द्रिय आदि व दूसरी मार्गणाओंमें अपने अपने क्षेत्रको देखकर वह घटित कर लेना चाहिये । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंमें भी इसी प्रकार क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए। ३०. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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