Book Title: Dan Shasanam
Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govindji Ravji Doshi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहर्षिवासुपूज्वकृत दानशासनम् मी वर्तमान पार्श्वनाथ बाली विद्यावारी द Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सखाराम नेमचंद सन्माला में विजयतेला महर्षिवासुपूज्यकृत दानशासनम् संपादक व अनुवादक, वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री विद्यावाचस्पति-न्याय-काव्यतीर्थ संपादक-जैनबोधक व वीरवाणी सोलापुर. प्रकाशक, गोविंदजी रावजी दोशी सोलापुर. प्रथमावृत्ति । + १००० । वीर संवत् २४६७ सन् १९४१ ( मूल्य । दो रुपये. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक, गोविंदजी रावजी दोशी सखाराम नेमचंद ग्रंथमाला; सोलापुर. इस ग्रंथके प्रकाशनमें निम्नलिखित धर्मनिष्ठ सज्जनोनें उदार हृदयसे सहायता की है। ३०० श्री ब्र संबादेवानी दिल्ली २५ स सठ प्रांतीचंद मियाचंद मंगरूल २००) सेठ पूनपचंद घासीलालजी १००) सेठ काळप्पा अण्णाजी लेंगडे. उपर्युक्त सज्जनोंके सहयोगके लिए हम कोटिशः धन्यवाद देते हैं। प्रकाशक. मुद्रक, . वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री श्रीकल्याण पॉवर प्रिंटिंग प्रेस, सोलापुर. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAM श्री परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ति श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजी महाराज Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । S MMNva MAR PEPAL S / चारित्रचक्रवर्ती १०८ श्रीमदाचार्यशांतिसागराणां शिष्यमा विद्यावत्या निजक्षुल्लिकादीक्षाग्रहणसमये ____ दानशासनामिदं शास्त्रमध्ययनाथ - निजज्ञानावरणकर्मक्षयार्थ प्रवत्तम् । Nowwr Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् चतुर्विधदान में ही संपत्तिके अधिकतर भागको उपयोगकर सातिशय यश व सुकृतको अर्जन करनेवाळे नररत्न श्री० धर्मवीर दानवीर स्व. रावजी सखाराम दोशी जिनकी असीम प्रेरणासे यह ग्रंथ प्रकाश में आ रहा है । विनयावनत संपादक. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका. प्रथमोऽध्यायः पृष्ठ श्लोक a. on oor n * * "" ! m m so so so १ मंगलाचरण २ अष्टविधदानलक्षण ३ग्रंथोपदेश्यपात्र ४ लोककी प्रवृत्ति ५ दानका लक्षण ६ दानके भेद ७ सामान्यदान लक्षण ८ दोषदानका लक्षण ९ उत्तमदानका सक्षण १० मध्यमजघन्यदानलक्षण ११ संकीर्णदानका लक्षण १२ कारुण्यदानका लक्षण १३ औचित्यदानका लक्षण १. हिंसादिकसे दानफलनिषेध १५ कलिकाल के राजा १६ राजदेहका सामर्थ्य १७ ब्राह्मणशरीरका सामर्थ्य .१८ कुदानस्वरूप १९ कुदानफळ २. सहनशीलता २१ दीनताका निषेध २२. उत्तमदाता so s 5 ६ १६-१९ ७२०.२१ ७.८ २२.२५ ८-९ २६.२८ ९ २९ ९. ३० १० ३१ ३२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् Annanamaana - - पृष्ठ श्लोक २३ गुरुजन राजाका पाप नाश करते हैं २४ उत्तमद्विज पापार्जितद्रव्यको ग्रहण नहीं करते हैं ११ २५ पापार्जितद्रव्यदानसे दुर्गति मिलती है २६ पापसे द्रव्य कमानेवाला राजा मूर्ख है ११ २७ द्विजलोग पापार्जित द्रव्यकी इच्छा नहीं करते ११ २८ पापी राजाका द्रव्य उत्तमपुरुष नहीं लेते १२ इत्यष्टविधानलक्षणम् ॥ द्वितीयोऽध्यायः २९ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा ३० पात्रापात्रविवेकशून्य कर्मसंचय करते हैं ३१ दानसे सब वश होज ते हैं ३२. सत्पात्रदानफल १४ ४-५ ३३ शांतसच्चारित्र दाताओंको देखकर सब शांत होजाते हैं१४ ३. दातारोंके भेद ३५ आपत्रदान निषेध ३६ मिथ्यादृष्टिदाननिषेध ३७ क्रोधी व शत्रुजारादिकों को दाननिषेध ३८ दानधनसे पुण्यपाप कमाते हैं ३९ सम्यग्दृष्टिको जैनसंघकी रक्षा करनी चाहिए १६ १२.१३ ४० दानसे किन, २ उद्देश्यों की पूर्ति होती है ? ..... १७ ४१. सत्पात्रदानका माहात्म्य ४२ दान सुभोजनके समान है ४३. तप आदिसातगुण क्षेत्रादिके समान हैं १८ १७ ४४ सत्पात्रका आदर व अनादर करनेका फल १८-१९ १८-१९ । ४५. पात्रदानसे दोषनाश और गुणलाभ १९ २० * * * * Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका AAAAAAAA - Mr me पृष्ठ श्लोक १६ दयादिगुण गंगानदी आदिके समान हैं २०:२१ .४७ दानमें आदरभाववालेको क्रोधादिक दूषित नहीं करते २० २२ .४८ पात्रप्रेमका फल २०. २३ १९ सभी पात्र दानीके आश्रयमें आते हैं ५० अनादरका निषेध २१ २५ ५१ दानके पांच दोष ५२ दानके गुणपंचक इत्युत्समपात्रसामान्यविधिः ॥ तृतीयोऽध्यायः ५३ दानके भेद ५४ चारो दानोंमें अभयदान श्रेष्ठ है ५५ अभयदानका लक्षण २३ ३ ५६ अभयदाता आदरणीय है ५७ अभयदान परंपरासे मोक्षदायक है ५८ अभयदानका माहात्म्य . ५९. शरणागत शत्रुका रक्षण करना भी अभयदान है २५ ६० प्रकारान्तरसे भी अभयदान बतलाते हैं २५ ८ ६१ अभयदानीको पाप पीड़ा नहीं देता है . ६२ राजासे अभयदान कैसे मांगमा चाहिये ? ६३ उद्धार करनेयोग्य चीजें . . ६४ अभयदानके अनेक भेद २७ १३ ६५ अभयदानसे ही श्रेष्ठ सुख मिलता है ६६ अभयदानसे मिलनेवाले लाभ २८ १५-२४ ६७ निर्दयतासे होनेवाले फलको उदाहरणके द्वारा दिखाते हैं ३१ २५ or or 52 v. or . २७ .. १२ ___. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दामशासनम् ६८ जीव पालने से [रक्षणसे ] होनेवाले लाभ ६९ दूसरे जीवोंको कष्ट देना पाप है ७० विघ्न उपस्थित न करनेका उपदेश ७१ उत्तम श्रावकों की रक्षा करनी चाहिये ७२ धर्मप्रभावनाका फल ७३ जिनमहोत्सबमें सब देशोंसे जैन बंधुओंको बुलाने का उपदेश ७४ जिनपूजनमें वीरके समान रहें ७५ भावपूर्वक चैत्यालय जानेका फळ ७६ जाप देने का फल पृष्ठ लोक ३२-३३२६-२७ ८७ पुण्योत्पादक कार्य करनेका उपदेश ८८ ककडी के समान धर्मका फल मीठा होता है ८९ भव्य जिनपूजन से अपनेको धन्य मानते हैं ९० कोई मेंढक के समान संसार में सुख मानते हैं ९१ धर्मप्रभावफल ३३ २८ ३३ २९ ३३ ३० ३४-३५ ३१-३३ ३५ ३४ ३६-३७ ३६-३८ ३७-३८३९-४० ३८ ३८ ४२ ३९ ४३ ७७ भटों के समान चतुः संघका सत्कार करना चाहिये ७८ विश्नोंको दूर करनेवाला त्रिलोकमान्य होता है ७९ वैद्यादि के समान धर्मोत्सव में प्रवृत्तिका उपदेश ८० शांति से कर्म जीतनेका उपदेश ३९ ४४ ३९ ४५ ४० ४६ ८१ जिनपूजोत्सबके लिए कौन योग्य है ! ८२ पूजाके भेद ४० ४७-४८ ८३ संतोषपूर्वक पूजा करनी चाहिये ४१ ४९ ८४ जिनपूजन करनेवाले निर्मलपुण्यका संचय करते हैं ४१ ५० ८५ जिनपूजा को रोकना पाप है ४२ ८६ पापत्या गोपदेश ४२ ४१ ५१ ५२ ५३ ५४ ४२ ४३ ४३ ५५-५६ ४३ ५७ ४३ ५८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका NAAMKAARoomsohnnnnnoon. AAAAAAAAAAAAA moromance2222000000000002020mmonom000000000000000000000000 - - - पृष्ठ श्लोक ९२ जिनोत्सवादिमें एकाग्रचित्तको आवश्यकता ४४ ५९ ९३ संयमियोंके हृदयमें क्रोधोद्रेक करनेवाला हिंसक है ४४ ९४ साधुओंके चित्तमें विकार उत्पन्न करने का निषेध १४ ९५ सज्जनोंकी वृत्ति कमल के समान है ९६ पापका पश्चात्ताप करनेसे जैनी बनते हैं ९७ गर्वादिको छोडकर देवगुरु आदिकी सेवा करें। ९८ लोकमें पुण्यात्मा और पापीयोंकी प्रवृत्ति ९९ अस्थिर चित्तवाले पुण्यसंचय नहीं करते ६६ १०० कोई अहंकारसे विघ्न डालते हैं ४७ ६७ १०१ उत्सवमें लोगोंकी प्रवृत्ति ४७६८-६९ १०२ जन्मसफल करनेका उपदेश ४८ ७०.७१ १०३ जिनपूजोत्सवमें क्रोध मत करो ४९ ७२ १०४ धार्मिकजनोंकी प्रवृत्ति ४९ ७३ १०५ धर्मार्थधनव्ययका उपदेश ५० ७४ १०६ मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिका परिणाम ५० . ७५ १०७ देवार्चकके सत्कार करनेका उपदेश . ५१ ७७ १०८ जिनमंदिरमें वर्जनीय क्रियाएं ५१.५२ ७८-८० १०९ जिनालयमें सभ्यवृत्तिका उपदेश ११० जिनालयमें क्रोधादिक शांत करनेका उपदेश ५४ ८२ १११ आत्माको शुभकार्यमें ही प्रवृत्त करें ५४ ११२ जिनेंद्रचरणचर्चित पुष्पगंधोदकादिको धारण करनेका उपदेश ५४ ८४ ११३ धारण करने का प्रयोजन ५५ ८५ ११४ गंधोदकादिक भोगकी इच्छासे ग्रहण न करें ५५ ११५ शुद्धयादिके लिए गंधोदक लगानेका उपदेश । ५५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - Mammad - पृष्ठ श्लोक ११६ देव व गुरुकी सेवाका उपदेश ११७ निर्दयी पापबंध करता है ११८ धर्मके अनुकूल परिग्रहकी रक्षा करनेका उपदेश ५७ ९० ११९ पुरदेशादिको अपने अनुकूल बनानेका उपदेश ५७ ९१ १२० पापोपार्जित द्रव्य वर्जनीय है ५७-५८ ९२-९३ १२१ प्रकारांतरसे अभयदान १२२ भूपशब्दकी निरुक्ति ५९ ९५ १२३ राजाका कर्तव्य ५९९६-९७ १२४ पुण्यहीन राजाको सज्जन धिक्कारते हैं ५९ ९८ १२५ राजासे अभयदानके लिए प्रेरणा करें . ६. ९९ १२६ धर्मद्रोहीके घरमें शुभ क्रियायें व लक्ष्मी प्रवेश नहीं करती हैं ६० १०० १२७ पापीमें बन्ध्याके समान शुभाचरण उत्पन्न नहीं होते हैं ६१ १०१ १२८ पुण्यपाप कर्मीकी महिमा ६१ १०२ १२९ अपने पिता स्वामी आदिकी निंदा न करें ६१ १०३ १३० तीर्थंकर गुरु आदिके निंदा करनेसे दुर्गति प्राप्त होती है ६२ १०४ १३१ मत्सरी राजाका जीवन संकटापन्न होताहै ६२ १३२ राज्यमें ब्रह्महत्यादिके रोकनेका उपदेश ६२ १०६ १३३ वाघध्वनिके समान द्रव्य शुभाशुभ सूचक है ६३ १०७ १३४ याचकोंको सन्तोषपूर्वक धन देखें ६३ १०८ १३५ शरणागत वीर आदियोंको धिक्कारनेवाला राजा पापी है ६३ १०.९ १३६ अभयदानमें विघ्न डालनेका फल दुःखदायक है ६४ ११० १३७ प्राण जानेपर भी धर्मको हानि नहीं पहुंचाने ६४ १११ १०५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ श्लोक १३८ जिनोत्सवमें विघ्न डालनेसे तीव्र पापबंध होता है ६५ ११५ १३९ धर्म संकटोंको दूर करना राजाका धर्म है ६५ ११३ १४० जिनधर्म प्रभावनामें विघ्न डालनेका फल ६६-६७ ११४-११८ १४१ दूसरेका धन अपहरण करनेका फल ६७ ११९ १४२ जिनपूजनार्थ प्रदत्तद्रव्यमें कम नहीं करें ६८ १२० १४३ जिनालयके लिये प्रदत्तद्रव्यका अपहरण न करें ६८ १२१-१२२ १४४ जिनमंदिर आदि फोडनेका फल ६९ १२३ १४५ अल्पद्रव्य देकर मंदिरके ग्राम खेत आदि को नहीं खरीदना चाहिए. १४६ धनिक रक्खे हुए गरीबोंके धनको नहीं लेवें ७० १२५ १४७ स्वाश्रितप्राणियोंकी रक्षा करनी चाहिए । ७० १२६ १४८ भावरहितकायचेष्टा आत्मकल्याणकारी नहीं है ७० १२७ : १४९ धर्मसे उत्पन्न धनको धर्म कार्यमें ही लगाना चाहिए ७१ १२८ १५० धर्मादिकी निंदा करनेवाले मोक्षके पात्र नहीं होते ७१ १२९ १५१ सद्गोत्री व जिनयोगियोंकी निंदा करनेका फल ७२ १३०-३१ १५२ कामार्थी व धनार्थियोंकी मित्रता किन २ से होती है ७२ १३२ .१५३ क्रोधोंके समान वेश्यागामी अहित कर लेता है ७३ १३३ १५१ गृहमें अकेली स्त्रीको नहीं रहनी चाहिए ७३ १३४ . १५५ पापीके हृदय में गुरूपदेश ठहर नहीं सकता है ७४ १३५ . १५६ अच्छे बुरे कार्य के लिए काल लब्धिकी - आवश्यकता. ७४-७५ १३६-३७ १५७ गुरुक्रमोल्लंघनका निषेध ७६ १३८ ' १५८ निजवंशधर्मपरंपराको उलंघने का निषेध ७६ १३९ . १५९ वीतरागी साधुओं को कभी कष्ट नहीं पहुंचावे ५७ १४० १६० पंचमकाल में मुक्ति क्यों नहीं है ? ७७ : १४१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् पृष्ठ श्लोक १६१ इस पंचमकाल में श्रावक लोग पुरोहित को किस दृष्टिसे देखते हैं ? ७८-७९ १४२-४५ १६२ जिनपूजकको आदर से देखनेका उपदेश ७९ १४६ १६३ पंचम काल में लोगोंकी प्रवृत्ति ८०-८१ १४७-१८ १६४ जिनालयमें कलह व अभक्ष्यभक्षणका निषेध ८१ १४९-५० १६५ पात्रोंकी निंदा करनेवाला डोंबारी होताहै ८२ १५१ १६६ सज्जन हमेशा उपकार ही करते हैं . ८२ १५२ १६७ मोही जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रसे भ्रष्ट होते हैं८३ १५३ १६८ नारियल के समान लोककी प्रवृत्ति होती है ८३ १५४ , १६९ प्राचीन आर्वाचीन राज्यपद्धति ८४ १५५-५६ १७. पूज्य सज्जनोंको राज्य में पीडा न देनेका उपदेश८५ १५७ १७१ राजा सेवकों को संतुष्ट रक्खें . ८५ १५८ १७२ स्वामी सेवक के धन को अपहरण न करें ८६-८७ १५९-६१ १७३ सेवकोंपर ईर्ष्याभाव न करें ८७ १६२ १७४ सेवकोंका उपकार न करनेवाला स्वतः सेवक बन जाता है ८७ १६३ १७५ भृत्यकी रक्षा करने का उपदेश ८८ १६४ १७६ परद्रव्यका हरण न करें ८८१६५.६६ १७७ चोरी से होनेवाली अवस्था ८८-८९ १६७-१६८ १७८ जिनधर्भ महान् वृक्ष के समान है। ८८ १६९ १७९ वंचकनीसे मानहानि होता है ९० १७० १८० परस्त्री गुरु-देव-धन अग्राह्य है ९० १७१ १८१ देवयादिसे पुण्य नष्ट हो जाता है ९० १७२ १८२ द्रव्यापहरणका फल ९१-९२ १७३-७८ १८३ अत्यंत लोभ से धन कमानेका निषेध ९३ १७९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ... पृष्ठ श्लोक १८४ न्यायोपार्जित धन सबकी वृद्धिका कारण होता है ९३ १८० १४५ देने का संकल्प कर न देने का फल ९४ १८१ १८६ धर्मव्य व दूसरों के अन्नादिक हरण करनेका फल .. ९४ १८२-१८३ १८७ अन्य गृहमें भोजन करनेपर उसके बदलेमें . कुछ देनेका विधान ९५ १८४ १८८ दत्तद्रव्य ग्रहण करने का विधान जिनालय जीर्ण होनेपर धनवान् श्रावक उदास न होवे . .९५ १८६ १८९ जिनेंद्र व मुनींद्रोंकी प्रतिमा सविकार नहीं बनावें ९६ १८७ १९० प्राचीन आर्वाचीन काल में राजाओंकी स्थिति ९६ १८८ १९१ राजदर्बारमें भंडवचनादिका निषेध ९६.९७ १८९-१९१ १९२ धनान्ध लोगोंका व्यवहार . ९७-९८ १९२-१९३ १९३ विघ्न का फल तत्क्षण मिलता है ९८ १९४ १९४ पापका फल विचित्र होता है ९७.९९ १९५-९७ १९५ विग्न से देश नष्ट हो जाता है १०० १९८ १९६ अभयदान का फल अचिन्त्य है १०६ १९९.२०१ १९७ बंधु वगैरे मोहकी वृद्धि करनेवाले हैं • १०२ २०२ १९८ मिथ्यात्वादिसे बचनेका आदेश १०२ २०३ १९९ जो विद्या सस्फल प्रद है उसीको पढना चाहिए १०३ २०१ २०० राजाको खजाने के समान. पुण्यकी भी रक्षा ___ करनी चाहिए . १०३ २०५ २०१ अमय दानका फल १०३-१०१.२०६-२०७ २०२ पुण्य वृक्ष को दानसे बढानेका आदेश १०४ २०८ २०३ सज्जन लोग ऐसा विचार करें १०४.१०५ २०९.२११ २०१ उपसंहार १०५, २१२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् चतुर्थोऽध्यायः। दानशाला लक्षण पृष्ठ श्लोक २०५ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा १०६ १ २०६ नवीन गृहसंस्कार १०६ २ २०७ पुराण गृहसंस्कार २०८ सर्वथा आहार वर्जनस्थान १०७ ४ २०९ मंगलगृह १०७ ५.७ २१० अप्रशस्त गृह १०८ ८ २११ गुरुओंके आगमन में सूतकियोंका कर्तव्य १०८ ९.१० २१२ देवगुरुओंके सेव्य वस्तुका नहीं खाना १०८ ११ २१३ गुरुओंके भोजन स्थानकी अशुद्धिका फल १०९ १२ २१४ चाण्डालादिके लिए जैनगृह प्रवेश निषेध १०९ १३.१४ । २१५ पात्रदानके लिए अशुचिगृहमें नहीं ठहरे और उस का फल ११० १५.१० २१६ गृहसंस्कार का विधान ११०-१११ १८-१९ २१७ साधुप्रविष्टगृह में भूतादि की पीडा नहीं होती है . १११ २०-२१ २१८ सुपात्रागमनसमय में गृह की सजावट करें ११२ २२-२४ २१९ पापी स्त्रियोंकी वृत्ति २२० धर्म के लिए दाता और याचक दोनों नहीं है ११३ २६ २२१ पुण्यवती स्त्रियोंकी वृत्ति ११३ २७ २२२ दानशालाकी पवित्रता ११५-१५ २८-३६ २२३ उपसंहार इति दानशासविधिः । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका AAAAAA पञ्चमोऽध्यायः। पात्रसेवाविधिः।। पृष्ठ श्लोक ११७ ११७ २ ११७ ११८ ११८ ११८ ११८ ११९ ९-१० ११९ २२४ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा २२५ दानविधि २२६ दानक्रम २२७ देशगुण २२८ कालगुण २२९ उत्तमपात्रदानकालक्रम २३० मध्यम पात्रदान कालक्रम २३१ शास्त्रक्रम २३२ विधिगुण क्रम २३३ द्रव्यलक्षण २३४ स्पृष्ट दोष २३५ पात्र २३६ नवधाभक्ति २३७ प्रतिग्रह २३८ उच्चासन २३९ पाद्यपूजा २४० प्रणामादि चतुष्टय २४१ आहार दोष २१२ भाहार शुदि २१३ सेवाफल २११ मोक्षफल २४५ लोग अपना द्रव्य का दुरुपयोग करते हैं २४६ पुण्यसंस्कार के लिए प्रयत्न करें इति पानसेवनविधिक Enarrons , ५ ..AMR02.48 १२० १२० १२० १२१ १२१ १२१ १८ १२२ १६ १२२ - २० १२२ २१ १२३ २२ १२३ २३ १२४ २४.२५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ব্যায়াখাল NAAAAAAD षष्ठोऽध्यायः। द्रव्यलक्षण.. पृष्ठ श्लोक १२६ . . . १२६ २ . . २४७ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा २४८ द्रव्यलक्षण २०९ द्रव्यगुण २५० अनुचित द्रव्य २५१ निषिद्ध द्रव्य २५२ पर्युषित द्रव्य २५३ कारण २५४ निषिद्धआहार दत्तफल २५५ अवतिक दत्ताहारफल २५६ निषिद्धाहार २५७ दासपक्कहार २५८ नीचमांडपकाहार २५९ अतिकपकाहार २६० सत्रताव्रतमिश्रण २६१ कुलीननीचमिश्रण २६२ दुष्टोंके संसर्गसे धर्मनाश २६३ दासीपकाहारको कुलस्त्री दान न देवे २६४ गृहिणी पक्काहार २६५ प्रशस्तदान २६६ उपसंहार १२७ ४ १२७५ १२७-२८ ६.८ १२८ ९ १२९ १० १२९ - ११ १२९ १२ १२९ १३. .. १३० १३० १६ १५ . १३१ । १९ १३२ : २० १३२ २१-२३ १३३ २४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका - - - - सप्तमोऽध्यायः। पृष्ठ श्लोक २६७ मंगलाचरण २६८ प्रतिज्ञा १३४ २ २६९ धार्मिक लक्षण १३४ ३ २४० पांच प्रकार के पात्र २७१ पात्रा भेद २७२ उत्तम पात्र १३५-३६ ६-१२ २७३ एकाकीविहारनिषेध १३६ १३ २७४ गुरुसेवा १३७ १४ २७५ गुरु के प्रति कर्तव्य १३७-३९ १५.२० २७६ आर्यिकाओं के साथ मुनियोंका निवास निषेध १४० - २१ २७७ एकाकीविहारसे दोष १४० २२ २७८ अभिमान निषेध १४१ २३ २७९ दीक्षोद्देश्य १४१-४४ २४.१० २८० दीक्षा के लिए अयोग्य पुरुष १४५.४७ ४१-५१ २८१ मिथ्यादृष्टियोंसे धर्म की हानि होती है १४८ ५२ २८२ गुरुवोंकी हमेंशा सेवा करनी चाहिए १४८ ५३ २८३ साधु भोजनसमयमें श्रावककी निंदा न करें १४९ ५१ २८४ दुर्जन अपनी दुष्टता कभी नहीं छोडते १४९ ५५ २८५ शिष्य आज्ञाकारी वधूके समान रहें १४९ । ५६ • २४६ सम्यग्दृष्टियोंके परिणाम १५०-५१५७-६२ २८७ पहिले सम्यग्दर्शन होता है २८८ क्रोधादिसे किन्ही २ के सम्यग्दर्शन नष्ट होता है १५२ ६४ २८९ व्यवहार सम्यग्दर्शनके अभाव में निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है १५२ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सम्यग्दृष्टि पुण्यसाधन के अभाव में भी मुक्ति पाते हैं २९.१ कोई २ स्वतः सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं २९२ बहुत से सम्यग्दर्शनसे च्युत हो जाते हैं २९३ भावभेद से सम्यग्दर्शन के असंख्यात भेद हो जाते हैं २९४ निर्दोष सम्यदृष्टि - मोक्षको प्राप्त करते हैं। २९५ क्रोध सम्यग्दर्शनको नष्ट कर देता है। २९६ संसार महायज्ञ के समान है २९७ क्रोधका अनिष्टफल गान २९८ प्राचीन और आर्वाचीन जैनोंमें अंतर २९९ क्रोध अश्वत्थ आदि के समान पुण्यनाश करता है ३०० स्त्रीविडम्बनमाह ३०१ मध्यमपात्र ३०२ भव्यलक्षण ३०३ भव्योंका कर्तव्य १०४ जघन्यपात्र ३०५ मुनियोंके पांचभेद ३० ६ परस्त्रीगृहप्रवेशनिषेध ३०७ मध्यमपात्र ३०८ जघन्यपात्र ३०९ अपात्रवर्णन ३१० कुपात्रवर्णन ३११ पुनः तीन प्रकार के पात्रोंका वर्णन पृष्ठ १५२ १५३ १५३ १५३ १५३ १५४ १५४ १५४ १५५ ठोक ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ १५५-५८७६-८१ १५८-६१८२-८८ १६१-६२ ८९-९२ १६३ ९३ १६३ ९४ १६४ ९५ १६४ ९६ १६४ ९७ १६५ ९८.९९ १६५-६६ १००-१०१ १६६-६७ १०२-१०५ १६७१०६-१०८ १६८ १०९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमाणका - पृष्ठ श्लोक १६८ ..११० १६८ १११ १६८ ११२ १६. ११३ १६९ ११४ १६९ ११५. १७० ११७ १७० ११८-११९ १७० १२० १७१ १२१ . ३१२ कार्यपात्र ३१३ कामपात्र ३१४ पुनः पञ्चविधमा ३१५ साधक ३१६ वैद्योंका सन्मान ३१७ ज्योतिषियोंका सन्मान ३१८ मंत्रवादियोंका सन्मान ३१९ दैवज्ञका सन्मान ३२० सम्यग्दृष्टि व्रतिकादि भी पात्र हैं ३२१ शीलमाहात्म्य ३२२ उपसंहार अष्टमोऽध्यायः। दातुलक्षणविधिः। ३२३ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा ३२४ दातृलक्षण ३२५ सप्तगुण ३२६ सप्तगुणलक्षण ३२७ आस्तिक्यमति ३२८ श्रद्धागुण .३२९ तुष्टिमाह ३३. भक्तिमाह ३३१ साधुओंका उपचार ३३२ नित्य अतिथि सत्कार करें २३३ विज्ञान १७२ १ १७२-७३ २-४ १७३ १७३ १७४८ १७५ १७६ ११.१२ १७७ १३ १७७ १४ १७७ १५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् पृष्ठ सोक ३३५ अलुब्धदाता १७८ १६ ३३६ पात्रसेवाफल १७८ १७ ३३७ उत्तमक्षमा १७९ १८ ३३८ मृदुवचनमाह १८० १९ ३३९ शक्तिमाह १८०-८१ २०-२१ ३४० दातृपात्रफलमाह १८१-८२ २२-२६ ३४१ क्षुधा कैसी है १८३ २७ ३४२ मुनिगण आहार किसवास्ते लेते हैं १८३ २८ ३४३ भोजनके समय मौन क्यों धरना चाहिए १८४ २९ ३४१ मौनगुणमाह १८४ ३०-३२ ३४५ मौनका उपदेश ३४६ पतिव्रताके समान पुण्यवचनको ही बले १८६ ३४ ३४७ शास्त्र ही बोलने सुनने योग्य है १८६ ३५ ३४८ मौनधारी की सदा प्रशंसा करते हैं १८६ ३६ ३४९ पाठान्तर १८७ ३७ ३५० भोजननिषिद्धस्थान ३५१ दाननिषेध १८८-८९३९.४. ३५२ भोजनान्तराय १८९.९० ४१-४२ ३५३ आहारके समय दया १९० ४३.४४ ३५४ निर्दोष तपस्वी कल्पवृक्षके समान है . १९१ ४५ ३५५ प्रतीकदानमाह ३५६ पुण्यवृद्धि के लिए सदा दान पूजादि करते हैं १९१.९२ ४७-४८ ३५७ कार्य को विचार कर ही करना चाहिए १९२ ४९ ३५८ साधुवोंको दिल खोलकर दान देवें Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ३५९ लोकरीति ३६० साधुसंतर्पण में बहाना ३६१ आहारमें वर्जन विषय ३६२ कठोर वचनका त्याग ३६३ आहारके समय वर्व्य मनुष्य ★ ३६४ भोजन के समय और भी वर्ण्य विषय . ३६५ उत्तमदातृयुगल लक्षण ३६६ प्रशस्तदात्री ३६७ पात्रप्रशंसा ३६८ पुण्यवती साध्वी स्त्री ३६९ दानकार्य में बर्ण्य व्यक्ति ३७० दानमें प्रशस्त व्यक्ति ३७१ सूतकी व आहारदान ३७२ स्वस्त कर्तव्य ३७३ दानफल ३७४ आहार और आदर ३७५ पुण्यपापार्जन मनके अनुसार होता है ३७६ दानमाहात्म्य ३७७ आयव्यय विवेक ३७८ गुरुसेवा ३७९ वृद्ध कौन है ? ३८० गुरुसेवासे, पञ्चाश्चर्य ३८१ चतुर्थकाल में मुक्त क्यों होते हैं ? ३८२ पुण्यवान् दाता ३८३ आहारदान में सर्वदान पृष्ठ १९३ १९४ १९४ १९४ १९५ १९५ १९६ ૨૭ लोक ५१ ५२ '१३ ५४ ५५ ५६ ५७ १९६-९७ ५८-५९ १९७ ६० १९८ ६१ १९८ ६२ १९९ ६३ १९९६४-६५ १९९ ६६ २०० ६७ ६८ ६९ २०० २०१ २०१-२७०-७२ २०३७३-७४ २०४-५ ७५-७६ २०५ ७९ २०५ ८० २०६ ८१ २०६ ८२ ८३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् । MAV ANAwvr - ३८४ गुरुभक्तिफल ३८५ उत्तमदाता ३८६ सत्पात्रदानफल ३८७ पुण्यस्वरूप ३८८ पुण्यकी प्रबलता ३८९ भक्ति विशेष ३९० अन्तरायफल ३९१ सुकृती व पापीका जीवन ३९२ उपकार्यपात्र ३९३ भक्तिफल ३९१ देयपदार्थ ३९५ धर्मात्माओंका सत्कार ३९६ दानफल ३९७ दातृवात्सल्य ३९८ मिथ्यादृष्टि होनेपर भी सहकार ३९९ श्रध्दानफल १०. बडे पुरुषोंको गाली नहीं देखें ४०१ कुत्तेके समान कृतज्ञ रहो ४०२ करणत्रयलक्षण ४०३ राजलक्षण या दातृहृदय ४०१ दातृवचन ४०५ दातृकाय ४०६ तामसदान १०७ गर्वित दाता ४०८ मनुष्य कपि होता है .. पृष्ठ श्लोक २०७ ८४-८५ २०७-८.८६-८७ २०८-९८८-८९ २०९ ९० २०९ ९१ २१० ९२-९४ २११ ९५ . २११ ९६ २१२ ९७ २१२ ९८ २१३ ९९ २१५ १००-१०१ २१५ १०२ २१५ १०३ २१६. १०१ २१६ १०५ २१६ १०६ २१७ १०७ २१८ १०८ २१८ १०९ । २१८ ११० २१८ १११ २१९ ११२ २१९ ११३ .. २२०. . १११ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका - १०९ मानी दातासे हानि ४.१० राजसदान ४११ सात्विकदान ११२ उत्तमादि भेद ११३ असीमव्यवहारका फल ४१४ गर्वसे हानि ४१५ मनरहित दान ४१६ मनवचनरहितदान ४१७ भिन्नभावदत्तदान ४१८ त्रिकरणशुद्धिकी आवश्यकता ११९ त्रिकरणशुद्धिपूर्वक दत्तदान १२० दाता वेश्याके समान हो ४२१ पात्रानुसार द्रव्यपरिणमन ४२२ पुण्यसे लोभ नष्ट हो जाता है ४२३ शूद्रामत्याग १२४ सच्छूद्राहारग्रहण १२५ चातुर्वर्ण्य महत्व ४२६ स्वर्गच्युतों का लक्षण ४२७ दाताओंका परिणाम १२८ पापियोंसे धर्म दूर रहता है ४२९ याचकोंकी दुर्दशा ४३० याचकत्व महाकष्ट है १३१ दाता धृति आदिगुणोंको धारण करें १३२ दान मौनसे देखें , १३३ दानरहित संपत्ति की निरर्थकता पृष्ठ श्लोक २२० ११५ २२०. .११६ २२१ ११७ २२१ ११८-१९ २२२ १२० २२२ १२१-२२ २२३ १२३-२४ २२३.२५ १२५-२७ २२४ १२८. २२५ १२९ २२६ १३० २२७ १३१ २२७ १३२ २२८ १३३ २२८ १३४ २२९.३० १३५-३७ २३० १३८-३९ २३१ १४०-४१ २३२ १४२ २३३ १४३ २३३ १४४ २३३ १४५ २३४ १४६ २३५ १४७ २३५ ११८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् 20000000000AAAAAAAAAAAAnandinAsareenwronAmAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAna पृष्ठ लोक ४३४ मानवीयमनोवृत्ति २३६.१९९.५० ४३५ दूसरोंको कर्ज देनेवाला कैसा होता है २३६ १५१ ४३६ परार्थापहरणफल २३७ १५२ ४३७ नीचव्यवहारत्याग २३७ १५३ १३८ रणनीति २३८ १५४ ४३९ ऋणदोष २३८ १५५ ४४० मायाचारदोष २३८ १५६ ४११ दरिद्र २३९ १५७ ४१२ विभावभावसे युक्त युवती २३९ १५८ १४३ धर्मविध्वंसिनी स्त्री २३९, १५९ ४४४ बहानाबाजी करनेवाली स्त्री व उसके प्रकार २४०. १६०-६१ ४४५ पात्रानादर फल २४१ १६२ ४४६ गर्भिणी अनादर करें तो - २४१ १६३ ४४७ अर्ध अनदान २४२ १६४ ४४८ क्रोधदत्ताहार २४२ १६५-६६ ४४९ पंक्तिभेदकृतफल २४३ १६७ ४५० देवगुरुओंमें उदासीनता न करें २४३ १६८ ४५१ उपकारियों के प्रकार २५३.४४ १६९.७१ ४५२ दाताओं के प्रकार २४४.४५ १७२-७५ ४५३ मिथ्यादृष्टियोंको दान देनेका फळ २४६ १७६-७७ ४५४ भयप्रदत्तदान २४६ १७८ ४५५ व्याघ्ररूपदाता २४७ १७९ ४५६ दाताओंके और भी भेद २४७-४८ १८०-८५ ४५७ पात्रदानादिकके लिए द्रव्यकी कमी २४८ १८६ ४५८ मिथ्यादृष्टिदत्तदानफल २१९-५० १८७-९० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ४५९ दान देनेवालोंको रोकनेका फल ४६० निमंत्रणकर रोकनेका का फल ४६१ मिथ्यादृष्टिको दयासे ही दान देवें ४६२ जैन श्रावकको घरके बाहर नहीं जिमावे पृष्ठ लोक २५०-५१ १९१-९२ १९३ २५१ १९४ २५२ १९५ ४६३ अशिक्षित मिथ्यादृष्टियों को दान न देवें ४६४ अपकारियोंको धर्म समझकर द्रव्य न देवें ४६५ गायकादियोंको पात्र समझकर दान न देवें ४६६ अपात्रदानफल ४६७ इंद्रियवशकरनेवाले संयमियों को पोषे ४६८ वेश्याकी संगति पैसेवालों के साथ होती है ४६९ कुलाङ्गना के समान दाता उपकारियों की सेवा करें २५१ २५२ २५२ २५३ २५३ २१ २५३ २५४ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २५४ ४७० दुष्टकार्यों में उद्योग मत कर २५४ ४७१ अन्यकलत्र के समान दत्तपदार्थका ग्रहण न करें २५५२०४-२०५ १०२ २०३. ४७२ परद्रव्यपर आक्रमण न करें २५६ २०६ ४७३ जिनचर्चित गंध, उदक, पुष्पों को ग्रहण करें २५६ २०७ ४७४ पात्रार्पितद्रव्यका स्पर्श न करें २५६ २०८ ४७५ दत्तद्रव्यग्रहण निषेध २५७ २०९-१० . ४७६ दत्तद्रव्याग्रहणफल २५९ २११ २५९ २१२-१३ ४७७ दत्तद्रव्यग्रहणफल ४७८ अन्यद्रव्यग्रइणनिषेध ४७९ देवगुरुसेवाफल ४८० देवद्रव्य ग्रहणफल ४८१ प्रशंसाकृतदान २६०-६१२१४-१७ २६१ २१८-१९ २२० २६१ २६२ २२१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् naananamaAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAnamite पृष्ठ श्लोक १८२ निष्फलद्रव्य २६२ २२२ ४८३ देवादिद्रव्यहरण फल २६२ २२३ ४८४ स्मरणकर न देनेकाफल २६३ २२१-२५ ४८५ लिखितादत्तदानफल २६३ २२६ ४८६ वचन देकर न देनेका फल २६३ २२७ ४८७ मर्यादा के भीतर न देना २६४ २२८ १८८ अयोग्यधनग्रहणफल २६४ २२९ ४८९ उन्ही के किंकर बनते हैं २६१ २३० ४९. विचारकर या वचन देकर न देने का फल २६४ २३१ ४९१ पुण्यपापभेद २६५ २३२ ४९२ दातावोंकी शक्ति देखकर याचना करें २६५ २३३-३४ ४९३ दाता के प्रति क्रोध नहीं करनेका उपदेश २६६ २३५ ४९४ सफलजीवन २६६ २३६-३७ ४९५ प्रसादलक्षण २६६ २३८ ४९६ पुण्यात्माओंकी वृत्ति २६७ २३९-४० १९७ देव व ऋषिसेवाफल २६८ २४१ १९८ देव व गुरु आदि के प्रति दुर्वचननिषेध २६८ २४२ ४९९ अन्योंसे द्वेष करनेका निषेध २६८ २४३ ५०० अन्यस्त्री गुणरक्षण २६९ २४४ ५०१ पापरतोंको सुख नहीं मिलता है २६९ २४५ ५०२ केवल्यादिकी निंदाका निषेध २६९ २४६ ५०३ देवगुरुके प्रति विघ्न न करने का उपदेश २७० २४७ ५०१ विधिकी विचित्रता . २७१ २४८ ५०५ धर्म कार्य में विघ्न न करने का उपदेश २७१-७३ २१९.५३ ५०६ उपसंहार २०४ २५१ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका anwwwwwwww به س ه م م 6 २७७ नवमोध्यायः । औषधिदानविधानम् ___ पृष्ठ श्लोक ५०७ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा २७५ ५०८ उत्कृष्टजैन २७५ ५०९ वात्सल्यगुण २७५ ५१० योगियोंकी प्रकृति के अनुकूल आहार देवें २७६ ५११ आदरगुण २७६ ५१२ आदर न करनेवाला मूर्ख मिथ्यादृष्टि है २७६ ५१३ साधुओंको औषधि देने की विधि २७७ ५१४ प्रारभक्तादि औषधसेवम फल ५१५ अन्तरभक्कादिफल २७८ .९ ५१६ भोजन समय २७८ १० ५१७ भोजनविधि २७९ ११-१२ ५१८ औषधि दानफल २८०-२८१ १३-१४ ५१९ पात्रनिंदासे रोग दूर नहीं होता है २८१ १५ ५२० दुष्टजन २८२ १६-१७ ५२१ उपसंहार २८३ १८ दशमोऽध्यायः। शानदानविधानम् ५२२ शास्त्रकी निरुक्ति २८४ १ ५२३ शास्त्रका महत्व २८४ ५२४ धर्मक्रियाओंकी सिद्धि २८४ ५२५ केवळज्ञानकी सिद्धि २८४ ४ ५२६ मिथ्याज्ञाननाश ५२७ शाखप्रकाशन م س ه م .. २८५ م Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासन MorwwAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA. पृष्ठ श्लोक ५२८ लोकका उपकार २८५ ७ ५२९ लोकका उद्धार २८६ ८ ५३० शास्त्रप्रतिष्ठा ५३१ शास्त्रदानफल २८६-८७ ११.१३ ५३२ पवित्रकार्य में धनव्ययका विचार न करें २८७ १४-१५ ५३३ विनयका महत्त्व २८८ १६ ५३४ शास्त्रपठनयोग्यस्थान २८८ १७ ५३५ पुस्तकादिदामफल २८८ १८ ५३६ गुरुभक्तिका फल २८९ १९ ५३७ सज्जन कभी शास्त्राध्ययन छोडते नहीं २८९ ५३८ पुत्रका अज्ञान दूर करने का उपदेशः . २८९ ५३९ शास्त्रदानफल २९० २२ ५४० जिनबिम्बपूजाफल २९० २३ ५४१ साधुसेवाफल २९१ २४-२५ ५४२ अल्पानल्पगुणियों की पूजा २९१ २६ ५४३ अल्पानल्पज्ञानियों की पूजा २९१ २७ ५४४ व्यसहायसे विद्वानोंको तैयार करने का फल २९२ २८ ५४५ दान देते समय सजन प्रमाण नहीं करते २९२ २९-३० ५४६ दानहीन संपत्ति व्यर्थ है २९३ ३१ ५४७ विद्वानोंका अपमान न करें २९३ ५४८ शास्त्र पढनेवालोंको इतर काममें लगानेका फल २९४ ५४९ प्रसिद्धगुरु का नाम लेना २९४ ५५० ज्ञानसाधनापहरणफल २९४ ३५ ५५१ ज्ञानसाधनदहनफल ५५२ गुरुवोंके अविनय का फल २९५ ३७ ३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ५५३ अज्ञानी उल्लू ५५४ आगमपर मलिनयखाच्छादनफल ५५५ अविनय फल ५५६ साधुजनोंकी परोक्षमें निंदा न करें ५५७ गुरुके प्रति क्रोधका निषेध ५५८ अन्यनिंदाफल ५५९ मूर्खोका शाप कुछ नहीं कर सकता है ५६० गाली देनेवालोंके लिए प्रायश्चित्त नहीं है ५६१ विना शुद्धि के दान पूजा व्यर्थ है ५६२ शाखादि के प्रति उदासीन न होवें ५६३ शास्त्रपठन निषिद्धस्थान ५६४ मूर्ख लोग विद्वानोंका अनादर करते हैं ५६५ शास्त्रोपदेशक के अभिप्राय का घात न करें ५६६ उपदेशकों के प्रति उदासीन नहीं होवे ५६७ उदासीन लक्षण ५६८ विद्वानोंके अनादरसे होनेवाली दस बातें पृष्ठ २९५ २९५ ३९ २९६ ४०-४१ २९६ ४२ २९७ ४३ २९७ ४४ २९८ ४५ २९८ ४६ २९९ ४७ २९९ ४८ २९९ ४९ ३०० ३०० ३०० ३०० ३०१ ५६९ अल्प वेतनका निषेध ३०१ ५७० पुस्तकादिन्यासापहरणनिषेध ३०२ ५७१ इस से ज्ञानदर्शनावरण कर्मका बंध होता है ३०२ ५७२ मिध्यादृष्टि ३०२ ५७३ कलिकाल में शास्त्रस्वाध्यायको दशा ३०३ ५७४ मायाचारसे ज्ञानादि गुण प्रकट नहीं होते हैं ३०३ ५७६ दुराचारी विद्वानों को कष्ट देते हैं ५७६ जिनागमकी रक्षा करो ५७७ उपसंहार -२५ इति शास्त्रदानविधानम् । लोक ३८ ५० ५१ ५२ ५२ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ३०३ ६१ ३०४ ६२ ३०४ ६३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् एकादशोऽध्यायः । भावलक्षण विधानम्। पृष्ठ लोक ५७८ राजाके समान पुण्यपरिकरोंको मिलाना चाहिए ३०५ ५७९ दुष्टोंके हृदय में जिनमुनि आदि के प्रति । दया भाव नहीं रहता ३०५ २ ५८० जीवोंके परिणामभेद ३०६ ३.५ ५८१ कोई ककडीके समान परिणामवाले होते हैं ३०६६ ५८२ कोई कचरियाके समान होते हैं ३०७ ७ ५८३ कोई जम्बूफल के समान होते हैं ३०७-३०८ ८-९ ५८४ कोई कवे के तुल्य होते हैं ३०८ १०-११ ५८५ कोई जलौक के तुल्य होते हैं ३०८ १२ ५८६ कोई कुत्ते के तुल्य होते हैं ३०९ १३-१४ ५८७ कुत्ते के समान कृतज्ञ बनना चाहिये ३०९ १५ ५८८ कुत्ते के समान नीच दोषोंको ही ग्रहण करते हैं ३१० १६ ५८९ कोई भेडियेके तुल्य होते हैं ३१० १७ ५९० कोई मत्स्यके समान हिताहित नहीं सोचते ३१० ५.१ आपसमें द्वेषभाव नहीं करें ५९२ कोई वेश्याके तुल्य होते हैं ३११ २० ५९३ कोई मांसलोभी मछली के तुल्य होते हैं ५९४ कोई कहार के समान होते हैं . ३११ २२ ५९५ कोई जमीन खोदनेवाले के तुल्य होते हैं ३११ ५९६ कोई बंदरके सदृश संसारमें चूमते हैं ३१२ २४ ५९७ कोई मयूर के समान मंदकषायी होते हैं ३१२ २५ ५९८ हिंसाको सुनकर हज्जन भाग जाते हैं ५१२ २६ ५९९ कोई कुत्ते के सदृश संज्जनोंसे ईर्ष्या करते हैं ३९२ २७ ३११ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका سے سہ رسم पृष्ठ श्लोक ६०० कोई परोपदेशमें पंडित होते हैं ३१३ । २८ ६०१ कोई बैलके तुल्य होते हैं ३१३ २९ ६०२ कोई पिंगलके तुल्य मिष्टवचनी होते हैं ३१३. ३० ६०३ कोई चिकोडतुल्य होते हैं ३१३ ६०४ कोई सिंहके तुल्य पाप कमा लेते हैं ३१४ ६०५ कोई संकेतादिसे प्रणाम करते हैं ६०६ कोई बिल्लीके तुल्य हिंसातुर होते हैं ६०७ कोई हिंसानंदी होते हैं ३१४ ६०८ कोई कूर्म के तुल्य भ्रमण करते हैं . ३१५ ६०९ पापी उल्लू के तुल्य धर्मको देखते नहीं .३१५ ६१० कोई चूहेके तुल्य विवेकहीन होते हैं ३१५ ६११ कोई कौवेके तुल्य मर्मभेदी होते हैं ३१५ ६१२ कोई मनुष्यों का नाश करते हैं ६१३ कोई तृणके तुल्य होते हैं ६१४ कोई गाय बैलके समान स्त्रो देखकर संतुष्ट होते हैं ३१६ ६१५ कोई बलात्कारसे परस्त्रीगमन करते हैं ३१६ ६१६ कोई बाह्यतपसे पापसंचय करते हैं . ३१७ ६१७ कोई कैदीके तुल्य भोगकी इच्छा करते हैं ३१७ ६१८ दुष्टोंके लिये उपकार अपकारके लिये होता है ३१७ ६१९ कोई कर्मफल देता है, कोई नहीं देता है ३१८ ६२० पापोदयसे प्राप्त संपत्तीको भोग नहीं सकते ३१८ ६२१ कोई दानादिमें विघ्न उपस्थित करते हैं ३१८ ६२२ पापोदय होनेपर रंभाके तुल्य मृत्यको प्राप्त होते हैं ३१८ ६२३ कुत्ते के पेटमें घोके तुल्य पापियोंमें धर्म नहीं । ठहरता है ३१९ ५१ WWW ४५ ४५ ४९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दानशासनम् ongAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAmrpan - aahranARAAAAAAAINA पृष्ठ श्लोक ६२४. किसी की नीचसंगतिसे धर्मधारण की इच्छा नष्ट होती है ३१९ ५२ ६२५ मिथ्यादृष्टिमें द्रव्यदान, भक्ति आदि से दर्शन, पुण्य नष्ट होते हैं ३१९ ५३ ६२६ कहीं २ आमकुंभके तुल्य धर्म नहीं ठहरता है ३१९ ५४ ६२७ योग्यस्थानको देखकर पुण्यबीजका वपन करें ३१९ . ५५ ६२८ अकार्यसे पाप बंध होता है ६२९ पापकर पुण्य ३२०. ५७ ६३० पुण्यकर पाप ३२१५८.५९ ६३१ पापकर पुण्य ३२१ ६. ६३२ कोई पागल कुत्ते के सदृश होते हैं ६२१ ६१ ६३३ कोई अंतराय करनेवाले होते हैं । ३२२ ६२ ६३४ स्वामिद्रोहादिसे पापसंचय होता है ३२२ ६३ ६१५ जारादिकोंको दानादिक का निषेध ३२२ ६४ ६३६ दाता की निंदा नहीं करें ३२२ ६५ ६३७ द्रव्यको सत्पात्रमें देनेका उपदेश ६३८ परिग्रहसे मन सदा चंचल होता है ३२३ ६७ ६३९ पुण्यप्रभाव से विघ्न नष्ट होते हैं । ३२४ ६८ ६४० दर्शनचारित्ररहितज्ञान ३२४६९.७० ६४१ गुरुवोंकी अनुमति के विना चारित्रपालन ३२४-३२५ ७१-७२ ६४२ व्यर्थ अर्थ १२५ ७३ ६४३ विवेकीको पापचोर स्पर्श नहीं करते ३२५ ७४ ६४४ सम्यग्दृष्टिको दोन समझकर याचक छोड देते हैं ३२६ ७५ ६४५ परिप्रहरक्षणतत्पर सदा अस्वस्थ रहता है ३२६ . ७६ निषेध Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका २९ - - - M पृष्ठ श्लोक ६५६ याचितवस्तु न मिली तो दाताको छोड देते हैं ३२६ ६४७ याचकोंको लज्जा आदि नहीं रहते ३२७ ६४८ दुर्जनसंगतिसे सजन भी दोषी होते हैं ३२७ ७९ ६४९ स्त्रियोंका बल्लभ कौन है ? ६५० देवकार्यमें विघ्न डालने का फल ६५१ छिद्रान्वेषी महापापी होता है ३२८ . ८२ ६५२ देवस्थानादिसे द्रोह नहीं करें ३२८ ८३ ६५३ पापीको प्रामाधिपत्य आदि प्राप्त नहीं होसकते ३२८. ८४ ६५४ सम्यग्दृष्टिका आदर करनेका वचन देकर ____ उदासीन नहीं होवे ३२८ ६५५ कंजूसका घर अपवित्र होता है ३२९ ८६ ६५६ पुण्यक्षेत्रको स्पर्श नहीं करनेवाले सूतकी जन .. सच्चरित्र होते हैं । ३२९ ८७ ६५७ पूजाके नामसे द्रव्यापहरण फल ३२९ ६५८ स्वाम्यादि द्रव्यापहरणफल । ३३० ९० ६५९ पात्रके बहानेसे द्रव्यापहरणफल ३३० ६६० पुण्यवान को पापकर्म आश्रय नहीं करते हैं ३३० ६६१ अशुभपरिणामसे पापासव : . ३३० ९३ ६६२ जैनमुनियोंके समाधिभंगफल ६६३ पापभीर गुरुजनोंके आसनपर नहीं बैठते ३३१ ९५-९६ ६६४ सजन पापकार्य को त्याग दें ३३१ ९७ ६६५ तपश्चरणसे सुख ३३२ ९८-९९ ६६६ आचरणके अनुसार फल ३३२ १०० ६६७ स्वक्षेत्रको छोडनेवाला पापी है ३३३ १०१ ६६८ मातापितादिकों की निंदाका फल ३३३ १०२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ श्लोक '६६९,स्वव्यको छोडकर मरर्द्रव्यका अपहरण न करें ३३३ १०३ ६७० देवद्रव्यापहरणनिषेध ३३४ १०४ ६७१ देवद्रव्यादिसे ईर्ष्या नहीं करें ३३४ १०५ ६७२ देवद्रव्यापहरणका प्रत्यक्ष फळ ३३५ १०६ ६७३ पंचपापोंके त्यागने का उपदेश ३३५ १०७ ६७४ शुद्धिकी प्रतिज्ञा ३३५ १०८ ६७५ जिनधर्म के अपवादको दूर करें ३३६ १०९-१० ६७६ अविभक्तोंकी शुदि ३३६ १११ ६७७ विभक्तोंकी शुद्धि ३३६-३९ ११२-२१ ६७८ धनका उपयोग ३३९ १२२ ६७९ शुद्धिविधान ३३९ १२३ ६८० ग्रंथरचनाकाल .. . ३४० १२४ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन श्रावकोंका अनुदिनका कर्तव्य इज्या व दत्ति है। जिस घरमें दान व पूजाके लिए स्थान नहीं है वह घर नहीं स्मशानभूमिके समान है। जिस संपत्तिका उपयोग दानपूजा कार्यमें नहीं होता है उस संपत्तिका होना न होना बराबर है ! इस लिए महर्षि कुंदकुंदस्वामीने आदेश दिया है कि . दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । दान और पूजा ये दो ही श्रावकके मुख्यर्कतव्य हैं। यदि श्रावक कहलाकर जो दान और पूजा नहीं करें तो समझना चाहिये कि वह श्रावक नहीं है। लोकातिशायी पुण्यके कारणसे श्री त्रिलोकीप्रभु तीर्थकर परमेष्ठी सर्वलोकहितकारी अक्षयदानको देते हैं। जिसके द्वारा लोकका उद्धार होता है। तीर्थकरप्रभुके दरबारसे अधिक पुण्यसूचक स्थान दूसरा नहीं है। उसके लिए समस्त भव्यप्राणी तरसते हैं। जहांवर त्रिलोकीनाथ दाता हों और गणधरादिक महर्द्धिक ऋषि पात्र हों वहांके दानका क्या वर्णन किया जाय । इसलिए आत्मकल्याणेच्छु सज्जनोंका कर्तव्य है कि उस अक्षयदानको देनेके सामर्थ्यको प्राप्त करें । उस के लिए अनेक भवोंसे आहारादि लौकिक दान देनेका अभ्यास होना चाहिये। सारांशतः मोक्षमार्गके लिए दानकार्यकी परम आवश्यकता है। इसके विना यह भव्य मुक्तिसाम्राज्यको सुखसे प्राप्त नहीं कर सकता है । संसार में परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंको स्वर्गमें जाकर कुछ काल विश्रांति मिलती है और वहांके जीव अपनेको सुखी मानते हैं। परंतु मनुष्य लोकमें जो विशिष्टदान देते हैं उससे प्रभावित होकर जब वे पंचाश्चर्य करने के लिए आते हैं तब वे देव अपने जीवनको धिक्कारते हैं कि इसने सब वैभवोंकि होते हुए भी हम पात्रदान नहीं कर सकते Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। केवल उपचारभक्ति करा , मुख्यभक्ति नहीं कर सकते हैं। इसलिए मनुष्यों का ही यह भाग्य है कि जहां पात्रदान देने की पात्रता है। ऐसे दुर्लभ मनुष्यभव, इंद्रियपूर्णता, निरोगशरीर, कुलजातिकी शुद्धि आदि साधनोंको पाकर भी जो दानादिक सत्कार्य नहीं करते हैं तो समझना चाहिये उनका संसार दी है। ___इस ग्रंथमें चतुर्विधदानका सूक्ष्म विवेचन किया गया है। श्री परमपूज्य विद्वान् तपोनिधि स्व. मुनिराज सुधर्मसागरजी महाराज व स्व. धर्मवीर सेठ रावजी सखाराम दोशी की प्रेरणासे इस ग्रंथका मैंने संपादन व अनुवादन किया है । खेद है कि इस ग्रंथके प्रकाशनके समय दोनों महापुरुष यहां नहीं हैं। परंतु आशा है कि परलोकमें उनकी आत्मावोंको शांति होगी। हमें इसके संशोधन के लिए दो ताडपत्र व दो हस्तलिखित इस प्रकार चार प्रतियां मिली थीं। परंतु लेखकोंकी कृपासे. चारों ही प्रतियां अशुद्धियोंसे भरी थीं । तथापि हमने यथामात, आर्षाविरोधसे इस कार्य का संपादन किया है। कहीं दोष नजर आवे तो उसे विद्वद्गण सुधार लेवें वह दोष हमारा समझें । उसके लिए ग्रंथकारको भला बुरा न कहें यह निवेदन है। ग्रंथका प्रकाशन अन्यधार्मिक सज्जनोंके सहयोगसे श्री सेठ गोपिंदनी रावजी दोशीने किया है। हमारे मित्र पं. जिनदासजी शास्त्रीने प्रूफ संशोधनके कार्यमें हमें पूर्ण सहायता दी है। इस लिए उन सब सजनोंके प्रति हम कृतज्ञ हैं। यदि दानकार्यमें उद्युक्त श्रावकोंको इस ग्रंथका उपयोग होजाय तो हम अपना श्रम सफल समझेंगे । इति विनीत वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, . ... ( विद्यावाचस्पति ) . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षिवासुपूज्यविरचित दानशासनम् . मंगलाचरण यस्य पादाब्जसवंधाघ्राणनिर्मुक्तकल्मषाः ... ये भव्याः सति तं देवं जिनेंद्र प्रणमाम्यहम् ॥ १ ॥ अर्थ- जिस भगवंतके अक्षय अनंतगुणों के प्रदान करने में दक्ष ऐसे पादकमलोंके सुगंधको सूंघकर भव्यजन रत्नत्रयात्मक धर्मके पालन करनेसे कर्ममलकलंकसे मुक्त होकर संसारपंकसे छूटते हैं ऐसे जिनेंद्र भगवंतको मैं भक्तिसे नमस्कार करता हूं ॥१॥ - इस प्रकार आचार्य ग्रंथकी निर्विघ्नसमाप्तिके लिये मंगलाचरण कर आगे प्रतिज्ञाश्लोक कहते हैं: अष्टविधदानलक्षण दानं वक्ष्ये न वारीव सस्यसंपत्तिकारणम् । क्षेत्रोप्तं फलतीव स्यात्सर्वस्त्रीषु समं सुखम् ॥२॥ अर्थ-आचार्य परमेष्ठी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस ग्रंथ में दानविषयका निरूपण करेंगे। परंतु सामान्यदानका नहीं। जिसप्रकार लोकमें पानी बरसता, है, वह सभी प्रकारके भूमियोमें जाकर सभी प्रकारको सस्यवृद्धिका कारण बन जाता है और जिस प्रकार सभी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् स्त्रियोंमें समान श्रेणीका सुख है, उस प्रकार हम दानका उद्देश नहीं रखना चाहते हैं, हेयोपादेयज्ञानसे युक्त दानका ही हम निरूपण करेंगे ॥ २ ॥ ग्रंथोपदेश्य पात्र. शुद्धसददृष्टिभिः शुद्धपुण्योपार्जन लपटेः । सार्द्धं ब्रूयादिमं ग्रंथ नेतरैस्तु कदाचन ॥ ३ ॥ अर्थ – यह ग्रंथ पंचविंशति - दोषरहित शुद्ध सम्यग्दृष्टियों को एवं पात्रापात्र के भेदको समझनेवाले सप्तगुणों से युक्त होकर पुण्योपार्जन करने में तत्पर, ऐसे श्रावकोंके लिये ही उपदेश देने योग्य है । अन्य दर्शनज्ञानचारित्रसे रहित मिथ्यात्वियोंके साथ में इस ग्रंथका विवेचन नहीं करना चाहिये || ३ ॥ दत्वा द्वित्रिगुणं करं च सकलां विष्टिं च कृत्वा प्रजाः । सद्दव्यव्ययमात्तवप्रनिचये सम्यक्फले निष्फले ॥ प्रत्यब्दं बहुसुक्रियाः क्रमकृतास्ताभिश्च ताः कुर्वते । मुक्त्वा सत्क्रममुत्तमं सुखभुजो बांछंति जैनास्तथा ॥४॥ अर्थ - प्रजाजन दुगुना तिगुना कर राजाको देते हुए एवं राजाकी अनेक प्रकार से सेवा करते हुए अपनी खेतको फलवान् बनाने के लिये उसमें प्रतिवर्ष बहुत प्रयत्न करते हैं । फिर भी यह निश्चय ही नहीं रहता है कि उसमें सफलता ही हो । पूर्वाचार्यक्रम से आया हुआ दानपूजादिसे उत्पन्न सुखको छोडकर जैन भी उसी प्रकार के सावद्यजनित सुखको चाहने लगे हैं यह आश्चर्य की बात है ॥ ४॥ 1 1 दानका लक्षण धर्मकारणपात्रय धर्मार्थं येन दीयते । यद्दव्यं दानमित्युक्तं तद्धमर्जिन पण्डितैः ॥ ५ ॥ अर्थ -- आत्मीय सद्धर्मोपार्जन के लिये, धर्मानुकूल गार्हस्थ्य धर्मके Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधदानलक्षण AAAAAAAAAAA संचालन के लिये, अभयपरिपालन करनेवाले राजधर्मके पालनके लिये, उपर्युक्त तीनों उद्देश्योंको सिद्ध करने योग्य पात्रोंके लिये जो द्रव्य दिया जाता है, उसे व्यवहार निश्चय धर्मको जाननेवाले विद्वानोमें दान कहा है ॥ ५॥ दानका भेद । सामान्यं दोषदं दानमुत्तमं मध्यमं तथा । जघन्यं सर्वसंकीर्ण कारुण्यौचित्यमष्टधा ॥ ६॥ अर्थ-दान सामान्य, दोषद, उत्तम, मध्यम, जघन्य, संकीर्ण, कारुण्य और औचित्यके भेदसे आठ प्रकारसे वर्णित है ॥ ६ ॥ सामान्यदानलक्षण राजा निजारिकृतसंगरवारणार्थ । प्रस्थापितं बलमिवावति सर्वमन्यैः ॥ जैनोत्सवेऽरिकृतविघ्नविनाशकेभ्यः सामान्यमुक्तमखिलं सुजनैः प्रदत्तम् ॥ ७ ॥ अर्थ-अपमी शत्रुसेनाको निवारण करनेके लिये प्रेषित अपने मित्र राजावोंकी सेनाको राजा जिस प्रकार बहुत आदर विनयके साथ । देखता है, उसी प्रकार जिनोत्सवमें उपस्थित होनेवाले विघ्नोंको दूर करनेके लिये साधर्मि भाईयों के द्वारा दी गई सर्व प्रकारकी सहायता सामान्यदान कहलाता है ॥ ७ ॥ पात्रभेदाननालोच्य जैनान्धर्मेक्षकानपि । सत्कृत्यानादिकं दत्तं दानं सामान्यमुच्यते ॥ ८॥ .. अर्थ-~-पात्रभेदोंका विभाग न करके, जिनोत्सवमें आये हुए जैनि १ उक्तं च--अर्थाद्यवंचको भूत्वाप्यवितुं स्वबलं सदा। दत्ते यथोचितं द्रव्यं दानं सामान्यमीरितं ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् rapan anonoomnomanMan योंको एवं अन्यधर्मप्रेक्षकोंको सत्कार करके भोजनादिसे संतुष्ट करना सामान्यदान' कहलाता है ॥ ८ ॥ दोषददानका लक्षण. निजपापार्जितं द्रव्यं द्विजेभ्यो ददते नृपाः। तैर्नष्टा राजभिर्विप्रा दानं दोषदमुच्यते ॥ ९॥ अर्थ- राजा लोग अपने पापसे उपार्जित द्रव्यको · ब्राह्मणोंको दान देते हैं तथा उन पापोपार्जित द्रव्यसे वे द्विज बिगडते हैं । इस प्रकारके दानको दोषद दान कहते हैं ॥९॥ उत्तमदानका लक्षण श्रीमज्जिनेंद्रसाकल्यरूपधारिमुनीश्वरान् । सत्कृत्य दत्तमन्नादिदानमुत्तममारितम् ॥ १० ॥ अर्थ--श्रीभगवान जिनेंद्रके साक्षात् रूपधारी दिगंबर मुनियोंको सत्कार कर विधिप्रकार आहारादि-दान देना उत्तमदान कहलाता है ॥१० ___ मध्यमजघन्यदान लक्षण. दत्तं मध्यमपात्राय दानं मध्यममुच्यते । द्रव्यं जघन्यपात्राय जघन्यं दानमिष्यते ॥ ११ ॥ अर्थ-एकदेशत्रतवारी मध्यमपात्रके लिए प्रदत्तद्रव्य मध्यमदान और जघन्यपात्र के लिए प्रदत्त द्रव्य जघन्यदान कहलाता है ॥११॥ ___ संकीर्णदानका लक्षण. जिनोत्सवसमाहूतपात्रापात्रादिकानपि । . सत्कृत्य दत्तमन्नादि दानं संकीर्णमीरितं ॥ १२ ॥ अर्थ-जिनोत्सबके लिए निमंत्रित अर्थात् पंचकल्याणिकप्रतिष्टा इत्यादि कार्योमें बुलाए गए अथवा जिनभक्तोंके विवाहादिकार्यों में आमंत्रित पात्र, अपात्र आदिको योग्य उपचार कर आहार, वस्त्र, तांबूल इत्यादिसे सत्कार करना संकीर्णदान कहलाता है ॥ १२ ॥ . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधवानलक्षण AAAMANAN00000 - कारुण्यदानका लक्षण. रोगिणं निगलितं च बाधितं दण्डितं क्षुधितमंबुपातितं । वह्निपीडितमवत्यवेक्ष्य कारुण्यदानमिदमीरितं बुधैः ॥ १३ ॥ अर्थ-रोगी, ग्लानी, बंधनबद्ध, दुःखी, दण्डित, भूखा, पानी में गिरे हुए, अग्निमें जलते हुए मनुष्य को देखकर करुणासे रक्षा करना उसे कारुण्यदान कहते हैं ॥१३॥ औचित्यदानका लक्षण. जैनबंधुयुगसेवनातुरान्स्कंधवाहकजनानपि नीचान् । तर्पयंत्यशनर्वाटिकाभिरौचित्यदानमिदमुक्तमाईतैः ॥ १४ ॥ . अर्थ-जिनेंद्र भगवंतकी सेवा करनेमें तत्पर नीच जात्युत्पन्न पल्लकी ढोनेवाले मनुष्योंका भोजन, तांबूल इत्यादिसे सत्कार करना औचित्यदानके रूपमें जैनाचार्योंने कहा है ॥ १४ ॥ यो राजा वधकोऽनृतो धनहरोऽन्यत्रीहरस्सस्पृहः। संतस्तद्विषयं श्रयंति न सदा नो विश्वसंतीह तं । तस्मै नो ददते धनादि च यथा तद्वद्गुणी धार्मिको । . दाता दानफलान्यथा खलु तथा रत्नानि भाग्यानि च ॥१५ अर्थ-जो राजा हिंसा करता हो, झूठ बोलता हो, परस्त्री और परधनके हरण करनेमें आसक्त हो, लोभी हो, उस राजाके देशको सज्जन लोग आश्रय नहीं करते हैं और न उसे कोई विश्वास करते हैं और उसे धनादिकसे सत्कार भी नहीं करते हैं। इसी प्रकार धार्मिक कहलानेवाले दानी मनवचनकायकी शुद्धिसे रहित होकर हिंसादिक क्रियामें प्रवृत्त होवें तो उन्हे दानका कोई फल नहीं मिल सकता है अपितु उसका ऐश्वर्य पापके कारण दिनप्रति दिन घटता ही जाता है ॥१५|| १ यो दत्ते गायकादिभ्यः काले काले यथोचितं । ज्ञात्वापवाभीत्या वा दानमौचित्यमीरितं ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् 2 कलिकालके राजा. टंका इव राजानः सुकृतशिलोच्चयविदारका एव स्युः। पुण्यं पहिजलमिव ते नदीरया विचिन्वते पापं ॥१६॥ अर्थ-कलिकालके राजा टंकेके समान होते हैं । जिस प्रकार टंक पत्थरको विदारित करता है, उसी प्रकार वे भी पुण्यरूपी शिलाको विदारित करते हैं। वे लोग कुएके जलके समान पुण्य और नदीके जलके समान पापको अर्जन करते हैं अर्थात् थोडा तो पुण्य और बहुत पाप अर्जन करते हैं ॥ १६ ॥ भक्तद्वेषी खलप्रीतः सतृष्णो हितरुड्जडः । मोहवानाहितेच्छो वा ज्वरी वा भाति भूपतिः ॥ १० ॥ अर्थ-पापोदयसे वह राजा भक्तोंका द्वेषी, दुर्जनोंका मित्रा लोभी, हितैषियोंका शत्रु, अज्ञानी एवं अपने अहितको चाहनेवाला एक ज्वरग्रस्त मनुष्यके समान रहता है ॥ १७॥ और भी इसी विषयको स्पष्ट करते हैं. यद्यद्वर्णानुसंक्रांतास्तत्तद्वर्णानुगामिनः । स्फटिका इव राजानो भासते गणिका इव ॥ १८ ॥ अर्थ-दुहृदय के राजागग वेश्यावोंके समान होते हैं। जिस प्रकार स्फटिक जिस २ वर्णके पदार्थोंसे घिरता हो उसीका अनुकरण करता है अर्थात् उसी वर्णसे दिखता है। उसी प्रकार कलिकालके राजा जैसा रंग दीखें वैसे पलटते जाते हैं। राजावोंका हृदय विश्वास करनेयोग्य नहीं है ॥ १८ ॥ दुर्भावास्सकषायाश्च कृतदानतपःफलाः ।। जीवा भवंति राजानः पापकृत्पुण्यवर्द्धनाः ॥ १९ ॥ अर्थ-पूर्वजन्ममें जिन्होंने खोटे भाव और कषायोंसे युक्त होकर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधदानलक्षणे दान, तप इत्यादि किए हों, ऐसे जीव पापाभिवृद्धि के लिए प्राप्त पुण्यसे राजा होकर इस भवमें उत्पन्न होते हैं ॥ १९ ॥ राजदेहका सामर्थ्य ये सततलसोधस्य भारमेव वहति ते । सारस्तंभा इवाभांति राजानः पापपुण्यकाः ॥ २० ॥ अर्थ-जिस प्रकार कोई मजबूत खंबे सातमंजिलकी महलका भी भार धारण करनेके लिए समर्थ होते हैं, उसी प्रकार राजदेह भी प्रजावोंके दुष्टशिष्ट व्यवहारोंमें योग देकर पुण्य-पापोंका उपार्जन करते हैं ॥ २०॥ आत्मकृतपुण्यशक्तिः स्वार्जितबहुपापभारवहनाय स्यात् । व्याघ्रस्य सर्वमृगपशुवधपटुता पापभारवहनायैव ॥ २१ ॥ अर्थ-संपूर्ण प्राणियोंको मारने में प्राप्तचातुर्य व्याघ्रके लिए पापोपार्जन का ही कारण है, उसी प्रकार दुष्ट राजावोंके द्वारा उपार्जित पुण्य केवल पापभारको वहन करनेके लिए ही होता है ॥ २१ ॥ ब्राह्मणशरीरका सामर्थ्य । रंभास्तंभा यथा सोधभारमत्र वहंति किं । विमा रंभोपमा राजपापभारं वहति किं ॥ २२ ॥ अर्थ--के छेके वृक्षका खंभा क्या महलके भारको धारण करसकता है ? नहीं । इसी प्रकार क्या राजाके पापके भारको ब्राह्मण धारण कर सकते हैं ? नहीं ।। २२ ॥ षोडशवर्णसुवर्ण सुरत्नसंकीलनोचितं नान्यस्मै । घोडं सुशास्त्रभार दक्षा विभा न पापभारं नैव ॥ २३ ॥ अर्थ-जिसप्रकार सोलहटंचका सोना रत्नोंको धारण करनेके लिये योग्य होता है अर्थात् शुद्ध सोनेमें रत्न जडनेसे विशेष शोभा आती है, अन्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशसिनम् कार्यो में वह नहीं लिया जाता, इसी प्रकार ब्राह्मण भी शास्त्रोंके ज्ञानभारको वहन करनेके लिये समर्थ हैं। पापभारको धारण करनेके लिये वह योग्य नहीं है ॥ २३ ॥ शालिसस्योपमा विप्रा नित्यपुण्यक्रियान्विताः । राजानोऽद्रिनिभास्तेषां तेऽघभारं वहति किं ॥ २४ ॥ अर्थ -- नित्य पुण्यक्रियामें संलग्न ब्राह्मण शालिसस्य (धान) के समान है, राजा लोग पहाड के समान हैं, इसलिये राजावों के पापभारको वे ब्राह्मण किस प्रकार धारण कर सकते हैं ? ॥ २४ ॥ शरस्त्वक्सारवन्न स्याच्छियुः खदिरवन्न च काराचवन मंदारो विप्रो भूपालवन्न च ॥ २५ ॥ अर्थ -- जिसप्रकार लोकमें दर्भ बांसके समान नहीं हो सकता है । सैंजिनका पेड खैर के समान नहीं होसकता है । मंदारवृक्ष काराचके समान नहीं बन सकता है। इसी प्रकार ब्राह्मण राजाके समान कभी नहीं बन सकता है ॥ २५ ॥ कुदान स्वरूप. पापार्पितार्थदाता स्याद्राजा क्ष्वेडान्नदातृवत् । विप्रः पापार्थमादाता मृतिमेति शुको यथा ॥ २६ ॥ अर्थ - पापोपार्जित धनको दान करनेवाला राजा विषमिश्रित अन्नको दान करनेवाले के समान है । उस पापधनको लेनेवाला ब्राह्मण विषाहारपरीक्षित तोते के समान मरणको प्राप्त करता है अर्थात् भ्रष्ट होता है ॥ २६ ॥ वस्त्रं कच्चरमग्निदग्धमनवं भिन्नं नवं खण्डितम् । स्त्रीकीलाखुभिरर्जुनं सकपटं सम्यक्परीक्ष्याधिपाः ॥ आहारादिसुभोज्यवस्तु सकलं दाने स्वभ्रुक्तौ सदा । भुंजाना दुरितार्पितं धनमलं यच्छंति चित्रं नृपाः ॥ २७॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधदानलक्षण normore ... अर्थ-राजगण अपने भोगोपभोग में और बंधुबांधवोंके रक्षणमें अत्यंत सावधान रहते हैं । वे अपने परिभोगके लिए अथवा स्वजनोंके उपयोगके योग्य, खराब, अग्निसे जला हुआ, पुराना, नवीन अपितु खंडित, दीमक लगा हुआ, चूहेसे काटा हुआ वस्त्र काममें नहीं लेते हैं । चांदीसे मिला हुआ सोना भी काममें नहीं लेते हैं। आहारादि द्रव्योंको अपने तथा दूसरोंके उपयोगमें लेते समय अच्छी सरह परीक्षा कर लेते हैं । फिर भी आश्चर्यकी बात यह है कि राजगण पापार्जितद्रव्य दानमें देते हैं ॥ २७ ॥ प्रज्वलज्ज्चालकं वन्हिमादाय स सृणालयं । दहन्दापयिता दानमेनोऽर्पितमिवाबभौ ॥ २८ ॥ अर्थ--जो व्यक्ति इस प्रकार पापोपार्जित द्रव्यको राजासे दान दिगता हो. वह सचमुच में जलती हुई अग्निको ले आकर घासके मकान में डाल रहा है ऐसा समझना चाहिये ॥ २८ ॥ ........ कुदानफल. .. पूर्वाघतोऽधजाता सहस्राधिका वहन् । :: शिष्टविप्रकुलद्रोहाहाता गच्छति दुर्गतिम् ॥ २९ ॥ ___ अर्थ-शिष्टब्राह्मणोंके कुलद्रोही राजा पापार्जित धनको दान देकर पहिलेकी अपेक्षा भी सहस्रगुना पाप कमाकर परभवमें नरकादिदुर्गति को प्राप्त करता है ॥ २९ ॥ सहनशीलता. दृष्ट्वाशीविषदष्टदुस्स्थलामिदं पीत्वा विषं भो भिषक् ।। दत्वा श्वेडहरौषधं विषमरं प्रोन्मूल्य मां रक्षतात् ॥ इत्यानम्रकुदृष्टिवन भव भो धर्मज्ञवैधातुरा- । वेवं वीरतरौ भटाविव सदा तेषामधीशामिव ॥ ३० ॥ अर्थ--आशीविषसर्पके द्वारा काटा गया मनुष्य दीनताको धारण Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासन कर वैद्यसे जिस प्रकार कहता है कि " कृपानिधान वैद्यराज! मेरे ऊपर दया करके सर्पके द्वारा काटे हुए स्थलको आप देखकर तथा चसकर विषहर औषधि देकर मेरी रक्षा कीजिये ", आचार्य कहते हैं कि भो धर्मको जाननेवाले पुरुष ! तू उस प्रकार दीनता धारण न कर ! एक होशियार वैद्यके समान, रणभटके समान या सेनापतिके समान बनना सीखो । सारांश यह है कि कष्टकालमें भी दीनता धारण न कर धैर्यके साथ उसे सहन करना चाहिये ॥ ३० ॥ गायत्री दोषही यदुदितबलतो राजपापार्पितार्थ । स्वीकुर्वन्मयंदोषं हरति किळ सदा ध्यायतां ब्राह्मणानां ॥ विघ्नांस्तैरुत्थिताघं तदितबलवदीनतायाचकत्वं । तज्जं किं हंति वंध्यातुजफलसदृशं नार्थनां पुण्यदानं ॥३१ । अर्थ- ब्राह्मणोंका गायत्री-मंत्र (पंच नमस्कार-मंत्र ) सर्व दोषको दूर करनेवाला है । जिसके उदयसे यह मनुष्य राजाके पापोपार्जित दोषको भी दूर कर सकता है। बडे २ विघ्न उससे दूर होते हैं । राजाके आश्रयको पाकर पापधनके लिए दीनता या याचकवृत्ति करने में कोई लाभ नहीं है । वह वंध्यासुतके समान कोई फल देनेवाली क्रिया नहीं है । इससे पुण्य लाभके बजाय पापका ही संचय होता है ॥३१॥ फलकच्छत्रकवचकरा इव दयालवः । निर्दोषाहारदातेव पात्रदातार उत्तमाः ॥ ३२ ॥ अर्थ-युद्धस्थानमें काममें आनेयोग्य ढालकी मूठ, कवच, छत्रको तैयार करनेवाले जिसप्रकार दयालु होते हैं, जिस प्रकार निर्दोष आहार देनेवाला दयालु होता है उसी प्रकार निर्दोष पात्रको दयासे दान देनेवाले उत्तम दाता कहलाते हैं ॥ ३२ ॥ रजकाः कच्चरं क्षारचूर्णादिविधिभिर्यथा । पूतं कुर्वति गुरवो राजापं नाशयत्ययः ॥ ३३ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधदानलक्षण - - अर्थ-जिस प्रकार धोबी वस्त्रको मसाला, सोडा इत्यादिसे धोकर साफ करते हैं उसी प्रकार गुरुजन राजाके पापको पुण्योंके द्वारा दूर करते हैं॥ ३३ ॥ किं नीचकल्पिताहारमाहरन्युत्तमा यथा। तथा पापार्पितं दव्यं न गृह्णन्ति द्विजोत्तमाः ॥ ३४ ॥ अर्थ-क्या नीचकुलोत्पन्नोंके द्वारा पकाये हुए भोजनको उत्तम मनुष्य ग्रहण करते हैं ? नहीं । इसीप्रकार उत्तमद्विज पापसे कमाये हुए द्रव्यको ग्रहण नहीं करते हैं ॥ ३४ ॥ परस्त्रीजारसंधानकारिणं च यथा नृपः । साधं दापयितारं यद्यापयिष्यति दुर्गति ॥ ३५ ॥ अर्थ-धर्मात्मा राजा जिसप्रकार परस्त्रीलंपटी, अन्यायी, चोर इत्यादिको दण्ड देता है उसी प्रकार पापोपार्जित धनको दान देनेवाला राजा भी नरकादि दुर्गतिको प्राप्त करता है ॥ ३५ ॥ बालोप्यन्यधनादाने पापमित्युदिते सति । मुक्त्वा धावत्यस्पृशन्स वालादालोऽपि वस्तुहृत् ॥ ३६॥ अर्थ--परपदार्थोके ग्रहण करने में तत्पर ऐसे बालकको भी यदि यह . कहदिया जाय कि छे ! यह परपदार्थ है इसको ग्रहण करना पाप है तो वह उसको छोडकर दौडता है । ऐसी अवस्थामें पापाचरणसे द्रव्य कमानेवाला राजा बालकसे भी अधिक मूर्ख है ॥ ३६ ॥ न वांच्छंति न श्रुण्वंति न स्मरंति यथा बुधाः । . वाग्दत्तकन्यां भूपाघदत्तं वित्तं तथा द्विजाः ॥ ३७॥ अर्थ-जिस प्रकार दूसरोंको वाग्दानपूर्वक दी हुई कन्याको उत्तम पुरुष इच्छा नहीं करते हैं और न स्मरण करते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण लोग राजाके पापोपार्जित धनके दानकी बांछा न करें ॥ ३७ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दानशासनम् ग्राह्योर्थः सागसां राज्ञा नान्यैरत्र यथा तथा । धर्मापराधिनां देवपूजायोग्यो बुधैर्न च ॥ ३८ ॥ अर्थ - पापी राजावों का धन राजावोंके द्वारा ही ग्रहण करने योग्य हैं । अन्योंके द्वारा नहीं । अथवा इस लोकमें धर्मापराधियोंका द्रव्य देवपूजादि कार्य में लिया जा सकता है। अन्य उत्तम पुरुष उसे ग्रहण नहीं करें ॥ ३८ ॥ इसलिए दाता और पात्रकी प्रवृत्ति निर्दोष होनेपर ही दानकी यथार्थ सिद्धि होती है 1 इत्यष्टविधदानलक्षणम् । १ चण्डांशोरवलोकनादिव जगद्भ। त्यंधकारैर्भृतं कल्याणं च सकालिक हुतभुजस्तापाद्यथा शुध्यति । तद्वद्भानुर्हिमाशुकोटिसदृशप्रद्योत तीर्थंकरश्री पूजोत्सवसे वनोचितमिदं दुष्टेन दत्तं धनम् || किंच सागसोर्थो नृपैस्सेव्यो न सेव्यो नृपसेवकैः देवपूजोचित दोषि वित्तं नान्यस्य चोचितं ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानविधिद्रव्यदातपात्रलक्षण दानविधिद्रव्यदातृपात्रलक्षण. प्रणम्य जिनभास्वंतमज्ञानध्वांतभेदिनं । विध्यर्थपात्रदातॄणां वक्ष्ये लक्षणमुत्तमम् ॥ १ ॥ अर्थ--अज्ञानरूपी अंधकारको नाश करनेवाले जिनेंद्रसूर्यको नमस्कार कर उत्तम दानकी विधि, द्रव्य, दाता और पात्रका रक्षण कहूंगा । इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥ येऽन्यानन्यधनानि चान्यसुकृतान्यन्याघमन्यार्जितं । त्रैरत्नं परदृष्टिबोधचरितं दुर्वृत्तमन्यस्य वा । दातारः समनुग्रहाय ददते दानानि चात्मक्षयम् पात्रापात्रविचारशून्यमनसः कर्माणि ते चिन्वते ॥२॥ __ अर्थ-कोई पात्र अपात्रके विवेकरहित मनुष्य दूसरों के प्रति अनु ग्रहसे, दूसरोंके धनको, दूसरोंके पुण्यको प्राप्त करनेके लिये, दूसरोंके दर्शन ज्ञान चारित्रकी वृद्धिकेलिये, अथवा कुसंयमकी वृद्धिकेलिये, या उनकेप्रति दया करनेकेलिये दान देता है परंतु वह सब पुण्यके लिये नहीं होता है उससे पापार्जन होता है ॥ २ ॥ ... वैर व्याधिरघं च नश्यति लसत्पुण्यं दया वर्द्धते । भूताः पंच वशीभवति रिपवो मित्राणि के बंधवः सद्धर्मानुगुणास्सधर्मचरिताः के धार्मिकाः सदृशः शुद्धाः स्युर्गुरवो वृषे निजनिजेष्टार्थप्रदानेन के ॥ ३ ॥ अर्थ- इस लोकमें समस्त प्राणियोंको उनके मनोनुकूल इष्ट १. दानेन तिष्ठंति यशांसि लोके दानेन भोगाः सुलभा नराणाम् दानेन वश्या रिपवो भवंति तस्मात्सुदानं सततं प्रदेयम् ॥ दानेन भूतानि बशीभवंति दानेन वैराप्यपि यांति नाशम् परोपि बंधुत्वमुपैति दानाहानं तु सर्वव्यसनानि हंति ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दानशासनम् पदार्थोंका दान देनेसे वैर और व्याधिका नाश होता है । पापका नाश और पुण्य और दयाकी वृद्धि होती है । पंचभूत वश होते हैं । शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, कोई बंधु बन जाते हैं। कोई धर्मकार्यों में अनुकूल बन जाते हैं, कोई धर्माचरण करने लगजाते हैं। कोई धार्मिक और सम्यग्दृष्टि बनाते हैं । कोई अंतःकरणशुद्धवाले गुरु बन जाते हैं ॥ ३ ॥ सत्पात्रदानमनघं कुरुते सुपुण्यं पापं निर्हति सरुजं सकळांतरायं ॥ स्वर्गादिजातमयं च सुखं ददाति । तस्मिन्गृहे क्षरति रत्न हिरण्यवृष्टिं ॥ ४ ॥ अर्थ - निर्दोष सत्पात्रदान पुण्यकी वृद्धि करता है, पापको नाश करता है, स्वर्गादिमें उत्पन्न अक्षय सुखको उत्पन्न करता है, इतनाही नहीं उस घर में रत्नवृष्टि सुवर्णवृष्टिको भी करता है ॥ ४ ॥ सत्पात्रदानैर्भुवनत्रयेऽपि प्रोद्दीप्तकीर्तिद्युतिपूर्ण लेोकान् । जैनेंद्रभक्तानभिवृद्धसै। ख्यान् शंसंति देवाश्च नराश्च नागाः ५ अर्थ — सत्पात्रदान के द्वारा जिनका कीर्तिसूर्य तीन लोक में फैल गया है, जिनकी जिनभक्ति वृद्धिंगत होगई है, सुख जिनका बढ गया है। ऐसे भव्योंकी देवेंद्र चक्रवर्ति और नागेंद्र भी प्रशंसा करते हैं ॥ ५ ॥ शांतां-गुप्तियुतान भग्नचरितान् जैनेषु नीचान्यथा । दातृन्वीक्ष्य जना नमंति रिपवो निर्णाशयंतः स्वयम् । नश्यति क्षितिपास्तरक्षुभुजगाः क्रूरा प्रशांताशया नो पश्यन्ति हितं वदति मनुजाः सेवां सदा कुर्वते ||६|| १ अज्ञानी क्षपयेत्कर्म यज्जन्मशतकोटिभिः तदज्ञानी तु त्रिगुप्तात्मा नित्यं तर्मुहूर्ततः ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाविधिद्रव्यदातपात्रलक्षण अर्थ-शांत, गुप्तियुक्त, सुंदरचरित्र ऐसे दातावोंको देखकर ममुष्य विनय करते हैं। शत्रु स्वयं नाशको प्राप्त होते हैं, कषायसे दूषित राजा शांतिको प्राप्त करते हैं, शेर, सर्प सरीखे क्रूर प्राणी प्रशांत होते हैं और ऐसे व्यक्तिको वे क्रूर प्राणी स्पर्श भी नहीं करते हैं। मनुष्य हितवचन बोलते हुए सदा सेवामें तत्पर रहते हैं ॥ ६ ॥ कुलाचलोत्पन्ननदीव केचित् । वर्षाचलोत्पन्ननदीव केचित् ॥ नदीव वन्या कतिचिच्च केचित् । तटाकतोयोच्छ्रसनं यथा स्युः ॥ ७॥ अर्थ-कोई दाता कुलाचल पर्वतोंसे निकलनेवाली नदियोंके समान हैं जिनमें सदा पानी बहता रहता है, कोई दाता बरसातके समयमें बहनेवाले नदियोंके समान है अर्थात् कुछ महिने तक ही बरसातकी नदियां बहती हैं, और कोई दाता जंगलके नदियोके समान है । कोई तालाव को फोडकर बहनेवाले जलके समान है ॥७॥ नदीतटद्वयोत्पन्ना यथाशरमहीक्षवः सर्पाचावासभूताः स्युर्न परोपकृतिक्षमाः ॥ ८॥ अर्य-नदीके दोनो तट में उत्पन्न दर्भ और जंगली ईख सदि दुष्ट प्राणियोंके निवास के लिये काम में आते हैं। परोपकार कर. नेके काम में नहीं आसकते हैं । इसी प्रकार जो अपात्रोंको दान देते हैं वे दुष्कार्योकी वृद्धि में सहायता पहुंचाते हैं, सत्पात्रोंका उपकार नहीं करते हैं ॥ ८ ॥ पात्राणि मत्वा ददते कुदृग्भ्यो । वित्तानि मिथ्यात्वमुपत्रनंति ॥ दुष्टाय दुष्टत्वमयंति मूढाः । पापाय येऽहांसि च येत्र ते ते ॥९॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. दानेशासनम् अर्थ — जो अज्ञानी जीव मिथ्यात्वियोंको योग्य पात्र समझकर दान देता हो वह मिथ्यात्व कोही प्राप्त करता है, वैसेही पापियोंको देवे तो पापको प्राप्त करता है, दुष्टको देता हो तो दुष्टताको प्राप्त करता है । जो जैसा करे वैसा भरे यह लोक में कहावत प्रसिद्ध है । इस लिये योग्य पात्रको देखकरही दान देना चाहिये ॥ ९ ॥ क्रोधिभ्यो लभते क्रोधं रिपुभ्यो रिपुतामपि । जारत्वमेव जारेभ्यश्चोरेभ्यश्चोरतां तथा ॥ १० ॥ अर्थ - क्रोधियोंको दान देनेसे क्रोधको प्राप्त करता है शत्रुषोंको दान देने से वैरभावको प्राप्त करता है, जारोंको दान देकर विटत्व और चोरोंको दान देकर चौर्यभावको प्राप्त करता है ॥ १० ॥ धान्यानि सर्वाण्यपि धान्यवद्भ्यो । "वित्तानि दत्वाददते प्रजाश्च । दानानि दत्वाप्यघपुण्यवद्भ्यः || पापानि पुण्यानि यथा तथैव ॥ ११ ॥ अर्थ - जिस प्रकार ठोक में धन देकर धान्यवालोंसे धान्य खरीदते हैं इसीप्रकार दानरूपी धन देकर पापियोंसे पाप और पुण्यात्मानोंसे पुण्य खरीदते हैं ॥ ११ ॥ 'सर्वासु स्त्रीषु सौख्यं सममिति मनुते गौरिवाश्नन् स लोकः । सर्वोवबीजं फलति बहुफलं लोकादो न शास्त्रम् ॥ भूगेहार्थप्रदाता पतिरिपुपुरनेता गुरुः पौरमया । मित्राणीवाद्य संतः सुखमसुखयशोबंधवः कार्षिको में ॥ स्यादन्यासु सुखं न धर्मकुल सत्पुण्याभिवृद्धिर्न च । स्वस्त्रीवस्ति सुखं स्वधर्मकुलसत्पुण्याभिवृद्धिस्तथा || Fararaon सेवानिह धनै रक्षति भूपा यथा । स्वस्वाम्याश्रित संघ मेव सुदृशोऽप्यर्चन्ति पुण्याय च ॥ १३ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानावधिद्रव्यदातपात्रलक्षण 'अर्थ-अज्ञानीजन पशूके समान सभी स्त्रियोमें समान सुख है ऐसा समझता है एवं सभी भूमियोंमें बोया हुआ बीज समान फलको देनेवाला है ऐसा मानता है । भूमि गृह और द्रव्यको देनेवाला मेरा स्वामी, राजा, मेरा गुरु, पुरवासी, मेरे मित्रा, मेरे सुखदुःखमें साथ आनेवाले मेरे बंधु इस प्रकार समझनेवाले कृषिक अन्य स्त्रियोमें सुख नहीं मानता है । उससे अपना धर्म, कुल व पुण्य का नाश होता है । इसलिये पात्रका विचार अवश्य करना चाहिये ऐसा समझकर वह, अपनी स्त्रीमें सुख 'धर्म, कुल और पुण्यकी वृद्धि है ऐसा समझता है । जिस प्रकार अपने आश्रित प्रजाओंकी धनधान्यादिसे राजा रक्षा करते हैं उसी प्रकार जिनेंद्रमार्गके आश्रित संघकी रक्षा करना यह प्रत्येक सम्यग्दृष्टिका कर्तव्य है उससे उनके पुण्यकी वृद्धि भी होती है ॥ १२ ॥ १३ ॥ श्रीजैनेंद्रोत्सवाय प्रविमलवृषसंवर्द्धनायैव दात्रा । दानं प्रोक्तं सरत्नत्रय शुभजनसंपुष्टये दत्तवित्तम् ॥ . स्वस्यापि श्रेयसे यत्मविततयशसे शुद्धपुण्यार्जनाय । स्वाधीनान्कर्तुमन्यानितरजनकृतस्यांतरायस्थ हो॥ १४ ॥ अर्थ-श्रीजैनधर्मकी प्रभावनाके लिये, निर्मलशासनकी वृद्धि के लिये, रत्नत्रयधारियोंके पोषणके लिये, एवं अपने कल्याणके लिये, यशके लिये पुण्यके प्राप्तिकं लिये, दूसरोंको अपने आधीनमें करनेके लिये, दूसरों के द्वारा जिनमार्ग में किये गये अंतरायोंको दूर करने के लिये दान कहा गया है, दानसे इतने उद्देश्योंकी पूर्ति होती है॥ १४ ॥ सत्पात्रदानका माहात्म्य. दानेन भोगं दयया सुरूपं ध्यानेन मोक्षं तपसेष्टसिद्धिं ॥ सत्येन वाक्यं प्रशमेन पूजां वृत्तेन जन्मानमुपैति मर्त्यः ॥ अर्थ-इस लोकमें मनुष्य दानसे भोग, दयासे सुंदर रूप, ध्यानसे Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासन मोक्ष, तपसे इष्टकार्यकी सिद्धि, सत्यसे वचन शुद्धि, शांतिसे पूजा, और चारित्रसे संसारके अंतको प्राप्त करता है ॥ १५ ॥ दान सुभोजनके समान है. तपोऽशनं वृत्तमशेषशाकता दयाज्यदुग्धं मधुरो रसः शमः ॥ ऋतं हितं ध्यानमतीव लोलता विभाति दानं च सुभोजनं यथा ॥ अर्थ- द्वादश प्रकारके तप करना यह आहार है, चारित्रका पालन करना यह शाकभाजी है, दया उसमें घी और दूध है, शांति मीठा रस है, सत्य उस भोजनका पथ्य है । ध्यान उस भोजनकी रुचि है। दान उसमें भी स्वर्गीय भोजनके समान है। जिस प्रकार अच्छा भोजन करनेसे मनुष्यको तात्कालिक आनंद होता है उसी प्रकार इन गुणोंके धारण करनेसे अतुल आनंद होता है ॥१६॥ सुक्षेत्र मुतपो दयाहृदयं ज्ञानं सुवृष्टिः शमः । सस्याम्कानकरो गुणोप्यऽविरतं सत्यं सुवर्द्धिष्णुता ॥ दानं बीजमशेषवृत्तममलः सूर्यश्च पुण्यैषिणोप्येतस्सप्तगुणैरशेषसुकृतं संचिन्वते धार्मिकाः ॥ १७॥ अर्थ-तप एक उत्तम क्षेत्र ( खेत ) है, दयासे पूर्ण हृदय व ज्ञान बरसात है, सस्योंको प्रफुल्ल करनेवाला गुण शांति है, निर्दोषवचन सस्यों को बढानेवाले सूर्यकिरणोंके समान हैं। दान उस खेतकेलिये बीज के समान है। निरतिचार चारित्र दुरितांधकारको दूर करनेवाले निर्मल सूर्यबिंब के समान है। पुण्यको चाहनेवाले धार्मिक पुरुष इन सप्तगुणोंको धारण कर सदाकाल पुण्यार्जन करते हैं ॥ १७ ॥ सत्पात्रका आदर और अनादर करनका फल. सदादरेणैव ददाति दानं ।। लक्ष्मीः सदा भोगकरी मनोज्ञा ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानविधिद्रव्यदातृपात्रलक्षण अनादरेणैव सुपात्रदानं । लक्ष्मीः सदा भोगविवर्जिता स्यात् ॥ १८ ॥ अर्ध- जो व्यक्ति आदरसे सुपात्रदान देता है उसकी संपत्ति इच्छितरूपसे भोग के काम में आती है । जो निरादर भावसे पात्रदान देता है उसकी संपत्ति भोगके काममें नही आती है ||१८|| १९ अनादरकृतं सुदानमतुलानि धत्ते सदा । फलान्यविकलानि तैरनुभवो न तस्येष्टदः ।। असाध्यरुजयाथवा बहुमिषात्प्रभस्सेवया | सुखं न लभते लसद्विभवदेवबिंबं यथा ॥ १९ ॥ अर्थ -- यद्यपि अनादरभाव से दिया हुआ सुपात्रदान सभी फलोंको देनेवाला होता है परंतु उसे असाध्य रोग के कारणसे, स्वामिसेवा के कारण से, या और कोई कारण से सुख नहीं मिलता है; जैसे देवप्रतिमा यद्यपि चामर, छत्रादि वैभवसे सजी हुई दीखती है परंतु उस वैभवका अनुभव वह नहीं सकती है वैसे संपत्ति के प्राप्त होनेपर भी सुख नहीं मिलना यह अनादरकृत दानका फल है ॥ १९ ॥ पात्रदान से दोषनाश और गुणलाभ. वातघ्नो मलमूत्रकृच्छ्रकहरो दुष्पित्तनुत्पुष्टिकृत् । मेघाबुद्धिबलांगकांतिकरणः पापच्छिदग्निमदः || ज्ञानावरणापही बहुगुणः शीतः सुसेव्यो बुधैः । गव्याधार इवाप्यदभ्रगुणदो वर्षानुवत्सादरः ॥ २० ॥ अर्थ - जिस प्रकार गायका घी यदि विधिपूर्वक सेवन किया जाय तो वह वातरोगको दूर करता है, मलमूत्रके विकारको नष्ट करता है । थकावटको दूर करता है, पित्तोद्रेकको हटाता है, शरीरको बल देता है, मेधा - बुद्धि और शरीरकी कांतिको बढाता है, प्यासको दूर करता है, अनि तेज करता है, दृष्टिदोष, बुद्धिविकार इत्यादि दोषोंको दूर Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दानशासनम् करता है, ठण्डा है, एवं सर्वजनोंसे सेव्य है उसी प्रकार जो व्यक्ति बहुत आदरपूर्वक दान देता है, उसका पापरूपी वात नाश होता है । उसका कर्ममल नष्ट होता है, उसकी तेज बुद्धि तेज होजाती है, पाप का नाश होकर पुण्यकी वृद्धि होती है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म दूर हो जाता है । वह शांत बनता है । विद्वानों द्वारा आदरणीय होता है । इस प्रकार आदरभावसे पात्रदान देने में बलुतसे गुण प्राप्त होते हैं ॥ २०॥ दया गंगेव कुल्याचदादरः सादरी जनः ।। पुण्यपूरगिरिः पात्रं स्यानदीमातृको यथा ॥ २१ ॥ अर्थ- मनुष्य के हृदय में जो दया है वह गंगानदी के समान है । उसके हृदय का जो आदर वह नहरके समान है, वह आदरसहित मनुष्य उस नदीके उत्पन्न करनेवाला पर्वतके समान है । जो पुण्यप्रवाहको जन्म देता है । पात्र उस नदीके द्वारा जल प्राप्त करनेवाले देशोंके समान है ॥ २१ ॥ न क्रोधो न च मत्सरो न च मदो माया न कामो न न। द्वेषो मोहसरागदर्पमदना लोभो भवेत्तस्य न ॥ सम्यक्त्वव्रतगुप्तिपंचसमितिष्वासक्तिरभ्यासता। नित्यं पुण्यविचारता निपुणता दानेषु यत्रादरः ॥ २२ ॥ अर्थ-जिस भव्यको दान देने में आदर है उसको क्रोध, मात्सर्य, मद, माया, काम, द्वेष, मोह, गर्व, विषयाभिलाषा इत्यादि दोष दूषित नहीं करते हैं । परंतु सम्यक्त्व, व्रत, गुप्ति, समिति इत्यादि पुण्यविचारोमें आसक्ति, नित्य पुण्य विषयोंका विचार करना, सर्व कार्योमें नैपुण्य इत्यादि गुण उसको प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ पात्रप्रेमका फल आधयो व्याधयो न स्युर्बाधाराजादिसंभवा । जनः प्रियंवदस्तत्र यत्रास्ते सादरी जनः ॥ २३ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानविधिद्रव्यदातपात्रलक्षण अर्थ-जिस देशके मनुष्य दानादिकार्यों में आदरयुक्त हैं उस देशमें आधि व्याधि इत्यादि नष्ट होते हैं । राजादिकोंके द्वारा उत्पन्न बाधा भी नष्ट होती हैं । मनुष्य सब प्रीतिकर वचन बोलते हैं ॥ २३ ॥ ...: केदारोले शालिबीजेप्यनंता ( ? )। . नश्यंतीवानंतकर्माणि जीवे ॥ . नश्यंत्यस्मिन्सादरे तं श्रयंति । क्षुद्रा नद्यस्ता नदीस्ताः समुद्रम् ॥ २४ ॥ अर्थ--कुटकीके बीज जिस भूमिमें बोया हो वहांके सर्व तृण सस्य वगैरेह नष्ट होते हैं, उसी प्रकार आदरसहित दानसे जीवके अनंतभवके कर्म भी नष्ट होते हैं। जिस प्रकार छोटी नदियां बडी नदीयोंको, बडी नदियां समुद्रको जा मिलती हैं इसी प्रकार सभी पात्र ष अन्य मनुष्य उस दानीके आश्रयमें आते हैं ॥ २४ ॥ सस्या विनश्यति यदाश्रितानि पद्माकर निर्जलमाश्रिताश्च ॥ अनादरं दातृजनं च भूपं भक्तास्तथा साधुजना प्रजाश्च ॥२५॥ अर्थ-निर्जल तालाबको आश्रित सस्य जिस प्रकार नष्ट होते हैं उसी प्रकार निरादर करनेवाले दाता, राजा वगैरहका आश्रय लेनेवाले भक्त प्रजा व सज्जन नष्ट होते हैं ॥ २५ ॥ दानके पांच दोष. अनादरी विलंबश्च वैमुख्यं चाप्रियं वचः। पश्चाद्भवति संतापी दानदूषणपंचकम् ॥ २६ ॥ - अर्थ-पात्रके प्रति निरादर करना, देरीसे दान देना, मुनियोंको देखकर भी नहीं देखासा करना, हितमितमधुर-वचन नहीं बोलना, दान देने के बाद पश्चात्ताप करना थे पांच दानके लिए दूषण हैं ॥२६॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दानशासनम् .. दानके गुणपंचक. आनंदाश्रूणि रोमाणि बहुमानं प्रियं वचः । किंचानुमोदनं दानं दानभूषण पंचकम् ॥ २७ ॥ अर्थ-पात्रोंको देखकर आनंदाश्रु बहना, रोमांच होना, पात्रोंका भादर करना, प्रिय वचन बोलना, पात्रदानके बादमें संतोष होना ये पांच दानके लिये भूषण हैं ॥२७॥ इत्युत्तमपात्रसामान्यविधिः Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण चतुर्विधदाननिरूपण अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधं । दानं सुधीभिरित्युक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रितम् ॥ १ ॥ अर्थ-महर्षियोंके द्वारा दान अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदानके भेदसे चारप्रकारसे वर्णित है। चारों प्रकारके दान पात्रोंके प्रति भक्ति और अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये ॥१॥ चतुर्णामिह दातृणां वरेण्योऽभयदानवान् । तस्मादादावह वक्ष्ये तस्य दानस्य लक्षणं ॥२॥ अर्थ--चारों प्रकारके दान देनवाले दातावो में अभयदान देनेवाला श्रेष्ठ कहलाता है । इसलिये आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं कि सबसे पहिले उसी अभयदानका लक्षण कहेंगे ॥ २ ॥ भीत्वागत्य पलाय्य दुष्टमृगचौरामित्रभूपादिभिः । स्वावासं स्वपुरं स्वदेशमबलान्मान्स्वपृष्ठं गतान् ॥ मा भैषीरहमप्यवामि भवतः कस्मै ममांगावधे- | नों यच्छामि किमस्ति चेद्भयमितो निर्यापयिष्याम्यहम् ॥३॥ अर्थ---जो कोई व्यक्ति परराज्यसे या दूसरे स्थानसे डरकर भोगकर आया हो, दुष्ट पशु और चोरों के द्वारा, राजाके द्वारा, या शत्रुवोंके द्वारा सताया हुआ हो एवं अपने नगरमें, अपने घरमें आगया हो उसको धैर्य बंधाकर कहना कि " तुम डरो मत, तुम्हारी रक्षा मैं करूंगा, जबतक मेरा शरीर रहेगा तुम्हे किसीके द्वारा कष्ट नहीं होने दूंगा, फिर भी यदि तुम्हारे लिये कोई भय होतो मैं उनको दूर करूंगा इस प्रकार आश्वासन देकर अभयदान पालना चाहिये ॥३॥ .., यदैकमेकदा जीवं त्रायमाणः प्रपूज्यते । न तदा सर्वदा सर्व त्रायमाणः कथं बुधैः ॥ ४ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनमें अर्थ-जब एक जीवको एक दफे रक्षण करनेवाला व्यक्ति विद्वानोंके द्वारा आदर करने योग्य होता है तब सदा सभी जीवोंको रक्षण करनेवाला आदर करने के लिये क्यों योग्य नहीं होगा ? अपितु अवश्य होगा ॥ ४ ॥ . अभयदान परंपरासे मोक्षदायक है. । यः स्थानत्रयवर्तिनस्तनुमतो योगन रक्षत्यसौ । राजासौ सुकृती दयालुरनघः सोऽभीतिदानी गुणी ॥ तेनाधीतमिदं श्रुतं बहुकृतं दानं च तप्तं तपः । सर्व सत्क्रमतो निजेष्टफलदं निश्रेयस लभ्यते ॥ ५ ॥ अर्थ-जो राजा अपने महल, नगर और देशवासी आश्रितजनोंको मन वचन कायसे रक्षा करता है वह राजा पुण्यवान है, दयालु है, पापरहित है, गुणवान है एवं वही सच्चा अभयदानी है। सचमुचमें उसीने सर्वशास्त्रोंको अध्ययन किया है, बहुत दान किया है, बहुत तप तपा है, वह इस प्रकारके नीतिमार्गसे चलनेवाले राजाके लिये सभी ऐहिक इष्टसिद्धि होने के साथ २ मोक्षकी भी प्राप्ति होती है ॥५॥ - देवाद्याभयदानतोऽरिनृपरोगावृष्टिभौतिक्षयो। ..... जायते कुलदीपकास्सुकृतिनस्त्यक्त्वामृतात्यामयाः । वर्द्धताल्पमयं भवेदिह सुखी निष्कंटकोऽग्रे भवे ।। । देवो वा सकलावनीशविनुतः श्रीसार्वभौमो विभुः ॥६॥ ' अर्थ-जो राजा देव गुरु शास्त्रोंके प्रति आये हुए संकटोंको दूर करता है, धर्मप्रभावनाके मार्ग में आये हुए विघ्नोंको दूर करता है वह राजा इस अभयदानके फलसे, शत्रुराजावोंकी बाधा, रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टिं, इत्यादिके भयसे पीडित नहीं होता है, वह सचमुचमें कुलदीपक है। पुण्यवान् है । कोई भी रोग उनके पास नहीं आने पाते हैं। उसका सुख दिन प्रतिदिन निराबाधरूपसे बढता है Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A चतुर्विधदाननिरूपण इतनाही नहीं आगेके भव में वह देवगति में जाकर जन्म लेता है अथवा सर्व राजावोंके द्वारा पूज्य चक्रवती होकर जन्म लेता है ॥६॥ त्यक्तास्त्रं प्रपलायितं गिरिगजारूढं जलांतर्गतं । दष्टात्मांगुलितांतवार्जुनमुदस्तोच्चध्वजं त्वद्गतिं ॥ दैन्योक्तिं प्रणतं विमुक्तविरुदं दत्तात्मपृष्ठं रिपो भृत्यं देशगतं तदप्यभयदानाख्यं सुरक्षन्गुणः ॥ ७ ॥ अर्थ-जिस शत्रुराजाने युद्धस्थानमें शस्त्रको छोड दिया हो, जो' भाग गया हो, पहाड वगैरह में डरसे चढ गया हो, जल में घुस गया हो, शरण में आकर पादमें गिरता हो, अपने छत्र वगैरहको समेट लिया हो, आपही गति हैं ऐसा कहता हो, दीनतासे युक्त वचन बोलता हो, नमस्कार किया हो, अपने पदवी वगैरहको छोड चुका हो, एवं जो पाठ दिखाता हो उसकी रक्षा करनी चाहिये, शत्रुके सेवककी भी रक्षा करनी चाहिये यह भी अभयदान है ॥ ७ ॥ दत्वा स्वार्थान्चलं राज्ञे दयते सागसः शिरः। .. तदेवाभयदानं स्यात् पुण्याय कुरुते सदा ॥ ८॥ अर्थ--एक अपराधी राजाके द्वारा प्राणदण्डसे दण्डित किया जारहा हो, उस अवस्था में अपने परिवार, धन एवं सर्वस्व देकर भी उस अपराधी का प्राण बचाना यह भी अभयदान है, इससे पुण्य की वृद्धि होती है ॥ ८ ॥ स्वदेशपुरगेहस्थान्येऽवंति प्रमुदा सुखं । . नाघानि नारयस्तेषां हानि वति तानयः ॥९॥ ___ अर्थ--जो अपने घर, नगर, देशमें रहनेवाले प्राणियोंको बहुत हर्षसे रक्षा करते हैं, उनको सुख पहुंचाते हैं ऐसे अभय दानियोंको पाप पीडा नहीं देता है और न उनको कोई शत्रु है, उनके कोई Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् हानि भी नहीं होती है, वे अपने आश्रित प्राणियोंकी रक्षा करते हैं इस लिये उनकी रक्षा उनके पुण्य सदा करते हैं इसमें कोई संदेह नहीं ॥९॥ कर्माण्यात्मनि दुर्द्धराणि विषमा दोषा वपुष्यासते । बाधते तमदश्च तानि रिपुवत्पुण्यानिवृध्या न ते ॥ एक वर्षकरौ (?) प्रभो तव करेणैकेन शस्त्रेण भो । कान्कान्हन्ति भवान् द्विषः पदपदे भीताः स्वतेजोबलात् ॥ अर्थ-राजाको अभयदान करनेके लिये किस प्रकार प्रेरणा करनी चाहिये यह बात कहते हैं। __ हे प्रभो ! आत्मामें दुर्द्धर कर्म अनादिकालसे लगे हुए हैं, शरीर में वातपित्त कफादिक विषम दोष लगे हुए हैं। वे आत्मा और शरीरको शत्रूके समान कष्ट देते हैं। आपके पुण्यवृद्धिसे वे आपको दुःख नहीं देते हैं । इसी प्रकार कर्मके उदयसे सर्व प्राणी त्रसित हैं । आप अपने एक शरीरसे, एक हाथसे शस्त्र लेकर किस प्राणियोंको मारेंगे उनको अभयदान दीजिये । उस अनंत पुण्यतेजसे आपके शत्रु भी डरकर मित्र होजायेंगे ॥ १० ॥ मंदेंगानळतेजसीव कृतिनः पथ्याश्च दोषा निजाः । स्ने चान्ये च विकुर्वते गतमहस्युर्वीपतौ भस्मनि ॥ त्यक्तोष्णे शुनका यथा गतभयास्संशेरते ताः प्रजाः। धर्म धर्मकराश्च पाहि सकलान् लब्धं स्वतेजोऽखिलं॥११॥ अर्थ-हे राजन् ! मनुष्यों के शरीर में यदि अग्नि मंद हो जाय तो शरीरके दोष विकारको प्राप्त होते हैं, इसी प्रकार यदि गजा तेजोहीन हो गया तो उनके स्वजन और परजन सबके सब विकारको प्राप्त होते हैं, एवंच जिस प्रकार जिस भस्म में उष्णता न हो उसमें कुत्ते भी जाकर निर्भय होकर सोते हैं इसी प्रकार तेजोहीन राजाके Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण प्रति प्रजायें स्वेच्छाचारपूर्वक व्यवहार करती हैं। इस लिये हे राजन् ! धर्मको और धर्मात्मावोंको तुम रक्षा करो जिस से तुम्हे संपूर्ण तेज प्राप्त हो जाय ॥ ११ ॥ उद्धार करने योग्य चीजें. जीर्णं जिनालयं जिनबिंब सुदृशं च पुस्तकं पूज्यं । पूजकमप्यधिकं स्याद्यदुद्धरेत्पूर्वपुण्यतः पुण्यं ॥१२॥ अर्थ-जीर्ण मंदिर, जीर्ण जिनबिंब, जीर्ण रत्नत्रयधारक, जीर्ण शान, जीर्ण संयमी, एवं देवार्चक, इत्यादिका जो उद्धार करता है वह पूर्वसे भी अधिक पुण्यको प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ ___ अभयदानके अनेकभेद. विर्घोषं तु तटाककूपमृगसामित्रचोरानलः । क्ष्वेडग्रामगतामयप्रभृतिकं श्रुत्वैव यत्रोदितं ॥ तत्रागत्य तदीयदुःखमखिलं नित्यं निवार्यागतो । शूरोऽयं खलु यत्तदेव सकलो लोकश्चिरं जीवति ॥१३॥ अर्थ-मनुष्य तालाब में गिरनेके संकटके विषय में, कुवेमें पडा इस प्रकार, शेर वगैरहसे पकडा गया ऐसा, सर्पसे काटा गया, शत्रुवोंसे बाधित किया गया, चोरोंसे लूटा गया, आगसे जल गया, विषसे आहत हुआ अथवा कोई रोगविशेषसे पीडित हुआ इस प्रकार दो आवाज सुननेपर भी उस घटनास्थल में पहुंचकर संकटापन्न प्राणियोंकी आपत्तियोंको दूर करें । अज्ञानीजनोंके दुःख मिटावे यह सब अभयदान है ॥ १३ ॥ तदस्ति न सुखं लोके न भूतं न भविष्यति । यन्न संपद्यते सद्यो जतोरभयदानतः ॥ १४ ॥ अर्थ-जो सुख अभयदानसे प्राणियोंको प्राप्त न हुआ हो वह Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दानशासनम् सुख लोक में न हुआ, न है और न होगा अर्थात्, अभयदान से प्राणि योंको सर्वप्रकारके सुख प्राप्त होते हैं ॥ १४ ॥ अभयदानसे मिलनेवाले लाभोंका सविस्तर विवेचन. येsaति तेजांसि निजाश्रितानां विद्वद्भिषग्ज्योतिषिकादिकानां । तेषामृषीणां गुणिनां वृषाणां शुक्लेन्दुवदृद्धिमुपैति तेजः १५ अर्थ - जो राजा अपने आश्रित मनुष्योंका, विद्वानोंका, वैद्य, ज्योतिषी आदिका, संयमियोंका, गुणियोंका एवं धर्मका तेज बढाते हैं एवं रक्षा करते हैं उनके स्वयंका तेज भी शुक्लपक्ष के चंद्रमा के समान बढता है || १५ ॥ स्वीयानन्यजनानिवान्यवनिताः स्वस्त्रीरिव स्वं धनं । चान्यानिव देवताश्च सकलाः स्वीया इव क्ष्माभृतः ॥ स्वस्थानत्रयवर्तिनस्तनुमतो रक्षति सर्वान्पुरा । स्त्री वाव्याज्ञ्जनपुण्यदुष्कृतपतिस्सर्वं त्रिशुद्ध योचितं ॥ १६ ॥ अर्थ - पूर्वकाल में राजा अन्य प्रजावोंको अपने बंधुवोंके समान रक्षण करते थे, अपनी स्त्री के पातिव्रत्यधर्मको रक्षण करना जितना आवश्यक है उतनाही परस्त्रियोंके पातिव्रत्यका रक्षण करना आवश्यक समझते थे, अपने धनके समान, दूसरोंके धनका रक्षण करते थे, सर्व संप्रदाय के देवोंको अपनेही देव समझते थे, इसी प्रकार कोई प्रकारका कष्ट नहीं होने देते थे, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री अपने चाहे जैसे पति हो उसकी सेवा करती है उसी प्रकार अपने राज्य में रहनेवाले पुण्यात्मा पापात्माको मनवचन कायकी शुद्धिसे रक्षा करते थे । यही अभयदानका आदर्श है ॥ १६ ॥ यत्रास्ते नृपतिर्मुनिर्यदलं तेजः प्रजानां तयो - | बधां वारयतीत्ययं च कुरुते सौख्यं च पुण्यं शुभं ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण - यच्चार्कस्य यथा करोति सुदृशां दृष्टिप्रकाशं सुखं । बाधां क्रूरभवां निवार्य शुभकृत्कर्माण्यलंकारयेत् ॥१७॥ अर्थ---जिस प्रकार सूर्य के उदय होनेपर जिनकी आंखे अछी हो उनको प्रकाश मिलता है । सुखका अनुभव होता है, क्रूर सर्प इत्यादि प्राणियोंकी बाधासे बच. जाते हैं, अच्छे कार्य में संलग्न होते हैं। चोरी इत्यादि पापकर्मीको करने का अवसर नहीं मिलता है इसी प्रकार जिस देशका राजा न्यायवान् एवं पराक्रमी हो, अथवा जिस राज्य में तपस्तेजसे युक्त कोई मुनि हो, उन दोनोंके तेजसे प्रजावोंका दुःख दूर होता है । उनको कोई बाधा नहीं सताती है, उनका पाप दूर होकर पुण्यकी वृद्धि होती है एवं उस राज्यकी प्रजा शुभकार्य में प्रवृत्त होकर सुख प्राप्त करती है ॥ १७ ॥ . सद्धर्मापहताववग्रहगतःस्यात्तत्तटाको वृषः। शून्यस्तत्तदधः प्रजा निजकरं सस्य न दत्ते फलं ॥.. धर्मान्वर्द्धय पाहि धार्मिकजनान् शुद्धान्विशुद्धाशयान् ॥ स्वस्थानायवर्तिनोऽप्यनुदिनं क्षेत्रं यथा कार्षिकाः ॥१८॥ अर्थ-हे राजन् ! सद्धर्मका नाश होनेपर प्रजाजनो में सुख शांति नहीं रहती है। जिस प्रकार सस्योत्पत्तिके आधारभूत तालाबका पानी सूखनेपर सस्य होता नहीं, फिर प्रजा अपने करको नहीं देती है, इसलिये राज्य में सुख शांति में मूल कारण धर्मका यदि नाश होता है तो दुर्भिक्ष आने में देरी नहीं लगती । इसलिये अपने राज्य में धर्म की वृद्धि करो, जो धर्मात्मा है, सज्जन हैं, ऐसे महल, नगर, राज्य के मनुष्योंकी रक्षा करो, जिस प्रकार किसान खेतकी रक्षा चिंतापूर्वक करता है उसी प्रकार अपनी प्रजाजनोंकी रक्षामें दत्तचित्त रहो॥१८॥ तातं स्वामिनमुत्तमार्यमनुजं जामातरं मातरं । मातारं गुरुमित्रसेवकमरि ज्येष्ठं गुणं वल्लभां ॥ __. . चन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - - मित्र स्वामिबलं स्वांधवजनं जैनं च सद्धार्मिकं । - यास्याच्छंसति तस्य पुण्यममलं तेजोऽपि भाग्यादिक॥१९ . अर्थ-जो व्यक्ति अपने पिता, स्वामी, उत्तम मनुष्य, जमाई, माता विश्वस्त व्यक्ति, गुरु, सेवक, शत्रु, बडे पुरुष, गुणवान, स्त्री, मित्र, स्वामिसेना, बंधुजन, धार्मिक जैन आदिको गुणानुरागसे प्रशंसा करता हो वस्तुतः वह पुण्यशाली है उसका भाग्य तेज वगैरह बढता स्थैर्यादेयत्वगर्भार्यतेजस्वित्वसुरूपताः । सौभाग्यत्यागिभोगित्वयशस्वित्वमरोगताः ॥ २० ॥ चिरंजीवित्वमित्यादिलोकोत्तरगुणानपि । __धर्मार्थकाममोक्षान्यः स बजेदभयपदः ॥ २१॥ . अर्थ-अभयदान देनेवाला व्यक्ति प्रत्येक कार्य में स्थिरता, शत्रु मित्रादि जनोंको वश करनेमें प्रभावक शरीर, समुद्र के समान गांभीर्य, सूर्यके समान तेज, सबको प्रसन्न करनेवाला सुंदर रूप, सौभाग्य, पात्रदानादि कार्य में त्यागभाव, यथेष्ट इंद्रियसुख में भोगित्व, सर्व कार्य में यशस्वी होकर कीर्तिसंपादन, नीरोग शरीर एवं चिरायु आदि बहुतसे लौकिक एवं लोकोत्तर गुणोंको भी प्राप्त करता है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ उसे सहज प्राप्त होते हैं ॥२०॥२१॥ धन्यराजतपोभाजी हितपूतमितीक्तयः । वर्धयति स्वतेजांसि नाशयंत्यघसंचयान् ॥ २२ ॥ अर्थ-हित, मित, मधुर वचनको बोलनेवाले राजा, तपोधन [ मुनीश्वर ] आदिका तेज बढता है, पापनाश होकर पुण्यकी वृद्धि होती है ॥ २२ ॥ १ आदेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः ॥ भवत्यभयदानेन चिरंजीवी निरामयः ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण स्यात्सार्वभौमसपत्तिः सर्वजीवसुरक्षया । ... तस्मात्सर्वे न हंतव्यास्सागसोपि निरागसः ॥ २३ ॥ अर्थ- संपूर्ण जीवोंकी रक्षासे चक्रवर्तीका पद भी प्राप्त होता है इस लिये चाहे कोई अपराधी हो निरपराधी हो उनको मारना नहीं चाहिये और न कष्ट देना चाहिये ॥ २३ ॥ व्रते क्लेशकरं वचो न न हरत्यन्यार्थमुादिकं। नातिकामति यो व्रती तमखिला देवो वदंतीत्ययं ॥ यद्यत्तेन कृतं च तत्तदखिलं सत्यं फलत्यन्वहम् । सर्व मानसवाचिकांगिकमहो सद्यः फलं यच्छति ॥२४॥ अर्थ-जो व्यक्ति दूसरोंके साथ कटुवचनका प्रयोग नहीं करता है, दूसरोंके धन भूमी आदिको अपहरण नहीं करता है, साधु संयमियोंका अविनय नहीं करता है उसे सब लोग देव कहते हैं, वह जो कुछ भी कार्य करता है उसमें उसे अवश्य सफलता मिलती है, उनके संपूर्ण मानसिक, वाचिक और कायिक कार्य तत्क्षण फल देते हैं ॥ २४॥ ...र्दियपनेसे होनेवाला नुकसान उदाहरणकेद्वारा दिखाते हैं. येऽत्र स्वाश्रितजीवयुग्ममदयन्दत्वोचितार्थान्सदा। विष्टिं कारयतीव गोपशुनरैः कार्य कृतं कारितं ॥ सर्व नश्यति तस्य तेन फलति क्षेत्रं न सर्व कृतं । नैष्फल्यं भवतीत्यवेत्य सुकृती सर्वान्धनैः पालयेत् ॥२५ अर्थ-जो व्यक्ति अपने आश्रित द्विपद [ नौकर चाकर ] चतुप्पद [ गाय, भैंस, बैल वगैरे आदि प्राणियोंको उचित द्रव्यादि देते हुए दया नहीं करता है उनसे बराबर अपना कामही लेता रहता है १ क्लेशकरोकिं न वदति न परार्थ हरति यस्तामह चान्ये ॥ देवोऽयमिति ब्रुवते नाघमतिस्तस्य सर्वसिद्धिः स्यात् ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् उसका किया हुआ, कराया हुआ सर्व कार्य नष्ट होता हैं, जिस प्रकार कोई किसान अपने आश्रित जनोंको कष्ट देकर यदि खेदसे फल प्राप्त · करना चाहता है तो उसे फल मिलना कठिन है उसी प्रकार अपने आश्रित जनोंके प्रति दया न रखनेवाले व्यक्तिको किसीभी कार्य में सफलता नहीं मिलती, इस लिये अपने आश्रित मनुष्योंको धन इत्यादिसे रक्षा करनी चाहिये ॥ २५ ॥ जीवपालनसे होनेवाले लाभ. 'ये ये पूर्वनृपालदत्तमखिलं ग्रामादिधर्मादिकं । पांत्येवं भगिनीमिवात्मतनुजामेवात्मदत्तं यथा ॥ .. ते भूपाश्च जनाः सुतद्रविणगोधान्यादिसंपत्तयो। अधिव्याधिभिरंतरेण सुखिनो जीवति मूत्वा चिरं ॥२६॥ अर्थ- जो राजा व अन्यव्यक्ति जिस प्रकार धनादि देकर अपने पुत्रीके समान बहिनकी भी रक्षा करते हैं ठीक उसी प्रकार अपने पूर्व. जोंके द्वारा दिये गये ग्राम खेत इत्यादिके धर्मको बराबर पालन करते हैं उन राजावोंको अथवा उन व्यक्तियोंको धन धान्य स्त्री पुत्र इत्यादि योंकी समृद्धि होते हुए आधिव्याधिसे रहित सुखी शरीरको प्राप्त कर चिरायु प्राप्त हो जाती है ॥ २६॥ १ स्वदत्तं द्विगुणं पुण्यं पूर्वदत्तानुपालनात् । पूर्वदत्तापहारेण स्वदत्तं निष्फलं भवेत् ।। पित्रा दुहित्रे भगिनी च दत्तं पुत्रे हरत्यात्मन आददानः ॥ पुत्रीरिवास्यां भुवि पूर्वदत्तं गृण्हत आके विफलं स्वदत्तं ॥ सर्वाःप्रजा यथा पूर्वे भूयास्ते वर्तयंति ताः । पालयंतु तथा भूपा वैद्या वा कृषिका इव ॥ दानपालनयोर्मध्ये दानाच्छेयोनुपालनं ।। दानास्वर्गमवाप्नोति पालनादच्युतं पदं ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण देशे यस्य पुराविष्टजनानोदयते च ये । .... दापयंति न ते तत्र जीवंति मुखिनश्चिरं ॥ २७॥ · अर्थ-जो राजा अपने राज्य में प्रविष्ट प्राणियोंको कष्ट नहीं देता है एवं दूसरोंसे नहीं दिलाता है वह राजा एवं उसकी प्रजा सुखसे जीते हैं ॥ २७ ॥ नृस्त्रीगोधनधान्यवृक्षवसनाद्याहत्य यस्मिन्गते । स्वस्थानान्नपते सदोनमभवत्खेदं विधत्से हृदि । लोकोत्साहहतेश्च देवविभवच्छेदे मुदं मा कृथाः ॥ विघ्नं मा कुरु मापि कारय महं निर्विघ्नमेवाखिलं ॥२८॥ अर्थ-हे राजन् ! दूसरे जीवोंको कष्ट देना पाप है, उनकी स्त्री, गाय, धन, धान्य, वृक्ष, वस्त्र इत्यादिको अपहरण करनेसे उनके हृदय में बडा भारी धक्का पहुंचता है जिससे उनको भयंकर दुःख होता है, दूसरोंकी संपत्तिका छेद करनेसे उनका उत्साह भंग होता है, इस लिये दूसरोंको कष्ट पहुंचाने में आनंद मत मानो, दूसरों के उत्साहमें विघ्न उपस्थित मत करो, दुसरोंसे न करावो ताकि तुम्हारे भी सर्व कार्य निर्विन हो ।॥ २८ ॥ विघ्नान्वितेवहिकसर्वकार्येष्वयंति नो तानि पुरोभिवृद्धि । देवे महे सर्वविनाशहेतुर्ब्रयादविघ्नं कुरु भव्य बुद्धया ॥ २९ ॥ अर्थ-हे भव्य राजन् ! ऐहिक विवाहादिकार्यों में यदि विघ्न उपस्थित हुए तो पुरोभिवृद्धि नहीं होती है । देवता महोत्सवमें यदि विश्न उपस्थित हुआ तो वह सर्वनाशके लिये कारण है, इस लिये ऐहिक परलौकिक कार्यों में विघ्न उपस्थित म होसके ऐसा प्रयत्न करो ॥२९॥ स्वान्देशान्मुजनैरवंति च जनैर्धान्यार्थमारोग्यकं । देशभिरंगना इव भुतांस्ताभिर्लभते नृपाः ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् पट्टादीनि मणीन्वणिग्भिरिव सज्ज्ञानं बुधैस्साधुभिः । स्वानीकैश्च जयंत्यरीनिव स भो पापं जय श्रावकै॥३०॥ अर्थ-जिसप्रकार देशकी रक्षा सज्जनोंसे, धनधान्यकी रक्षा प्रजाजनोंसे, स्वास्थ्यकी रक्षा वैद्योंसे, बंधुवोंसे स्त्रीकी प्राप्ति, स्त्रीसे संतानकी प्राप्ति, वैश्योंसे वस्त्राभूषण इत्यादिकी प्राप्ति, विद्वान् साधुवोंसे ज्ञानकी प्राप्ति, तथा शत्रुवोंकी जय अपनी सेनासे होती है इसी प्रकार उत्तम श्रावकोंकी रक्षा कर पापको जीतना राजाका धर्म है ॥ ३० ॥ जिनेंद्रधर्मतेजांसि वर्द्धयंतीह ये नराः । तमोपहातेजोवत्ते भवेयुस्सतेजसः ॥ ३१ ॥ अर्थ-इस लोकमें जो व्यक्ति अपने धनके द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करते हैं उनका तेज अंधकारको नष्ट करनेवाले सूर्यके समान अत्यंत उज्ज्वल होता है ! उनकी कीर्ति बढती है ॥ ३१ ॥ परंपरायातजिनार्चनाविधि-प्रमाणमाचार्यमुखर्विचार्य । जिनेंद्रधर्मोल्वणमेव कुर्वते ते धार्मिका धर्मविचारपेशलाः ॥३२ अर्थ-जो मनुष्य परंपरासे आया हुआ जिनपूजनविधान वगैरहको आगमॉस जानकर अथवा गुरूवोंसे विचारकर जिनधर्मकी प्रभावना करते हैं वे धार्मिक हैं । धर्मकार्योंके करनेमें दक्ष हैं एवं अपनी धर्मभावनासे कर्मको नाश करनेके लिये समर्थ हैं ॥ ३२ ॥ १ चित्रदारुशिलारूपकिंवान्यति ये हतां ।। से संति कृतिनस्तद्वन्मुनिगणधरादिवत् ।। सोऽयं जिनःसुरगिरिननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः • सलिलानि साक्षात् । . इंद्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततःकथमियंन । महोत्सवश्रीः॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण मन्वानास्त्रिदिवागतः स मघवानेवायमिंद्रो महां-। स्तन्वाना निजबंधुर्गसहिताः श्रीजैनपूजोत्सवान् । चिन्वानाः सुकृतोच्चयं निरुपमं स्वर्गापवर्ग पदं ॥ धुन्वाना रजसाक्तवस्त्रमिव चात्माघोत्करं धार्मिकाः॥३३ अर्थ-जो मनुष्य पूजादि महोत्सव करानेवाले भव्यको यह साक्षात् स्वर्गलोकसे उतरा हुआ इंद्र है ऐसा समझकर अपने बंधुजनोंके साथ युक्त होकर उसके धर्मकार्यमें बहुत हर्षसे योग देते हैं वे स्वर्गापवर्गको देनेवाला पुण्यसंचय करते हैं एवं च उसके बलसे मलिन वस्त्रक मलके समान आत्मामें लिप्त पापोंके समूहको नष्ट करते हैं ॥ ३३ ॥ आहूताखिलजैनबंधुरिह तैरालोच्य देशादिभिः । प्रत्यहं सविवेकसविधिभिः श्रेष्ठ दिने वोत्सवं ॥ राजा बांधवभृत्यवर्गसहितो मुक्त्वैव भोगद्वयं । युद्ध शत्रुलयं करोत्यघलयं कुर्यात्स पुण्यार्जनं ॥३४॥ अर्थ-जिनमहोत्सवको करनेके पहिले सब देशों से जैन बंधुवोंको बुलाकर उनके साथ महोत्सवमें आनेवाले विघ्नोंको निवारण करनेका उपायविचार करना चाहिये, तदनंतर मंगल मुहूर्तको देखकर राजा बंधुजन, सेवक आदिसे युक्त होकर, भोगोंसे मुक्त होकर बहुत भाकिसे जिनपूजा महोत्सव करें जिस प्रकार राजा युद्ध में शत्रुवोंका नाश करता है उसी प्रकार ऐसे महोत्सवोंसे पापका नाश करता है पुण्यका संपादन करता है ॥ ३४ ॥ दृष्ट्वाईन्महपत्रिका सहृदया दूतं पुरस्कृत्य तत्- । पूजार्थे परिगृह्य साधुसहितो गत्वा बहिचिंतनं ॥ मुक्त्वानम्य जिनान्गुरूनपि बुधान्भक्तान्निजान्बांधवान् । स्थित्वा तत्र शुभाशयांश्च सकलान् संभावरंतु स्थिरं॥३५ अर्थ-जिस समय जिनमहोत्सवके निमंत्रणपत्र लेकर कोई दूत Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ दानशासनम् - आवे तो उसका हर्षसे सन्मान करना चाहिये, एवं उस पूजाके लिये योग्य सामग्री वगैरह लेकर अपने बंधुबांधव व साधुसंयमियोंके साथ मंदिरके लिये रवाना होना चाहिये । मंदिरमें आकर बाह्य विचारको छोडकर देव गुरु विद्वान व सुदृष्टि जीवोंका यथायोग्य नमस्कार करें एवं एवं शुभविचारसे युक्त होकर स्थिरचित्तसे उस शुभ महोत्सव में योग देवें ॥ ३५ ॥ अतुं शत्रुषलं व्रजामि नृपतेः सेवार्थमंगं दधे । मुक्त्वैवात्मपरिग्रहं निजगुरोरग्रेऽङ्गभागोचितं ॥ __ इत्थं स्वीकृतसुव्रतो रणतले निश्शेषसन्यासवां- ।.. स्त्वं जीवात्र जिनोत्सवेषु सुभटो वर्तस्व नित्यं यथा॥३६॥ अर्थ-हे आत्मन् ! जिसप्रकार युद्ध करनेके लिये रणभूमिमें जानेवाला वीर सैनिक प्रतिज्ञा करता है कि " मैं शत्रुसेनाको जीतने के लिये जा रहा हूं। स्वामिसेवाके लिये मेरा शरीर समर्पित है। जबतक मैं स्वामिसेवासे निवृत्त न होऊ तबतक मेरेलिये सब प्रकारके भोगोपभोगोंका त्याग रहे " इसीप्रकार जिनोत्सवमें जानेवाला जीव भी यह प्रतिज्ञा करें कि " कर्मरूपी शत्रुवोंको जीतनेकोलिये जिनचैत्यालयमें जारहा हूं। मैं जिनेंद्र भगवंतकी पूजाकेलिये अपना शरीर अर्पण कर चुका हूं । जबतक इस पुण्यमहोत्सवसे निवृत्त नहीं होऊं तबतक मेरेलिये सर्व भोगोपभोग पदार्थोंका त्याग है," इसलिये जिम पूजामें भी वारके समान रहे ॥ ३६ ॥ योद्धारो रणरंगवीररिपुभिस्त्यक्तांगनान्नादिकाः। निश्शंकादिगुणा इवाहतमहे विण्मूत्रशंकादिना । नो गच्छति पुरः प्रयोति चरम पद्भ्यां क्षिपत्येव नो-॥ नेक्षते न निजं स्मरति निलये जैना वसंतश्चिरं ॥३७॥ अर्थ-जो योद्धा शत्रुवोंसे युद्ध करनेके लिये रणरंगमें जाते हैं वे Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण वहांफ्र स्त्री पुत्र धन आहारादिसे निशंक होकर युद्ध करते हैं। इसी प्रकार जो श्रावक जिनपूजोत्सवके लिये मंदिरमें जावें वे मलमूत्रादिकी शंकासे रहित रहें, मंदिरमें व्यर्थ इधर उधर टहले नहीं, किसी पदार्थको पावसे हटावे नहीं, इधर उधर देखें नहीं, अपने इष्ट मित्रादिकोंका स्मरण नहीं करें । एवं अपने गृहकृत्य संबंधी विचारोंको मममें लावे नहीं एकाग्रचित्तसे महोत्सवमें योग देवें ॥ ३७ ॥ सर्वे वीरभटा रणांगणतले तौमुल्यमिच्छंति ये । तांबूलोदकनालिकेरकदलीसस्यादि किंचिन्न ते ॥ संतुष्टाः प्रविचारका रिपुलयव्यापारबोधक्षमाः । श्रीजनोत्सवषीक्षका अघळयव्यापारदक्षास्तथा ॥ ३८ ॥ अर्थ-वार-योद्धा युद्धस्थानमें युद्ध करनेमेंही लगे रहते हैं, तांबूल पानी, नारियल, केला आदि खानेकी उन्हे चिंता नहीं रहती है, इसी लिये वे संतुष्ट होकर युद्ध करते हुए शत्रुवोको नाश करने में समर्थ होते हैं, इसी प्रकार जिनमहोत्सवमें लगे हुए जीव उसी में संलग्न होकर उतने समयतक खाना पीना वगैरह सब भूल जावे तभी वे यथार्थ रूपसे कर्मोको नष्ट करने के लिये समर्थ होते हैं । चैत्यावासगतिस्मृतेरनशनद्वंद्वस्य चोद्योगतो। बंधस्याष्टफलं लभेत गमनप्रारंभतश्चक्रमे ॥ पंक्तेदशजं फलं निजगृहद्वार्निर्गमान्मध्यतः । पक्षानन्नफलं गृहेक्षणवशान्मासोपवासोद्भवं ॥३९॥ . अर्थ-भावपूर्वक जिमचैत्यालयको जाने के विषयमें विचार करने मात्रसे दो उपवासका फल, सामग्री वगैरह के तैयार करने में चार उपवासका, गमन करनेके लिये प्रारंभ करनेसे आठ उपवासका, गमन करनेसे दस उपवासका, अपने घरके द्वारसे बाहर निकलने में बारह Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् उपवासका, मध्यमार्ग में पहुंचनेपर पक्षोपवासका एवं जिनमंदिरको देखनेसे मासोपवासका फल मिलता है ॥ ३९ ॥ षण्मासोत्थफलं गृहांगणगते द्वाराग्रगे वार्षिकं । वर्षाणां शतजं प्रदक्षिणवशादृष्टे जिनेंद्रानने ॥ साहलं स्तवने कवेऽत्र लभते भक्त्याप्यनंतं फलं । नियुक्तेन पुमान्विभावसहितः किंचित्फलं च ध्रुवं ॥४०॥ अर्थ-जिनेंद्रमंदिरके अंगणमें जानेपर छह महिनेके उपवासका फल, दरवाजेके पास जानेपर वर्षांपवासका फल, प्रदक्षिणा देनेसे शत वर्षोपवासका फल, जिनेंद्रके मुखदर्शनसे हजार वर्षके उपवासका फल, भक्तिसे स्तुति करनेसे अनंत उपवासका फल नियमसे यह मनुष्य प्राप्त करता है। परंतु ये सब होने चाहिये भावभक्तिसहित उसीसे इस प्रकारके सातिशय फल मिलते हैं । भक्तिरहित होनेपर कुछभी फल ‘नहीं मिलेगा ॥१०॥ द्वादशकायोत्सर्गाः साष्टान्वितशतनमस्क्रियाः शुद्धाः । यः पुरुषः कुरुते स त्रैकाल्यादनशनत्रयं लभते ॥ ११ ॥ अर्थ-जो पुरुष शुद्ध अंतःकरणसे तीन वार प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकालमें बारह कायोत्सर्ग जाप देता हो अथव एकसौ आठ दफे जाप देता हो वह तीन उपवासका फल अवश्य प्राप्त करता है ॥४१॥ राजेवारिबलं पुरात्मनृपति यः स्वस्ववीरान्भटान् । मार्यालंकृतिवस्त्रकर्पटमुखैरुषत्वा प्रियोक्ति जयेत् ॥ जैनः कर्मबलं पुरा निजचतुःसंघ त्रिलोकेष्टदं । संपार्थेत यथोचितस्तुतिनतीष्टोक्त्यर्थदानैर्जयेत् ॥ ४२ ॥ अर्थ- जिस प्रकार राजा अपने शत्रुसेनावोंको जीतने के पहिले • अपने पक्षके राजा, वीरभट आदिसे युद्ध करनेके लिये प्रार्थना करता है एवं उनको वस्त्र आभूषण इत्यादियोंसे सन्मानित करता है इसी प्रकार Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्विधदाननिरूपण जो व्याक्त कर्मबलको जीतना चाहिये ऐसा विचार रखता हो वह पहिले . देवपूजादिसत्कार्योको करनेके लिये चतुःसंघसे प्रार्थना करें एवं चतुःसंघको स्तुति, नमन, प्रियोक्ति, एवं दान इत्यादि यथोचित उपचारोंद्वारा सत्कार कर फिर कौँको जीते ॥ ४२ ॥ विनोंको दूर करनेवाला त्रिलोकमान्य होता है । देवधर्मगुरुभूपधार्मिकग्रामविघ्न इह येन मुच्यते । राजनायकजनैस्स पूज्यते स्तूयते त्रिभुवनेऽपि गीयते॥४३ अर्थ-जो मनुष्य देवविघ्न, धर्मविघ्न, गुरुविघ्न, राजविघ्न, धार्मिकजनविघ्न, ग्रामविघ्न आदि विघ्नोंको दूर करता है वह इस लोकमें राज्याधिकारियोंसे सन्मानित होता है। इतनाही नहीं उसकी कीर्ति बढती है, तीन लोकमें सभी उसकी प्रशंसा करते हैं ॥४३॥ . लोके यथा प्रवर्तते साधुवैद्यनृपर्षयः ।। जिनोत्सवे प्रवर्तेरंस्तथैव जिनधार्मिकाः ॥४४॥ . अर्थ-जिस प्रकार लोकमें सज्जन, वैद्य, राजा, और मुनीश्वर अपने उपकारको गौण रखकर निस्वार्थदृष्टिसे परोपकार करते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा श्रावक जिनपूजोत्सवके कार्यमें प्रवृत्ति करें ॥४४ अघ द्वेषकरं न विस्मर मनो मावीक्षि पात्रेक्षणे- । प्यन्योन्यामुहरौ द्विषद्रिपुभटास्ते मापराक्षं बहिः ॥ चिंता मा कुरु धैर्यमेव यतनं युद्धैकचित्ती भवे-। . त्यन्योन्यानुवदत्पट इव मनाइशांतास्सदा जीवित[१]॥१५ अर्ध-युद्धस्थानमें भयंकर द्वेषसे युद्ध करनेवाले शत्रुवोंको प्रेरणा करनेकेलिये कहते हैं कि " अरे भाई ! आज तुम्हारा शत्रु तुम्हारे हाथमें आया है उसको छोडो मत. उसे क्षमा नहीं करना, बराबर उससे युद्ध. करो, बाहरको कोई विता मत करो, केवल युद्ध में ही Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે दानशासनम् 1 अपना चित्त लगाबो, इत्यादि, इसी प्रकार कर्मरूपीशत्रुको जीतते समय शांत चित्त से उसे जीतनेका उपाय करना चाहिये ॥ ४५ ॥ जिन पूजनोत्सव के लिये कौन योग्य है ? इंद्रोऽयं प्रेषकोऽयं किमिह सुजनसंपूजितोऽयं द्विजोऽयं । विमोऽयं ब्राह्मणोऽयं विरचितदहनप्लावकोऽयं बुधोऽयं । ज्ञात्वात्मा दृक्चरित्रो द्विजनिकरसुकर्मोपदेष्टा च कर्ता ॥ शुद्धोऽयं शिक्षकोऽयं स भवति जिनपूजोत्सवे योग्य एव ४६ अर्थ - जो षोडशाभरणको धारण कर इंद्रके समान पूजाके लिये सज्ज हुआ है, पूजासामग्री लाने ले जानेके लिये समर्थ हो, सज्जनोंके द्वारा आदरणीय हो, त्रिवर्णमें जिसका जन्म हो, पुरुषार्थीको पूर्ण करनेमें दत्तचित्त हो, ब्राह्मण हो, स्नानसंध्या, सकलीकरण इत्यादि पवित्र क्रियावों को जो करचुका हो, दर्शनचारित्र से भूषित हो, त्रैवर्णिकोंको धर्मोपदेश देनेवाला हो, निर्मल विचारवाला हो, दूसरोंको शास्त्राभ्यास करानेवाला हो, वही जिनपूजा करनेकेलिये योग्य है ॥ ४६ ॥ पूजाके भेद. भृत्यैश्व बंधुभिः पूज्यैरिद्रैर्जिनपतेः कृता । तामसी राजसी पूजा सात्विकी भवति ध्रुवं ॥ ४७ ॥ अर्थ - सेवकोंसे जो पूजा कराई जाती है वह तामसी पूजा कहलाती है, उसका फल न कुछ है । अपने बंधुवोंसे कराई जानेवाली पूजा राजसी कहलाती है, उसका फल अल्प है । पूज्य पुरुष जो गृहस्थाचार्य कहलाते हैं उनसे कराई जानेवाली पूजा सात्विकी कहलाती है । इससे महान् फल मिलता है ॥ ४७ ॥ दद्याद्दश फलान्याद्या परा शतफलान्यपि । तृतीया स्वर्गमोक्षश्रीसंगसौख्यफलान्यरं ॥ 8८ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण अर्थ - पहिली तामसी पूजा दसवां भाग सदोष फल देगी, दूसरी राजसी पूजा सौवां भाग सदोष फल देगी, तीसरी सात्विकी पूजा स्वर्ग व मोक्षलक्ष्मीका संग कराकर अनंत सौख्यको देती है ॥ ४८ ॥ ४१ मुक्त्वा क्षुत्तृषमात्मनाथ समयं स्मृत्वा मनस्यासते । सन्नद्धाय धृतश्रियो नृपभटा जीवंति लोके यथा ॥ त्यक्त्वा लौकिकमांगिकं सुकृतिनः कार्ये तु घृत्वाशये । संतुष्टया जिनभानुनैनसतमा निर्णाशयंति धवं ॥४९॥ अर्थ - जिस प्रकार रणभूमिमें युद्ध करनेवाला वीरभट भूख प्यासकी परवाह न करके अपने स्वामिकार्य में पूर्णतया संलग्न रहता है वही यशस्वी होता है, उसी प्रकार लौकिक व शारीरिक कष्टोंको सहन कर धर्मात्मा लोग मन में संतोष धारण कर जिनपूजादिकार्य में संलग्न रहते हैं, वे अवश्यही जिनेंद्रसूर्यके प्रतापसे पापरूपी अंधकार को नष्ट करते हैं ।। ४९ ।। शारीरे जिनळांछनं स्वमनसि श्रीजैनबिंवा कृतिं । वक्त्रे श्रीजिन संस्तुति जिनपतेस्तत्व श्रुतिं कर्णयोः ॥ अक्ष्णोः श्रीजिनपोत्सवं दृढतरं संस्थाप्य ते धार्मिकाः । ध्यायतोऽत्र जिनोत्सवेषु विमलं पुण्यं सदा चिन्वते ॥५०॥ अर्थ - पूजोत्सव में प्रवृत्त मक्त शरीरके अवयवों में मानस्तंभ, चक्र आदि शुभलांछनोंको धारण कर, अपने मनमें श्रीजिनेंद्र बिंबके श्राकारको, मुखमें श्रीजिनस्तुति करते हुए, कानोंसे तत्त्वश्रवण करते हुए, आंखोंसे जिनपूजोत्सबको देखकर दृढचित्तसे - एकाग्रतासे श्री जिनपूजोत्सव करें तो अवश्य निर्मल पुण्यका संचय करते हैं ॥५०॥ १ अर्हबिंबाकृतिं चेतसि वपुषि सदा जैनलक्ष्माणि वक्त्रे । जैनस्तोत्राणि विभ्रन्न चविततनु (?) गात्रोपि जैनेंद्रपूजां ॥ संघ संवीक्ष्य तुष्टो भव भवदुरितं जीव भी नाशय त्वं । धर्मोद्यतेजसारं दह दह पंच पापाटवीं दुःखधात्रीम् ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दानशासनम् - पूनामीक्षितुमेत यूयमिति चाहाने शयानो वदे- । घामोद्येति चिरं प्रसुप्य पुनरुत्थायैव भूत्वा शुचिः ॥ स्थित्वाची कुरु मेति दूत वसतावुक्त्वा त्वमागच्छ भाः। लक्ष्मीलक्ष्म न कस्य लक्षणमिदं पापस्य गर्वस्य वा ५१ अर्थ--यदि किसीको किसीने पूजा देखनेकलिये निमंत्रण दिया हो कि आप आज पूजा देखनेके लिये मंदिरमें अवश्य आवें । तब यह लेटे २ ही उत्तर देता है कि " आयेंगे"। फिर निश्शक होकर निद्रा लेता है । उठकर मलमूत्रादिसे निवृत्त होकर दूतको बुलाकर कहता है कि अरे देवदत्त ! मंदिरमें जाकर कहो मैं जबतक नहीं आवू तबतक पूजा मत करो। मैं पूजा देखने के लिये आनेवाला हूं। आचार्य आश्चर्य करते हैं कि यह वृत्ति श्रीमतीको है अथवा पापकी है ? या गर्वकी है ? ऐसे प्रमाद आचरणसे अवश्य पापबंध होता है ॥ ५१ ॥ सद्धमोचितपुण्यात्संसारसुखानुभवनमितरत्स्यात् ॥ स्पर भन कुरु भव जहि जिनमुरुसंघ दानमाययि नित्यं५२ - अर्थ--सद्धर्मोपार्जित पुण्यसे संसार सुख तो मिलताही है, अतीद्रियसुख भी मिलता है । इसलिये हे भव्य ! जिनेंद्रचरणको स्मरण करो । चतुःसंधकी नित्यसेवा करो । दानादि सदाचरणमें अपना चित्त लगावो । संसारमें इस आत्माको पतन करनेवाले पंच पापोंको त्याग करो ॥ ५२ ॥ संतः शाल्यनमिच्छति न च मद्यं तदुद्भवं ॥ धर्ममेव यथा किंचित् किंचिन्नेच्छंति दुष्कृतं ॥ ५३ ॥ अर्थ-सज्जनलोग शालीके केवल धान चाहते हैं । उससे उत्पन्न मद्यकी इच्छा उनको नहीं रहती है । इस लिये धर्मात्मा लोग जो भी कार्य करें वह पुण्योत्पादक हो उसीको करें । पापोत्पादक कार्य की वे इच्छा नहीं करते हैं ।। ५३ ॥ . . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण ४३ तिक्तमूलवपुःपत्र पुष्पादिश्चिमंटो यथा ॥ पके मधुरतां याति केचिदंत्ये शुभाशयाः ॥ ५४॥ अर्थ- जिसका जड, लता, पत्र, पुष्प आदि सभी कडुवे हैं अपितु अंत में फल मीठा निकलता है ऐसी काकडी जिस प्रकार है उसी प्रकार कोई २ धर्मात्मा पहिले साधारण सुखका अनुभव करनेपर भी अंत में धर्म के प्रभावसे स्वर्गादिक संपत्तिका अनुभव करते हैं ॥५४॥ आस्तेऽभक्तो बंधृको भास्कराभिमुखो यथा ॥ . केचिदेव जिनेंद्रोक्तसन्मार्गाभिमुखास्तथा ॥ ५५ ॥ अर्थ-जिस प्रकार सूर्यभक्त बंधूक पुष्प सूर्याभिमुख होकर रहता है इसी प्रकार कोई २ भव्य जिनेंद्र भगवंतके द्वारा उपदिष्ट सन्मार्गके प्रति अभिमुख होकर रहते हैं ॥ ५५ ॥ वंगसेना यथोन्निद्रा कोकबांधवदर्शनात् ॥ जिना लोकने केचिद्भवंति कृतिनस्तथा ॥ ५६ ॥ अर्य-वंगसेना ( हाथियावृक्ष ) वृक्ष सूर्यबिंबके अवलोकनसे खिल जाता है इसीप्रकार कोई २ भव्य जिनपूजोत्सवको देखनेसे संतुष्ट होकर अपने को धन्य मानते हैं ॥ ५६ ॥ केचित्संसारसुखिनः संसारावर्तवर्तिनः ॥ संसाराधितटं यांति भेका इव जलांतरे ॥ ५७ ॥ अर्थ--कोई संसारसमुद्र के तरंगमें फंसे हुए जीव संसारमें सुख है ऐसा समझकर संप्तारसमुद्रके तटमें जाते हैं जिस प्रकार मेंढक पानीके तल पर न जाकर तटके तरफही जाते हैं ॥ ५७ ॥ पल्यंकांदोळवाहीभारोहिणो भूभुजो यथा ॥ केचिज्जीवास्तथा शश्वत्स्वर्गारोहणशालिनः ॥५८॥ अर्थ--जिसप्रकार राजा पल्लकी, झूला, घोडा, हाथी इत्यादि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् वाहनपर चढकर आनंद करते हैं उसी प्रकार कोई जीव धर्मके प्रभावसे स्वर्ग में विमानारूढ होकर सुख भोगते हैं ॥ ५८ ॥ पूर्व मुक्तिगती महाविह [ ? ] निजज्येष्ठरमृतेजीव भोः । त्यक्त्वा तद्गमनं क्षणस्मृतिवशात्सर्वार्थसिद्धिं गतौ ॥ तौ द्वौ पण्ड्रसुतानुजाविव तथा स्वान्याभिलाषी तव । ध्याने स्याद्यदि पुत्रजन्मनि मृतौ पूजोत्सवेऽर्थे महे ॥५९॥ अर्थ-पाण्डवपुत्र नकुल और सहदेव मुक्ति जानके लिये पात्र थे। परंतु जिस समय उन्होने तपश्चर्या की उस समय एक क्षणभरके लिये शत्रुवोंकी बाधा न सहन करनेसे एवं धर्मराजका स्मरण आनेसे मुक्ति टलकर उन्हे सर्वार्थसिद्धी जाना पडा । इसलिये हे भव्य ! तुम तप, ध्यान, जन्म, मरण, द्रव्योणर्जन, युद्धस्थान एवं जिनपूजोत्सव आदि समयमें अपने चित्तको स्थिर रखो। प्रत्येक कार्यमें चित्तैकाग्रताकी अत्यंत आवश्यकता है ॥ ५९॥ कारुण्याभूताचेत्ते दयालोः क्रोधोद्रकं कुर्वते कारयति । एते सर्वे हिंसकास्संत आहु- । स्तन्यापारा एव हिंसाक्रियाः स्युः ॥ ६० ॥ अर्थ-करणासे जिसका चित्त द्रवीभूत होगया है ऐसे दयालु संयमियोंके हृदयमें जो कोई क्रोधोद्रेक करते और कराते हैं। उनको महर्षियोने हिंसक कहा है। क्योंकि उनका यह व्यापार हिंसा ही तो है ॥६॥ साधूनां जनयंति चतसि यदा हास्याभिमानारतिकौघैः कामविकारशोकरतिसत्रास गुप्सादिभिः । हिंसाख्यैः परुषैर्वचोभिरमले क्लेश च ये क्षाभणं । वर्षान्दावृतभानुवच्च किल ते पापांबुदेनावृत्ताः ॥६१॥ अर्थ-जो मनुष्य काम, क्रोध, हात्य, रति, अरति, शोक, भय, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण जुगुप्सा इत्यादिकोंकेद्वारा साधुवोंके चित्तमें विकार उत्पन्न करते हों वे जिसप्रकार वर्षाकालमें सूर्य बादलोंसे घिरा रहता हैं उसी प्रकार स्थिर पापोंसे घिरे रहते हैं ॥ ६१ ॥ कंदः पंकेंऽभसोऽधो वसति पुनरसौ यस्य दण्डस्तदूर्वे । पुष्पं पंकेरुहस्येव च सुकृतिजनो भाति पुण्यांबुनाशात् ॥ तानुवृत्याशु खादत्यपि जगति यथा जंतवो बीजपुण्या नुन्मूल्यामूलमेते बहुदुरितजुषोऽदंत्ययरिता वै ॥६२॥ अर्थ-कमलका कंद कीचडमें रहता है, कमलनाल पानीके अंदर रहता है एवं पुष्प पानीके ऊपर रहता है। इसी प्रकार पुण्यवान् सज्जनोंकी वृत्ति है । जिस समय उस तालाबका पानी सूख जाता है उस समय उस कमलकंदको उखाडकर दुष्टलोग उमे खाते हैं इसीप्रकार जिस समय पुण्यात्मावोंका पुण्यजल क्षीण क्षीण होजाता है उस समय दुष्ट लोग उनको जडसे उखाडनेके लिये प्रयत्न करते हैं। उनके सुखका नाश करते हैं, ऐसे लोग इस संसारमें घोर पापका बंध करते हैं ॥ ६२॥ धर्मातरायेण कृतेन विघ्नं दृष्ट्वाधिगम्यैव मुनीश्वरैःके। जैना बभूवुः सुदृशो विशुद्धा मुक्तिं गताःश्रेणिकवत्प्रयांति ॥ अर्थ-बडे २ मुनियोंके साथ जिन्होने द्रोह किया, उपसर्ग किया या धर्ममार्ग में अंतराय किया ऐसे बहुतसे लोग पीछे उसका पश्चात्ताप होनेपर जैनी होगये, सम्यग्दष्टि होकर मुक्ति गये, एवं श्रेणिकके समान जायेंग भी ॥ ६३ ॥ गर्व संत्यज संभजस्व नृपवदेवं गुरुं मंत्रिवसंघ तलवद्विरुद्धचरितं त्वं जीव भो मा कुरु । वैरं वंचनदुर्विवादमनघं त्यक्त्वैव वाक्यं वद । कारुण्यं कुरु भक्तिमेव विलसद्धर्मेच्छयवान्वहं ॥ ६४ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ दानशासनम् अर्थ – हे जीव ! धर्मप्रभावनाकी इच्छासे सदाकाल तू गर्व छोड, राजा के समान देव की सेवा कर, मंत्रि के समान गुरु की सेवा करो, सेना के समान संघ की रक्षा कर, इसके विरुद्ध व्यवहार गत कर, वै साया, वितण्डावाद मत कर, जिससे पाप न हो ऐसे वचन उच्चारण कर, सब प्राणियों पर दया और सज्जनोंपर भक्ति रखो ॥६४॥ " कर्मभावं रचयति कतिचित्तं निरीक्ष्येषयाद्यं । केचित्संशुद्धभावेन च सुकृतचयं प्राप्नुवत्युद्धदृष्ट्या ॥ पूर्ण पद्माकरं तं बहुसतृषनो वीक्ष्य श्रांतः श्रमः को। मीनासक्ताशयः स्याद्विगतघनरसं वांछतीवांहसः कः ६५ अर्थ — कोई धर्मप्रभावना करता है। कोई उसे ईर्षाभाव से देखकर पापको प्राप्त करता है, कोई शुद्ध भावसे उसे देखकर पुण्यसंचय करते हैं एवं स्वर्गादिसंपत्तिको प्राप्त करते हैं । संसारमें देखा जाता है कि कोई बहुत प्यासा व्यक्ति तालाब में पानी भरा हुआ देखकर प्रसन्न होता है | मछली पकड़नेवाला वीवर तालावका पानी सूखनेपर आनंद मानता है । इस लिये भिन्न २ भावोंसे भिन्न २ प्रकारके पापपुण्यों को यह मनुष्य अर्जन करता है ||६५|| 1 स्थित्वा गत्वागत्य ये चैत्यगेहे, वर्तते ते स्वल्पलाभेच्छयैव । संस्थायास्थित्यैव मुक्त्वा गती द्वे, मूढाः पुण्यं नैव किंचिल्लभते ॥ ६६ ॥ अर्थ -- जो जिनालय में जाकर कभी बैठते हैं कभी इधर उधर उठकर जाते हैं । फिर आकर बैठते हैं वे लोग जिनालय में जाकर भी विशेष लाभ नहीं लेना चाहते हैं । स्थिर चित्त से एक जगह बेट १ दूराध्वगा राजभृत्या जिनपूजादिदृक्षवः । राजभोगोचिताः कांताः स्वल्पाहाराः प्रकीर्तिताः ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण कर जिनपूजाविधि को देखने वाले बहुत कम हैं, इस प्रकार अज्ञानीजन पुण्यसंचय नहीं करते हैं ॥ ६६ ॥ केचिद्ध्नंनि जिनोत्सव कुमतयोऽप्यस्मान्न श्रृण्वयंतिष्ठतोऽत्र स तत्स्मयेन किल भी कुर्वन्महांतो वयम् । स्थानीये भवने वृष वपुषि यो वैषम्यवृत्तिर्भवेत् । तत्कालादुपरि प्रणश्यति कृतं दानं च तत्तत्सतत् (१)॥६७ - अर्थ-कोई २ दुर्बुद्धी मनुष्य अहंकार के वश ऐसा सम्झने लगते हैं कि हम इतने बड़े आदमी होते हुए भी इस जिनपूजोत्सव. को करानेवाले व्याक्ति हमसे इस उत्सवको कराने के लिये पूछा नहीं। इस लिए इसके कार्य में विघ्न डालेंगे ऐसे दुराशय से नगरमें, घरमें धर्मकार्य में, उस के शरीरमें इत्यादि अनेक स्थानों में उस श्रावकसे वैरकर उस के उत्सव में विघ्न डालने का प्रयत्न करते हैं वे पापी हैं। उस के सर्व पुण्य नष्ट होते हैं ॥६७॥ एके वित्तपतीनवेक्ष्य दुरित पुष्टिं वहत्यन्वह स्वेके दीनतयाशनं च वसनं चित्तं सदा याचितुं । एके श्रावकमानस कलुषयंत्येके शयानाः परं चैके श्रीजिनबिंबदत्तमनसः पुण्यं लभते ध्रुवं ॥६८॥ अर्थ--जिनालयमें पूजोत्सबके निमित्त गये हुए मनुष्योमें कितने हो श्रीमंतोंको प्रसन्न करनेकेलिये पापको कमानेमें संतुष्ट होते हैं, और कोई दीनतासे भोजन, वस्त्र, धन इत्यादिको मांगनेके लिये तत्पर रहते हैं, और कोई श्रावकोंके चित्तको कलुषित करने में तत्पर रहते हैं, एवं कोई प्रमादसे सोते रहते हैं। परंतु ऐसे भी कुछ लोग रहते हैं जो जिनबिंबकी ओर ही अपना मन लगाकर बैठते हैं वे नियमसे पुण्यसंपादन करते हैं ॥ ६८ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासन एकाः स्वं च पराक्रम व्यवहति दुःख सुखं स्वीयनं । चाख्यात्यामयपापभोजनविधि दृष्ट्वा स्वयोषिज्जनं ॥ पूजामीक्षितुमंतरेण समयं प्रातः पुरं स्वं ययुः पातास्युर्वनिताश्च विघ्नदुरितं दत्ते न किं किं फलं ॥ ६९ अर्थ--कोई २ स्त्रियां जो महोत्सव देखने के लिए आती है अपने २ पक्षके स्त्रियों को देखकर उन से अपने पति के पराक्रम का वर्णन करने लगती हैं। उस के व्यवहार को कहती हैं। अपने सुख दुःखको कहती है । अपने को कोई रोग हुआ हो या कष्ट हुआ हो, उसे कहती है । या भोजनका समाचार कहती है, इस प्रकारकी स्त्रियां पूजा महोत्सव को न देखकर प्रातःकाल होते ही अपने २ गामको चल देती हैं। इस प्रकार पूजाकार्य में विघ्न डालनेवाली स्त्रियोंको पाप क्या फल नहीं देगा ? अपितु अवश्य देगा ॥ ६९ ॥ मत्तत्वैः परिवादनोत्सहसनात्मोत्कर्षणैः कुत्सनैः दर्दोषख्यापनभर्सनैः परयशेलोपात्मीयुद्भवैजनावर्णनयोगिरापारिभवस्थानावमानैरनभ्युत्थानांजलिकाभिवादनमुखैस्सम्यग्गुणोद्धनैः ॥७०॥ बंभ्रम्याखिलहीनयोनिषु चिरं देवादिहानेकधाप्युद्धपोच्चकुले जिन वृषमयं लब्ध्वा सबोध वपुः । कृत्वाची सकलं च दानममलं पश्चात्तु पूर्वी गति । . गंतुं वच्छिंसि जीव मा भन शमं धर्म दयां सर्वदा ॥७१ अर्थ-इस जीवने पूर्वमें अपने मानकषायसे, दूसरोंके तिरस्कार करनेसे, हंसी करनेसे, अपने उत्कर्षकी चाहसे, मन वचन कायकी नीच प्रवृत्तिसे, दूसरों के दोष प्रकट करनेसे, दूसरोंको भर्त्सना देनेसे दूसरोंके कीर्ति लोपने एवं अपने कीर्ति चाहनेसे, जैन मुश्विराके आनेपर उनको स्थान मान देकर एवं उठकर खडे होना, प्रणाम Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण HRAREnter करना, पादस्पर्शन करना आदि क्रियात्रोंसे आदर न करनेसे, अच्छे गुणोंको ढकनेसे, समस्त नीच योनिमें भ्रमण करते हुए दुःख उठाया है । दैवसे अनेकवार उच्चकुलको प्राप्त कर भी दुराचरणसे नीचकुलमें फिर गया है । इसलिये हे जीव ! तूने अब उच्चकुलमें जन्म लिया है, लोकमें सबका हित करनेवाले जैन धर्मको प्राप्त किया है । एवं ज्ञानयुक्त शरीरको भी प्राप्त किया है । पूजा दान इत्यादि सत्कार्योको करनेकी पात्रताभी तुम में मौजूद है इस लिये पहिलेके समान नीच गतियों में जाने की इच्छा मत कर । शांति और दयाकी सेवा सदाकाल करते हुए अपना जन्म सफल कर ॥ ७० ॥ ७१ ॥ नेदं नेदमिदं न यो न कुपितः कर्ता दिक्षागते- । न्द्रादिश्रावकमानसं कलुषयन् संक्षोभयन् जायते स्वास्यात्तोज्ज्वलपवर्तिशिखया स्नेहेच्छुराखुः स्वयं ॥ स्वीयान्वाखिलदेहिनोऽपि दहतीत्यात्मीयगेहादिकं ॥७२॥ अर्थ-जो कोई भी श्रावक जिनपूजोत्सव को जाकर वहांपर कषायोद्रेकसे " यह वह नहीं, वह नहीं ” इत्यादि कषायपूर्ण वचन कहकर इंद्र, गुरु, श्रावक इत्यादि सबके चित्तको क्षभित करता है वह अपना तथा दूसरोंका अहित करता है । जिसप्रकार दीपकका तेल पीनेकी इच्छा रखनेवाला चूहा जलती हुई बत्तीको मुखमें लेकर जाते हुए अपने शरीरको एवं दूसरोंको जला देता है उसीप्रकार जिनपूजोत्सवके समयमें कषायके उद्रेकसे क्रोधित होनेवाला मनुष्य अपने तथा दूसरोंके हृदयमें क्षोभ उत्पन्न करते हुए अहित कर लेता है ॥ ७२॥ कारुण्यात्मधिया शपंति न च न ध्यंति निंदति न । स्वद्रव्यार्थिजना इवानवरत माध्यस्थभावं गताः ॥ नो जल्पति न च स्मति सुधियो धिक्कारवाचं क्वचित् । स्वप्रत्यूहधियैव धार्मिकजना निर्विघ्नपुण्यार्थिनः ॥७३॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दानशासनम् अर्थ – कोई २ सज्जन जिनालय में जाकर करुणाबुद्धिसे किसीपर क्रोधित नहीं होते हैं । किसीकी निंदा नहीं करते हैं, किसीको शाप नहीं देते हैं, अपने आत्मद्रव्यको चाहनेवाले सुनियोंके समान शत्रुमित्रों में माध्यस्थभाव रखते हैं, कोई बडबड नहीं करते । बाह्य विचारोंकी चिंता नहीं करते । कभी किसीका विकार नहीं देते हैं । ऐसे सज्जन धार्मिक हैं । पुण्योपार्जन करनेवाले हैं ॥ ७३ ॥ यो व्ययत्यनिशं तस्य धर्मार्थ धर्मजश्रियम् || श्रीलता त्रिजगद्वृक्षमारोहति विवर्द्धना ॥ ७४ ॥ है अर्थ --जो अपने धर्म से उत्पन्न धनको धर्मके लिये व्यय करता वह अपने संपत्तिरूपी लताको तीन लोकरूपी सबसे बड़े वृक्षपर चढाता है अर्थात् मोक्षसंपत्तिको प्राप्त करता है || ७४ ॥ मिथ्यादृष्टिस्तु वेश्याजन इव सकलान्पुंस एवानुभूत्य । लब्धं देहार्थवित्त सुखमिह सततं वर्तयन्मूर्खजीवः ॥ सम्यग्दृष्टिस्तु साध्वीजन इव गुरुदत्तात्मनाथांतचित्तो ॥ योगे त्यक्त्वात्यचितां निजपतिश्चरणाराधनेकात्मवर्गः ॥ अर्थ - इस संसार में मिध्यादृष्टि वेश्यावों के समान सभी मनुष्यों के साथ व्यवहार कर इस शरीर के सुखके लिये द्रव्यको कमाते हैं; एवं अपनी मूर्खता से शरीर सुखकोही सुख समझकर पापबंध करते हैं । परंतु सम्यग्दृष्टी जीव पतित्रता स्त्रीके समान गुरुवोंके द्वारा दिये हुए व्रतोंको पालन करते हुए अपने स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य करते हुए इधर उधर विचारोंको छोडकर जिनेंद्र भगवंतकी सेवा करनेमें ही दत्तचित्त रहते हैं एवं पुण्यबंध करते हैं ।। ७५ ॥ सा दत्तेधिकृतः प्रजा स च निजाधीशस्य नैजं धनं । स स्वामी निजभाग्यचिह्नमखिलं दत्वैव तं रक्षनि ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण new s nrus - - दातेंद्राय स धार्मिकोऽत्र सकलद्रव्यं प्रदाताईते । स स्वामी निजभाग्यचिह्नमखिलं दत्वा सुखं रक्षति॥७६॥ अर्थ-जिस प्रकार प्रजायें राजाको कर देते समय अपने ग्राम में किसी छोटे अधिकारीको देती है। वह अधिकारी प्रामाधिकारीको देता है फिर वह प्रामाधिकारी अपने उपरके अधिकारियोंद्वारा राजातक पहुंचा देता है। राजा भी हितैषिता पूर्वक प्रजावोंकी रक्षा करता है । इसी प्रकार धार्मिक दाता भी संपूर्ण पूजाद्रव्यको इंद्रके ( देवार्चक ) पास भेजें इंद्र उन द्रव्योंको भगवान्की सेवामें अर्पण करें । इस प्रकार परम भक्तिसे जो भगवान् जिनेंद्र की पूजा की जाती है उससे फलरूप स्वर्गादि संपत्तिरूप सुग्वको यह मनुष्य प्राप्त करता है ॥७६॥ हितमितसविनयवाग्भिर्दाताखिलधार्मिकोऽजनं ॥ शक्त्युचितधनं दत्वा कुर्यादिन्द्रस्य तस्य सत्कारं ॥७७॥ अर्थ-धार्मिक दाता हित भित मधुर व विनययुक्त वचनोंसे युक्त होकर अपने शक्तिके अनुसार धन देकर उस देवार्चकका सत्कार करें ।। ७७ ॥ स्नानाभ्यंगविलेपनस्यवमनस्रक्पुष्पभूषापट- । श्रृंगारं वठरत्वनिष्ठुरवचः क्रोधांगसम्मर्दनम् ।। तांबूलांजनदतधावनलतांताघ्राणकंडूनन । भ्रविक्षेपणकामवैकृतमिदं चैत्यालये वर्जयेत् ॥ ७८ ॥ अर्थ-स्नान करना, तेल वगैरह मलना, नरयसेवन करना, सुगंधित पदार्थोका हेगन करना, पुष्पमाला वगैरह धारण करना, आमरण वगैरह धारण करना, श्रृंगार करना, हल्ला करना, क्टुवचन कहना, क्रोधित होना, शरीर मलना, तांबूलसेवन करना, अंजन लगाना, दांतुन करना, नद्दी चढाया हुआ फूलको सूधना, खुजलाना, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् आंखोंके भएको चढाना, कामविकारसे युक्त होना, ये सब जिन मंदिरमें निषिद्ध हैं अर्थात् ऐसी क्रियायें मंदिर में नहीं करनी चाहिये ॥ ७८ ॥ मात्सर्य च मदाष्टकं च शपनं निर्भत्सनं विकृति । निंदा दोषकरोक्तिभोजनविधि दुःकामशास्त्रश्रुति । खटांदोलनसंस्थितं च शयनं निद्रां च तंद्रां कलिं ॥ रागद्वेषमनारतं स सुकृती चैत्यालये वर्जयेत् ॥ ७९ ॥ अर्थ-मत्सरभाव, अष्टमद, दूसरोंको शाप देना, क्रोधभरे वचन कहना, धिक्कार देना, निंदा करना, दोषपूर्ण पचन कहना, भोजन करना, कामशास्त्रादिकका सुनना, खाट, झूला वगैरहमें बैठना, सोना, नींद लेना, आलस करना, रागद्वेष करना एवं पूजा आदिको देखनेमें चित्त लगाना यह सब जिनमंदिरमें वर्ण्य है ॥ ७९ ॥ हास्यं नर्मपदप्रसारणकरस्फोटोगसंस्कारता । भ्याख्यानं करताडनं क्षुतमसत्यालापनिष्ठीवनं ॥ जुभं कर्दनगात्रभंजनमवष्टंभं सदा पर्दनम् । सर्व श्रीजिनसाधुसमनि नृपास्थाने यथा वर्जयेत् ॥८० अर्थ-हास्य करना, सरस कथालाप करना, पैर फैलाना, हाथको मोडकर छुटकी निकालना, शरीरका संस्कार करना स्त्रीपुरुषोंके गुप्त रहस्यको प्रकट करना, ताली बजाना छींकना, असत्य बोलना, थूकना, जंभाई लेना, शरीरको तोडना, लेटना, पादना आदि अयोग्य क्रियायें राजाके आस्थान में जिस प्रकार निषिद्ध है उसी प्रकार जिन मंदिर व साधुवोंके स्थानमें ये क्रयायें निषिद्ध हैं ॥ ८ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण राजापि विकुर्वते परिहसत्याख्याति भण्डोक्तिकाः । खुर्दते परिहासयति खलु ये नीचास्त एवाखिळाः ॥ भण्डास्ते परिहासका इति जनाः संतः स्मरत्यन्वहं । ये साधोस्त इवाचरंति सृजनास्तेषां सहक्षा इति ॥ ८१ ॥ अर्थ - राजा के सामने जो विकृत आचरण करते हैं, परिहास करते हैं, उनको सज्जन लोग भाण्ड कहते हैं । ये नीचकुलमें उत्पन्न होते हैं । जो सभ्यताका आचरण करते हैं उनको सज्जन कहते हैं । इसी प्रकार जिनालय में जाकर नीचवृत्ति करनेवाले भाण्ड ही हैं। नीच हैं । जिनालय में सभ्यवृत्तिसे रहकर जिनभक्ति करनेवाले ही भव्य पुण्य संपादन करते हैं ॥ ८१ ॥ १ यथा मिथ्याविनां नृणां गुणापातश्रुतिर्वृथा । तथा दुष्कृतवृत्तीनां पुराणश्रवणं वृथा ॥ १ ॥ ये व्यर्थोक्तिभिरुत्कटं सहस कोलाहलं कुर्वते । साधोर्हति शमं मनोविकलता ध्यानं मनोऽस्वस्थता ॥ क्रुस्स्यात्कुप्यत एव यत्र यतिभिर्वीक्ष्याखिलाः श्रावकाः ॥ तान्कुप्यति सपुण्यभक्तिचरितश्रद्धाश्च निघ्नंति ते ॥ दुष्ट राजकथाकामक्रोधवृद्धिकरी कथा | हत्कालुष्यकरी साधेर्विकथेत्युच्यते बुधैः ॥ 1 स्त्रीर्गच्छति वसतौ ताभिस्स रसं करोति संलपति ॥ तामालिंगति स पुमान् निस्वः षण्ढः सुखे च मूढः स्यात् । सोपानत्कजना जिनालयगता गर्वात्प्रमादाच्च ये । जायंते खलु सप्त जन्मनि सदा मातंगजातौ च ॥ सम्प्रस्रावमलांम्रयः सति अजात्रै सुतकस्पर्शिनः श्वित्राद्यामयदुःखिनो जिनगृहाविष्टा भवेयुर्भुवं ॥ विना पूजोपकरणैः स्वस्वद्रव्याणि ये नराः ॥ स्थापयंति जिनावासे ते ते स्युः पापमूर्तयः ॥ जलं विना यथा सर्वद्रव्याणां जन्म भूतले ॥ स्नेहं विना निजात्मार्थ पुण्यानां जननं तथा ॥ 7 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् स्नेहं कुर्वन्तुरकटं संघवर्गे शुद्धस्तस्मिन्वावगाह निमग्नः । क्रुदानुन्मूल्येव दोषान् लभेत क्षेत्र शुष्क धान्यलाभं कुटुंबी ॥ अर्थ- जिस प्रकार किसान सूखे खेतमें पानी इत्यादिका सिंचन करके एवं अनेक प्रकारसे संस्कार करके धान्य की प्राप्ति करता है. उसी प्रकार धार्मिक वर्गमें उत्कट स्नेह करके उनके क्रोधादिक विकारोंको शांत करना चाहिये तब जिनाजा करानेवाले को विशिष्ट पुण्यबंध होता है ॥ ८२ ॥ शालिः सज्जनयोगताऽनमभवन्मयं कुयोगाद्यथा। पथ्या पंचरसा लापहरणे दग्धा मलग्राहिणी ॥ नाभिस्साधुसुयोगती मृतमिव स्यात्साधुसंयोगतः ॥ सद्भावं भज साधुतां भज जिन साधुं स्मरन्पूजय ।।८३॥ ___ अर्थ-सज्जनोंके संसर्गसे शाली सस्यसे धान्य निकलते हैं। दुष्टोंके संसर्गसे मद्य निकलता है । पंचरस से युक्त हरडा मल को अपहरण करने में सहकारी है। उसी को यदि जलाकर उपयोगमें लावे तो मलनिरोध में सहकारी हैं । बछनाग सरीखा विष भी योग्य संस्कार करनेवाले वैद्योंको हाथ में जावे तो अमृतके समान हो जाता है। वही यदि नीचवृत्तिवालोंके हाथमें आवे तो विषके समान उपयो गमें आता है। यह सब संसर्ग का प्रभाव है। इस लिए आत्मकल्या. णकी इच्छा रखनेवाले भव्य जीव सदाकाट शुभ परिणामोंमें ही अपने आत्माको लगायो, सजनों की संगति करो, जिनदेव, जिनमुनियों की सेवा व पुजा करो, तब तुम्हारा आत्मा उच्च बनेगा ॥ ८३ ॥ गंधांमःमुममहदंघियुगसंम्पर्शान्पवित्रीकृत। देवेंद्रादिशिरोललाटनयनन्यासचितं मंगलं ॥ तेषां स्पर्शनतस्त एव सकलाः पृता अभोगोचितं ! भाले नेत्रयुगे च भूपनि नया भजनेर्यताम् ।। ८.५।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदानानरूपण अर्थ-भगवान्के चरणमें चढाये हुए गंधोदक पुष्प वगैरह भगवान्के पवित्र चरणके स्पर्श होनेसे पवित्र हो जाते हैं । अत एव देवेंद्रादिके भी ललाट, मस्तक नेत्रमें धारण करने योग्य हैं। उनके स्पर्श करने मात्र ही पूर्व में अनेक जन पवित्र होचुके हैं। इस लिये उन गंधोदक आदिका मन्यजीव सदा ललाट, नयनद्वय व मस्तकमें सदाकाल भक्तिसे धारण करें ॥ ८४ ॥ सिद्धक्षेत्रगतीच्छयैव निटिले गंधोऽचितों लिप्यते । दृष्टिज्ञानविशुद्धयेऽचिंतजलं दृष्टिद्वये षिच्यते ॥ ब्रह्मत्वस्पृहयैव मूर्ध्नि कुसुमं संधार्यते पूजितं । जैनस्तत्रयमेव धार्यमनिशं रत्नत्रयव्यक्तये ॥ ८५ ॥ अर्थ-मोक्षस्थानको प्राप्त भगवान् सिद्धों के चरणमें चढाया हुआ गंध ललाटमें इसलिये लगाया जाता है कि सिद्धस्थानमें अपना गमन शीघ्र हो । दोनों आंखोंमें गंधोदक लगानेका प्रयोजन यह है कि हमारे सम्यक्त्व व ज्ञानमें विशुद्धि होवे । मस्तकमें भगवान्का चढाया हुआ पुष्प धारण करनेका प्रयोजन यह है कि हमें आत्मतत्वकी सिद्धि हो, जैनकुलोत्पन श्रावकोंको उचित है कि सदा रत्नत्रयके प्रकट होने के लिये उन तीनों स्थानोंमें गंध, उदक, और कुसुमको धारण करें ॥८५॥ भोगेच्छयैव नादेयं गंधांबुकुसुमत्रयं । मुनयो मितमादेयं प्रसादं प्रवदंति तत् ॥ ८६ ॥ अर्थ-भगवान्को अर्चित गंध, कुसुम, गंधमिश्रित कुसुम भोगकी इच्छासे कभी ग्रहण नहीं करें, भक्तिसे प्रसाद समझ कर थोडा ग्रहण करें । इसे मुनिगण प्रसाद कहते हैं ॥ ८६ ॥ शुद्धावभिषिक्तजलं सिंचेत्पूर्वांगमाईपपि भूरि । लिपेदचितगंधं रक्षार्थ युधि च सूनपीडायां ॥ ८७ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् लनमालामाल - ___अर्थ--प्रायश्चित्तमें शुद्धिविधानके लिये गंधोदकको मस्तकसे लेकर कटीपर्यंत गीला हो वैसा सेचन करें | भूत प्रेतादिक ग्रहोंकी पीडासे व युद्धक्षेत्रसे रक्षाके लिये गंधोदकको लेपन करें ॥८७॥ दुष्टैः पीडितमानवोत्र सुमनाश्चाश्रित्य भूपं यथा। दुष्टान्वारयितुं सुखं च सुकृतं लब्धं त्रिधा सेवते ॥ पापैः पीडितमानवोपि सुमनाश्चाश्रित्य देव गुरुं ।। पापं वारयितुं सुखं च सुकृति स्वर्गापवर्गप्रदं ।।८८॥ अर्थ-जिस प्रकार दुष्टोंसे पीडित मनुष्य दुःखसे बचने के लिये, दुष्टोंको निवारण कर सुखकी प्राप्तिके लिये राजाके आश्रयमें जाता है एवं मन वचन कायसे उसकी सेवा करता है उसी प्रकार पापोंसे पीडित मनुष्य पापोंके व तज्जन्य दुःखोंके निवारणके लिये एवं सुखकी प्राप्तिके लिये देव व गुरुकी मन वचन कायसे सेवा करें, देव गुरु सेवा का फल इस लोकमेंही नहीं परलोकमें सुखप्रद है, स्वर्गदिक सुखोंको अनुभव कराकर मोक्षसुखको प्रदान करनेवाला है ॥ ८८ ॥ यो जीवान्स्वगृहस्थितान्न दयते स्याद्योगतोऽनारतं ॥ तस्यांतः सुकृतक्षयस्तमखिला पापीत्युशंति क्षितौ ॥ क्लिष्टश्वासजतापदग्धसुकृतः पुण्याभिवृद्धि क्रियाः। सर्वा निष्फलता प्रांति बलवत्पापाभिवृद्धिः परा ८९ अर्य-जो स्वामी अपने घरमें अपने आश्रयमें रहनेवाले द्विपदचतुप्पद जीवोंपर दया नहीं करता है वह सदा पापबंध करता है, उसके पुण्यका नाश होता है। इतनाही नहीं उसे लोकमें सब पापी ऐसा कहते हैं । दूसरे प्राणियोंको क्लेश पहुंचानेके कारण उनके आहसे उसका पुण्य जलते हैं अत एव पापकी वृद्धि होती है। स्वाश्रित जीवोंपर दया करनाही, श्रेयस्कर है ।। ८९ ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण राजश्वक्रमवंति शत्रुहनने दक्षं यथा कार्षिकाः । कृष्यर्थं भृतिभुग्वृषानपि सदा रक्षति लोके यथा ॥ सद्धर्मानुगुणं परिग्रहमिमं पांत्येव तेषामयः । याद्धर्माननुकूलरक्षणविधिविष्टक्रिये वाघदा ॥ ९० ॥ अर्थ - जिसप्रकार राजा शत्रुत्रोंसे अपनी रक्षा के लिये समर्थ सेनाका रक्षण करते हैं, किसान लोग कृषि के योग्य बैल मनुष्य आदि की रक्षा करते हैं उसी प्रकार धार्मिक गृहस्थोंको उचित है कि वे धर्म के अनुकूल परिग्रहों की रक्षा करें अर्थात देवकार्य, राजकार्य, गाईस्थ्यकार्य एवं व्यवहारकार्यको संपन्न करनेके लिये अपने कुटुंबीजनों की रक्षा करें, अपने आश्रित जनोंपर अनुग्रह करें, यहांतक इसी उद्देइसे गाय भैंस आदिको भी पालन करें, इस प्रकार पुण्यमय उद्देश्य से किये हुए कार्यसे पुण्यबंध होता है । इसके विरुद्ध जो आचरण करते अर्थात् उपर्युक्त चार प्रकारके उद्देश विरुद्ध आरंभ करते हैं वे पापका संचय करते हैं जैसे किसको पकडकर बलात्कारसे उससे कार्य कराना पापके लिये कारण होता है ॥ ९० ॥ ५७ ग्रंथपुरदेश सैन्यं यस्य भवेन्नानुकूलमपि तस्य । पुण्यं न नार्थलाभो यशो न भूतिर्न हानिरतिभीः स्यात् ॥९१ अर्थ - जिसके लिये परिग्रह, पुर, देश, सेना आदि प्रतिकूल है उसको पुण्यकी प्राप्ति नहीं, अतएव सुख नहीं, द्रव्यलाभ नहीं, यश की प्राप्ति नहीं, ऐश्वर्यकी उसे प्राप्ति नहीं होसकती, प्रत्युत उनसे उसकी हानि होती है और अतिशय भय उत्पन्न होता है । इसलिये इन सबको अपने अनुकूल बनाने से गृहस्थजीवन सुखमय होता है ॥९१॥ ग्रंथः पापागतस्तप्तो निस्वतोऽनन्नतोऽनिशं । star आदतं मुक्तिद्रव्यं स्वकर्तृतः ॥ ९२ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् RAANVVRANVARNRANVANGLALAAAAAA शत्रुणा पीडित इव ग्रंथस्तं पीडयत्यलं । स निस्ववृद्धवद्भाति तस्य लक्ष्मीनिरेत्यरं ॥ ९३ ॥ अर्थ-पापोपार्जित परिग्रह, रोगीसे, दरिद्रीसे, भूखेसे, क्रोधित होकर अपहरण किया हुआ द्रव्य सदा वर्जनीय है । वह परिग्रह शत्रुके समान पौडा देनेवाला है । वह यदि श्रीमंत होनेपर भी पापोदयसे उसके पाप से दरिद्री वृद्धको तरुण स्त्री जिस प्रकार छोडकर चल जाती है उसी प्रकार लक्ष्मी उसको छोडकर चली जाती है ॥ ९२ ॥ ९३ ॥ गोवर्गगुप्तिविधिदुर्बलकार्षिका स्यात् । । ज्ञात्येव नोऽयमिति कस्य मुरक्षरक्ष, उक्त्वेति तं प्रवितरति यथाश्रितानां ॥ त्राणासमर्थनृपतीन्खलु मुंच शीघ्रं ॥ ९ ॥ अर्थ--जो किसान बहुत दयासे युक्त होकर गाय आदिकी रक्षा करता है एवं उनको हरतरहसे सम्हालता है, वह जब उनकी रक्षा करनेमें असमर्थ हो जाय तो उस समय उन प्राणियोंको भूखे मारने इत्यादि में पाप होता है ऐसा समझकर उसे किसीको दे देता है परंतु देते समय इतना जरूर कह देता है कि इसको अभी तक मैं बहुत प्रीतिसे पालन पोषण कर रहा था, अब असमर्थ होनेसे तुमको सोंप रहा हूं इसलिये तुम इसकी अच्छी सम्हाल करना, इसे कोई कष्ट न होने पावे । ठीक इसी प्रकार अपने आश्रित जनोंकी रक्षामें असमर्थ राजा उनको रक्षा करनेकी प्रेरणा करते हुए दूसरोंको सोंप देवें । यह भी अभयदानही है ॥ ९४ ॥ भूपा भुवं पांति त एव संतस्तानव लांत्यादधते सदैव । भूपालशब्दस्य निरुक्तिरुक्ता वीक्ष्यावबुध्यार्थमलं वदेत्ता ९५ अर्थ---इस पृथ्वी में रहनेवाले जीवोंको न्यायनीतीसे जो रक्षा करते हैं वे ही भूप कहलाते हैं । वे ही सत्पुरुष हैं । वे सत्पुरुषोंका Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण एवं उत्तम पात्रोंका सदा आदर करते हैं इसलिये उनको भूपाल कहा है । इस प्रकार भूपाल शब्दकी निरुक्ति है । इस बातको समझकर राजावोंको अभयदानके पालन करनेका आदेश दिया गया है ॥९५॥ एतेषां तु दुरथिनामघवतामापत्ति भाजां नृणां । दत्वा भीतिकरं विलिख्य लिखितं पत्रं वचः संपुटे ॥ मा भैषीगणकैः पुरोऽपि जगतामुक्त्वा कृतप्रत्ययः । सन्नद्धाखिलमोघवाक्स च यथा लोको यथा वर्तते ॥९६ सामोघोपि तथा तथा विकुरुते द्रव्यातिकांक्ष्येन स । हृत्वा तविणं यदा तदखिलं निर्विश्यते तेन सा, क्ष्वेडान्नात्सरतीव जंतुरमला लक्ष्मीनिरेति क्षणात् ॥ तस्माद्दुःखकरक्रियातिचतुरैर्भव्य समालोच्यताम् ॥ ९७ अर्थ-जो दीन, पापी, संकटग्रस्त मनुष्य हैं उनका भय दूर करना चाहिये । तथा उनको लिखकर और बोलकर अभय देना चाहिये । अर्थात् तुह्मारा भय मैं दूर करूंगा ऐसा वचन कहकर उनको संतष्ट करना चाहिये । परंतु ऐसा अभयवचन देकर भी यदि वह रक्षण नहीं करेगा । द्रव्यके लोभसे संकटग्रस्तोंका धन छीन लेगा और उसको उपभोग लेगा तो लक्ष्मी उस राजाके पास न रहकर अन्यत्र जायगी। जैसे विषसे प्राणी दूर भाग जाता है इस वास्ते प्राणिओं को दुःख देनेवाले कार्य छोड देना चाहिये । हे भव्य हो आप इनका खूब विचार कर ऐसे कार्योका त्याग कगे ॥९६ ॥९७॥ चित्ते समनि पत्तने स्वविषयेऽपुण्यस्य यस्यान्वहं । दुर्भावोऽशनपीडना बहुविधा वृत्तिर्भवेन्नारकी ।। दुष्टायत्तविधिर्जनः सुजनता रोरूयते क्लिश्यते । लक्ष्मीनिर्गमनाय लक्षणमिदं संतो जुगुप्तस्य हि [, ॥९८॥ अर्थ-जो राजा पुण्यहीन होगया है वह अपने दुर्भारके वशी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० दानशासनम् RAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAARAM भूत होकर अपने चित्तमें, महलमें, नगर में एवं अपने देशमें सदा काल प्राणियोंको कष्ट पहुंचाता रहता है । अपने स्वार्थकी पुष्टिक लिये उन आश्रितजीवोंको अनेक प्रकारसे पीडा देता है यह नारकी वृत्ति है। इस प्रकारकी दुष्टवृत्ति से सज्जनलोगोंको हरतरहसे कष्ट पहुंचाया जाता है। सज्जन लोग ऐसे राजासे घृणा करते हैं । यह सब राजाके ऐश्वर्य उसके हायसे जानेके चिन्ह हैं ॥ ९८॥ नाहं त्वं दुष्कृतोऽहं बहुसुकृतफलस्त्वंनृपोऽहं कुचारी। त्वं दाता याचिताहं त्वमरिकुलभयो भीतिरको बुधस्त्वं ॥ स्तुत्यःस्तोता विवेकी त्वमहमपि जडः श्रावणीयः सुवक्ता। त्वं स्वामी सेवकोऽहं त्वमिह भज निजां पुण्यवृद्धि क्षितीश॥९९ अर्थ-अपने रक्षक राजाको अभयदान पालन करने के लिये इस प्रकार प्रेरणा करें कि हे राजन् ! तुम पुण्यवान हो, मैं पापी हूं, तुम बहुतसे अच्छे आचरणोंको पालते हो, मैं दुराचारी हूं, तुम दाता हो, मैं याचक हूं, तुम शत्रुवोंको भय उत्पन्न करनेको समर्थ हो, मैं भयभीत होने योग्य हूं, मैं मूर्ख हूं, तुम बुद्धिमान् हो, तुम स्तुतिके योग्य हो, मैं स्तुति करनेवाला हूं, तुम विवेकी हो, मैं अविवेकी हूं, तुम सुवक्ता हो, विशेष क्या ? तुम स्वामी हो मैं सेवक हूं, तुम रक्षक हो मैं रक्ष्य है। इसलिये मेरी रक्षा करना तुम्हारा धर्म हैं । हे राजन् । तुम्हारा कर्तव्य पालन कर तुम यथेष्ट पुण्य संपादन करी ।। ९९ ।। धर्मागसां शुभान्येव कर्माणीश विशति न । यथा संयमिनश्चैतेष्वारिष्टांदिशवालयान् ॥ १० ॥ ___ अर्थ-जिस प्रकार संयमीजन जिस घर में कुत्ता धुसगया है, जहां प्रसूति होगई है, कौआ जिस घरमें घुसगया है, चाण्डालने जिस घर में प्रवेश किया है ऐसे घरमें प्रवेश नहीं करते हैं उसी प्रकार धर्मापराधी अर्थात् देवधर्म और राजधर्मके विरोध में चलने वालोके घर शुभ क्रिया Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण व लक्ष्मी ये दोनों प्रवेश नहीं करती है। शुभाचरण करनेवालोंको देखकरही लक्ष्मी उनके घर जाती हैं, प्रत्युत ऐसे दुराचारी अशुभ क्रियावोंसे दरिद्रीही बनते हैं ॥ १० ॥ सहस्रजनभोगेऽपि वंध्यायां न तुजो यथा । तथा पापात्मके पुंसि, नोद्भवंति शुभक्रियाः ॥ १०१ ॥ अर्थ--जिस प्रकार हजारो आदमियों के संभोग करनेपरभी वंध्याको संतानोत्पत्ति होती नहीं इसी प्रकार पापी मनुष्योमें किसीभी प्रकार शुभाचरण उत्पन्न नहीं होते हैं ॥ १.१॥ . सात्मवपुः शुद्धमिदं मळीमसं विमलमाहुरेवार्याः। स्यात्तदपुण्यं शवमिव विबुधैरधिगम्य वन्हिदग्धं तैः १०२ अर्थ-पापक्रियावों से पापबंध होता है, मनुष्यको पुण्यकर्मसे सब कुछ प्राप्त होते हैं । इस शरीर में जबतक आत्मा रहता है तबतक मलिन होनेपरभी पवित्र माना जाता है । कोई उसे स्पर्श करनेमें घृणा नहीं करते हैं । परंतु जब पुण्यहीन होनेसे उससे आत्मा निकल जाता है तब वह शरीर अस्पृश्य माना जाता है एवं जिस शरीरको हम बडा 'भादर करते थे उसीको जलाते हैं । यह क्या ! यह सब पुण्यपाप कर्मोकी महिमा है। इसलिये मनुष्यको सदा पुण्यके साहचर्य प्राप्त करना चाहिये ।। १०२॥ तातं स्वामिनमुत्तमार्यमनुज जामातरं मातरं । मातारं बुधमिष्टसेवक कुलज्येष्ठं गुणं वल्लभां ॥ मित्रं स्वामिबलं स्वबान्धवजनं जैनं जनं धार्मिकं । यः स्यानिंदति तस्य चायुरयशःश्रीस्थानवेशक्षयः ॥ अर्थ-जो मनुष्य अपने पिता, गुरु, स्वामी, उत्तम सज्जन, जमाई, माता,विद्वान , इष्ट सेवक, कुलगुरु, भाई, अपने स्त्री, मित्र, स्वामि, सेना Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् अपने बंधुजन, धार्मिक, इत्यादि को निंदा करता है उसकी आयु, यश संपत्ति, स्थान इतनाही नही वंशका भी नाश होता है ॥ १०३ ॥ सर्वशं परमागमं जिनमुनि दोषव्यपेतं व्रतं । यद्गोत्रं च गुरुं च निंदयति यो द्रव्यं च देवस्य यः ॥ आदत्ते द्विजबालगोत्रजहति योऽसौ कुतर्क करो। त्यल्पायुर्नरकादिदुर्गतिरभाग्यं तस्य सत्यं भवेत् ॥ १०४ अर्थ-सर्वज्ञ तीर्थकर, परमागम शास्त्र, तार्थंकरों के प्रतिकृति ऐसे जिनमुनीश्वर, दोषरहित चारित्र एवं सद्गोत्र, गुरु इत्यादिकी निंदा करता है एवं जिनमंदिर आदिके उपयोग में आनेवाले देवद्रव्यको जो अपहरण करता है, ब्रह्महत्या, बालहत्या व अपने बंधुहत्या जो करता है, एवं समीचीन विषयमें कुतर्क कर विसंवाद उपस्थित करता है वह अल्पायुष्यवाला होता है, एवं परभवमें नरकादि दुर्गतीमें ज.कर दुःख भोगता है । एवं पुण्यहीन होता है इसमें कोई भी संदेह नही ये घ्नंति तेजांसि नृपाश्च येषां तेषां क्षयेत्पूर्वगिरीदुवत्तत् । निस्तेजसो दुःखमयंति सद्यः श्वायंतगा भूरि यथा शशायाः अर्थ-जो राजा दूसरों के तेजको नष्ट करना चाहते हैं उनका तेज भी उदयाचल में प्राप्त चंद्रमाके समान निस्तेज बन जायगा, जिस प्रकार कुत्ते वगैरह पशुओंके बीच में फंसे हुए खरगोश इत्यादिका जीवन संकटमय रहता है इसी प्रकार उस मत्सरी राजाकाभी जीवन सदा संकटापन्न समझना चाहिये ॥ १०५ ॥ विप्रादिजनहिंसैव यस्य देशे च वर्तते ।। तस्यावासः पुरं देशो लक्ष्मीरन्यं समाश्रयेत् ॥ १०६ ॥ अर्थ-जिस राजाके राज्य में ब्रह्महत्या आदि हिंसात्मक प्रवृत्ति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण होती हो उस राजाके महल, नगर, देश व संपत्ति अवश्य उसको छोडकर अन्यराजाके आश्रय करते हैं ॥ १०६॥ . द्रव्यमेकमिदं सर्व स्याच्छुभाशुभसूचकं । वाद्यध्वनिरिवाभाति स्याच्छुभाशुभसूचकः ॥१०७ ॥ अर्थ-जिप्त प्रकार वाद्यको ध्वनि विवाहादि मंगलकार्यो में शुभ सूचक है और शवविहारादि में अशुभसूचक है उसी प्रकार यह संपत्तिका सज्जनों के हाथमें जानेसे शुभकार्यों में विनिमय होता है एवं नांचोंके हाथमें जानेसे अशुभकार्योंके उपयोगमें आता है। १०७ ॥ दत्तं संपार्थ्य वित्तं विरचयति तयोरादरेणोभयोस्स- । त्पुण्यं सौख्यं सकोपं विफलकरमिदं चौर्यतो मूलनाशं ॥ यव्ये वंचनेनार्जितमिदमदनं भूरिद्रव्यार्जितं चेत्तद्वैरुप्ये च नश्यद्वयवहतिरिपुचौर्याधमर्णाग्निभूपैः १०८ अर्थ- जो कोई दीन आकर विनयसे धार्मिक दानीसे द्रव्य की याचना करे उस समय वह दयासे उसे इच्छित पदार्थको देवें तो उसमें दोनोंको मानसिक सुख होता है, दोनोंको पुण्यकी प्राप्ति होती है । यदि याचना करनेपर क्रोधित होकर देखें तो उस दानका फल व्यर्थ होता हैं । चोरी करके दान देखें तो मूलद्रव्यको भी लेकर जाता है । दुनियाको धोका देकर यदि कमाया हुआ द्रव्य हो तो वह दरिद्रताको प्राप्त करता है, यदि धन प्राप्तकर फिर गर्व करें तो वह धन व्यवहार, शत्रु, चोर, नीचोंका ऋण, अग्नि, दुष्टराजा इत्यादि कारणसे नष्ट होगा ॥ १०८ ॥ यः स्यादागतवंतमन्याविषयादीरं च वीरं नृपं । वैद्यं ज्योतिषिकादिसर्वमनुजानिष्कासयन् मारयन् ॥ तस्यैतद्धनमाहरन् कलुषयन् शीर्षागलिन्यासनं । धिक्कारं खलु कारयन्नभयदानायुःकुलादिक्षयः ॥१०९॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક निशासनम् अर्थ - - दूसरे देश से पीडित होकर आये हुए वीर भटोंको, वीर राजावोको, • चिकित्सा प्रवीण वैद्योंको, ज्योतिषियोंको, एवं और भी मनुष्यों को अपने राज्यसे मारकर एवं उनके धन अपहरण करते हुए उनके चित्तमें संक्लेश उत्पन्न कर इतनाही नहीं उनको अनेक प्रकार से धिक्कार देकर निकालता है वह राजा अत्यंत पापी है 1 अनंत गुणों को देनेवाला अभयदान उसका नष्ट होता है । उसके आयुका क्षय होता है, वंशसंपत्ति इत्यादि सबका क्षय होता है ॥ १०९ ॥ विघ्नस्त्वभयदानस्य शत्रुपातितसालवत् । तटाक भेदवन्मुख्यमस्त्रक्षतद्भवेत् ॥ ११० ॥ अर्थ - - अभयदान में विघ्न डालनेका फल इस प्रकार दुःख देता है कि जैसे कोई किलेको शत्रु आकर घेरे, अथवा भरा हुआ तालाब फूटे उस प्रकार अथवा मर्मस्थान में लगा हुआ अस्त्र के समान, अर्थात् अभयदान में विरोध करनेसे महान् दुःख प्राप्त होते हैं ॥ ११० ॥ स्वर्गानवितुं ददासि रिपवे गात्रं स्वयं भूषया । न्यूनं जातमशेषमेकविलये भृत्यप्रजानां न सः ॥ नाशं वेत्सि जिनोत्सवस्यै कुरुषे किं जुनमेतेन ते । स्वस्थानत्रयवर्जनं तव त्रिवर्षाभ्यंतरे स्याध्वं ॥ १११ ॥ अर्थ – हे राजन् ! तुम तुझारे राज्य, तुहारे नगर में स्थित सेवक बगैरह की शत्रुत्रोंसे रक्षा करने के लिए अपने प्राणोंतकको देनेके लिए तैयार होजाते हो, एवं अपने परिवार के नष्ट होनेपर सब कुछ नष्ट हुआ ऐसा समझते हो ऐसी अवस्था में जिनोत्सव आदि में विघ्न आनेपर उसको दूर करनेका कार्य तुह्मारा नहीं है ? | उसमें न्यूनता आनेसे तुलारे कार्य में न्यूनता नहीं है ? धर्ममें हानि होनेपर तुममें व तुम्हारे राज्य में हानि होती नहीं क्या ? धर्ममें हानि पहुंचनेपर तीन वर्षके अंदर ही तुझारे राज्य नगर देशके परिवारका नाश होगा । इसलिए Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण अन्य प्यारे पदार्थों के समान धर्मको भी प्राण जानेपर भी उसमें हानि नहीं पहुंचने देना चाहिये ॥ १११ ॥ ६५ ये कुर्बति जिनोत्सवेष्वसरला विघ्नं दिदृक्षागतां - । स्तनिंद्रानपि संघ सेवकजनानन्यस्तिरस्कुर्वते ॥ छिन्द्युस्ते जिनधर्ममात्मसुकृतं स्वर्गापवर्गप्रदं । तेषां स्त्रीसुतमित्रराज्यविभवच्छेदोऽपि संजायते ॥ ११२ ॥ अर्थ -- जो कुटिल श्रावक जिनपूजाको देखने के लिए जिनमंदिर में जाकर जिनपूजा में विघ्न डालते हैं, एवं जिनपूजा देखनेकी इच्छासे आनेवाले श्रावकोंको विघ्न डालते हैं, एवं इंद्रके समान रहनेवाले पुरोहितोंको उनके कार्य में विघ्न डालते हैं, एवं चतुःसंघकी सेवा करनेवाले धर्मात्माओं को बाधा पहुंचाते हैं एवं अन्यस्थानीय श्रावकोंका तिर - स्कार करते हैं वह अपने धर्म, स्वर्ग मोक्षको देनेवाले निर्मल पुण्य इत्यादि सबका तिरस्कार करते हैं ऐसा समझना चाहिये अर्थात् उनको तीव्र पापबंध होता है। एवंच उनके स्त्री, पुत्र, धन, मित्र, राज्यादिवैभव आदि सब इसी पापके कारणसे नष्ट होते हैं ॥ ११२ ॥ देशे नष्टे धनमुखसमस्तार्थनाशो भवेद्वा । स्थानीये स्यात्स्वबलतनुवत्स्वावरोधादिनाशः ॥ श्रुत्वा दृष्ट्वा रिपुजनहते राज्ञि तूष्णीं स्थितेऽज्ञे । धर्मोत् तमधिपते (१) सर्वनाशस्त्रिवर्षात् ॥ ११३ ॥ अर्थ – राजा यदि शत्रुओंके द्वारा देशके नष्ट होने की बात सुनकर चुप रहता है अर्थात् प्रतीकार नहीं करता है उस अवस्थामें उसके देश के समस्त द्रव्य नष्ट होंगे । यदि अपने स्थानीय राजधानीको शत्रुओंने आकर घेर लिया उस अवस्था में वह चुप रहेगा तो शत्रुसेना आकर उसकी सेना वगैरह को वशमें करलेगी । इतना ही नहीं उसके सब राज्यसंपत्तिको छीनकर अंतःपुर में रहनेवाली राणियोंको भी बिगा - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् iewwwmamanna डेगी । एवं धर्मकार्यमें विघ्न आनेपर, धार्मिक मार्ग में संकटके उपस्थित होनेपर चुप रहेगा तो उसका तीन वर्षके अंदर सर्वनाश होजायगा । राज्य नगर देशके समान धर्मकी रक्षा करना भी राजाका धर्म है ।। ११३॥ हत्वा धर्ममहोत्सवं जिनपतषिवं च चैत्यालयं, । पश्चात्कारयतीह तं च तदमुं यो राक्रुधस्तस्य च ॥ नो देशाधिपता भवेपितृमृतिः पुत्रस्य वर्षनयात् । निर्विघ्नं नियमेन .सा भुवि ततः षड्वत्सराभ्यंतरे ॥११४ अर्थ-जो राजा क्रोधित होकर जिनधर्मप्रभावनाके कार्य में विघ्न डालता है, एवं जिनमंदिर, जिनबिंब आदि विनाश करता है एवं फिर उस मंदिरको बंधवाकर बिंबप्रतिष्ठा करता है वह तीन वर्षके बाद राज्यच्युत होता है । एवं च तीन वर्षके बाद उसका मरण भी होगा। परंतु उसने पुनः जिनमंदिरादि बांधकर धर्मप्रभावना की जिस से उसके पुत्र छह वर्षके अंदर पुनः उस राज्यको प्राप्त करलेगा ॥ यत्र यत्र जिनविभंजनं यः करोति खलु तस्य हानयः ॥ तत्र तत्र मरणे महाव्रणाः संभवन्ति क्रिमिदुष्टगंधिनः । अर्थ--जो कोई मनुष्य जहां जहां जिनप्रतिमाका नाश करता है वहां मरणके समय जिनबिंब नष्ट करनेवालेके शरीर में दुर्गंध कृमि उत्पन्न होंगे ॥ ११५ ॥ जिनधर्मोत्सवमंदिरबिंबहतेरेव भूपतेः सा लक्ष्मीः । . धावति नश्यति नगरं मरणं वर्षत्रयांतरे स्यादरिणा ११६ अर्थ-जिनधर्मोत्सव, मंदिर, जिनबिंब,इनके नष्ट करनेसे राजाकी लक्ष्मी उसको छोडकर भाग जाती है, उसका नगर नष्ट हो जाता है इतनाही नहीं शत्रुके द्वारा उसका मरण तीन वर्षके अंदर अवश्य होगा ।। ११६ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण काळे यस्य हतो महो न सुकृतस्तेनान्यतो वाईत - । स्वस्यान्दत्रयतो न चाधिपतिता द्विभिः स्वकीयैरधैः ॥ मृत्युः स्यान्न च सा सुतस्य कुलजस्यात्मीयभृत्यस्य वा । शत्रोर्धर्मविनाशकस्य खलु तद्देशस्य साप्यस्थिरा ॥ ११७ अर्थ - जिस राजाके आधिपत्य के समयमें जिनधर्मोत्सव में विघ्न डाला गया, उस अवस्थामें राजा उस विघ्नको दूर करने के लिये उत्साहित न हो वह पुण्यहीन हो जाता है एवं इस पापके उदयसे तीन वर्ष के अंदर राज्यच्युत हो जायगा । इतना ही नहीं अपने तीव्रपापोंसे शत्रुओं के द्वारा वह मरण भी पावेगा, एवं उसके पुत्र, कुलोत्पन्न या निकट सेवक आदि किसीको राज्यारोहण करनेका भाग्य न मिलेगा । जिस प्रकार उसकी वह संपत्ति नष्ट होनेवाली है उसी प्रकार जो शत्रु धर्म में बाधा पहुंचाता है उसकी भी संपत्ति नष्ट होगी । धर्मप्रभावना के कार्य में जो विघ्न डालेंगे उनका कभी हित नहीं हो सकता ॥ ११७ ॥ स्वामिद्रोही क्षयेदाशु तस्य शांतिर्न सर्वथा ! पीतौषधं विरेकाय बद्धकच्छगुदे यथा ॥ ११८ ॥ ६७ अर्थ – जो स्वामिद्रोह, गुरुद्रोह, मित्रद्रोह, धर्मद्रोह आदि करता है वह पापके उदयसे शीघ्र नष्ट भ्रष्ट होगा । उस पापीके लिए कोई प्रायश्चित्त भी नहीं है । जिस प्रकार जुलाबके औषध लेनेवाला मनुष्य कांचको जोरसे बांध लेंवें तो भी कोई उपयोग नहीं उसी प्रकार ऐसे पापीको कोई मार्ग श्रेयस्कर नहीं हो सकता ॥ ११८ ॥ अन्यार्थीsयद इत्युशन्ति विबुधा हर्तुबलादाहृत-1 स्तिक्ताक्तं च पर्यो यथा व्रतिगुरुस्वार्थोऽम्लदुग्धं यथा ॥ देवार्थी विषवत्स्वभाग्यविषय ग्रंथार्थ सेनादिक- । ध्वंसी मक्ष्विह कृष्णपक्षशशिवन्निर्वाणमेति ध्रुवम् ॥ ११९ ॥ अर्थ – दुसरे का धन जो हरण करता है उस को पातक उत्पन्न Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दानशासनम् anwar होता ही है । देव के धन का हरण करना विषके समान है । वह अपना भाग्य, परिग्रह, धन सेना वैगरह का शीघ्र नाश करता है। तथा कृष्णपक्षके चंद्रसमान स्वयं भी नष्ट होता है ॥ ११९ ॥ जिनार्चा प्रदत्तार्थे हीनत्वं यः करोति चेत् । तस्य भाग्यस्य पुण्यस्य हीनत्वं सर्वथा भवेत् ॥ १२० ॥ अर्थ-जिनपूजाके लिए दिए हुए द्रव्योंसे कुछ अपने लिए लेकर कुछ जिनपूजाको जो कोई देता हो उसका भाग्य व पुण्य दोनोंका अवश्य नाश होता है ॥ १२० ॥ येन ग्रामधनं जिनस्य च हृतं स्वल्पाय वहथंद । क्रीतं दण्डितवंचितं त्वपहृतं त्र्यब्दांतरे व्यंतरे ॥ तस्य स्यात्स्वविरोधताप्यपयशो तेजोभिमानक्षयो। । मृत्यू रुक्च धनव्ययोऽत्र विफलास्तास्ताःकृता याः क्रियाः॥ अर्थ-जो कोई जिनमंदिरके लिए अर्पित ग्राम व धनको अपहरण करता हो, एवं बहुत कीमतके थोडे कीमतमें खरीदता हो, जुर्माने के रूपमें लेता हो, धोका देकर लेता हो, अथवा और किसी तरह अपहरण करता हो उस पापी व्यक्तिको उसके तीव्र पापोदयसे तीन घडीके अंदर तीन प्रहरके अंदर, तीन दिन के अंदर, तीन पक्षके अंदर, तीनमास के अंदर, तीन अयनोंके अंदर, अथवा तीन वर्षके अंदर अपने बंधु मित्र भार्या पुत्र इत्यादिसे वैर विरोध अवश्य होगा। लोकमें उसका अपवाद होगा, उसका तेज घटेगा, उसका धन नष्ट होगा, उसका मरणभी हो सकेगा विशेष क्या ? वह जो कुछ भी क्रिया करें उसमें उसको सफलता नहीं मिलेगी ॥१२॥ पीतं येन विषं च तस्य सकलान्यंगानि पंचेंद्रिया- । ण्यंग बुद्धिरियं च चित्तमभवनन्यानुकूलानि वा ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण धर्मद्रव्यविषं हृतं प्रकुरुते ददह्यमानाळये | द्विड्भूपावृत भूपतेः पुरि यथोत्पातास्तदास्युश्च तान् ॥ १२२ अर्थ - - जो मनुष्य विषभक्षण करता है उसका सर्व शरीर, इंद्रिय, बुद्धि, चित्त आदि सर्व विषमय हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जिन मंदिरके धनरूपी विषको ग्रहण करता है वह मनुष्य पापके उदय से दुःखी होता है उस की अवस्था ऐसी होती है जैसा आग लगे हुए घर में फंसे हुआ मनुष्य की, अथवा शत्रुओंके द्वारा घेरा गया है राज्य जिस का ऐसे राजाके समान एवं अनेक प्रकार के संकट ऐसे पापी को उपस्थित होते हैं ॥ १२२ ॥ ६९ भित्वा देवपुरप्रविष्टजनमाहृत्य प्रसह्यापि ये । तेजोवबुधमान्यपौरमपि संगच्छति तेषां पुरं ॥ देशो नश्यति राट्स्वयं च बहुधोत्पातेन नाशं गतः । सर्वे वस्तु धनादिकं च विलयेन्निष्कारण दोषतः ॥ १२३ अर्थ - जो दुष्ट राजा जिनमंदिर इत्यादि देवस्थानोंको फोडकर उनके उन्नतिको सहन न कर उनके धन आदिको अपहरण करते हैं एवं उस नगर में रहनेवाले विद्वान्, वीर, वैद्य इत्यादि सज्जनोंको कष्ट देते हैं, उन दुष्ट राजावों का इस पापसे राज्य नष्ट होता है । राजा स्वयं अनेक प्रकारके उत्पातों से नाशको प्राप्त होता है, इतना ही नहीं उसके संपूर्ण ऐश्वर्य अकारण नष्ट होते हैं ॥ १२३ ॥ दत्वात्पार्थं धर्मव गृहीत्वा धान्याद्यर्थे लब्धुकामः कुटुंबी । अज्ञत्वात्मद्रव्यनाशात्क्षुधार्तो नेपालोस्थं बीजमश्ननिवोर्व्या ॥ अर्थ – जो व्यक्ति अल्पद्रव्य देकर मंदिर के ग्राम, खेत आदिको खरीदता है, क्योंकि उसे उन खेतों से धान्य इत्यादि मिलने की आशा है, परंतु वह यह नहीं जानता कि उसको लाभसे अधिक हानि होगी वह व्यक्ति मूर्ख है । भूख लगनेपर जेपालबाज (विष) को खानेवाला Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् जिस प्रकार दुःखी होता है उसी प्रकार वह व्यक्ति भी दुःखी होता है ॥ १२४ ॥ कथं चिदेकं पणमर्जयित्वा सवृद्धयेऽदादनदस्य दीनः ॥ मूळं न वृद्धिर्न वचो निशम्याक्रोशन्ति पापाय च पीडयंति । अर्थ-बडे कष्ट से दीन आदमी थोडासा धन कमाते हैं । तथा श्रीमानके पास सूद के लिए वह धन रखते हैं परंतु कितनेक दुष्ट धनिक मूलधन भी देते नहीं तथा सूद भी देते नहीं उन का यह दुर्व्यवहार देखकर दीन आदमी दुःखमे आक्रोश करते हैं । ऐसे कार्यसे श्रीमान् लोक पापके भागीदार बनते हैं ।। १२५ ॥ योऽत्र स्वाश्रितजीवयुग्ममदयन्दत्वोचितार्थान्सदा । विष्टिं कारयतीव गोपशुनरैःकार्य कृतं कारितं ॥ सर्व नश्यति तस्य तेन फलति क्षेत्रं न सर्व कृतं । नैष्फल्यं भवतीत्यवेत्य सुकृती सर्वानलं पीडयेत् ॥१२६॥ अर्थ-किसान यदि अपने आश्रित द्विपद और चतुष्पद जीवोंको अन वस्त्रादिकको देकर रक्षा नहीं करता है तो उसके किया हुआ, कराया हुआ खेत वगैरह सब नष्ट होते हैं। एवं धान्य वगैरह समृद्धरूपसे उत्पन्न नहीं होंगे। इसी प्रकार जो स्वामी अपने आश्रयमें रहनेवाले द्विपद चतुष्पद प्राणियोंके प्रति दया नहीं करता है, उनकी रक्षा नहीं करता है उसके संपूर्ण कार्य व्यर्थ होते हैं उसको किसी भी कार्यमें सफलता नहीं मिलती है ॥ १२६ ॥ 'शैलूषविवमिव कायकृतं च सर्व । चेतोविना तनुवचःकृतकर्म सर्व ॥ १ भुक्तमपथ्यमनग्नेस्सद्यः संपद्यते यथा रोगः ॥ . कृतदोषार्जितवित्तं प्राणानंगं च हंति सद्यो यत् ॥ - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण ANLAAAANNAJARAMn. पन्हि विनैव बहुचर्वितवानवान्स्या- । त्पीडां च वाथ मरणं खलु याति जीवः ॥ १२७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार डोंबारी खिलौनेका खेल विना मनके होनेसे उसका कोई उपयोग नहीं इसी प्रकार भावरहित कायकी चेष्टा आत्मकल्याणके लिए कोई उपयोगी नहीं हैं। उदरमें अग्नि तेज न हो फिर पौष्टिक आहारोंको ग्रहण करे तो वह रोगादिबाधाको उत्पन्न करने वाला है एवं कदाचित् मरणका भी कारण बन सकेगा । इसलिये आत्माका परिणाम शुभाशुभक्रियामें मुख्य आवश्यक है ॥ १२७ ॥ ने व्ययत्यनिशं यो ना धर्मार्थ धर्मजश्रियं । तस्य नश्यति सा शीघ्रं कृष्णपक्षहिमांशुवत् ॥ १२८ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति धर्मसे उत्पन्न धनको धर्मके लिए खर्च नहीं करता है उसका धन कृष्णपक्षके चन्द्रमाके समान शीघ्र नष्ट होता है । इसलिये धर्मसे उत्पन्न धनको धर्मकार्यमें ही उपयोगमें लाना चाहिये ॥ १२८ ॥ शप्यंतोऽस्मिन्वृषकुलगुरून्दूषयंतो बभूवु- । स्संतो दासीरतिमुखभुजस्तज्जनीस्थानभाजः ॥ रत्नस्वर्णाचितधनकृते वंचका वात्र नीचाः । शुद्धो वंशोप्ययमिति चितो मुक्तिमार्गो हतस्तैः ॥१२९॥ अर्थ-जो लोग इस लोकमें धर्म, धर्मात्मा, उत्तमकुलज, गुरु इत्यादि सज्जनोंकी निंदा करते हैं, व साधुओंके प्रति उदासीन भावको रखते हैं, सदा दासीओंके साथ रति करते हैं । रत्न व सुवर्ण के लिये १ यथा यथा निस्वनृपः स्वकीयान् ।। कायस्थसंख्यामिति हि प्रसा ॥ प्रपीड्य वित्तान्यपहृत्य जीवे ॥ तथा तथा भाग्यलयं करोति ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दानशासनम् अन्यको फसाते हैं एवं नीच हैं। उन लोगोंने शुद्धवंशमें जन्म लेकरभी • मोक्षमार्गको मलिनही किया है ऐसा समझना चाहिये ॥ १२९ ॥ सगोत्रनिंदा जिनयोगिनिंदां करोति यस्तस्य च सर्वदा हि । इहैव वक्त्रे क्रिमिगृढदुव्रणा भवंति चाग्रे निरयं प्रयाति ॥ १३० ॥ अर्थ- जो मनुष्य उत्तम गोत्र व गोत्रजोंकी निंदा करते हैं एवं जैन मुनीश्वरोंकी निंदा करते हैं इस जन्ममें ही उनके मुखमें कीडे वगैरह पडते हैं, बहुत ज्यादा फोडा वगैरह उठते हैं, एवं आगेके भवमें नियमसे नरक जाते हैं ॥ १३० ॥ भूत्वा हिंसातुरश्चतास बक इव यो मानवी जैनदीक्षां । धृत्वा भंगानि कृत्वा यदविकलतपास्तहि निंदन्शपन्सः ॥ दासीभर्तुर्द्विजस्योत्तरजनिपसुतोऽशेषविद्याप्रवीण- | स्तदेशाधीशकुष्ठप्रशमनकरणालब्धघनत्रयैश्यः ॥ १३१ ॥ अर्थ-कोई मनुष्य हिंसा करने में तत्पर ऐसे बकके समान जैनदीक्षा ग्रहण करके उसको दोष लगाता है तथा जो निर्दोष दीक्षाको पालनेवाले साधुगण की निंदा करके गालियां देता है। दासीका पति ऐसे द्विजसे उत्पन्न हुआ वह अपने देशके राजाका कुष्ठरोग नष्ट करके जो उसके द्वारा थोडासा ऐश्वर्य मिला है उसका भोग लेता है। अर्थात् कपटसे दीक्षा लेनेवाले पुरुष हीनाचरण करते हुए मुनिधर्म से भ्रष्ट होते हैं ॥ १३१ ॥ यः कामार्थी धनार्थी परधनहरणोपायविन्मित्रतार्थी । चौर्यार्थी धूलिभस्माद्युपकरणलसद्धगरीकादिविद्भिः ॥ स्नेहं कृत्वा गृहीत्वा तदुपकरणमर्थाढ्यगेहं विचार्य । स्वेष्टार्थ तैर्धनीव व्यवहरति स वेश्यांगसौख्याभिलाषी ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण अर्थ-संसार में जो कामुक मनुष्य हैं अथवा धनकी इच्छा करने वाले हैं वह सदा दूसरोंके धन को अपहरण करनेके उपाय जानने गलोंके साथ मित्रता चाहते हैं, चोरी करने की इच्छा रखनेवाले, चोरी के सहायक उपकरण भस्म इत्यादि को जाननेवाले के साथ मित्रता घाइते हैं । ऐसे लोगोंके साथ मित्रता कर उन से उपकरणोंको लेकर एवं उन से धनिकों का घर इत्यादि को विचार कर फिर चोरी करने के लिए जाते हैं । इसी प्रकार वेश्यागमन करने की इच्छा रखनेवाले ऐसे ही दुष्टोंके साथ मित्रता कर उन से उसके सब उपायोंको समझकर ऐसे दुर्मार्गाने प्रवृत्ति करते हैं ॥ १३२ ॥ भामिन्यां लंजिकायां स्वगृहपरिकरान्ग्रंथवित्तं च सर्व। वंचित्वाहत्य दत्वा परिहरति भवास्तं समुल्लाल्य चैत्यं ॥ सौख्यं जीवैहिक संततमनुभवतीत्यात्मधर्म विमुच्य। ग्रंथं धर्म च सर्व परिभवति ऋधैवैहिकामुत्रिका ॥१३३ अर्थ-हे जीव ! सर्ववल्लभा वश्याके अधीन होकर अपने घर से धन को चोरी कर और भी पदार्थीको अपहरण कर उस वेश्या को ले जाकर देते हो, उस नीचकार्यके द्वारा अपने चित्त को भी ठगकर ऐहिक सुखकी वांछा करते हो, इहलोक और परलोकमें मुख को देनेवाले धर्म को भूलकर सब कुछ सुखसे वंचित रहते हो, क्रोधी अपने क्रोधसे जिस प्रकार लोक को अपने विरोधी बना लेता है। उसी प्रकार वेश्यागामी अपना अहित कर लेता है ।। १३३ ॥ यत्रास्ते वनितैका तामाक्रामति च पुंसि धनदानात् ॥ अपवादात्पति भीतेरनुमनुतेऽतो गृहे वसेका ॥१३४॥ अर्थ-जिस घर में अकेली स्त्री रहती है। उसे देखकर कामा१ शृंगाराोचतवित्तानि स्वसुखाय धज्जडः । जारेभ्यो गणिकाभ्यः स्यु परभोगाय तानि ताः ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ . . दानशासनम् . तुर लोग भोगकी इच्छा करते हैं उसे मनाने की कोशिस करते हैं। वह स्त्री यदि न माने तो धन का लोभ देकर मनाते हैं। यदि उससे भी नहीं माने तो अपवाद लगाने का भय दिखाकर उसको मनाते हैं। यदि उस के ऊपर अपवाद लगने से उसे पति मार डालेगा इस का भय रहता है, इसलिए उसे विवश होकर मानना पडता है । इस लिए अपने शील की रक्षा करने की इच्छा रखनेवाली स्त्रियोंको घर में अकेली न रहनी चाहिए ॥ १३४ ॥ नानग्नेरगदाशनं सुखकरं वातोऽनलं भस्मनि । वा नोद्भावयतीव चोपरभुवीवोप्तं सुबजि सदा॥ वंध्या कुक्षितले सुतं न जनयेज्जीवोऽयवान् सदचो । गृह्णातीह स कश्चिदिच्छति धरा च्छायानिलांभोगुणान् ।। अर्थ-जिसको अग्निमांद्य हो गया है उसे भोजन व औषधि दोनों सुखकर प्रतीत नहीं होते, राखके अंदर हवा अग्निको उत्पन्न नहीं कर सकता है । ऊसर भूमिमें बोया हुआ बीज अंकुरोत्पत्ति नहीं कर सकती है । वंध्याके गर्भमें संतानोत्पत्ति नहीं हो सकती इसी प्रकार पापीके हृदयमें गुरुवोंके द्वारा उपदिष्ट धर्मवचन स्थान नहीं पासकते । परंतु जिस प्रकार पृथ्वी जलवायु छायाके गुणको चाहती है उसी प्रकार कोई कोई भव्य गुरूपदेशको सुननेकी इच्छा करते हैं ।।१३५॥ चौर्य शूलारोहणं सत्सहायो मंत्रः स्वर्गो देवतानां गतिश्च । कर्तुः पीडा सदृशोऽतो बभूवुः शुद्ध कार्ये काललब्धिः प्रधान ॥ अर्थ---इस संसारमें चोरी करना, शूलमें चढना, सज्जनोंकी सहायता मिलना, मंत्रवादमें अपनी गति होना, स्वर्गलोकमें जाना, मनुष्यलोकमें देवताओंका आमा, मंत्रवाद करनेवाले को स्वयं बाधा होना, सम्यग्दृष्टि होना इन सब अच्छे बुरे कार्योंके लिए मुख्यतासे काललब्धि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण की आवश्यकता है, योग्य समयके आये विना कोई कार्य नहीं हो सकता है ॥ १३६ ॥ रोगास्सत्यखिला भिषग न च विदन्शस्तो न शस्तो गद-। चेदिच्छा न च रोचते विशति नो नास्ते स्थिते तेऽगदे ॥ बदेते विधुसिंधुवत्पतपति क्रुध्यति चाज्यम्बुवत् । . निस्वग्रंथिरिव प्रभाति च तया धर्मोऽपि पापात्मनि ॥१३७॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी जगह रोग तो बहुत फैले हैं परंतु वहांपर उन रोगोंकी अच्छी तरह निदान कर चिकित्सा करनेवाले कोई वैद्य नहीं तब वे रोग दूर कैसे हो सकते है ? । कदाचित् वैद्य हो भी वह आयुर्वेदशास्त्रके अनुसार पूर्ण चिकित्साविषयको नहीं जानता हो, कदाचित् जानता भी हो तो उसके हस्तलक्षण अच्छे न हो अर्थात् योगायोगसे उसके हाथसे रोगी अच्छे म होते हों, कदाचित् हस्तलक्षण अच्छे भी हो तो औषधि न हो, कदाचित्- औषधि हो तो रोगीको औषधि लेनेकी इच्छा न हो, इग्छ। यदि हो तो उसे वह औषधि रुचिकर न हो, कदाचित् रुचिकर हो भी वातपित्तादिक दोषों के विकार से शरीरमें औषधि प्रवेश न करें, प्रवेश करें तो भी वहांपर बहुत देरतक न रहे, वमन इत्यादि होकर बाहर आयें, कदाचित् कुछ समयतक रहें तो भी दूसरे कारणोंको पाकर रोगकी वृद्धि करें इन सब अवस्थाओंमें रोगीको आराम होना कठिन है । इन सब बातोंमें सुयोग मिलनेके लिए काललब्धिं की आवश्यकता है । ठीक इसी प्रकार जिस जगह पर अधर्मवासना अधिक फैली हो, लोगोंके हृदय में अधर्मविचार विशेष करके हो, उस स्थानमें उन अधर्म विचारोंको शास्त्रोपदेश.के द्वारा दूर करनेवाले गुरु नहीं होते हैं, कदाचित् गुरु कहलानेवाले हों भी वे शास्त्रज्ञानसे शून्य रहते हैं । कदाचित् संपूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता गुरुवोंके अस्तित्व हो फिर भी उनके उपदेशका प्रभाव नहीं होता हो, कदाचित Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् ऐसे प्रभावक गुरु हों तो भी उनमें रत्नत्रयात्मक धर्म नहीं मिलता है, कदाचित् रत्नत्रयात्मक धर्मके उपदेश देनेवाले गुरु मिले भी उन कर्मपीडितोंको उसे सुननेकी इच्छा नहीं होती है, कदाचित् इच्छा हो भी वह उपदेश उनको रुचता नहीं, रुचे तो भी हृदयमें प्रवेश नहीं करता है, कदाचित् हृदय में प्रवेश करे तो भी वहांपर वह उपदेश बहुत दिनतक टिकता नहीं, कदाचित् टिक भी जाय चंद्रमासे समुद्र के बढने के समान तपे हुए घी में पानीके समान, दरिद्र में ऐश्वर्य के समान अनेक दोषोंको अर्थात द्रव्य भाव कर्मोको उत्पन्न करके आत्मामें विकार उत्पन्न करते हैं एवं उन धर्मविचारोंका नष्ट करते हैं । ये सब सुयोग प्राप्त होकर पापात्मा धर्मात्मा बने इस के लिए मुख्यतया काललब्धिकी अत्यंत आवश्यकता है ॥ १३७ ॥ गुरुक्रमोल्लंघनतत्परा ये जिनक्रमोल्लंधनतत्परास्ते । तेषां न दृष्टिन गुरुन पुण्यं वृत्तं न बंधुन त एव मूढाः१३८ अर्थ--जो मनुष्य गुरुवों की परंपराको उल्लंघन करना चाहते हैं अर्थात् गुरुवों की आज्ञाको नहीं मानते हैं वे जिनेंद्रभगवंतकी आज्ञा को ही उल्लंघन करने में तत्पर हैं ऐसा समझना चाहिए । उन लोगों में सम्यक्त्व नहीं है । उन को कोई गुरु नहीं, उन्हें पुण्य का बंध नहीं, चारित्र की प्राप्ति नहीं, उन का कोई बंधु नहीं विशेष क्या? वे अपना अहित कर लेने वाले मूढजन हैं ॥ १३८ ॥ निजधर्मवंशपारंपर्यागतसत्क्रम व्यतिक्रम्य । यो वर्तते स उत्सक इह तेन च धर्मवंशहानिःस्यात्॥१३९ अर्थ-सर्वज्ञपरंपरासे आए हुए सन्मार्ग को उल्लंघन कर जो आचरण करता है वह धार्मिकमनुप्योंमें उत्सक कहलाता है । अर्थात् उस का यह विचार रहता है कि मैं जो कुछ बोलता हूं वहीं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण - -- - आगम है, मैं जो कुछ भी करता हूं वही आचार है। इस प्रकार के उच्छृखल विचार से उस व्यक्तिद्वारा धर्म का ही नाश होता है १३९ बाधते नृपसेवकानपि वचोगात्रैश्च ये सागस- । स्ते कारागृहबाध्यदण्ड्यसकलच्छेद्या भवेयुर्यथा ॥ ये रत्नत्रयधारिणस्त्रिकरणैस्ते सागसो दुर्गती। ते बाध्या बहुदण्ड्यखण्ड्यसकलच्छेद्याश्च वध्यास्तथा ॥ अर्थ-जिस प्रकार इस लोकमें राजाके सेवकोंको भी कोई वचन व शरीरके द्वारा बाधा पहुंचा तो वह राजाके अपराधी कहलाते हैं, उनको कारगृहका दण्ड मिलता हैं वहांपर उन्हे अनेक प्रकारकी बाधा दीजाती है, दण्ड दिया जाता है, समय आनपर उनका सर्व नाश किया जाता है। इसीप्रकार जो रत्नत्रयधारी साधुवोंको मन वचन कायसे कष्ट पहुंचाते हैं वे अपराधी हैं, वे भी उस पापके कारण नरकादि दुर्गतिमें जाकर जन्म लेते हैं। और वहांपर अन्य नारकी जीवोंके द्वारा उनको अनेक प्रकारसे बाधा दीजाती है। दण्ड मिलता है, वध किया जाता है । एवं उसका सर्बनाश किया जाता है । इसलिये वीतरागी साधुवोंको कभी कष्ट न पहुंचाना चाहिये ॥ १४० ॥ . मुक्तिनास्ति कलौ वपत्रमिव सुक्षेत्र जिनर्षिद्वयं । जैना निस्वकृषीवला इव सदा भृत्यैश्च तत्र क्रियां । श्रेयोदामिह कारयति विमुखा दृक्ष्वेव कालाघतो ॥ राज्ञां विष्टिमित्राफला मुफलदैर्दानानि पूजाधनैः ॥ १४१ अर्थ-इस पंचमकालमें इस भरतक्षेत्रसे मुक्ति नहीं हो सकती, जिस प्रकार कि दरिद्री कृषकको निजका खेत नहीं होता है । मुक्तिस्थानको प्राप्त करनेयोग्य क्षेत्र जिनदेव और जिनमुनि है । उनके प्रति जो क्रिया श्रावकोंकी होनी चाहिये वह योग्यरूपसे नहीं हो पाती, पूजाप्रतिष्ठादि श्रेयस्कर क्रियाको श्रावक अपने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् ARANAhranARAMM - सेवकोंसे कराते हैं । अतएव सम्यक्त्वसे विमुख है । यह कालका दोष है। जिस प्रकार राजाका अपराधी सदा दुःखी रहता है उसी प्रकार यह पापात्मा भी दुःख उठाता रहता है ॥ १४१ ॥ , . न्यक्सेवाकृदपुण्यवानकुलजो भिक्षार्जितद्रव्यमुक् । भूपास्थानगतागतश्च मनुजो नीचोपि पूज्यो भवेत् ॥ .. तं विभ्यंति निरीक्ष्य चाटुवचनं सर्वे वदंत्यन्वहं । बाते जिनपूजकं जडजनाः पश्यंति दासं यथा ॥१४२॥ · अर्थ-नीचवृत्ति करनेवाला, पापी, नीचकुलोत्पन्न, भीख मांगने वाला व्यक्ति भी यदि राजदरबारमें आता जाता रहता है, मजाके साथ विशेष बोलता चालता रहता है तो वह नीच होनेपर भी लोकके लिए पूज्य होजाता है । सब लोग उससे इसलिए डरते हैं कि यह कुछ राजासे चुगलीकर हमारा अहित करेगा। इसलिए सब लोग उसकी खुशामद करते हैं । और मीठे २ बोलते हैं । परंतु बड़े आश्चर्यकी बात यह है कि जिनेंद्र भगवंतकी सेवा करनेवाले पुरोहितको बहुत कष्ट देते हैं, अज्ञानी जन उन्हे नौकरोंके समान देखते हैं । यह उचित नहीं है ॥ १४२ ॥ वेश्यादासीजनानामुपकृतिमधुना कुर्वते नो विषादं । तेषामाकूतमीषन्न खलु च कलुषीकुर्वते भोगिनो ये ॥ सा वेश्या सौख्यदास्ते न च यदि सुखदास्तद्विरोधान्न सौख्यं मत्वैवं तैर्विरोध न च जिनभजकं नेंद्रमेनं तथैवं ॥ १४३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार लोक में ऐसा देखा जाता है कि जो मनुष्य वेश्यासेवन करना चाहता है वह सब से पहिले उसे वेश्या के दासीका उपकार करता है । उस दासीको कष्ट नहीं पहुंचाता है। उस के विचार में जरा भी धक्का नहीं पहुंचने देता है, वह दासी जैसे कहे वैसे ही मानता है। क्या उसे सुख देनेवाली वेश्या है ? अथवा वह दासी है? Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण सुख देनेवाली यधपि वेश्या है तथापि उस दासीके साथ विरोध करने से उस को वेश्या से भी ठीक सुख नहीं मिल सकेगा ऐसा समझकर उस दासीके साथ विरोध नहीं करते हैं । परन्तु दुःख इस का है की जिनेंद्र देवके साक्षात् सेवक पुरोहितोंको आदरकी दृष्टि से देखते नहीं है। ये ये राज्ञां सेवकाःसंति ते ते । पूज्याः सेव्या सेवका न प्रजानां ॥ तास्तेषामेवोपकुर्वेति सेवा। . भीताः प्रीता राण्मनो लब्धुकामाः ॥ १४४ ॥ . अर्थ--राजा की मर्जी को प्राप्त कर लेने की इच्छा रखने वाले मनुष्य राजसेवकों को बडे पूज्यदृष्टि से देखते हैं अर्थात् राजसेषक प्रजावोंके लिए आदरणीय हैं, वे प्रजावाके सेवक नहीं हैं । प्रजा उन राजसेवकोंको भय से स्नेहसे उपकार करती है एवं उन की सेवा करती है। यह लौकिक नीति है ॥१४४ ॥ ये ये नो देवार्चकारसंति ते ते । पूज्याः सेव्या सेवकारस्युः प्रजानां ॥ नार्थस्तेषां ताभिरर्थ विनाधं । भीताः प्रीता आजुषा [?] वा तदर्थात् ॥ १४५॥ अर्थ-जो भगवान्के अर्चक हैं वे सब हम . श्रावकोंके लिये पूज्य हैं, उनकी सेवा करने योग्य है । परंतु पंचमकालके दोषसे प्रजायें उनकी सेवा करना छोडकर वेही सबके सेवक बनगये हैं। उनको उनकी सेवाके बदले नैवेद्यके सिवाय और कुछ मिलता भी नहीं है । जो मिलता है उसीमें संतुष्ट होकर भयसे सबकी सेवा करते हैं. यह काल दोष है ॥ १४५ ॥ 'ये येऽर्चति जिनं गुरूनुपचरंत्यत्मिजास्तेऽा ते । सद्भक्त्योपचरंति पूजकजनाः स्युस्ताः स पुण्यं तयोः ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० दानशासनम् अन्योन्यानकूलयोगवशतः पापं च पापप्रदं । कोपाः कोपकराः शमाः शमकराः भावाः स्युराज्यावमाः अर्थ---जो जिनेंद्र भगवंत व जिनमुनियोंकी पूजा करते हैं वे अहंत परमेष्ठीके प्रजा हैं, इस पंचमकामें जो उनका सत्कार करते हैं वे पुण्यका बंध करते हैं । परस्पर अनुकूलवृत्तिसे दोनोंको पुण्यबंध होता है । एवं एक दूसरेके अनुकूल प्रवृत्ति न होकर वैषम्यभाव रहे तो पापकर्मका बंध होता है । क्योंके लोकमें देखा जाता है कि क्रोध से क्रोधकी वृद्धि होती है, शांतिसे दूसरा मनुष्य भी शांत होजाता है। जिस प्रकार अग्निमें पड़ा हुआ घी अग्निको प्रज्वलित करनेवाला है। जलमें पड़ा हुआ वी ठण्डा होता है, इसीप्रकार भाव जैसें होते हैं उसी प्रकार उसकी परिणति होती है ।। १४६ ॥ ये धर्मार्जितसौख्यमप्यनुभवद्भपा वृषध्वंसिनो । से ज्ञातार्थगुणाश्च वन्हिबलतोऽपथ्याशिनो दुःखिनः ॥ कर्म नंति दृगईदाश्रितजना दुःकर्मसंवर्तिनः । सर्वे पंचमकालदोषबलतो मूढा इहेवाभवन् ॥१४७॥ . अर्थ-जो राजा व श्रीमंत लोग पूर्वजन्म में आचरण किए हुए धार्मिक वृत्तियों के पुण्यसे सुखको अनुभव करते हुए उस धर्मको नष्ट करते हैं वे वे अज्ञानी ठीक उसी प्रकार हैं जिस प्रकार कि अनेक भोज्यपदार्थोके गुणको जानते हुए एवं अग्निके बल होनेपर भी अयोग्य आहार को खाकर दुःखी हो जाते हैं । सम्यक्त्व गुण कर्मको नाश करते है । परंतु खेदकी बात है कि इस पंचमकालके दोषसे जिनधर्माश्रित मनुष्य मूर्खतासे पापकर्मकी ओर प्रवृत्ति करते हैं ॥१४७॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण दुर्दर्शाः श्रितकंटदुर्गमतरा मार्गाश्रितयंगुला । दुर्गधाश्च जडैः कृता इव जनैः प्रज्ञैः कृतज्ञैर्हितः । पुण्योद्योगचयोपदेष्टुभिरिवासस्यावनैः कार्षिकैः स्वैराचारिभिरक्षलालसनरैर्धर्मान्वयोत्पत्तयः ॥ १४८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार किसान लोग खेतके सस्यको काटकर अस्त व्यस्त कर देते हैं तो जाने वाले लोगोंको मार्ग नहीं मिलता है इसी प्रकार इंद्रियाभिलाषी स्वैराचारी व अज्ञानी लोगोंके द्वारा यह पवित्र जिनमार्ग मलिन किया जाता है। उन स्वेच्छाचारियोंकी कृपासे वह मार्ग अत्यंत मलिन, दुर्गंधयुक्त, कुरूप व कंटकमय बन जाता है। इसी प्रकार कृतज्ञ धर्मात्मा पुरुषोंके द्वारा उस मार्गका प्रकाशन भी होता है । वे अपने उपदेशसे इस जिनधर्मकी प्रभावना कर पुण्यसंचय करते हैं ॥ १४८ ॥ ये मध्येजिनगेहमत्र कलहं शयति साक्षारणं । मर्मोद्धाटनमद्भुतं कुमतयः कुर्वति तेऽग्रे गुरोः ॥ सद्यो न्यग्गतयो मिषाद्तधनाः क्लिष्टाशयाःस्युःप्रभोः । तेषां समनि रोगिणोऽपि सरुजां मृत्युस्त्रिमासांतरे॥१४९ ये चूषंति जिनालयेऽपि मदिरां दग्ध्वाप्यदंत्यामिषं । ते भृत्याश्च नृपाः प्रजा अनुमता भ्रश्यंति काका इव । मुक्त्वा स्वं विहरंति गेहनगरं दृष्टा इवारण्यगाः ॥ सर्वे दाण्डितपीडिता निगलिताः कारासु गुप्ता जनैः॥१५० अर्थ--जो मिथ्यात्वी जिनमंदिरमें अथवा मुनिवासमें कलह करते १ वेश्या दूपीविषमिव धुनोतीह सर्व परस्त्री- । श्वेडः सद्यो हरति च सुखं शुद्धपुण्यं च रण्डा, मायुलक्ष्मीमपि शुभगतिं वंशशुद्धिं च दासी ॥ मूढः श्रेयः शुभगतिकरीमूढकन्यामुदास्ते ॥ . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् हैं, और दूसरोंको मर्मभेदी गालियोंको देते हैं, उनको उस तीव्र पापके कारण उसी समय नरकादि नीचगतियोंका बंध होता है । एवं उनकी संपत्ति चोर, दुष्टराजा, आदिके द्वारा लुट जाती है, एवं वे सदा दुःखी होते हैं । एवं उनके घर में भयंकर बीमारी फैलती है । एवं इस पापके कारण तीन मासके अंदर मरण भी होजाता है । इसलिए देवगुरुस्थान में पाप न करना चाहिये । जो मनुष्य जिनमंदिर व मुनिवासमें शराब पीते हैं एवं मांस पकाकर खाते हैं ऐसे सेवक, एवं उनको अनुमति देनेवाले राजा व प्रजा सबके सब भ्रष्ट होते हैं, अपने घर व नगरको छोडकर दुष्ट जानवरोंके समान जंगलमें फिरते रहते हैं । इतना ही नहीं वे सब शत्रुराजावोंके द्वारा बाधित, दण्डित, व पीडित होते हैं, सदा बंदीखानेमें रहनेवाले के समान उनको दुःख उठाना पडता है ॥१४९॥१५० शैलूषोऽप्यनयोऽगुणोऽयमशमः क्रोधी जडो धील घुनिर्भाग्योऽयमिति ब्रुवंति सुधियो दृष्ट्वा शपंत नरं । स श्रीमानुदयो गुणी स सुकृती शांतः सशिक्षाऽनघः ॥ सदृष्टिः सुदृगग्रणीस्स विबुधः श्रीजैनभक्तो भवेत् ॥१५१ अर्थ-गुणदोष को जाननेवाले विद्वान लोग योग्यायोग्य पात्रभेद को न जानकर गालियां देनेवाले मनुष्य को डोंबारी कहते हैं । यह निर्गुण है, अशांत है, घुस्सेबाज है, मूर्ख है, पापी है, नीच है, दरिद्री है इत्यादि अनेक प्रकार से कहते हैं । परंतु जो जिनभक्त हैं उन को यह श्रीमंत है, भाग्यवान है, गुणनिधान है, पुण्यात्मा है, शांत है, शिक्षित है, निष्पाप है, सम्यग्दृष्टि है, सम्यग्दृष्टियोंके अग्रणी है, विद्वान है इत्यादि प्रकार से प्रशंसा करते हैं ।। १५१ ॥ सस्वेदान्कुब्जकंठानचलितचरणान्दग्धशीर्षानशक्ताबक्ताक्षान्कंपितांगाश्वयथुयुतमुखान्भारवाहान्समीक्ष्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण ८: - तद्भारान्ये स्वयं चादधति सकरुणास्तान् प्रणम्य प्रशस्या जीवंतोऽमी यथा जीवत भुवि कृतिनो बाधकान्शंसयित्वा ॥ अर्थ-प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि वह दुःखियों के ऊपर दया करना सीखें । जो मनुष्य कोई बोजा उठाकर ले जा रहा हो, उस को पसीना आया हो, उस के गरदन के ऊपर अधिक दबाव पड रहा हो, पैरसे चलने के लिए असमर्थ हो रहा हो, मस्तक में भार के उठाने से जलन पैदा हुआ हो, शरीर के अवयव कंपने लगे हो, मुख सूज गया हो, ऐसी परिस्थिति से उन से उस भार को लेकर करुणाबुद्धि से स्वयं धारण करते हैं वे सत्पुरुष हैं। उन्हे वे दुःखी जीव प्रणाम करते हैं। उनकी प्रशंसा करते हैं। नीच प्रकृति के लोग उन्हे कष्ट पहुंचा तो भी वे उन को उपकार ही किया करते हैं । निमज्जंतीव पंकांधौ पतंतीव नगाग्रतः॥ शुद्धहग्बोधवृत्तेभ्यो वृथा भ्रश्यंति मोहिताः ॥१५३॥ अर्थ- जिस प्रकार कोई कीचड के कुए में फंस जाते हों, एवं पर्षत के ऊपर से गिरते हों उसी प्रकार संसारके मोह से फसे हुए मनुष्य व्यर्थ ही शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। संसार में मोह बडा जबर्दस्त कीचड है। उस में जो फंस जाते हैं फिर उन का उस से निकलना कठिन हो जाता है । एवं उसे पवित्र रत्नत्रय धर्म से च्युत होना पडता है जिस कारण से वह दर्घिसंसारी बन जाता है ॥ १५३ ॥ ध्रुवांबुजाताब्धिफलादयो यथा । नितांतपुण्योदयजातभूतयः॥ शिलाविलोत्पनकुजा यथा तथा । वृषे च पापे कतिचित्समश्रियः ॥ १५४ ।। अर्थ-नारियल के वृक्ष समुद्रके किनारे अधिकतर हुआ करते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ दानशासनम् समुद्र में सदा पानी रहने से उसके कारण से उत्पन्न नारियल के वृक्ष में भी सदा फल रहता है । इसी प्रकार लोकमें ऐसे बहुत से पुण्यवान् मौजूद हैं जो अपने पूर्वोपार्जित अक्षय पुण्यके कारण से प्राप्त संपत्ति से सदाकाल पुण्य कार्योंकी वृद्धि करते हैं । अपनी संपत्ति से वे सदा धर्मप्रभावनाका का कार्य करते हैं । इससे जो पुण्यका बंध होता है उसी का नाम पुण्यानुबंधी पुण्य है । परंतु पर्वतादि में उत्पन्न होनेवाले बहुतसे वृक्ष ऐसे हैं जिनमें कभी फल लगते हैं कभी नहीं लगते हैं। इसी प्रकार कितने ही लोक में ऐसे मनुष्य हैं जो पूर्वपुण्यके द्वारा संपत्ति को प्राप्त कर भी कभी उसे धर्मकार्यमें और कभी पापकार्य में लगात हैं, उनको धर्म और पाप दोनों में समानबुद्धि है ॥ १५४ ॥ यावद्धान्यं भवति भुवि तत्तावदिच्छंति लोका-स्तद्वत्पांति स्वविषयमिमं पूर्वभूपाः स्ववृद्धयै || अज्ञानांधा जनमिह यथा पूतिनीं नारसिंहो । द्रव्याहृत्यै निजकुलहतेर्भूमिपाः पीडयति ॥ १५५ ॥ । अर्थ - लोक में किसानोंके स्वभावमें उनको जिस वर्ष जितने अधिक धान्यकी उत्पत्ति होती हो उतना ही वे चाहते रहते हैं । उससे अधिक संतुष्ट होते हैं धर्मात्मा राजा भी उससे अपने राज्यकी ही उन्नति है ऐसा समझकर उनकी अच्छी तरह रक्षा करते थे, परंतु खेद है कि आजकलके अज्ञानसे अंधे हुए राजा उन प्रजावोंको जिस प्रकार नारसिंहने पूतिनीको पीडा देकर मार डाला उसी प्रकार अपने स्वार्थ के लिए प्रजावों के द्रव्यको अपहरण कर उन्हे पीडा देते हैं । उन्हे यह मालुम नहीं है कि उस पापके कारण उनके कुल का ही क्षय होता है || १५५ ॥ 1 करोऽधिकोऽभूत्फलमल्पमुर्व्या । सेवाधिका स्वल्पभृतिः कथंचित् ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण शून्या तु सा स्वामिजनद्वये त- । न्नैष्फल्यमायांति नृपः प्रजोर्व्यः ॥ १५६ ॥ अर्थ – आजकलकी परिस्थिति यह हुई है जमीन का कर तो हुआ अधिक परंतु जमीनमें उत्पन्न तो होता है कम, इसी प्रकार सेवकोंसे सेवा तो अधिक लेने लगे । परंतु उन्हे वेतन तो कम देते हैं । इस प्रकारकी वृत्तिसे उन राजा प्रजाओं में दिनपर दिन शून्यता आती जाती है । और इससे उन राजा प्रजा व भूमिकी संपत्ति इत्यादि सब निष्फI लताको प्राप्त होते हैं ॥ १५६ ॥ विमाननात्पूज्यसतां वृषक्षयो । भवेत्स्वविश्वासवतां विघातनात् । ८५ स्वतेजसो हानिरनीकतेजसां ॥ प्रजाविलोपश्च निजायुषः श्रियः ॥ १५७ ॥ अर्थ- जो राजा अपने स्वार्थ के लिए अपने राज्यमें रहनेवाले गुणवान् वैद्य, ज्योतिषी आदि सत्पुरुषोंको पीडा देकर अपने राज्यसे भगाता हो उसके धर्मकी क्षति होती है । अपने विश्वास के मंत्री पुरोहित बंधु इत्यादि के साथ विश्वासघात करनेसे अपने तेजका नाश होता है, इतनाही नहीं उसके सेनाका भी तेज नष्ट होता है । एवं उसके प्रजाका लोप होता है, स्वतः राजा के आयु व संपत्तिका भी क्षय होता है 1 इसलिये राजाको उचित है कि प्रजावोंको कभी कष्ट न पहुंचावें ॥ १५७ नात्मेवाजीविते देहे सहते रोगपीडनं । निस्वो नाजीवितः सेवाविधानं भूपतेर्मनाक ॥ १५८ ॥ अर्थ - जिसप्रकार शरीरकी आयु बाकी न रद्दनेपर जीव रोगपीडा न सहता हुआ इस शरीरको छोडकर चला जाता है इसी प्रकार जिस सेवक के सेवाके लिए कोई प्रतिफल न मिलता हो वह राजाकी सेवा कभी नहीं कर सकता है ॥ १५५ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ दानशासनम् स्वामिद्रव्यं स्वामितामेव कुर्या - 1 द्धृत्यद्रव्यं भृत्यतां स्वामिवित्तं ॥ भृत्यग्राह्यं भृत्यवित्तं न जातु । ग्राह्यं योगः स्वामिना भृत्यकारि ॥ १५९ ॥ अर्थ - सेवक स्वामिसेवामें तत्पर होकर परिश्रम से जो धन कमाता है उसे स्वामिद्रव्य कहते हैं । ऐसा ही धन सेवक के ग्रहण करने योग्य है, ऐसे धनोंके उपार्जन से सेवक धनवान् बनकर अनेक सेवकों का स्वामी बनता है । परंतु ऐसा न कर जो किसी तरह आलस्य से काम करते हैं वे भृत्यद्रव्यके कमानेवाले कहलाते हैं, ऐसे द्रव्यसे सेवक ही बना रहता है। वह यथेष्ट धनार्जन नहीं कर सकता है | स्वामीका धन सेवक ले सकता है | परंतु भूलकर भी स्वामी सेवक के धन को ग्रहण न करें। यदि स्वामी सेवक के धन को ग्रहण करता है तो वह स्वयं सेवक बन जाता है ॥ १५९ ॥ 1 कृत्वा नित्यनिकृष्टकर्मकरुणामुत्पाद्यतेनाशया । पत्युर्वित्तमुपार्जितं च यदहो येनैव पापात्मना || तद्वित्तं प्रभुणा न दत्तमथवा व्याजाद्वह्लादाहृतं । तं नाथं कुरुते निजेशसदृशं तद्वित्यजेत्तद्धनं ॥ १६० ॥ अर्थ -- जो सेवक पहिले बहुत निकृष्ट २ सेवायोके द्वारा मालिक के हृदय में करुणा उत्पन्न करता है एवं उन से येथेष्ट धन लेता है । उस के बाद उस के हृदय में पाप आकर अपने स्वार्माके द्वारा नहीं दिया हुआ धनको भी किसी तरह धोका देकर लेने लगता है । उस स्वामी श्री ऐसी बातों से घटेगी नहीं प्रयुतः वह अपने स्वामी के बराबर बन जायगा । परंतु उस सेवक को ऐसे कार्योंसे हानियां पहुंचेगी, इसलिए ऐसे धन को अपहरण नहीं करना चाहिए । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण येः सेवकानां धनमाददाति । यो नचिकृत्यार्जितमन्यवित्तं ॥ कुर्याद्धनं यत्खलु तस्य तत्त- । न्नी चोपसेवार्जितजीवनं च ॥ १६१ ॥ I अर्थ — जो मनुष्य अपने सेवकों के धन को अपहरण करता है, एवं नीचकृत्योंसे कमाया हुआ वेश्या आदिके धनको ग्रहण करता है वह उसके फलसे इस भवमें एवं परभवमें नीचगतिमें जाकर जन्म लेता है एवं नीचोंकी सेवा करनेके जीवन को पाता है ॥ १६२॥ भृत्येष्वय भावहिंसातुरा ये । स्वेष्वन्येषु प्रीतिमाकुर्वते ते ॥ जन्मन्यग्रे स्वेषु भृत्येषु चैको । भृत्यो भूत्वैकजन्मन्यो स्यात् ॥ १६२ ॥ • فه अर्थ – जो स्वामी अपने भावों में मायाचार कर अपने सेवकों में ईर्षाभाव एवं दूसरोंके सेवकोंमें प्रीति करता हो वह अपने पापके फलसे आगे. एक जन्ममें अपने एक २ सेवकका वह सेवक होकर उत्पन्न होता है आश्चर्य है ॥ १६२ ॥ कृतषळेशेषु भृत्येषु नोपकुर्वेति ये नृपाः ॥ जन्मांतरेऽधिश्रीणां तु तेषां ते गृहकिंकराः ॥ १६३ ॥ अर्थ - जो राजा अपने श्रम करनेवाले सेवकोंको उपकार नहीं करते हैं वे आगे के जन्म में उन्ही सेवकोंके सेवक बनते हैं जिन्होने अपने पुण्य से अधिक भाग्यको प्राप्त किया है । १. नृपैर्दत्तार्थ भूकन्या सर्ववस्तुसमानता । न प्राय आददानास्ते तैः सर्वेपि निराकृताः ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ दानशासनम् Arrr-hn-AAAAA. भूनाथेऽदृशि सेवकः सुगहिग्राही यथा जायते ॥ भृत्येऽदृश्यपि भूमिपो यदि सुदृचाक्षोक्षवद्भूतले ।। भृत्योत्सर्जनगोपनोक्तिविगमे भूपोऽग्निकार्पासव- । इत्यस्योपभृतेर्लये भवभवे भृत्योप्य पुण्यक्रियः ॥ १६४॥ अर्थ-राजा यदि अविश्वासी हो उसका सेवक यदि विश्वासी हो तो वह मंत्रतंत्रसे अपरिचित सेवक गारुडीने पकडे हुए सर्पके समान होता है। राजा यदि विश्वासी हो तो भरी हुई गाडी को बांधा हुआ बैल के समान हो जाता है । सेवकों को रक्षण करने का वचन देकर फिर यदि उन की रक्षा राजा नहीं करता है तो उस राजा की दशा वही होती है जैसी कि आग लगी रुईकी। वह राजा इस प्रकार के पापोंसे भवभवमें पापी होकर उत्पन्न होता है ॥ १६१ ॥ परद्रव्यापहारित्वादरिद्रो भवति ध्रुवं । तस्माद्दाता परद्रव्यं न गृह्णाति कदाचन ॥ १६५ ॥ अर्थ-परद्रव्य को अपहरण करने से मनुष्य नियम से दरिद्री बनता है । इस लिए दाता को उचित है कि वह परद्रव्य को कभी प्रहण न करें ॥ १६५ ॥ स्थापितागतवित्तघ्नं देवस्वाम्यर्थवचनं । तेनेहामुत्र निःस्वःस्याद्ग्रंथः स्वार्थापहृत्सदा ॥ १६६ ॥ अर्थ-जो मनुष्य देवद्रव्य और स्वामिद्रव्य को अपहरण करता है उस के पहिले के एवं आये हुए दोनों प्रकार के द्रव्य नष्ट होते हैं। एवं वह इस भव में एवं परभव में बहुपरिग्रही और दरिद्री हो जाता है। एवं उस का धन सदा दूर रोंसे अपहृत होता है ॥ १६६ ॥ चौर्य दृष्टमिदं परैर्विकलता चित्ते भ्रमोऽक्ष्ण्यंधता। दैन्यं निःप्रभता मुखे विरसता निस्त्राणता पादयोः ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण कंपो वमणि दुःपरीषहजयः स्याद्गद्गदत्वं गले । निःक्रोधो बुधता दया विनयता चित्रं मृदुत्वं शमः १६७ अर्थ-चोरी करना अत्यंत निकृष्ट कार्य है । यदि किसीने चोरी करते हुए देख लिया तो चोरका चित्त विकल हो जाता है, चित्तमें भ्रम उत्पन्न होजाता है । आंखो में अंधेरी आजाती है, दीनता धारण करनी पडती है, सारा शरीर प्रभाहीन होजाता है, मुख विरस हो जाता है, पैरोंमें निःशक्ति आजाती है, शरीर कंपने लग जाता है, अनेक प्रकारके कष्ट सहन करने पड़ते हैं, कंठ गद्द होजाता है, क्रोध छोडना पडता है, बुद्धिमत्ता आजाती है, दया भी उत्पन्न होती है, विनयशीलभी बनना पडता है, मार्दव एवं शांति भी धारण करना पडता है, आश्चर्य है ।। १६७ ॥ अनियतवृत्तं प्रथमे शिक्षककृतबाधने मुमुर्षुत्वं । चौर्यमपि चौर्यवर्जनमहो जना वर्जयेयुरिह तच्च ॥ १६८ अर्थ-चोरी करते समय चोरको बहुत अनियतवृत्ति करनी पडती है क्यों कि उसे यह डर होता है कि मुझे कोई देख न लेवें, यदि कहीं पकडा गया तो फिर राजकर्मचारियोंके द्वारा दिये गये दण्डसे उसे यह इच्छा होती है कि यदि मेरेको मरण आजाय तो अच्छा है । इस लिये सज्जन लोग ऐसी चोरी को छोडते हैं ॥१६८॥ 'अर्थारागपदं सगुप्तिकुमुमं शांतिच्छदं संयम-। स्कंधं जीवचयाश्रयं वृषलसच्छाखं समित्यंकरं ॥ दृष्टिज्ञानफलं दौधितमिदं सद्धर्मवृक्षं जनाः । सर्वे नितिदं दहति मुनयस्तेनामिना मूढवत् ॥ १६९॥ १ विषयविरतिमूलं संयमोहामशाखं ॥ यमद्मशमपुष्पं ज्ञानलीलाफलाढ्यं ॥ विबुधजनशकुंतैः सेवितं धर्मवृक्षं ॥ दहति मुनिरपीह स्तेनतीघ्रानलेन ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् अर्थ-यह जिनधर्म एक महान् वृक्षके समान है, विषयविरति ही उस वृक्षकी जड है, गप्तित्रय उस का पुष्प है, शांतिरूपी पत्ते हैं, संयमरूपी स्कंध है, धर्मरूपी शाखायें हैं । समिति ही उसका अंकुर है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही जिस का फल है । दयारूपी पानी से वृद्धिंगत है, अनेक जीवों को आश्रय देने वाला है, यहांतक कि मोक्ष को भी प्रदान करनेवाला है, ऐसे धर्मरूपी महावृक्ष को अज्ञानी जन मुनि होकर भी चोरी रूपी अग्नि से जलाते हैं। खेद है ॥ १६९॥ मानहानिरपि वंचके सती। पत्युरर्थयुगहानिरीषदाः [१] || वंचको यदि पतिश्च तस्य यः । सर्वहानिरनिशं भवेत्प्रभोः ॥ १७० ॥ अर्थ-लोक में यदि स्त्री पति को धोका देकर मायाचार करती है उस अवस्था में पतिपत्नी दोनोंका अपमान होता है । एवं धनका नाश हो जाता है । यदि पति पत्नी को धोका देकर अनीतिमार्ग में प्रवृत्ति करता है उस अवस्था में उस की सर्वहानि हो जाती है ।।. परस्त्रीगुरुदेवार्थ वृध्द्याधर्थ च सर्वदा ॥. न गृहीयान्न दद्याच्च सर्वनाशकरान्बुधः ॥ १७१॥ अर्थ-बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि वह अपने वृद्धि के लिए परस्त्री को लेकर कभी दूसरोंको बेचने आदि कुकृत्य न करें । गुरुद्रव्य व देवद्रव्य को अपहरण कर व्याज आदि कमाने की कुचेष्टा नहीं करें । एवं स्वयं ऐसे कृत्य न करें और न दूसरों को ऐसे द्रव्य देकर कुमार्ग की प्रवृत्ति करें ! इस से उस का सर्वनाश होता है ।। ध्वंसयति राजधर्मो बाह्यं द्रव्यं च सागसां सकलं । दैवो धयों बाह्यद्रव्याण्यपि चांतरंगिकं पुण्यं ॥१७२॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण अर्थ-मनुष्यने इस बात का विचार करना चाहिए कि लोक में राजाके अपराध के बाह्य ऐश्वर्य को राजा सर्व प्रकारसे नष्ट करता है। देवापराधीके बाह्य द्रव्य भी नष्ट होते हैं अंतरंग द्रव्य पुण्य भी नष्ट होता है ॥ १७२ ॥ देवस्वाम्यर्थहज्जीवे तृष्णा डिव सनिजा। स्यात्स्ववर्गेषु सा नित्या दरिद्रो जन्मजन्मनि ॥ १७३ ॥ अर्थ-जो जीव देवद्रव्य को अपहरण कर जीता है उस की तृष्णा सनिपात रोगसे पीडित रोगांकी तृषाके समान बढ़ती ही जाती है । एवं च परिग्रहोंमें उसकी लालसा स्थिर होती जाती है। इतना ही नहीं वह जन्मजन्म में दरिद्र ही होता जाता है ॥ १७३ ॥ 'पारधारादत्तभूकन्यादेशग्रामधनादिकं । आदत्ते यो बलात्तस्य बहुहानिर्भवे भवे ॥ १७४ ॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरों से वचनसे अथवा जलधारा छोडकर दी हुई भूमि, कन्या, देश, प्राम, धन आदिको जबर्दस्तीसे छीन लेता हो उसको जन्मजन्ममें हानि उठानी पड़ती है। इसलिये परद्रव्यको कभी अपहरण करना उचित नहीं है ॥ १७४ ॥ प्रसह्य चार्थानतिपीड्य यः सतां । समाहरत्यौषण्यत एव तस्य ते ॥ अल्पक्रयानिष्ठुरकोऽयवा सदा । कुर्वति रायस्त्रिविधस्य च क्षयं ॥ १७५ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यसे, बलात्कारसे अथवा बहुत कष्ट देकर सज्जनोंका धन अपहरण करता हो, एवं अधिक कीमतके पदा १ वाग्दत्तं च मनोदत्तं धारादत्तं न दीयते । नरकान्न निवर्तते यावच्चंद्रदिवाकरौ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ दानशासनम् र्थीको कम कीमत में खरीदता हो तथा दूसरों के प्रति सदा निष्ठुर व्यवहार करता हो उस व्यक्तिके भूत भविष्यत् वर्तमान ऐसे तीनों प्रकार के धन नष्ट होते हैं ॥ १७५॥ .. दशांशबंधादतिवृद्धितो मिषात । धनं स सर्व लभते वृषार्पितं ॥ नृपारिचोराग्न्यधमणीवस्मृत-। र्धवेन दग्धेन धराटवी क्षयेत् ॥ १७६ ॥ अर्थ-जो अपना कोष बढानेके निमित्तसे प्रजासे दशांश का लेंगे ऐसा नियम करके भी उनसे सर्वधन लेता है. तथा. शत्रु रूप राजाका, चोरका, कर्जा जिसने लिया है तथा जो विस्मृतिसे धनको छोड गये हैं ऐसे लोगों का धन ग्रहण करता है. वह राजा अग्नीसे, जली हुई भूमी के समान नष्ट होगा. इस श्लोकका अर्थ हमारे समझमें ठीक नहीं आया है । अतः अभिप्राय लिखा है ॥ १७६ ॥ पहाशार्जितवित्तस्य सर्वस्य क्लिश्यते मनः। निक्षेपार्थहरस्येवामुत्रिकाथहरस्य वा ॥ १७७ ॥ अर्थ---बहुत लोभी होकर जो धन कमाता है उसके मनको इस कार्यसे बहुत दुःख उत्पन्न होता है अथवा ऐसा पुरुष सबके द्वारा पीडित किया जाता है । जिससे उसका मन खिन्न होता है । जैसे कोई धनिक किसी का धन अपने पास रखता है तथा मांगनेपर उस को देता नहीं उस समय वह उसको बहुत कष्ट देता है क्यों कि वह धनिक उस दीनके आगेके जीवनकोही बिगाड देता है। इस श्लोकका केवल अभिप्रायमात्र लिखा है ॥ १७७ ॥ यत्पीडितं बलामिवात्मपतिं गृहीत्वा । व्याहूय शीघ्रमरये वितरेत्कुतंत्रम् ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण rrrrrrrrrrrrrrrr annnnnnnnnnnnnnnnn - - सीतेच रावणगृहांतगतान्यगेहा- । इंतुं स्मरत्यनयलब्धधनं नितातं ॥ १७८ ॥ . अर्थ-जो धन अन्याय व बलात्कारसे अपहरण किया गया हो वह अपने स्वामीको अनेक प्रकार के कुतंत्रसे शीघ्र पकडकर शत्रुके हाथमें दे देता है । जिस प्रकार बहुत कष्ट पाया हुआ सेवक स्वामी से चिढकर उसे शत्रुके हाथमें दे देता हो । एवं जिस प्रकार सती सीता रावणके घरसे अन्य घर होनेसे छोडकर जाना चाहती थी इसी प्रकार अन्यायोपार्जित धन दूसरेके पास जरूर चला जायगा । उससे कभी सुख नहीं मिल सकता ॥ १७८ ॥ । यो बहाशार्जितार्थस्सन् कुर्वन्स बहुधा वृष । ..... दोषी वांछभिव स्वास्थ्यं भुक्त्वैवापथ्यमौषधम् ॥१७९॥ अर्थ-जो व्यक्ति अत्यंत लोभसे न्यायान्याय; योग्यायोग्य विचार न करके बहुत धनको कमाता हो एवं उस पापके उपशम के लिये अनेक धर्मकार्य करता हो सचमुचमें वह रोगीके समान है जो वात, पित्त, कफके विकारसे पीडित हो, स्वास्थ्यकी इच्छासे औषधिका सेवन भी करता हो साथमें अपथ्य भी करता हो ॥ १७९ ॥ . सत्पुरुषोऽर्जयति धनं यत् सकलजनष्टसाधुवृदयैव स्यात् . तस्य धनस्य च हानि नुपहतधर्मबलसुगुप्तस्यैव ॥१८० अर्थ-सज्जनलोग न्यायसे जिस धनका उपार्जन करते हैं वह धन संपूर्ण इष्ट जन व साधु संतोंकी वृद्धि के लिये कारण होता है। एवं धर्मकार्यमें उसका विनियोग होता है । उस धन की हानि कभी नहीं होती, उसे कोई अपहरण भी नहीं करता, एवं धर्म कार्यों की रक्षा उससे होती है अत एव धर्मबल भी उसकी रक्षा करता है. ॥ १८० ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ दानशासनम् देवाय संकल्प्य निजं धनं यो । दत्ते न तस्मै खलु तस्य दोषः ॥ करोति राज्ञा च मिथो विवादां- | स्तेजोर्थधर्मात्मजळाभनाशान् ॥ १८९ ॥ अर्थ- जो व्यक्ति अपने धनको देवकार्य में संकल्प करके फिर उसे उस कार्य के लिये नहीं देता हो एवं अपने घरखर्च के लिये उपयोग में लेता हो उसे तीव्र पापबंध होता है । उस पाप से उसे राजा के साथ बंधुवोंके साथ व अन्य मित्रोंके साथ विवाद होता है । लोक सब उसे निंदाकी दृष्टिसे देखते हैं, इतनाही नहीं उसका तेज मंद होता है । द्रव्यका नाश होता है, धर्मकी हानि होती है, संततिका लाभ नही हो पाता है ॥ १८१ ॥ धर्मद्रव्यं दुरितहरणं यन्निकायाश्रितं चे- । दुत्पद्यंते वृषकुळहरास्तत्र जीवाश्च दृष्टाः || शून्ये यत्रावनिपतिगृहे चित्तनेत्रातिरम्ये । निर्धूतोद्यद्विभवसुजना संविशंतीव भूताः ॥ १८२ ॥ अर्थ - पापनाश करनेके लिये समर्थ धर्मद्रव्यको अपहरण कर जो कोई अपने घरमें लेजाकर रखता हो या उसे अपने घर काम में लेता हो उसके घर में दुष्ट संतान उत्पन्न होती हैं । वे धर्म व कुल 1 संस्कारको नष्ट करनेवाले होते हैं । जिसप्रकार अनेक विभावों से युक्त सुंदर राजमहल भी यदि शून्य हो जाय तो उस में भूत प्रेतादिक प्रवेश करते हैं इसीप्रकार धर्मकर्म से शून्य ऐसे घर में दुष्ट जीव प्रवेश करते हैं ॥ १८२ ॥ चेतः क्लेशं कृत्वैवान्नादिद्रव्यमाहरत्यपि यः । तस्य सुकृतव्ययः स्याद्वतभंगोऽपि च ततोऽघवृद्धिश्व ॥ १८३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंके मनको दुःख पहुंचाकर उनके अनादिक द्रव्योंको अपहरण करता हो एवं उससे स्वयं सुखका अनुभव कर रहा हो उसके पुण्यका नाश होता है । एवं सर्व संपत्तियों में प्रधान व्रतरूपी संपत्ति नष्ट हो जाती है, इतनाही नहीं पापकी वृद्धि होता है । इसलिये परधनको अपहरण करना उचित नहीं है॥१८३॥ अन्यौकाकृतभुक्तयो नृपतयो दत्वैव भुक्तिव्ययं । ज्ञात्वा द्वित्रिगुणाधिकं धनपटं गच्छंति विद्वन्यदा ॥ तद्धार्मिक एव शुद्धसुकृतं वांछन्वते शुदधी-। र्दातान्यालयभुक्तिभाक्प्रतिदिनं दद्यात्तदर्थ मुदा ॥१८४ अर्थ-जिस प्रकार राजा किसी दूसरे घरमें भोजन करके भाता है तो उस धरवालेको भोजनका मूल्य एवं दुगुने तिगुने धन वस आदि देकर चला जाता है इसी प्रकार विद्वान श्रावक धार्मिक व दाता हो तो उसे पुण्यप्राप्तिकी यदि इच्छा है तो दूसरोंके घर में भोजन करे तो उसके बदले में कुछ न कुछ जरूर देवें ॥१८४॥ कायत्तं कर्तृहस्तेन वित्तं योषायत्तं योषितः पाणिनैव । प्राचं पुण्यं चात्महस्तेन पापं स्वेनैव स्युर्वचका दस्यवश्व ॥ अर्थ-घरके मालिक स्वयं व उसकी आज्ञासे दिये गये धनको . ग्रहण करना चाहिये । घरमें यदि मालिक न हो तो मालिकिन स्वयं हो उसके हाथ से दिये गये धन वा उसकी आज्ञासे दिये गये धनको प्रहण करना चाहिये उसमें पुण्य होता है। ऐसा न होकर सेवकोंके हायसे गृहीत वा स्वयं अपने हाथसे गृहीत धन पापका कारण होता ' है। इस प्रकार स्वयं ग्रहण करनेवाले वंचक व चोर कहलाते हैं । शिथिले जिनगेहे सति सधना जैना उदासते तेषाम् । गृहधनतेजोमानप्राणादिकहानिराशु स्यात् ॥१८६ ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - अर्थ-जिनमंदिरके जीर्ण होनेपर उसे देखनेपर भी धनवान जैन उस से उपेक्षा करते हो, उसके उद्धारके लिये प्रयत्न नही करते हों तो उनका घर, धन, तेज, मान इतनाही नहीं प्राणादिका भी शीघ्र नाश होता है ॥ १८६ ॥ लेखयति यत्र यो ना सविकारांस्तस्य जिनमुनींद्रपतिमान् । नश्येद्धनमायुहमपि सह मूलं च वीक्ष्य हृष्टस्यापि ॥ १८७ ॥ अर्थ-जो मनुष्य जिनेंद्र व मुनींद्रोंके चित्रको [प्रतिमा] सविकार निर्माण कराता हो उसका धन, आयु, घर इत्यादि समूल नष्ट हो जाते हैं । इतना ही नहीं उन सविकार प्रतिमावोंको देखकर जो प्रसन्न होते हैं उनका भी धन आयु, घर इत्यादि समूल नष्ट होते हैं ॥ १८ ॥ राजा पुरा गैरवहारिणःस- । दीर्घायुरारोग्यसुखाग्निवृद्धाः ॥ सर्वे नृणां रौरवकारिणोऽद्य । . ध्वस्तायुरारोग्यसुखाग्नयः स्युः ॥ १८८ ॥ अर्थ- पूर्वकालमै राजा प्रजावोंके दु.खोंको दूर करनेमें सदा दत्त चित्त रहते थे इसलिये वे दीर्घायुषी, आरोग्यवान् , सुखी व स्वस्थ होते थे । पंचमकालके राजा प्रजावोंको हरतरह दुःख देनेमें ही अपने कर्तव्यको इतिश्री समझते हैं अतएव वे अल्पायु, रोगी, दुःखी व अस्वस्थ होते हैं । प्रजावोंके हितनिरत रहना यह राजाका कर्तव्य हैं ॥ १८८ ॥ यास्थाने सदा हासो भण्डोक्तिबहुगीवाक् ।। धर्मनिंदा भवेत्सर्व समूलं च विनश्यति ॥ १८९ ॥ अर्थ-जिस राजाके आस्थानमें ( दरबार ) सदा काल हास्य, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण भण्डवचन, परनिंदा, व धर्मनिंदा आदि दुष्कृत्य होते रहते हों उस राजाकी संपत्ति समूल नष्ट होजाती हैं ॥ १८९॥ यत्राट्टहासो दुष्कर्म जिनधर्मस्य दूषणं । साधुनिंदा भवेत्सर्व सहमूलं विनश्यति ॥ १९० ॥ अर्थ-जिस राजाके आस्थानमें सदाकाल अट्टहास होता रहता हो, दुष्कर्मका बाजार लग रहा हो, साधुवोंकी निंदा होती रहती हो उस राजाकी संपत्ति नष्ट हो जाती है । राजा धार्मिक हो तभी उसका राज्यशासन अटल रह सकता है ॥ १९० ॥ यत्रीत्कोचहरा भूपाः कायस्थाः पिशुना नराः। विश्वस्तास्तईतास्सर्व सहमूळ विनश्यति ॥ १९१ ।। अर्थ--जिस राजाके शासनमें लोग अल्पकार्यके लिए महत्वपूर्ण कार्योको बिगाडनेके लिए तैयार होते हैं, इधर उधर चुगली करके परस्पर झगडा करानेमें आनंद मानते हैं, अधिकारीवर्ग रिश्वत लेकर कार्य करता है, विश्वस्त ऐसे सज्जन लोग जहां सताये जाते हैं ऐसा राज्य समूल नष्ट होता है ॥ १९१ ॥ दृष्ट्वा न पश्यति बुधान्ब्रुवतः सदुक्ति । श्रुत्वा श्रुणोति स जडः कटु वाग्रहीव ॥ ज्ञात्वा हिताहितजनाननिशं न वेत्ति । लक्ष्मीमहाग्रहगृहीतजनो विभाति ॥ १९२ ॥ अर्थ-लक्ष्मीरूपी महाभूतसे गृहीत अज्ञानी व्यक्ति सज्जनोंको पहिले देखनेपर भी नहीं देखेके समान वर्ताव करते हैं, शास्त्रोंको सुननेपर भी अनसुनी कर देते हैं । अपने हित व अहितजनोंको जानकर भी नहीं जानने के समान करते हैं, अनेक प्रकार भूतादि दुष्ट ग्रहोंसे गृहीत व्यक्तिके समान कटुवचनका उच्चारण करते हैं। इसलिये धनके मदसे मदोन्मत्त प्राणी ग्रहपीडितके समान ही हैं ॥१९२॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् aormann नेक्षते कलिसमयाश्रयानराः किम् । बोधंते कनकसमाश्रयात्पुनः ॥ मन्यते जनपसमाश्रयान किंचित् । कुर्वति त्रिमदयुता इमे न किं तत् ॥ १९३ ॥ अर्थ-मनुष्य कलिकालके आश्रयसे ही किसीको देखना नही चाहता है, किसीको धन कनक मिलजाय तो वह मदोन्मत्त होजाता है, किसीको राज्यसत्ता व अधिकार मिलनेपर मदोन्मत्त होता है। इनमें किसीको एक साथ दूसरा कुछ भी मिले तो उनके अनर्थका कोई पार नही, ऐसी अवस्थामें कलिकाल, कनक, राज्याश्रय ये तीनों मद एकजगह मिल जाय तो फिर वे क्या नहीं करेंगे ? सब कुछ अन्याय करनेको तैयार होंगे ॥ १९३ ॥ विघ्नः सद्यः फलति कृतिनामेव पुंसा कृतोऽयं । नीचस्पृष्टिः फलति कृतिनां सघ एवं द्विजानाम् ॥ श्वेडः सद्यः फलति मुखिना पन्नगस्येव नोऽत- । स्तस्माद्विघ्नं सुकृतिपुरुषो नैव कुर्यात्कदापि ॥१९४॥ अर्थ-जिसप्रकार दुष्ट सर्पके काटनेसे उसी समय विषोद्रेक होकर प्राणको अपाय पहुंचता है उसीप्रकार सत्पुरुषोंके मार्ग में विघ्न करनेसे उसका फल तत्क्षण मिलता है, नीचलोगोंके स्पर्शन ब्राम्हणोंको उसी समय फल देता है । इसलिये सज्जनोंको उचित है कि वे कभी सन्मार्गमें विघ्न नहीं करें ॥ १९४ ॥ आयुर्हति रुजां करोति रिपुभिश्चोरैर्मृति न्यक्कृतिम् । कारागारनिवेशनं निगल दुर्बधं सदा तद्धनं ।। सर्वार्थापति ततो विहरणं लोकेऽपि भिक्षाटनं । । दैन्योक्तिं विनति वधःस्थितिमहो चित्रं कृतागःफलं॥१९५ अर्थ-बहुत आश्चर्यकी बात है, राजद्रोह धर्मद्रोहकरके अर्जित Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण पापोंसे प्राणियोंका बडा अहित होता है। राजाके द्वारा प्राणदण्डको प्राप्त होते हैं, अगर कदाचित् प्राणनाश न भी हुआ तो अनेक प्रकारके रोग कष्ट देते हैं। चोर या शत्रुओंके द्वारा मरण होता है । अनेक प्रकारसे तिरस्कार प्राप्त होता है । जेल जाना पडता है, वहां बेडी पडती है, अनेक प्रकारके कष्ट मिलते हैं, उसके धनको दूसरे लोग लूटके लेजाते हैं, वह भीख मांगने लगता है। दूसरोंके सामने दीनता व कातरता को धारण करता है। विशेष क्या ? उसका भारी अधःपतन होता है । यह सब उस धर्मापराधकृत पापका फल है ॥ १९५ ॥ सप्ताचिर्दहतीव सर्वमनिशं हत्यर्कतेजो रसं । क्ष्वेडो जीवितमामयः सुखयुगं देवर्षिराजादिषु ॥ दम्पत्योः कुरुते विरोधमळयं सद्धंधुभृत्यादिषु । प्रत्यूहः कृतकार्यलाभसमयेष्विष्टानितुं क्षमः ॥ १९६ ॥ अर्थ-जो मनुष्य धर्मकार्योंमें, देवकार्योंमें व राजकार्योंमें विघ्न करता हो उसका अधःपतन होता है । जिस प्रकार अग्नि सर्व पदार्थीको जलाता है उसी प्रकार यह पाप उसके सर्व कार्योको नाश करता है । जिस प्रकार सूर्यका तेज पानीको सुखा देता है उसी प्रकार उसका भी तेज नष्ट होता है । विषसे जिस प्रकार प्राणघात होता है, रोगसे जिस प्रकार सुखका नाश होता है उसी प्रकार इस अंतरायकृत पापसे उसको मुख मिलता नहीं। इतना ही नहीं उस पापके कारणसे देवर्षि, राजा, राज्याधिकारी, बंधु, भृत्य व यहांतक की परस्पर दंपतियोंमें अविनाशी विरोध उत्पन्न होता है। उसके लिए जिस जिस कार्य में भी लाभ होनेकी संभावना हो उसे वह अंतरायकृत पाप रोकता है ॥१९६॥ कारुण्यांबु विशोषयन्प्रविमलज्ञानं समाच्छादयन् । श्रद्धानं च विनाशयन्नविरतं चारित्रमुलंघयन् ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशालनम् - आदेयं प्रविमोचयन्गुणगणानुन्मूळयन्याहयन् । सोऽयं दुष्कृतराड्विभाति विमले लाभे सदोदासयन् ॥ अर्थ--यह पापरूपी राजा क्षारजलको गरम करके सुखानेवाले नीचोंके समान करुणारूपी जलको जलाता है, मेघ सूर्यको, करण्ड रत्नको व घडा दीपकको जिस प्रकार आच्छादित करता हो वह निर्मल ज्ञानको आच्छादित करता है। विश्वासभ्रष्ट करनेवाले जार पुरुषके समान, स्वामिभृत्य-विश्वासको नष्ट करनेवाले दुर्जनोंके समान, देहमें आत्मबुद्धि करनेवाले रागके समान, कपडेकी सिलाई को छुडानेवाले धोबीके समान श्रद्धानभ्रष्ट करता है । अपने वंशगत धर्मपुण्यको नष्ट करानेवाली वेश्याके समान चारित्रसे भ्रष्ट करता है । गर्भकलंक करने पाले भूतोंके समान, शिशुहत्या करनेवाली विधवाओंके समान आगे प्राप्यपुण्यको नष्ट करता है, अच्छे डोरोंको काटनेवाले चूहोंके समान, शुद्ध तपोगुणको नष्ट करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रियोंके समान गुणों को नष्ट करता है; हेयमें उपादेय व उपादेयमें हेयबुद्धि उत्पन्न करता है। निर्मल पुण्यलाभ में सदा विघ्न करता है। इसलिये देव, राज, धर्मकार्यमें कभी विघ्न नहीं करना चाहिये ॥ १९७ ॥ विघ्नान्वितस्य नृपतेविषयो बलं च । ग्रंथो विनश्यति यथा कुजनस्य संगात् ॥ शास्त्रं मुबुद्धिरमला च विवेकिता च । कर्पूरमिश्रतिलजस्य भवेज्जनोऽयम् ॥ १९८ ॥ अर्थ--- जैसे दुर्जनोंके संगतिसे शास्त्रज्ञान, सुबुद्धि, विवेक आदि सद्गुण नष्ट होते हैं उसी प्रकार देवधर्म-कार्यमें विघ्न करनेवाले राजाके आश्रयमें रहनेवाले देश व प्रजायें नष्ट होती हैं, वह स्वयं कर्पूरमिश्रित तेलको पीनेवालेके समान अपना अहित कर लेता है ॥ १९८ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण १०१ AAAAAAAAAAAN सततमभयदानानिर्भयो निर्जितारि-। त्रिभुवनजननेन्दीवरानंदचंद्रः । स्वजनमुरमहीजः कामिनीनां मनोजः।.. स भवति परमश्रीकामिनीकांतरूपः ॥ १९९ । अर्थ-सदाकाल अभयदान करनेसे मनुष्य निर्भय बनता है। सर्व शत्रुवोंको जीतनेवाला होता है, तीन लोकके मनुष्योंके नेत्ररूपी नीलकमलको हर्ष उत्पन्न करनेवाले चंद्रमाके समान बन जाता है, स्वबंधु व देवोंके द्वारा भी वह पूज्य व स्त्रियों के लिये कामदेवके समान सुंदररूप बन जाता है। इतना ही नहीं वह इसी अभयदानके फलसे मुक्तिलक्ष्मीका पति बन जाता है ॥ १९९ ॥ दयांबुसिक्तामृतसूर्यतप्ता- । मचौर्यसहोहलशोभमानाम् ॥ सती सुरक्षावृतिकामकांक्षा । हिमालिलक्ष्मी लतिका वहंती ॥ २० ॥ अर्थ--यह अभयदानरूप लता दयाजलसे सींची गई है, मरणका अभाव अर्थात् जीवनरूपी सूर्यसे प्रकाशित हो रही है, चोरी नही करना एतत्स्वरूप दोहदसे वह पुष्ट होगयी है, प्राणियोंका रक्षण करना यही इसकी वृति है-बाड है। तथा निस्पृहतारूपी ठंडे आलबाल की शोभा धारण करती है ॥ २० ॥ शुद्धस्याभयदानस्याहारदानस्य यत्फलम् ॥ शबरः क्षत्रियो भूत्वा लोभदत्तेन चाब्रवीत् ॥ २०१॥ अर्थ-शुद्ध अभयदान व आहारदानके फलसे एक मिल्छ उसी जन्म में मरकर क्षत्रिय हुआ व लोभदत्त नामके व्यक्तिके साथ प्रत्यक्ष बोला । इसलिए अभयदान का फल अचिंत्य है ॥ २०१ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् AAAAAAAAAA भावो देश इबान्वयः पुरमिवावासः कृतोऽन्यैर्वषु- । माता श्रीरिव सा पिता जनपकात्पौराः प्रजा बांधवाः ।। क्षेत्र क्षेत्रमिवात्मजा इव सुसस्यौघाः कथं तत्र भोः । कांप्रीतिं कुरुते भवाग्निजकृतेः प्रीति कुटुंबी यथा॥२०२॥ अर्थ- हे भव्य ! संसारके प्रति मोह बढाना उचित नहीं है । यह संसार देशके समान है। अपना कुल नगरके समान है। शरीर दूसरोंके द्वारा बनाया हुआ मकानके समान है, माता संपत्तिके समान व पिता राजाके समान है। बंधुजन पुरवासी प्रजावोंके समान हैं। क्षेत्र खेतके समान है व अपने पुत्र सस्यसमूहके समान हैं । ऐसी अवस्थामें इन संसारबुद्धिके कारणोंमें क्यों प्रीति करते हो अर्थात् उपर्युक्त सभी संसारमोहको वृद्धि करनेवाले हैं। उनमें मोह छोडना यह विवेकियोंका कर्तव्य है ।। २०२ ॥ स्यात्पंचव्रतसालपंचकवृते देहेऽघराजावृते । दुर्भावाः खलु वृत्तयो रिपुनृपं दृष्ट्वा पतित्वा ततः ॥ ब्रयुस्ते शिथिलाः पतंति तरुणीमत्तेमक्स्पृष्टितो । नातः शुद्धिरसं व्रतं च न बलं साध्यस्त्वयायं ध्रुवं ॥२०३ अर्थ-पंचमहाव्रतरूपी पंच परकोटसे रक्षित इस शरीररूपी राज्य को जब पापराजा आकर घेरते हैं, तब मिथ्यात्य, दुराचरण आदि शत्रु राजावोंको देखकर एवं तरुणीरूपी मदोन्मत्त हाथीको देखने व स्पर्शसे यह सुरक्षित राज्यस्थित आत्मा अपने स्थानसे विचलित होता है एवं शिथिल होजाता है जब उसके अंतरंग शुद्धि नही रहती है और न व्रतमें शुद्धि रहती है और न कोई आत्मशक्ति रहती है। इसलिये हे भव्य ! हरसमय मिथ्यात्वादि दुर्भावोंसे अपनेको बचाये रखो ।२०६॥ या विद्या फलदा तयैव चतुरा भाग्यं लभंते सदा । तत्रासक्तिरनूद्यमःसुपठनं तस्याःश्रुतिश्चिंतनम् ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण येषां संति त एव सौख्यमुभयं तचैहिकामुत्रिकं । . पंचैतानि न येषु ते भुवि पुरो दीना भवेयुधुवम् ॥२०॥ अर्थ--जो विद्या फलप्रद है या जिससे विद्वान् लोग भाग्यशाली बनते हैं उसी विद्यामें आसक्ति, लीनता, पठन पाठन, श्रुति व चिंतन . करना उचित है अर्थात् स्वपरहित करनेवाली विद्यामें मनुष्यको आसक्त होना चाहिये, उसीमें लीन होना चाहिये उसी विद्याका रातदिन पठन पाठन करते रहना चाहिये और उसीका मनन करना चाहिये । जो इस प्रकार करते हैं उनको इहलोक-परलोक संबंधी सुख मिलते हैं। ये पांच बातें जिनमें नही हैं उनको कोई सुख नहीं मिलता है प्रत्युत वे आगे दरिद्री होते हैं ॥ २०४॥ स्थाने यैदलवानिभैः स्वविषयैःपूर्णपैर्दुर्गमै-1 स्सिधुग्रामवनस्सखेव वरणैःकुड्यैर्हितारक्षकैः ॥ द्वास्थैः प्राहरिकैद्ययागमकीपैश्च ते रक्षितं । यत्तद्र्व्यमिवातिकंटकयुतं पुण्यं महीवावतात् ॥२०५॥ अर्थ-जिस प्रकार राजा अपने खजाने व राज्य जो बहुत आपत्ति पूर्ण है उनके रक्षाकेलिये अनेक प्रकारसे प्रयत्न करता है अर्थात् अपनी सेनासे युक्त होकर हत्ती, राज्य, आधीनस्थ राजा, दुर्गम नदी, प्राम, वन, खाई, दीवाल, रक्षक हितैषी, नगरद्वार रक्षक, प्राहरिक, बडे २ दरवाजे, व बहुत धनका व्यय और प्राप्ति जिनसे होती है ऐसे द्वीप इन सबकी सहायता से राजा जिस प्रकार अपने खजाने की रक्षा करता है उसी प्रकार वह राजा अपने निर्मल पुण्य को भी इन सब की सहायतासे आपत्तियोंसे रक्षण करें ॥ २०५॥ अभयदानमभयंकरमार्याम्मुगतिदानचतुरं सुखधाम । विदितचारुयश कुलगेहं सकलजीवनिलयं प्रवदंति ॥ अर्थ-सज्जनोत्तम पुरुष अभयदानको अभय उत्पन्न करनेवाला Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दानशासनम् कहते हैं, एवं अभयदानसे सुगति व सुखस्थान मोक्षकी भी प्राप्ति होती है। यह अभयदान यशस्कीर्ति के लिए कुलगृह है। एवं संपूर्ण जीवों के लिए सुखाश्रय स्थान है ॥ २०६॥ शश्वत्पुण्यस्रवंतीजननकुलगिरिः कर्मभूमीधवजं । चैतोवैकल्यनाशं रिपुभयहरणं सर्वशास्त्रार्थबोधं ॥ अज्ञानं हंति कोपं शमयति विनयं संयम संविधत्ते । शांति कांति विवेकं सततमरुजतां सोऽभयाख्यं सुदान ।। अर्थ-निर्दोष अभयदान पुण्यनदी को उत्पन्न करने के लिए कुलाचलके समान है । कर्मरूपी पर्वतको तोडने के लिए वज्रके समान है । इस से चित्तकी विकलता दूर होती है । शत्रुभय दूर होता है । समस्त शास्त्रों का अर्थज्ञान होता है । अज्ञान को यह नाश करता है क्रोधको उपशम करता है, विनय व संयम को उत्पन्न करता है, शांति विवेक व निरोगता सब कुछ इस अभयदान के फलसे उत्पन्न होते हैं ॥ २०७ ॥ उन्मत्तरक्षाधिपनिर्वृतीव नश्येत्फलं सर्वमघं बहु स्यात् ॥ वृत्तं विमुक्ताभयदानिना यहानत्रयं नेष्टफलानि दत्ते २०८ अर्थ-जिस प्रकार सस्योंकी वृद्धिका उन्मत्तस्वामी रक्षा नहीं करें तो उनके सब फल नष्ट होते हैं उसी प्रकार आहार, औषधि व शास्त्रदानसे पुण्यवृक्षको बढानेपर भी यदि अभयदानसे उसकी रक्षा नहीं करें तो वह निष्फल है, उससे पापकी वृद्धि होती है ॥ २०८॥ धर्मोपकारिभूपेन गृहीतं यत्समं धनं ॥ मया धर्माय तत्सर्व स्मरेदत्तं भवेत्कृती ॥ २०९ ॥ अर्थ-धर्मोपकार करनेवाले राजाके द्वारा गृहीत धनको अपव्यय १ धर्मापकारिभूपेन यावद्रव्यं सामाहृतं ॥ प्रचिंतयेन्मया दत्तं तत्सर्व धर्महेतवे ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधदाननिरूपण हुआ ऐसा न समझना चाहिये | यह मैंने धर्मके लिए ही दिया, ऐसा सत्पुरुषोंको विचार करना चाहिये ॥ २०९॥ धर्मोपकारिभूपेन गृहीतं यत्समं धनं ॥ मयाद्य. दत्तं तत्सर्व ममा नेति चिंतयेत् ॥ २१० ॥ अर्थ-सत्पुरुषोंको सदा यह भावना करनी चाहिये कि मैंने आज धर्मोपकारी राजाको जो कुछ भी धन दिया है और जो उसने ग्रहण किया है, वह पापके लिए नहीं अपितु पुण्यार्जनके लिए दिया है ऐसा विचार करना चाहिये ।। २१० ॥ निजग्रामाधिपेनाद्य यावद्व्यं समाहृतं ॥ तत्सर्व दण्डवद्दत्तं मया जीव न चिंतयेः॥ २११ ॥ अर्थ--मैने आज अपने प्रामाधिपके लिए जो दण्डके रूप में द्रव्य दिया है वह सब अन्यायके लिए नहीं दिया धर्मके लिए दिया है इसलिए उस विषय में मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए ऐसा सत्पुरुष विचार करें ॥ २११ ॥ मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतेः । प्रभासुरात्माचनदानशासनम् ।। मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं । धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥२१२॥ अर्थ- समस्त आहेत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ २१२ ॥ इत्यभयदानविधिः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् दानशालालक्षण. प्रप्रणम्य जिनं भक्त्या संसंश्रुत्य गुरोर्वचः। निर्दोषपुण्यदं दानशाला लक्षणमुच्यते ॥ १॥ अर्थ-श्रीभगवान् जिनेंद्रको भावशुद्धिसे नमस्कार कर एवं मन वचन कायकी शुद्धिसे सद्गुरुवोंके उपदेश सुनकर, अब आगे निर्दोष व पुण्यप्रद दानशालाका स्वरूप कहेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १ ॥ नवीन गृहसंस्कार गोमय चूर्णविलिप्तं शुद्धं पुण्याहवाचनाहोमाभ्याम् । सिक्तगंधांबुनव्यं गेहं मुनिभोजनाय योग्यं स्यात् ॥ २॥ ___ अर्थ-जो मकान पहिले चूना व गोबर से अच्छीतरह लिप्त हो, तदनंतर पुण्याहवाचना होम आदि संस्कारके द्वारा शुद्ध करके गंधोदक से सिक्त हो, ऐसा नवीन गृह मुनिभोजन के लिये योग्य है ॥२॥ पुराणगृहसंस्कार प्रत्ने समनि मृतकौकसि कुदृक्शूद्राश्रयेऽद्यान्न चे- । गोवत्सैर्वतिकोपि गोमयपयःसंसिक्तभित्तिच्छदिः ।। होमेनापि सुगंधतोयविमलं गोविट्पवित्रांगणं । तत्राईत्पदसेवकः सुदृगयं भुंजीत योगीश्वरः ॥३॥ अर्थ-सूतकी, चाण्डाल, मिथ्यादृष्टि व शूद्रोंका निवास जिसमें होगया हो ऐसे पुराने मकानमें भी विना शुद्ध किये व्रतिक व महाबति‘योंको भोजन नहीं लेना चाहिये । सबफे पहिले गोबरके पानीसे दीवाल कौरको गीलाकर लीपना चाहिये । फिर पुण्याहवाचनापूर्वक होम करके निर्मल गंधोदकका सेचन करना चाहिये एवं बाहरके अंग पास्तुविधि, विमानशुद्धि. - -- - - - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशाला लक्षण को भी गोबर से पवित्र करना चाहिये । ऐसे घर में अर्हत्परमेष्ठी के चरणभक्त व सम्यग्दृष्टी मुनि भोजन करें ॥ ३ ॥ सर्वथा आहारवर्जनस्थान. मिथ्यादृशां च मांसादां गेहे जैनाथये सति । नाद्यात्तत्र नवं कृत्वा शुद्धेऽद्युर्ब्रतिकादयः ॥ ४ ॥ १०७ अर्थ - मिध्यादृष्टि व मद्य, मांस, मधु के सेवकों के द्वारा आश्रित घरमें कोई जैनी रहता हो तो उस घर में जैनमुनि आहार नहीं के सकते हैं । यदि उस घरको नकीन कर पूर्वोक्त प्रकार से होम पुण्याहवाचना आदि संस्कारोंके द्वारा शुद्ध करें तो व्रतिक उसमें आहार ले सकते हैं ॥ ४ ॥ 1 मंगलग्रह. प्रत्यहं गोमयांभोभिः पूर्णसंसिक्तचत्वरं । तद्दृष्टिगोचरं योगिप्रवेशायातिमंगलं ॥ ५ ॥ अर्थ - जिस घर के प्रांगण प्रतिनित्य गोमय के पानीसे सिंचित हुआ दृष्टिगोचर होता हो, वह घर मुनियोंके प्रवेश के लिये अत्यंत मंगल है ॥ ५ ॥ सम्यक्फतिसस्यौघं सुक्षेत्रं वीक्ष्य निस्तृणं । सर्वे शंसंति तं तच्च दातारं मुनयस्तथा ॥६॥ अर्थ - जिस खेत में अच्छे फल व सस्य हो उस खेतको देखकर राहगीर लोग उस खेतकी व उस खेत के मालिक की प्रशंसा करते हैं, ठीक इसी प्रकार उपर्युक्त प्रकार के मंगलगृह व उसके मालिक दाताको सज्जन लोग प्रशंसा करते हैं ॥ ६ ॥ यतिभुक्तिगृहं शस्तं सर्वसंकल्पवर्जितं ॥ यद्गृहं सर्वमखिलं रक्षेत्सर्वप्रयत्नतः ||७|| अर्थ - जिस घर में प्रवेश करनेसे मुनियोंके चित्तमें क्षोभ या अन्य Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् mins संकल्प न होता हो वह घर प्रशस्त है। उस घरके सर्व बरतनोंको एवं अन्य पाकोपकरणोंको बहुत प्रयत्नके साथ रक्षण करना चाहिये ॥७॥ अप्रशस्त गृह. चण्डालसूतकीयुक्त स्थान सत्रोचितं गुरोः स्फुलिंगदग्धपटवद्राजयोग्यं न सर्वथा ॥ ८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार आगसे जला हुआ वस्त्र राजाके योग्य कभी नहीं हो सकता, उसी प्रकार जिसके घरमें चण्डाल व सूतकी रहते हों वहांपर भोजन करना गुरुवोंको कभी उचित नहीं है ॥ ८ ॥ गुरुवोंके आगमनकालमें सूतकियोंका कर्तव्य. तिष्ठेच्चलं विनैकत्र प्रसूता स्त्रीव सूतकी । चण्डालो न विशेज्जैनगेहचत्वरमेकदा ॥९॥ अर्थ-जिस प्रकार प्रसूत स्त्री इधर उधर न जाकर एक जगह बैठती है उसी प्रकार सूतकियोंको भी मुनिचर्याके समय एक जगह बैठ जाना चाहिये । चण्डाल जैनियोंके मकान में कभी प्रवेश न करें ॥९॥ गुरूणामागतौ तिष्ठेत् गौप्यस्थानेऽपि मृतकी ॥ तदृष्टिविषयी भूत्वा न तिष्ठन्न नमेद्वदेत् ॥१०॥ अर्थ-अपने घरमें गुरुवोंके आनेपर सूतकी व रजस्वला स्त्री गुप्त स्थानमें जाकर बैठें और ऐसे स्थानमें न बैठे जहां उन गुरुवोंके दृष्टिगोचर हो । ऐसे समय में गुरुवोंको नमस्कार नहीं करना चाहिये और न बोलना चाहिये ॥ १० ॥ देवगुरुयोग्यसेव्ये पीते पीडाज्यदुग्धदधितो ॥ व्रतिकौकसि वत्सो गौनश्यति न भरति दुग्धं चाये ॥११ अर्थ-देव गुरुवोंकी सेवाके योग्य दूध, दही आदिको जो स्वयं खालेता है उसके गाय भैंस आदि मरजाते हैं, कदाचित् जीवे तो भी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशाला लक्षण दूध नहीं देते अर्थात् ऐसे द्रव्योंको हमें खाना उचित नहीं है ॥११॥ अशुचित्वं कुरुते यन्नीचकुले जन्म नीचमाहारं ॥ हिंसाच कृत्यवृत्तिस्ततो भवे दुर्गतिस्थितिर्भवति ॥ १२ ॥ अर्थ - जो मनुष्य गुरुवोंके भोजनस्थान को व देवोंके पूजन स्थानको अशुद्ध रखता है, वह आगामी भवमें जाकर नीच कुलमें जन्म लेता है, नीच आहार सेवन करनेवाला होता है, हिंसादि पंच पापोमें रत होता है । इसी प्रकार नरकादिदुर्गति में भ्रमण करता रहता है ॥ १२ ॥ 4 । चाण्डालके लिए जैनगृहप्रवेशनिषेध स चाण्डा लक्षणे स्वप्ने भूतमेनोऽथवा वदेत् ॥ तत्र गेहूं गते सद्यः पुण्यश्रीर्विषभागिव ॥ १३ ॥ अर्थ - - स्वप्नमें चण्डालको देखनेपर उसका फल भूतों का संचार ब अपने शौच की हानिको बतलाना चाहिये । चण्डालका स्पर्श हुआ तो ज्ञानहानि, उसके साथ भोजन करें तो मिथ्यात्वकी वृद्धि आदि फल होते हैं । इस प्रकार जिस चाण्डालका दर्शन, स्पर्शन आदि स्वप्न में भी दूषित है, वह प्रत्यक्षमें यदि किसी जैनघर में प्रवेश करें तो उस घर की पुण्यलक्ष्मी विषबाधासे पीडित के समान विना कहे भाग जाती है ॥ १३ ॥ चाण्डालादिस्पृष्टपाथः संकात्सस्यं न नश्यति || सूतकीस्पृष्टवाः सेका तत्प्रवेशाद्विनश्यति ॥ १४ ॥ अर्थ-- चाण्डालोंके हाथ से स्पृष्ट जलके सेचनसे कोई वृक्ष वगैरह नाश नहीं होते हैं । सूतकी अर्थात् रजस्वला आदि के द्वारा स्पृष्ट होने से वह वृक्षादिक नाश होते हैं । परंतु जैनगृह प्रवेशके विषय में चाहे चाण्डाल हो चाहे स्त्री हो दोनोंकी समानता है । उनके द्वारा प्रत्रिष्टगृह उनको (व्रतियोंको ) आहार ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ १४ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दानशासनम् ये वसंत्यशुचौ गेहे पात्रदानादिके कृते ॥ ग्रहादिभिस्सदा तेषामाध्यो व्याधयः क्षयाः ॥ १५ ॥ अर्थ — जो श्रावक पात्रदानादि सत्कार्यको करने के लिए अशुचि गृहमें रहते हैं, उन लोगोंको सदाकाल भूतप्रेतादियोंसे एवं चोर जार इत्यादि दुर्जनोंसे अनेक प्रकारके संकट उपस्थित किये जाते हैं, जिस कारणसे उनको सदा मानसिक चिंता व रोगबाधा बनी रहती है ||१५|| सूतकोच्छिष्टविण्मूत्रे नीचसंवेष्टिते स्थळे ॥ कृते सत्पात्रदानेऽस्मिन्पुराधिव्याधयोऽधिकाः ॥ १६ ॥ अर्थ - - सूतक, उच्छिष्ट, मल, मूत्र व चाण्डालादिके द्वारा स्पृष्ट स्थानमें जो सत्पात्रदान देता है उसे अधिक रोगादि बाधा उपस्थित होजाती है ॥ १६ ॥ क्षेत्रमादाव संस्कृत्य पश्चाद्वीजं वपन्निव || पात्र गेहमसंस्कृत्वा चान्नदानाल्लयं व्रजेत् ॥ १७ ॥ अर्थ - जिस प्रकार किसान योग्य समय में खेतका संस्कार नहीं करके बीज बो तो उससे कोई उपयोग नहीं होता है उसी प्रकार अन्नदान देने योग्य क्षेत्र अर्थात् घरका संस्कार न करके यदि दान देते हैं तो उससे कोई फल नहीं होता है ॥ १७ ॥ संस्कृत्य क्षेत्रमेवाद पश्चाद्वीजं वपन्निव । गेहूं पात्रं च संस्कृत्य कृतदानात्सुखी भवेत् ॥ १८ ॥ अर्थ - जिस प्रकार किसान खेतको पहिले गोबर आदि से संस्कार करके पीछे बीज बोता है तो उस खेत में सस्यवृद्धि वगैरह अच्छीतरह होकर फलकी प्राप्ति होती है जिससे किसान सुखी होता है उसी प्रकार दानशालाको होम पुण्याहवाचना आदिले संस्कृत कर एवं उसमें रहनेवाले दानपात्रों को भी शुद्ध कर उपलक्षणसे मन वचन कायको Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशाला लक्षण भी शुद्धि कर दान देवें तो वह दाता सुखी होता है ॥ १८ ॥ स्नाता धौतशिखाः सुधौतदशनाः पुत्रादिलोकास्पृशो - । गोविट्पूतगृहेऽनिवेशितजने प्रत्यग्रभाण्डादिभिः ॥ पक्कैर्मूढजना बहुप्रयतना वाजैश्चतुर्भिर्मुदा । स्वान्देवानिव पूजयंति बहुधोत्साहैर्मुनीन्धार्मिकाः ॥१९॥ 1 अर्थ - धार्मिक जन प्रतिनित्य दंतधावन करके, आमस्तक स्नान करें । तदनंतर पुत्र आदि विना स्नान किये लोगों का स्पर्श न करें । अपने घर के अंगणकी गोमयसे पवित्र करें एवं उसमें इतर अस्पृश्यादि लोगों का प्रवेश नहीं होने देवें । और पूर्वोक्त प्रकार संस्कृत रसोई घरमें संस्कृत पात्रोंसे तैयार किये हुए भोजनको अनेक प्रकारके उत्साहले मुनियोंको अर्पण करें । इतना ही नहीं, जिस प्रकार वह अपने देवोंकी उपासना व भक्ति करता है उसी प्रकार मुनियोंके प्रति भी भक्ति करें ॥ १९ ॥ साधुपादरजाकीर्णे शुचि यह मंगणं ॥ ग्रहादिवन्हिकीटायाः प्रविशति न तद्गृहम् ॥ २० ॥ १११ - अर्थ – साधुवोंके पादधूलसे जिस घरका अंगण पवित्र होगया हो, उस घरमें भूतपिशाचादि दुष्ट ग्रहोंका प्रवेश नहीं होता है, सर्वादिक विषैले जंतु वहां नहीं आते हैं एवं अग्नि, चोर आदिका उपद्रव नहीं होता है । और न घरमें कीडे आदि क्षुद्र जंतुवोंकी हो बाधा होती है ॥ २० ॥ 1 पुण्यपुत्राः प्रजायंते तत्र श्रीरेधते सदा ॥ द्रव्यं गृहागतं पुण्यं भूरि भूत्वा प्रवर्धते ॥ २१ ॥ अर्थ - जिस घर में मुनियोंका पदार्पण हुआ हो उसमें पुण्यपुत्र अर्थात् कुलकी कीर्ति बढानेवाले पुत्र उत्पन्न होते हैं । एवं उस घर में Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ दानशासनम् । संपत्ति सदा बढती है । एवं उस घरमें आया हुआ द्रव्य व पुण्य अत्यधिक होकर बढता है ॥ २१ ॥ राजाद्यागमनोत्साहे गृहशोभा च कुर्वते ॥ सुपात्रागमने जैनाः स्वर्गमोक्षसुखप्रदे ॥ २२ ॥ अर्थ-इहलोकमें हमारे रक्षक राजा आदिके आगमन के समय जिस प्रकार प्रजाजन अपने घर की सजावट करते हैं, उसी प्रकार धार्मिक जन स्वर्गमोक्षको प्रदान करनेवाले सुपात्रों के आगमन के समयमें अपने घरकी सजावट वा शोभा करते हैं ॥ २२ ॥ महाय बंधवागमने जनास्तदा । गृहांगणद्वारमतीव शोभनं ॥ धनक्षयायैव च कुर्वतेंहसे । बुधास्सुपात्रागमने न किंचिदाः ॥ २३ ॥ अर्थ-लोकमें विवाहादि कार्यमें जब बंधुवोंका आगमन होता है उस समय सब लोग अपने घर, अंगण आदिको खूब सजाते हैं इतना ही नहीं, अपने शरीरको भी सजाते हैं। परंतु यह सब संसारवृद्धि के लिए कारण है एवं इनसे धनहानिके सिवाय कोई लाभ नहीं है । परंतु खेद है कि लोग अपने घरको सत्पात्रोंके आगमनके समय कुछ भी नहीं करते हैं ॥ २३ ॥ महाय बंधागमने जनास्तदा । गृहांगणद्वारमतीव शोभनम् ॥ वृषं श्रियं लब्धुमयं च सद्गतिं । बुधास्सुपात्रागमने दिवामृते ॥ २४ ।। अर्थ-जिस प्रकार लोग विवाहादि कार्योंके समय बंधुओंके आगमनमें घरके द्वारकी शोभा करते हैं, इस प्रकार सुपात्रोंके आगमनके समयमें धर्म, संपत्ति, आरोग्य व स्वर्गमोक्षादिकको प्राप्त करने के लिए नहीं करते हैं। खेद है।।। २४ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशाला लक्षण पापी स्त्रियां. स्त्रियस्तु बंध्यागमने महोज्ज्वलाः । सुधौतवस्त्राः शुचयो महोत्सवाः || भवंति पात्रागमने सकच्चरा । मलीमसांगा महिनाशयास्सदा ॥ २५ ॥ ११३ अर्थ - बहुतसी स्त्रियां अपने घर में बंधुओंके आगमन के वृत्तांत पाकर न्हा धोकर स्वच्छ हो जाती हैं एवं अच्छे २ कपडे, गहने पहनकर अपने घर में कोई उत्सव हो जैसे रहती हैं । परन्तु खेद है कि पात्रों के आगमके समय में खराब कपडे पहने रहती हैं । शरीरको ही नहीं, मन को भी मैला कर लेती हैं ॥ २५ ॥ सर्वे सर्वाणि वित्तानि दीनेभ्यो ददते महे ॥ दातारो याचकास्संति ते ते तानि वृषाय न ॥ २६ ॥ अर्थ - लौकिक कार्यो के लिए सर्वजन याचकोंके इच्छित द्रव्य को दानमें देते हैं, उस में दातार भी है याचक भी हैं । परंतु धर्म कार्यों के लिए दातार भी नहीं, याचक भी नहीं है । कदाचित् याचक भी हों तो दातार नहीं हैं ॥ २६ ॥ पुण्यवती स्त्रियां. : स्त्रियः कृतायाः सदया महोत्सवाः ॥ सुतवत्राः शुचयो महोज्ज्वलाः ॥ अवंति पात्रागमनेषु ते च ता । मनोवचःकायविशुद्धयश्च ॥ २७ ॥ अर्थ - पुण्यवान् दयालु स्त्री पुरुष पात्रोंके आगमन में सुंदर वस्त्र को पहननेवाली व महान उत्सववाली हो जाती हैं, इतना ही नहीं उन के मनवचन काय की शुद्धि होती है । यह उन का पूर्वपुण्य व भक्ति का फल है ।। २७ ।। १५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दानशासनम् दानशालाकी पवित्रता. मुनिभुक्तिगृहेऽन्येषां भोजने यदि तत्फलं ॥ कुण्डबद्भाति तद्रक्षेद्गृहं स्वगृहवत्सदा ॥ २८ ॥ अर्थ-मुनियोंको आहार देने योग्य भोजनशाला में उनके आहारवेलाके पहिले किसीको भोजन नहीं कराना चाहिये, यदि करावे तो दानका फल धान्यके भूसाके समान व्यर्थ जाता है । इसलिये उस घरको अपने घर ( स्त्री ) के समान रक्षण करना चाहिये ॥ २८ ॥ यत्यादिभुक्त्यगारेस्मिन् कृतान्यैर्भुक्तिरेव चेत् ॥ यावदानं कृतं तावनष्टं भिन्नतटाकवत् ॥ २९ ॥ अर्थ-मुनियोंको आहार दान देने योग्य दानशालामें यदि उनको आहार देनेके पहिले किसीने भोजन किया तो उस दातारने जितना दान दिया हो वह सब व्यर्थ जाता है, जिसप्रकार तालावके फूटनेपर पानी चला जाता हो ॥ २९ ॥ ... यत्यादिभुक्त्यगारे विण्मूत्रलिप्तशिशौ स्थिते ।.. रोगः पुग्यवतो मृत्युरपुण्यस्य शिशोभवेत् ॥ ३० ॥ अर्थ-मुनियों को दान देने योग्य पवित्र दानशालामें मलमूत्रसे लिप्त यदि बालक हो तो उस बालकका अनिष्ट होता है। यदि वह बालक पुण्यवान् हो तो रोगी होता है, यदि पुण्यहीन हो तो मरण प्राप्त करता है ॥ ३० ॥ यत्यादिभुक्त्यगारे विण्मूत्रवासस्थितियदि ॥ - रोगो भवेच्छिशोस्तस्यां सत्पुत्रोऽपि न जायते ॥ ३१ ॥ ___ अर्थ-पात्रदान देनेयोग्य दानशालामें यदि मलमूत्र से युक्त कपडा वगैरह हो तो बालक रोगी हो जाता है, इतना ही नहीं उस माताके गर्भ में फिर कुलवर्धक सत्पुत्रोंकी उत्पत्ति नहीं होती ॥ ३१ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशाला लक्षण शिश्वांदोले स्थिते पात्रचित्ते विण्मूत्रसंस्मृतिः ॥' स्यात्तयैव तयोरंतरायः पुण्यश्रियोलयः ॥ ३२ ॥ अर्थ-दानशालामें या बाहर बच्चोंको सुलानेका झूला हो तो पात्रों को उसे देखकर मल, मूत्रोंका स्मरण आजाता है, जो कि आधारमें अंतरायका कारण है । आहारमें अंतराय होनेसे दाता व पात्र दोनोंकी पुण्यलक्ष्मी नष्ट होजाती है ॥ ३२ ॥ तृणावृतेऽत्र सस्यानि वर्दते किं फलंति किं ? नीचोच्छिष्टेऽङ्गणे गेहे पुण्यायुःश्रीतुजस्तथा ॥ ३३ ॥ . अर्थ-जिस प्रकार बहुतसे घास फूम वगैरहसे युक्त खेतमें सस्यकी वृद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार मल, मूत्र उच्छिष्टादिसे युक्त अंगण, पाकगृह वगैरह जहां हो उस घरमें संपत्ति व संतानोंकी वृद्धि नहीं होती और न पुण्य व आयुकी वृद्धि होती है ॥ ३३॥ मिथ्याङ्नीचविण्मूगोच्छिष्टमिश्रेऽङ्गणे गृहे ॥ .. क्लिश्यते श्री सपत्नीव क्षीयते दैन्यमेधते ॥ ३४ ॥ - अर्थ--जिस घरमें मिथ्यादृष्टि व नीचोंका संसर्ग हो, मलमूत्र, उच्छिष्ट आदिसे युक्त अंगण हो, उस घरमें संपत्ति सवतके समान खिन होती है, एवं नाशको पाती है । दीनता बढती जाती है ॥ ३४ ॥ बहु व्ययंति पुत्राय कन्यादाने कुलर्द्धये ॥ भिन्नगेहं न कुर्वति मुनिभक्त्यै वृषर्द्धये ॥ ३५ ॥ अर्थ-संसारमें अपने पुत्रोंके लिए, कन्यादान के लिए, और भी संसारवर्द्धन कार्यके लिए बहुतसे द्रव्यका व्यय करते हैं । परंतु जिससे धर्मवृद्धि होती है ऐसे मुनिदानके लिए सर्वदोषरहित भिन्न घरका निर्माण नहीं करते हैं ॥ ३५॥ क्षेत्रे सर्वाणि धान्यानि वपंतः कृषिका इच । जैनाः पृथग्गृहेष्वन्नदानं कुरुत सर्वदा ॥ ३६ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - - - अर्थ-जिस प्रकार किसान लोग गोबर आदिसे संस्कृत भिन खेतोंमें भिन्न २ धान्यको बोते हैं, उसी प्रकार होम विधानादिसे संस्कृत दानशालामें ही जैन आहारदान देवें । यहां आहारदानके लिए पृथक दानशालाके निर्माण का यही अर्थ है कि वह शाला अच्छी तरह संस्कृत होना चाहिये । मलमूत्र उच्छिष्ट आदिका संसर्ग नहीं होना चाहिए एवं खास बात यह है कि उसमें मिथ्यादृष्टि भोजन नहीं करें, सम्यग्दृष्टि बतिक ही भोजन करें, ऐसे घरमें ही मुनियोंको दान देना उचित है । ॥ ३६॥ मतं समस्तैऋषिभिर्यथाहतैः । प्रभासुरात्मावनदानशासनं ॥ मुदे सतां पुण्य धनं समर्जितुं । धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ ३७॥ अर्थ- समस्त आहेत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ ३७॥ इति दानशालाविधिः। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रसेवाविधि पात्रसेवाविधिः। प्रणम्य जिनपादाब्जयुगं त्रैलोक्यमंगलं ॥ . वक्ष्ये जिनमुनींद्रादिपात्रसेवात्पर्क विधि ॥ १ ॥ अर्थ-तीन लोककेलिये मंगलस्वरूप ऐसे श्रीजिनेंद्रभगवंतके चरणकमलको नमस्कार कर जिनमुनींद्र आदि पात्रोंकी सेवाविधि इस प्रकरणसे कहेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा आचार्यपरमेष्ठी करते हैं ॥१॥ दानविधिः नवोपचारकरणं यन्मुनेरादरेण तं ॥ संतस्सद्विधिमाख्याति धान्यानविधिर्यथा ॥ २ ॥ __ अर्थ-जिस प्रकार आहारदानके लिए साधनभूत धान्यादिकोंके प्राप्ति के लिए अनेक प्रकारकी विधि करनी पडती है अथवा खेतमें धान्यकी उत्पत्तिके लिए अनेक प्रकारकी क्रिया करनी पड़ती है। उसी प्रकार पात्रको आदरके साथ नव प्रकारसे उपचार करना उसे सज्जन लोग सद्विधि कहते हैं ॥ २ ॥ . दानक्रम. . देशकालागमविधि द्रव्यं पात्रक्रमो यथा । दान देयं तथा दात्रा क्षेत्रे कृष्यधिपो यथा ॥ ३ ॥ . अर्थ-जिस प्रकार किसान खेती करते समय देश, काल, आगम, विधि आदि जानकर बीजको बोता है, उसी प्रकार योग्य देश, उचित कालमें, आगमोक्त विधिको ध्यानमें रखकर संस्कृत द्रव्यको उत्तम पात्र को दान देवें । सचमुचमें वही उत्तम दाता है ॥ ३ ॥ देशगुण. देशप्रवृत्तिसंक्रुद्धदोषोपशमकारणम् ॥ दोषरोगहराहारो देयस्त देशवेदिभिः ॥ ४ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ दानशासनम् पित्त, अर्थ - जांगल, अनूप, साधारण आदि देशके अनुसार प्रवृत्ति करना वात, पित्त, कफ आदि दोषोंके उपशमके लिए कारण है । इसलिए दाताको उचित है कि वे देशोंके भेदको जानकर वात, कफ आदिक दोषोंको एवं तदुत्पन्न रोगोंको दूर करनेवाले आहार दान में देवें ॥ ४ ॥ कालगुण. काळ संक्रुद्ध दोषोत्थ रोगोपशम कारणम् ॥ काळदोषहराहारो देयस्तत्काल वेदिभिः ॥ ५ ॥ अर्थ - शीत, उष्ण और वर्षाकालके अनुसार आहारप्रवृत्ति रखें तो वातपित्तादिसे उत्पन्न रोग उपशांत होते हैं । इसलिए उत्तम दातावों को उचित है कि वे कालक्रमको जानकर दोषहर आहारको दान में देवें ॥ ५ ॥ उत्तमपात्रदान कालक्रम. कंगुचणजीर हळकुळमेथी शाल्यादिवपन समय स्त्वेकः ॥ उत्तमपात्रे क्षेत्रे दातॄणामन्नदानविधिरेकः स्यात् ॥ ६ ॥ अर्थ - जिस प्रकार चना, जीरा, कुलथी, मेथी, धान आदिको बोनेका समय एक ही हुआ करता है, उसी प्रकार उत्तम पात्रोंकी आहारविधि भी एक ही है । और एक ही काल है ॥ ६ ॥ मध्यमपात्रदान कालक्रम. गोधूमबल्लतुबरी जोनळतिळ मुख्यवपनसमयौ च द्वौ । मध्यमपात्रे क्षेत्रे दातॄणामन्नदानसमयी स्याताम् ॥ ७ ॥ अर्थ - जिसप्रकार गेहूं, पावठा, तूअर, ज्वार, तिळ, आदि धान्यों को बोने के समय दो हैं, इसी प्रकार मध्यम पात्रोंको आहार दोन देनेके समय दो हैं ॥ ७ ॥ शास्त्रक्रम. शास्त्रक्रममनुल्लंघ्य संप्रवर्तेत धार्मिकः ॥ धर्मे दाने च भुक्तौ च स क्रमःसन्मुहक बुधः ॥ ८ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रसेवाविधि .अर्थ--धार्मिक सज्जनोंको उचित है कि वे धर्म, दान व भोजनमें एवं लौकिक कार्यमें शास्त्रक्रमको उल्लंघन न कर प्रवृत्ति करें। शाबक्रमसे प्रवृत्ति करनेवाला ही सम्यग्दृष्टि है ॥ ८ ॥ विधि गुणक्रम. यः सर्वकालदेशेषु यद्यदाश्रित्य वर्तनं ॥ वर्तते सदनुक्रम्य हेयं हित्वा सर्वथा ॥ ९ ॥ हातुं न शक्यं यत्कर्म न वयं योगदोषवत् । सद्भक्तिरकषायः स्यात् सुकृति व दोषभाक् ॥ १० ॥ अर्थ-जिनधर्मभक्त, मंदकषायी, धार्मिक सज्जनको उचित है कि वे सर्व देश व कालमें जो धर्मकेलिये अनुकूल है, देश व कालके लिये अनुकूल है उसे अनुकरण कर वर्तन करें। जो बात हेय हो उसे जरूर छोडे, और जो कार्य मन वचन कायके दोषके समान छोडनेको अशक्य हो उसे न छोडें, परंतु यह ध्यान में रहें कि वह धर्मके साधन हो, जिस प्रकार भक्तिके लिये अष्टद्रव्य, आत्मसिद्धि के लिये देह, देहरक्षणकेलिये आहार, गमनकेलिये वाहन, धान्यकेलिये खेत, धर्मवृद्धि के लिये दोषाच्छादन आदि बातें निंद्य नहीं हैं, उसी प्रकार धर्मसाधन भी ग्रहण करें, सर्वथा छोड नहीं सके तो धार्मिक जनोंकेलिये दोषास्पद नहीं है, प्रत्युत उससे पुण्यबंध होता है |॥ ९॥ १० ॥ द्रव्य लक्षण. पादगुदशौचशेषं ताटाकं साधुपेयमंभः किं वा । क्रमुकगुडशर्करादि च वर्णानां संकरोऽस्ति कर्णाटादौ ॥११॥ अर्थ---जिस पानीमें पाद, गुद, शौच आदिकी शुद्धि मनुष्य करते हों, वह पानी साधुवोंको पीने योग्य कभी हो सकता है क्या ? नीच जाति के लोगोके द्वारा बनाए हुए गुड, शक्कर, दूध, दही आदि साधुवोंको आहारमें देने योग्य है क्या ? कभी नहीं ? कर्णाटादि देशमें Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दानशासनम् जिस प्रकार वर्णसंकर स्पष्ट दोष पाया जाता है। उन समस्त दोषोंसे रहित द्रव्यको ही दानमें देना चाहिए ॥ ११ ॥ स्पृष्ट दोष. विद्यायत्तकुलार्तमानबुधतावृत्तादिकं चेटिका । वेश्या हंति परांगना त्रिभुवनज्ञानाशयक्षोभणं ॥ कुर्याच्छ्रीवलजीवितार्थविषयग्रंथादिवस्तुक्षयं । । यत्संगात्परजन्मनाह नरके पातो भवेदंजसा ॥ १२॥ अर्थ---नीचोंके संसर्गसे मनुष्यको विद्या, बुद्धि, कुल आदिका मद, दासत्व, वृत्तिक्षय, संपत्ति, शक्ति, जीवन, भोग व परिग्रह आदिका क्षय होता है । दूसरोंको उससे कष्ट पहुंचता है । इतना ही नहीं परजन्ममें वह नरकमें जाता है ॥ १२ ॥ पात्र. राजानः पालयंतीव निजधर्माश्रितं बलं ॥ निजधर्माश्रितान्सर्वान् दययावंति धार्मिकाः ॥ १३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार राजा अपने आश्रित सैन्यको हर तरहसे रक्षण करते हैं, उसी प्रकार धार्मिक सज्जनोंको उचित है कि वे अपने आश्रित पात्रोंको दयाबुद्धिसे रक्षण करें ॥ १३ ॥ नवधा भक्ति. प्रतिग्राहोच्चासनपाद्यपूजाः। प्रणामवाक्कायमनःप्रसादाः ॥ विधाविशुद्धिश्च नवोपचाराः । कार्या मुनीनां गृहमेधिभिश्च ॥ १४ ॥ । . अर्थ-पडिगाहना, उच्च आसन देना, पादप्रक्षालन, पूजा, प्रणाम, मनःशुद्धि, वचन शुद्धि, काराशुद्धि, तथा आहारशुद्धि इस प्रकार उत्तम पात्रों का नव प्रकारसे गृहस्थ सत्कार करें ॥ १४ ॥ .. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रसेवाविधि प्रतिग्रह. न दैन्यविध्वंसिनिधिद्रुधेनुका । यथा ददामो वयमित्युशंति ये ॥ इदं सुपात्रं सुकृतागतं न मे । त्यजामि नान्यस्य ददाम्यहं तथा ॥ १५ ॥ अर्थ--जिस प्रकार मनुष्यकी दरिद्रताका नाश करनेवाली कोई निधि, कल्पवृक्ष व कामधेनु के मिलनेपर हृष्ट होकर यह कहते हैं कि अब हम इसे किसीको नहीं देंगे, उसी प्रकार धार्मिक सज्जन अपने पुण्यसे अपने द्वारमें आये हुए पात्रोंको देखकर हर्षित होते हैं, और कहते हैं कि मैं अब इसे नहीं छोडूंगा और न दूसरोंके यहां जाने दूंगा। इस भक्तिविशेषसे जो आदर के साथ पात्रको अपने द्वारपर स्वागत किया जाता है उसीका नाम प्रतिग्रहण है ॥१५॥ उच्चासन. गत्वाभ्युत्थाय संवीक्ष्य सत्पात्रं गृहमेधिना ॥ दत्तमुच्चासनं तस्मै सून्नतासनमुच्यते ॥ १६ ॥ . अर्थ-धार्मिक गृहस्थ पात्रोंके आगमन को दूरसे देखकर भक्तिसे उठता है । फिर उनका प्रतिग्रहण कर उन्हे विराजनेको उच्च आसन देता है, यह दूसरा उपचार है ॥ १६ ॥ पाद्यपूजा. मुनिपादांबुजद्वंद्वक्षालनं पाद्यमीरितं ॥ . . मुनिपादार्चनं यच्च सा पूजेत्यभिधीयते ॥ १७ ॥ अर्थ-उच्चासन देनेके बाद मुनीश्वरोके पादप्रक्षालन करनेको पाद्य कहते हैं । और उनकी पादपूजा करनेको पूजा कहते हैं ॥१७॥ . प्रणामादिचतुष्टय. पंचांगः प्रणतिः प्रणाम इति वाक्कायाशयैर्यत्कृतं । . स्तोत्रं सेवनमुत्तमं स्मरणमित्यार्या बुवंतीह ते ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ दानशासनम् साधुप्रत्तवचःशरीरहृदयाशेषप्रसादं विधा-। शुद्धिस्त्वाहतिशुद्धिमेव विमला तेभ्यो लभंते श्रियः ॥१८॥ अर्थ- पूजा करने के बाद पंचांगप्रणाम करें । एवं मन वचन कायको शुद्धिसे मुनिजनोंका स्तोत्र व स्मरण करें। साधुवोंको देनेवाले आहारदानमें मन-वचन-कायकी शुद्धि प्रकट करें । एवं आहार शुद्धिको प्रकट करें । इस प्रकार नवविध उपचार शुद्धहृदय [ निष्कपटभाव ] से जो करते हैं उनको सर्व प्रकारकी संपत्ति प्राप्त होती आहारदोष. बीजफलकंदमूलं कण्डनशंबूकमस्थिनखरांमात्रं ॥ जंत्वजिनपूयमांस अवंति दोषाश्चतुर्दशाहारे ॥ १९ ॥ अर्थ-अभक्ष्य बीज, फल, कंद, मूल, भूसा, शंख, हड्डी, नाखून, रोम, रक्त, द्वींद्रियादिक प्राणी, चर्म, पूव, मांस ये चौदह आहार में त्याज्य हैं, दोष हैं ॥ १९ ॥ आहार शुद्धि. दातृगृहसंस्कृताहतिममकां गृह्णन्ति योगिनो मत्वा ॥ रजक सुधौत वस्त्रं सौतकमिव योग्य पुरुषसेव्यं स्यात् ॥ अर्थ-जिस प्रकार रजस्वला स्त्रीके द्वारा पहने हुए वस्त्र यदि धोबी अच्छी तरह धोकर लाता है तो उत्तम पुरुषोंके द्वारा सेव्य माना जाता है, उसी प्रकार अनेक संस्कारोंसे पवित्र दाता के घर में योगिगण आहार ग्रहण करते हैं अर्थात् आहार ग्रहण करनेकेलिये गृहसंस्कार की ही नहीं संस्कृत आहारकी भी जरूरत है ॥ २० ॥ सेवाफल. लक्ष्मी त्रिवर्गसंपत्तिं धियं भूतिं सरस्वतीम् ॥ शरीरसौष्टवं मेधां लभतेऽल्पप्रयासतः ।। २१ ॥ अर्थ---गुरुसेवा करने के अल्प श्रमसे यह मनुष्य धक्रियाकलाप Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रसेवाविधि १२३ कारण संपत्ति, जिनधर्म प्रभावनाके साधन धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग संपत्ति, परमागमज्ञायकबुद्धि, जिनधर्माराधक भन्योंके पोषण के लिए ऐश्वर्य, जिनवाणी, देहसौंदर्य, एकपाठादिक कुशाग्रबुद्धि आदिको प्राप्त करता है ॥ २१ ॥ मोक्षफल. एतैरप्युपचारैर्ये तर्पयंति तपोभृतां ॥ सुखं स्वर्गस्य मोक्षस्य भंते ते क्रमेण च ॥ २२ ॥ अर्थ---उपर्युक्त नव प्रकारकी भक्तियोंसे युक्त होकर जो तपोनिधि मुनियोंको आहार देते हैं वे स्वर्गादिक सुखको प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं क्रमसे वे मोक्षसुखको प्राप्त करते हैं ॥ २२ ॥ मूढा नाघपरार्थलाभमनसः स्वार्थव्ययं कुर्वते । सर्वे स्वामिन एव पर्वसु सदा सेवाजनेभ्योऽपि च ॥ नीत्या तद्वदयं जनो न कुरुते व्यर्थव्ययं पापदं । पूर्वोपार्जितपुण्यपापमुखतोऽधामुत्रिकाथै मनाक् ॥२३॥ अर्थ-आज भी अज्ञानी किसान लोग मालिकोंसे हम लोगोंको कुछ लाभ हो इस इच्छासे उनको अनेक प्रकारकी भेंट ले जाकर देते हैं । पर्व-दिनोंमें अपने स्वामियोंके पास यहांतक कि अपने स्वामिके सेवकोंक पास भी जाकर उनको अनेक भेंट वगैरह अर्पण कर उनका आदर करते हैं । सचमुच में उनको अज्ञानी नहीं कहना चाहिये । क्यों कि ऐसा करनेसे उनके स्वामी भी समयपर उनको उपकार करते हैं। इसलिये यह उनका कर्तव्य है । इसी प्रकार मोक्षपुरुषार्थ को जो प्राप्त करना चाहते हैं वे भी अपने द्रव्यके कुछ अंशको व्यय करके श्रीभगवान् जिनेंद्रकी उपासना आदि करें । पर्वदिनोंमें विशेषतया भगवान् जिनेंद्र एवं उनके सेव क यक्षयक्षियोंकी आराधना कर तथा अनेक प्रकारसे धर्मप्रभावना Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ दानशासनम् कर अपने द्रव्यका सदुपयोग करें । परंतु खेद है कि कितने ही लोग पूर्वोपार्जित पुण्यसे प्राप्त द्रव्यके होनेपर भी ऐसे शुभकार्यमें उसका व्यय नहीं करते । परंतु पापोपार्जनमें सहायक ऐसे दुराचार, मुकद्दमेबाजी आदिमें व्यर्थ व्यय करते हैं ॥ २३ ॥ क्षेत्रादिसर्ववस्तूनां संस्कारं कुर्वते जनाः । __ तत्तदर्थ न कुर्वति तत्फलप्राप्तिहेतवे ॥ २४ ॥ अर्थ-धान्यादिककी उत्पत्तिकेलिये खेत आदिका संस्कार मनुष्य करते हैं । धनप्राप्तिकेलिये दुकान आदिका संस्कार करते हैं । परंतु खेद है कि सबका मूलबीज जो पुण्यधन है जिसके फलमें सर्व संपत्तिकी प्राप्ति है, उसके संस्कारके लिये कोई प्रयत्न नहीं करते ॥२४॥ आनंत्याद्यानुबंधि प्रथितममृदु निस्सारमुद्यत्कलौघं । दृष्टिध्नादभ्रपांस्वस्तमितमुदकसंयोगतो वृष्टितो वा ॥ शुष्यत्संशोषयिष्यन्निजतलभवसस्यानि सर्वाणि नित्यं । क्षेत्रं संस्कृत्य पात्रं फलमिव लभते कार्षिको धार्मिकत्वं ॥२५॥ ___ अर्थ-जैसे कृषकलोग क्षेत्रका अच्छी तरहसे संस्कार करते हैं अनंतर उसमें धान्य बोते हैं इससे धान्य ऊगकर अच्छा फललाभ उनको होता है । उसी तरह पात्रको आहारदान देनेवाला दाता भी क्षेत्रके समान है। वह भी प्रथम अपने को दान देने योग्य बनायेगा तभी पात्रादानसे उसको फललाभ होगा, अन्यथा नहीं । पात्राको आहार देनेवाला दाता प्रथमतः सम्पग्दर्शनके घातक ऐसे अनंतानुबंधि कषाय को अपने हृदयसे नष्ट कर देता है, तब उसके हृदयमें जो पूर्वकालमें मिथ्यात्वरूपी धान्य उगा था वह शुष्क होकर नष्ट होता है । नष्ट होनेसे वह दाता अपनेको व्रतादिकसे संस्कृत करता है अर्थात् संस्कृतक्षत्रके समान वह जब अपने को सम्यग्दर्शनवतादिकसे संस्कृत करता है, तब सत्पात्रको आहारदान देकर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रसेवाविधि स्वर्गमोक्षादिकफलको प्राप्त कर सकता है। जैसे खेतमें जो तृण या अयोग्य धान्य ऊगा था वह नेत्रकी दर्शनशक्तिको विघात करनेवाली ऐसी आंधी के चलनेसे, खूब धूल आकाशमें उड जाती है और उसके साथ तृणादिक भी टूट फूटकर उड जाते हैं । अथवा जलवृष्टि न होनेसे तृणादिक शुष्क होजाते हैं और तदनंतर किसान लोग उसको निकालकर फेक देते हैं और कठिन क्षेत्रको हलके द्वारा धान्य बोनेके योग्य बनाते हैं । तब उसमें उनको फललाभ होता है। अभिप्राय यह है कि, मिथ्यात्वका त्याग करके सम्यग्दर्शन और व्रतादिक धारण करनेसे दाता सत्पात्रको आहारदान देनेके लायक हो जाता है ॥२५॥ मत समस्तै ऋषिभिर्यदाईतः।। प्रभामुरात्मावनदानशासनम् ॥ मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं । धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥२६॥ . - अर्थ-समस्त आहेत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ २६ ॥ इति पात्रसेवाविधिः। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ दानशासनम् द्रव्यलक्षण. प्रणम्य परमात्मानं चंद्रप्रभजिनेश्वरं । पात्रभुक्त्युचिताशेषद्रव्यलक्षणमुच्यते ॥१॥ अर्थ-परमात्मा श्रीचंद्रप्रभस्वामीको नमस्कार कर पात्रोंके भोजनके योग्य सर्व द्रव्योंका लक्षण इस प्रकरणमें कहेंगे ऐसी आचार्यश्री प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥ द्रव्यलक्षण. क्षुधाषादोषहजादयः शमं । प्रयांति यैस्सत्परिणामहतुभिः ॥ लसत्तपःस्वाध्ययनादिवृद्धिकै- । दव्याणि तान्येव वदति साधवः ॥ अर्थ--जिन आहारोंसे क्षुधा तृषादिक दोष एवं वातपित्तादिक विकारोंका उपशमन होकर शुभ परिणाम उत्पन्न होता हो, जिनसे साधुवोंका चित्त तप, स्वाध्याय, ध्यान आदिमें बढता हो उन्हीको सज्जन जन द्रव्य कहते हैं ॥ २॥ द्रव्यगुण. गोवक्त्रस्पृष्टमंभस्तिमितमनलदग्धं पलालं वरण्ड-। क्लिग्नं यज्जंतुदग्धावटगतमिह निस्सारकं पूतिगंधि ॥ त्यक्त्वा संपन्नसस्योच्चयचितमतुषं कोमलं गुप्तबीजं । शुद्धं त्यक्त्वामामिश्रं कृषिक इव वपेनेत्ररम्यं सुवर्ण ॥३॥ अर्थ-जिस प्रकार किसान खेतमें बीज बोते समय इन बातोंका ख्याल रखता है कि बोनेका बीज गायका खाया न हो, पानीसे भीगा म हो, अग्निसे जला न हो, भूसा न हो, गीला हुआ न हो, कीडा लगा न हो, छेद से युक्त न हो, निस्सार न हो, दुर्गंधी न हो, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य लक्षण. १२७ और उत्तम सस्य उत्पन्न होनेके लिए योग्य हो, कोमल हो, शुद्ध हो, अन्नसहित हो, नेत्रको सुंदर दिखता हो, एवं अच्छे वर्णसे युक्त हो । उसी प्रकार साधुवोंके लिए देनेके आहारमें भी उपर्युक्त सभी बातोंका ख्याल रखें । उस प्रकार के योग्य द्रव्यको दानमें देनेवाला ही प्रशस्त दाता है ॥ ३ ॥ अनुचितद्रव्य सर्वद्रव्यमनाणकं त्वनुचितं वस्त्रादि भुक्ताज्झितं । तांबूलीदलपूगबालफलगंधांभाप्रमूनादिकं ॥ सर्व पर्युषितं त्वभक्ष्यघृतवाःक्लिनं च पात्राय नो। दद्यात्सर्वमिदं सदा प्रवितरेद्धृत्याय फेलाभुजे ॥ ४ ॥ अर्थ- भोजनकालमें अनुचित समस्त द्रव्य, उपभोग कर छोडा गया वस्त्रादिक, तथा तांबूल, सुपारी, कच्चा नारियल, फल आदि बनाकर बहुत दिन होनेसे बिगडा हुआ द्रव्य, बहुत दिनका घृत आदि पात्रोंको आहारमें न देना चाहिए। जो पदार्थ उच्छिष्ट खानेवाला सेवकके लिए देनेयोग्य हैं उन पदार्थोको पात्रादान में देना कभी योग्य हो सकता है ? नहीं ॥ ४ ॥ निषिद्धद्रव्य विद्धं विवर्ण विरस विगंध - । मसात्म्यमक्लिन्नमपकमन ॥ स्विनं सबूकमतीव पकं । नेत्राप्रियं यन्मुनये न दद्यात् ॥५॥ __ अर्थ-जो द्रव्य बीघा गया हो, वर्णविकृत हुआ हो, विरस हुआ हो, दुर्गंधसहित हो, शरीरप्रकृतिके लिये अनुकूल न हो, अत्यंत रूक्ष हो, पका न हो, पसीजा हो, अत्यंत पका हो, आंखों को अच्छा नहीं दिखता हो, ऐसे पदार्थोको पात्रदानमें नहीं देना चाहिये॥५॥ पर्युषित. दधिसर्पिःपयोभक्ष्यमायं पर्युषितं मतं । गंधवर्णरसभ्रष्टमन्यत्सवै विगर्हितं ॥ ६ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ दानशासनम् अर्थ-गंध, वर्ण, और रससे भ्रष्ट दही, घी दूध व अन्य पक्वान्न पर्युषित कहलाते हैं । ऐसे अन्य द्रव्य भी निंदित है ॥ ६ ॥ ग्रामानीतं चापणक्रीतमन्नं- । चान्योद्दिष्टं देवयक्षादिसंज्ञम् ॥ मिथ्यादृष्टिस्पृष्टमुच्छिष्टमेत नीचाख्यातं योगिने नैव दद्यात् ॥ ७ ॥ अर्थ-जो आहार दूसरे गामसे लाया हुआ हो, बाजार ( होटल ) से खरीदकर लाया हुआ हो, दूसरोंके ( मिथ्यादृष्टि ) उद्देश्य से बनाया गया हो, गृहदेवता, यक्षदेवता भूतादिकोंको अर्पणके लिये बनाया गया हो, मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा छूया हुआ हो, उच्छिष्ट हो, नीचोंके लिये बनाया गया हो, ऐसे आहारको योगियों को कभी नहीं देना चाहिये ॥ ७ ॥ पुनरुष्णीकृतं सर्व । सर्व धान्यं विरूढकं ॥ दशरागोषितं कंसे न दद्यान्मुनये घृतम् ॥ ८ ॥ - अर्थ-फिरसे गरम किया हुआ आहारद्रव्य, अंकुर आया हुआसर्व धान्य, एवं कांसे के पात्रमें रखा हुआ दस दिनका घृत यह मुनियों को आहारदानमें देने के लिये निषिद्ध है ॥ ८ ॥ कारण. एतदाहारभुक्त्यैव चेतोऽस्वाथ्यं ततो गदाः। तपोभंगस्ततो दातुश्चांतरायो महान्भवेत् ॥ ९ ॥ __ अर्थ-उपर्युक्त प्रकारके सदोष आहारोंके भक्षणसे चित्तमें अस्वास्थ्य उत्पन्न होता है । एवं अनेक रोगादिक उत्पन्न होते हैं। और तपश्च में विघ्न उपस्थित होता है, इतना ही नहीं, दाताको महान अंतराय कर्मका बंध होता है ॥ ९॥ १ पुनरुष्णीकृतं सर्व । क्षीराहारोदकादिकं । सर्वरुग्जनलहेतुःस्या- द्विषवज्जीवितापहं ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यलक्षण निषिद्धाहारदत्तफल. स्वेशपुत्रादिभुक्तान्नशेष दत्ते तपोभृते । । अपुत्रा स्यात्सपुत्रा चेत्ते स्युर्जीवन्मृताः सुताः ॥ १० ॥ अर्थ-मुनियोंको आहार देनेके पहिले अपने पति, पुत्र, भाई बंधु आदिको भोजन कराकर फिर बचा हुआ आहार यदि मुनियोंको आहारदानमें देखें तो उस स्त्रीको अत्यधिक पाप लगता है जिसके फलसे वह अपुत्रा होती है । कदाचित् पहिलेसे उसको पुत्र हो तो वे . जीवन्मृत होते हैं अर्थात् पागल, मूर्ख, बधिर, अंधा, मूक वगैरह होते हैं ॥१०॥ अवतिकदत्ताहारफल. अतिकदत्तभुक्तिः सत्तभंगं च पुण्यभंग च । . दास्या दत्ता कुर्यादातुः पुण्यस्य सद्गते गं ॥ ११ ॥ ' अर्थ--दर्शनचारित्रसे रहित अवतिके द्वारा दिया हुआ अहार व्रतभंग और पुण्यभंगके लिये कारण है । एवं दासीके द्वारा दिलाया हुआ आहार भी दाताके पुण्य व सद्गतीका भंग करता है अर्थात् इससे पापसंचय होता है ॥ ११ ॥ . निषिद्धाहार. जीवेनांगेन कायेना- शुचिना वर्तनेन च । भवेदधमया चेट्या स्पृष्टमन्नं विगर्हितं ॥ १२ ॥ अर्थ-हिंसकप्राणियोंको स्पर्श कर दिया हुआ आहार, अस्पृ. श्यादिककी छायासे स्पृष्ट होकर दिया हुआ आहार, नीचकार्य कर :- अपवित्र दशामें दिया हुआ आहार, और नीच दासीके द्वारा स्पृष्ट । आहार मुनियोंको दानमें देने के लिये निषिद्ध है ॥ १२॥ . दासिपक्व आहार. क्षीरेम्ळं विषमन्ने स्वर्णादौयोजयनिव । दास्या दापायितुर्दानं दोषायैव प्रजायते ॥ १३ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० दानशासनम् www अर्थ-दूध में खटाई, अन्नमें विष, सोनेमें तांबा वगैरहके मिलाना जिसप्रकार दोषपूर्ण है, उसीप्रकार दासीके हाथसे दिलाया हुआ आहार दाताके लिये दोषकारक ही है ॥ १३ ॥ नीवभांडपक्वाहार दत्तं संकल्प्य नीचानां यैर्भाण्डैः पक्कमोदनम् । तैर्भाण्डैः पकमशनं न देयं यतये बुधैः ॥ १४॥ अर्थ--जिन बरतनोंमें चाण्डाल आदि नीच जातियोंको संकल्प करके भोजन पकाया जाता है उनमें पकाया हुआ अन्न मुनियोंको बुद्धिमानोंद्वारा नहीं देना चाहिये अर्थात् नीचोंके लिये भोजन पकानेके बरतनमें मुनियों के लिये आहार देने योग्य भोजन नहीं पकाना चाहिये ॥ १४ ॥ अवतिक पक्वाहार अतिकपकमन यो दत्ते तस्य पुण्य धनहानिः स्यात् । संस्कृतशालिक्षेत्रे क्षुधाभिजननस्य बीजवपनं वा ॥१५॥ अर्थ-अव्रतीके द्वारा पकाया हुआ अन्न जो दान देता है उसके पुण्य व धनका नाश होता है। जिसप्रकार धान के खेतको संस्कार कर उसमें राई बोचे तो कोई उपयोग नहीं है ॥ १५ ॥ सव्रताव्रत मिश्रण. सव्रताव्रतयोमिश्रे गंधागंधविमिश्रवत् । नीचोत्तमविमिश्रे स्यात् तप्ताज्यजलमिश्रवत् ॥१६॥ अर्थ--भोजनादिकमें अव्रती और व्रतियोंके मिश्र होने पर सुगंध दुर्गंधके मिश्रके समान हो जाता है। नीच और उत्तम पुरुषोंका मिश्रण तपे हुए घीमें पानीके मिश्रणके समान हेता है ॥ १६ ॥ कुलीननीचयोमिश्रे भुक्त्याद्यैः कुलनाशनम् । यथा स्याद्यतिनां भुक्तो मत्वा दोषाधिशोधयेत् ॥१७॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यलक्षण mms अर्थ-भोजनादिक-कार्यमें कुलीन और नीचोंका मिश्रण कुलनाशके लिये कारण होता है । इसीप्रकार मुनियोंके आहारमें इन बातोंको दोष मानकर उनका परिहार करना चाहिये ॥ १७ ॥ लोहान्योः कनकायसाविषसिताजंबालकस्तूरिका-। ज्योतिःसूर्यतमोरसायनपयोमध्वाज्ययोगाद्यथा ॥ दुष्टः स्यात्खलसंगतोऽपि सुजनः सत्संगतो दुर्जनी । यो द्वीपायनवञ्च पार्श्वमुनिवद्दक्षो वृषध्वंसने ॥ १८ ॥ अर्थ-लोहके साथ अग्नीका संसर्ग होनेपर अग्नीका कुछ नहीं बिगडता है, लोहेको ठोके पडते हैं, सोना और लोहेको मिलानेपर लोहेका कुछ नहीं बिगडता है, सोना खराब होता है । विष और शक्करको मिलानेपर विषका कुछ नहीं होता है, शक्कर खराब होती है, कीचड और कस्तूरीको मिलानेपर कीचडका कुछ नहीं होता है कस्तूरी बिगड जाती है । सूर्य के साथ केतु, चंद्रके साथ राहु के ग्रहण होनेसे सूर्य चंद्र ही कांतिविहीन होते हैं, उन ग्रहोंका कुछ नहीं बिगडता है, रसायन और पानी के संसर्गमें रसायन विकृत होता है पानीका कुछ नहीं होता, मधु और घीके संसर्गसे घी ही खराब होता है, मधुका कुछ नहीं होता। इसी प्रकार दुष्टोंके संसर्गसे सज्जनोंका धर्मनाश होता है । दुष्टोंका कुछ नहीं बिगडता है । जिस प्रकार कि द्वीपायन और पार्श्वमुनिका संसर्ग धर्मनाशके लिये कारण हुआ है ॥ १८ ॥ यहासीहस्तपक्वान्ने सती दत्ते न चामलं । शूदेण जातो ब्राह्मण्यां स्पाच्चाण्डालो यथा सुतः ॥१९॥ अर्थ-दासीके हाथसे पका हुआ आहार यदि कुलस्त्री दान देवें तो वह योग्य नहीं है। जिस प्रकार ब्राह्मण स्त्रीमें शूद्रसे उत्पन्न संतान चाण्डालके समान है ॥ १९ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दानशासनम् गृहिणीहस्तपक्वान्ने दास्या दत्ते न दोषदं । धात्र्या हि रक्षिते राजपुत्रे धात्रीसुतो न च ॥ २० ॥ अर्थ- - पत्नी के द्वारा पकाया हुआ आहार यदि दासी देवें तो वह -- उतना दोषकर नहीं है । जिसप्रकार कि धाईके द्वारा पाला गया राजपुत्र धाईका पुत्र नहीं है राजपुत्र हां है ॥ २० ॥ प्रशस्तदान. गेहभाण्डार्थयोगांगसंशुध्या दीयतेऽत्र यत् । तदेव दानं कल्याण मंगलं भवनाशनम् ॥ २१ ॥ . अथ- -घर, बरतन, अन्नवस्त्रादिक, मन वचन काय संबंधी क्रिया, शरीरावयव इन सब बातोंकी शुद्धिसे जो दान दिया जाता है वही दान कल्याण करनेवाला है । मंगल है और संसारनाशके लिये कारण है ॥ २१ ॥ हितं मितं पकमपीक्षणप्रिय सुगंधि जिहाप्रियहव्यमन्नम् । अनंधकारे सुवितानरम्ये- प्यधूमगेहे मुनये च दद्यात् ॥ अर्थ —— जीवजंतु आदि पतनका भय जहां न हो ऐसे सूर्य के प्रकाशयुक्त, अंधकाररहित एवं धूमरद्दित प्रशस्त घर में मुनियोंके शरीर को दित, मित, योग्य रीति से पका हुआ, देखने में भी अच्छा, सुगंध, स्वादिष्ट मनोहर आहार गृहस्थ मुनियोंको दानमें देवें । कुशल गृहस्थ स्वयं इन बातोंका ख्याल रखें ॥ २२ ॥ कृषीवलकृत क्रियाभिरभिवर्द्धते या कृतिः । स्तयेव सुकृतं प्रजागुरुरयांनृपः सैनिकं ॥ धार्मिक कृतैर्गुणवविधोपचारैर्गुरौं । वृषश्च सुकृतं प्रजागुरुरयोनृपः सैनिकं ॥ २३ ॥ अर्थ- -किसान खेतकी वृद्धि के लिये जिन २ क्रियावों को करता - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यलक्षण है उनसे कृषिकी वृद्धि होती है, उससे प्रजावोंके लिये उपयोग होता है । राजा उन धान्योंसे प्रजा व सैनिकोंका पालन करता है । इसी प्रकार धार्मिक सज्जन धर्मवृद्धि के लिये जिन नवविध उपचारोंसहित दानादिक क्रिया करते हैं उससे धर्मकी वृद्धि होती है । और उस धर्म से गुरुजन, प्रजा, राजा, सैनिक आदि सबको सुख मिलता है ॥ २३ ॥ मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतेः । प्रभासुरात्मावनदानशासनम् ॥ मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं । धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ २४ ॥ १३३ अर्थ – समस्त आईत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन - प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ २४ ॥ इति द्रव्यशोधनविधिः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दानशालनम् पात्रभेदाधिकारः श्रीमत्त्रिलोकभवनांतर सर्ववस्तु - । ग्राहिप्रबोधनिटिळाक्षिविराजमानं ॥ ज्ञानैकगोचरमशेषमुनींद्रबंध - । मिंद्राचितांत्रिमंईतमहं नमामि ॥ १ ॥ अर्थ - तीन लोकरूपी मकान में रखे हुए समस्त पदार्थों को ग्रहण करने में समर्थ केवलज्ञानरूपी ललाटनेत्रको धारण करनेवाले, सम्यग्ज्ञान मात्र गोचर, सर्व गणधरादिकोंसे वंदनीय, देवेंद्र से पूजित ऐसे अर्हत परमेष्ठीको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ प्रतिज्ञा. कर्महद्धर्मकृत्पात्रं तस्य भेदानहं ब्रुवे । पात्रे देयं न चान्यत्र क्षेत्रे कृष्यधिपो यथा ॥ २ ॥ अर्थ – कर्मोंको नष्ट करने में उद्यत, धर्ममार्ग में प्रवृत्त व प्रवर्तक पात्रों के भेद मैं इस प्रकरण में कहूंगा, ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं । पात्रों को ही दान देना चाहिये । अन्यत्र दान नहीं देना चाहिये । जिस प्रकार कि किसान निष्फल क्षेत्रमें बीज नहीं पेरा करता है || २ ॥ धार्मिक लक्षण. रत्नत्रयात्मको धर्मस्तमाचरति धार्मिकः । धर्माभिवृद्धये स्वस्य धार्मिके प्रीतिमाचरेत् ॥ ३ ॥ अर्थ - धर्म सम्यग्दर्शनज्ञानचास्त्रिरूप रत्नत्रयात्मक । उनको आचरण करनेवाला धार्मिक कहलाता है । अपने धर्मकी वृद्धिकेलिये धार्मिकों के प्रति प्रीति ( आदर - भक्ति ) बढाना धार्मिक मनुष्योंका कर्तव्य है ॥ ३ ॥ पात्रभेदकथादक्षैः पात्रं पंचविधं मतम् । तद्यथेति कृते प्रभे सूरिराह तदुत्तरम् || ४ || Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः अर्थ – पात्रों के भेदको जानने वाले महर्षियोने पात्रोंको पांच प्रकारसे कहा है । वह कैसे ? इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होनेपर आचार्य उसका उत्तर देते हैं ॥ ४ ॥ पात्र भेद उत्कृष्टपात्रमनगारमणुत्रताढ्यं । मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यं ॥ निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं तु विद्धि ॥ ५ ॥ अर्थ – महाव्रतधारी सकल संयमी मुनि उत्तम पात्र हैं, अणुव्रती श्रावक मध्यमपात्र है । व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है । सम्यग्दशनरहित अपितु व्रतसहित वह कुपात्र है । सम्यग्दर्शन व व्रत इन दोनों से रहित अपात्र है ऐसा समझना चाहिये ॥ ५ ॥ उत्तम पात्र संगादिरहिता धीरा रागादिमलवर्जिताः शांता दांतास्तपोभूषास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ६ ॥ अर्थ- परिग्रहोंसे रहित, परीषद्दोंको सहन करने में रागद्वेषादिविकाररहित, शांत, कषायोंको दमन करने वाले, विभूषित साधु वे उत्तम पात्र कहलाते हैं ॥ ६ ॥ १३५ निःसंगिनोऽपि वृत्ताढ्या निस्नेहाः सुगतिप्रियाः । अभूषाश्च तपोभूषास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ७ ॥ धीर, तपसे अर्थ - परिप्रई से रहित होनेपर भी चारित्रसे युक्त हैं, रागादियोंसे रहित होनेपर भी अच्छी गति ( मोक्षगति ) में प्रीति रखने वाले हैं, आभरणों से रहित होनेपर भी तपोभूषण से भूषित हैं, वे पात्र दाता के लिये उत्तम हैं ॥ ७ ॥ परीषहजये शक्ताः शक्ताः कर्मपरिक्षये । ज्ञानध्यानतपरशक्तास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ८ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दानशासनम् PRAVAAAAAprn/wn.., - अर्थ--- परीषहको जीतने में समर्थ, कोके नाश करनेमें दक्ष, व 'ज्ञानध्यान और तपमें लीन उत्तमपात्र कहलाते हैं ॥ ८ ॥ प्रशांतमनसः सौम्याः प्रशांतकरणक्रियाः प्रशांतारिमहामोहास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥९॥ अर्थ- शांतचित्तवाले, सौम्यस्वभाववाले, . मनवचनकायकी सरलवृत्ति रखनेवाले, मोहसे रहित साधुजन उत्तमपात्र कहलाते . धृतिभावनया युक्तास्सत्वभावनया युताः । .... ... तत्वार्थाहितचतस्कास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ १० ॥ __ अर्थ-धैर्य और सात्विक. भावनावोंसे युक्त, तत्वोंके मननमें जिन्होंने अपना चित्त लगाया है, वे उत्तम पात्र कहलाते हैं ॥१०॥ परीषहजये शूराः शूरा इंद्रियनिग्रहे । कषायविजये शूरास्ते पात्रं दातुरुत्तमं ॥ ११ ॥ अर्थ-परीषहजय, इंद्रियनिग्रह, और कषायोंको जीतने में जो . शूर हैं वे उत्तमपात्र कहलाते हैं ॥ ११ ॥ विमलज्ञानसंपन्ना वर्द्धते साधवोऽनिशं । फलंति नित्यमम्लाना ध्रुवांबुर्भूरुहा यथा ॥ १२ ॥ अर्थ-निर्मल ज्ञानसे युक्त उपर्युक्त प्रकारके गुणोंसे युक्त साधु नित्य अपने गुणोंकर वृद्धि को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार कि यथेष्ट . जलस्थानमें रहा हुआ वृक्ष नित्यफल देता है ॥ १२ ॥ .. ........ . एकाकी विहारनिषेध. - यो मध्ये यतिनां जितस्मरकषायाणां प्रशांतात्मना । तस्मात्ते मदनादयश्च सकला दोषाः प्रयांति क्षयं ॥ एकाकी सहसा युवा विहरति स्वांगेच्छया यः सुखी। ते तं नंति गिरंति साधुपदवी प्रोदासयंति ध्रुवं ॥ १३॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १३७ अर्थ – जो साधु कामक्रोधादिक कषायोंको जीतनेवाले शांत प्रकृति के साधुवोंके मध्य में सदा रहते हैं, उन साधुवोंके कामक्रोधादिक सर्व दोष नष्ट होते हैं । ऐसा न कर जो जवान साधु अपने शरीर के सुखसे स्वेच्छाचार पूर्वक एकाकी विहार करता है उसे वे दोषदूषित करते हैं । साधुपदसे गिराते हैं । और नियमसे साधुपद से उदासीनता भी उत्पन्न करते हैं ॥ १३ ॥ गुरुसेवा. भीतः प्रीतियुतः सयुक्तिकुशलः सेवानुरागी गुणी । धर्मोद्योगपरो विदन्पतितनूरक्षाक्रियादक्षिणः | स्वस्वाम्याश्रयजप्रसादमहिमा शिष्यः स भृत्यो यथा । स्वस्वाम्यात्तविभूतितुल्यविभवं प्राप्नोति नित्यं गुरोः ॥ १४ ॥ ४ अर्थ - जिस प्रकार भयभीत, प्रीती से युक्त, युक्ति में कुशल, सेवाकार्यमें अनुरक्त, गुणवान्, न्यायपूर्ण उद्योग करनेवाला, स्वामिके शरीररक्षा में तत्पर, ऐसे स्वामिभक्त सेवकके प्रति संतुष्ट होकर स्वामी उस सेवकको अनेक ऐश्वर्य देता है उसी प्रकार उपर्युक्त सभी विशेषणोंसे युक्त होकर जो सच्चे हृदय से गुरुसेवा करनेवाले शिष्यके प्रति गुरु भी प्रसन्न होकर अपने आश्रित शिष्यको प्रसाद के रूपमें अनेक गुणोंको देते हैं ॥ १४ ॥ गुरुके प्रति कर्तव्य. १८ माग्रे तिष्ठ गुरोर्गुरोश्च चरमे गायन्हसम्म पठेग्रंथं कामविकारिणं त्वघकरं मिथ्योपदिष्टं सदा । रागद्वेषनिमित्तमात्मविभवच्छेदोचितं मा वद । ब्रूहि ब्रूहि हितं मितं ! स्थितिकरं पूतं सभापूजितम् ॥ १५ ॥ x भूरिरिपुर्ना नृपतिं श्रित्वा परिभूय तान्विहाय पुनस्तं । विहरतं सद्यस्ते व्नंति तथा विकलचरितशिष्यं दोषाः ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम्: अर्थ-हे शिष्य ! गुरुके आगे मत बैठो, और गुरुके पीछे बैठो, गुरुके सामने ग्रंथोंको गाते हुए हसते हुए मत पढो । कामविकारको उत्पन्न करनेवाले, पापकर, मिथ्या उपदेशकारक, रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाले, आत्मकल्याणमें बाधक ग्रंथोंका उपदेश नहीं देना। सर्व प्राणियोंको हितकारक, परिमित, सभाजनोंको उल्लसनीय व आदरणीय वचनोंको बोलो । यही विनीत शिष्यका धर्म है ॥ १५ ॥ जीतिस्वामिसमार्यपावनवचो ब्रूहि त्वमाह्वानके । मा सतिष्ठ गुरोरोरुपरि भौस्तुल्यासनेऽग्रासने ॥ मा मा मातमुख त्वमेव सततं नीचो यथा वर्तते । पत्यौ मास्य पुरः स्वपः शुचिकटे पादद्वयाधःस्थले ॥१६॥ अर्थ- हे शिष्य ! गुरुजी के आह्वान करनेपर जी, स्वामी, आर्य आदि पवित्र वचनोंका उच्चारण करो । गुरूके ऊपर समान आसनपर या अग्रासनपर मत बैठो, जंभाई वगैरेह मत निकालो । नीच सेवक जिस प्रकार स्वामी के सामने सोता है, उस प्रकार गुरुके सामने सोबो मत, सोना हो तो शुद्ध चटाईपर उनके पैरके नीचे सोयो । यह शिष्य का धर्म है ।। १६ ॥ स्त्रीसंभाषणमात्मदूषणकरं बालाननोद्वीक्षणं । तासामेव कटाक्षीक्षणमिदं चित्तस्य वैकल्यकृत् ॥ शय्यांगांवरसंस्पृशादनुपमब्रह्मवतोच्छेदनं । ज्ञात्वा दोषमिमं स्वसाधुनिकटे संस्थीयतां निश्चलं ॥१७॥ अर्थ---हे शिष्य ! जवान स्त्रियोंके साथ मीठी २ बात करना यह आत्माको दूषित करने के लिये कारण होगा। उन जवान त्रियोंके मुखको उत्सुकतासे देखना, और उनका कटाक्षवीक्षण यह चित्तमें चंचलता उत्पन्न करेगा। उनके शयन, [ बिरतर ) शरीर व वस्त्र के स्पर्शन होनेसे उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य व्रतका भंग होगा । इन सब होषोंको Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १३९ अच्छी तरह विचार कर अपने गुरुके पासमें निश्चल चित्तसे रहो, इसीमें तुम्हारा कल्याण है ॥ १७॥ स्यात्पंचवतसाळपंचकवृते देहेऽघराजावृते । दुर्भावाः खलवृत्तयो रिपुनृपं दृष्ट्वा पतित्वा ततः ॥ ब्रूयुस्ते शिथिलाः पतंति तरुणीमत्तेभहक्स्पृष्टितो। नान्तःशुद्धिरसंवृतिश्च न बलं साध्यस्त्वयायं ध्रुवं ॥१८॥ अर्थ-हे वत्स ! अभी पंचमहाव्रतरूपी मजबूत परकोटेको देखकर पापराज दुर्भावरूपी सैन्यों के साथ तुमसे युद्ध करने के लिए समर्थ नहीं, वह शक्तिहीन होगया है । परंतु ध्यान रहे, जब स्त्रीरूपी मदोन्मत्त हार्थिनीकी दृष्टि इन परकोटोंपर लग जाय तो वे एकदम शिथिल होकर पड जायेंगे । फिर अंतरंगशुद्धि का रक्षण, व्रत व बल आदि कोई भी बात तुमसे साध्य नहीं हो सकेगी, यह निश्चित उच्चैरध्ययनं सगानपठनं मुंचेबुधी हास्यतां । स्वावासस्थितिमंगवीक्षणसहालापांगसंस्पर्शनं ॥ स्त्रीभिस्तत्सुतळालनं बहुपुरो जायापतिप्रस्तुति । होरामंत्रनिमित्तभेषजचितद्रव्यांगसंपोषणं ॥१९॥ अर्थ---गुरूके सामने चिल्लाकर पढना, गाकर पढना यह उचित नहीं है । एवं स्त्रियोंके आवासमें रहना, उनके सुंदर अंगोंको देखना, उनके साथ संभाषण व अंगस्पर्शन करना, उन स्त्रियोंके पुत्रोंको खिलाना, स्त्रियों की प्रशंसा करना, ज्योतिष, मंत्र, औषधि इत्यादि द्रव्य के साधनोंसे उनका पोषण करना यह सब बुद्धिमान मुनियोंके द्वारा वर्ण्य है ॥ १९ ॥ स्त्रीशय्यायां न स्वपेत्तां स्पृशेना- . श्वी याश्वानां सा स्मरोद्दीप्तिकी । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दानशासनम् - - - तद्योगिन्या योगिनश्चैकवासे न स्थातव्यं वाचनीयं सदा न ॥ २० ॥ अर्थ-साधुवोंको उचित है कि वे स्त्रियोंकी शय्यामें कभी सोवे नहीं और उसे स्पर्शन भी न करें । घोडौके साथ घोडेको बांथे तो उस घोडेको कामोद्दीपन होता है उसी प्रकार एकांतमें ( एक जगह ) अर्जिकाके साथ मुनि कभी न रहे न कोई पठन-बाउन करें ॥२०॥ आर्यिकावोंके साथ मुनियोंका निवास निषेध. सहार्यिकाभिर्मुनिभिः स्वाध्यायोऽथ जपस्तवः । न कर्तव्योऽत्र कर्तव्ये व्रतभंगो भवेत्तदा ॥ २१ ॥ अर्थ-आर्यिकावोंके साथ मुनिगण स्वाध्याय, स्तोत्र, जप वगैरह कुछ भी नहीं करें। यदि इसकी पर्वाह न कर जो कोई करेंगे उन दोनोंका व्रतभंग होता है ॥ २१ ॥ एकाकी विहारसे दोष. जारास्त्रीश्चुरिणो बलाद्धनवतो भूमि ससस्यां मृगा। गावोरीजनपाःशशांश्च शुनका व्याघ्रा मृगान्दर्दुरान् ॥ सो गाश्च तरक्षवो भुवि यथा कामति बालान्मुनीनप्येकान्मदनादयो विहरतः क्रोधादिदोषा इमे ॥२२॥ अर्थ-जिस प्रकार लोकमें यह देखा जाता है एकाकी विहरण करनेवाली पतिव्रताको जारलोग अपहरण करते हैं, धनवानोंके धनको बलात्कारसे चोर चुराते हैं, दुश्मृग गायोंको खा डालते हैं, सस्यसहित भूमिको राजा ले लेता है । शत्रुवोंको कुत्ता काटता है, शशोंको शिकारी मारता है । मृगोंको व्याघ्र खा डालता है, मेंढकोंको सर्प निगलता है, इस प्रकार सर्वत्र आक्रमण देखा जाता है। उसी प्रकार Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १४१ Accorrrrrrrrrn अनुभवशून्य बालमुनि या अर्जिका एकाकी होकर विहरण करें तो काम क्रोधादिक विकार उनको चारों तरफसे आक्रमण करते हैं ॥२२॥ अभिमाननिषेध. राजानुग्रहतो भृत्यो जनान्यक्कृत्य नश्यति । : यथा जडात्मा शिष्योऽपि गुर्वनुग्रहमात्रतः ॥२३॥ । अर्थ-राजाके अनुग्रहको प्राप्त करनेवाला सेवक अभिमानी होकर लोगोंको पीडा देनेसे जिस प्रकार अपना नाश करता है, उसी प्रकार अज्ञानी शिष्य गुरूके अनुग्रहसे मदोन्मत्त होकर अपने आत्माका पतन कर लेता है ॥ २३ ॥ दीक्षोद्देश्य. दीक्षां गृह्णन्ति मनुजाः स्वकर्महरणाय च । स्वपुण्यवृद्धये केचित् केचित्संमृतिमुक्तये ॥२४॥ अर्थ-संसारमें कोई मनुष्य अपने कर्मोको नाश करनेके लिए दीक्षा लेते हैं । कोई अपने पुण्यकी वृद्धि के लिए दीक्षा लेते हैं। कोई संसारसे छूटनेके लिए दीक्षा लेते हैं ॥ २४ ॥ विश्वजीवानुकंपावान् धर्मप्रद्योतकारकः । यथा श्रीगौतमस्वामी केचिदात्मविशुद्धये ॥२५॥ अर्थ संसारके समस्त जीवोंके प्रति अनुकंपा रखनेवाले, धर्मकी प्रभावना करनेवाले श्रीगौतमस्वामीने जिस प्रकार आत्मशुद्धि के लिए दीक्षा ली है वैसे भी कोई २ दीक्षा लेते हैं ॥ २५ ॥ कश्चित्स्वकुलनाशाय दुष्कृतोपार्जनाय ना। बंधुवर्गविनाशाय द्वीपायनमुनिर्यथा ॥२६॥ अर्थ-कोई २ द्वीपायन मुनिके समान अपने कुलके नाशके लिए, Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ दानशासनम् shMAAAAAAAAAAAAAA पापोंके उपार्जनके लिए एवं बंधुवर्गीका संहार करनेके लिए दीक्षा लेते हैं॥ २६ ॥ कश्चिदात्मविनाशाय निजधर्मकहानये । दुष्टमिथ्याग्रहग्रस्तः पार्श्वनामामुनिर्यथा ॥२७॥ अर्थ-कोई २ पार्श्वमुनि के समान अपने नाशके लिये, अपने धर्मके नाशकेलिये, दुष्ट मिथ्यात्वरूपी भूतके वर्शाभूत होकर दीक्षा लेता है ॥ २७ ॥ कश्चिदुच्चासनासक्तः कषायानच्छमानसः। काष्ठांगार इवाभाति प्रध्वस्तनिजवल्लभः ॥२८॥ अर्थ-कोई २ काष्टांगारके समान उच्च आसनों (पद ) के लोलुपी होकर, कषायकलुषित चित्तसे, अपने स्वामीके नाश करनेकी भावनासे दीक्षा लेता है ॥ २८ ॥ · देहक्लेशसहाः केचित्परोत्कर्षासहिष्णवः । नाशयंति जनान्धर्म भूपा भूत्वागजन्मनि ॥२९॥ अर्थ-कोई २ देहके क्लेशको सहन करनेवाले हैं और कोई दूसरोंके उत्कर्षको सहन करनेवाले नहीं हैं। वे आगेके जन्ममें राजा होकर प्रजा व धर्मको नाश करते हैं ॥ २९ ॥ तपांसि धृत्वा कायेन हद्वाग्भ्यां नंति तानि च । वोत्खातयंतः शाल्यानि मुक्त्वा श्वेतार्जुनानि च ॥३०॥ अर्थ-कोई २ कायसे तप धारण कर वचन और मनसे उसका नाश करते हैं । वे उसीके समान मूर्ख हैं जो खेतमें व्यर्थके घासोंको काटना छोडकर सस्योंको ही काटकर नाश करता है ॥ ३० ॥ अन्योन्यमत्सराः केचिन्मुनयो मुनिदूषकाः ॥ स्वामिदत्तार्थ भुजाना इव स्वस्वामिदूषकाः ॥ ३१ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः अर्थ- कोई २ मुनि एक दूसरेके प्रति मत्सरयुक्त होकर परस्पर एक दूसरेकी निंदा किया करते हैं जिस प्रकार कि स्वामीके दिये हुए धनको खाते हुए भी नीच सेवक अपने स्वामीकी निंदा करते हैं ॥ ३१ केचिद्विरागिणो भूत्वा बिंबानीवातिरागिणः । कुलाळामत्रनिक्षिप्तशिखिवत्कामविह्वलाः ॥ ३२ ॥ अर्थ- कोई २ मुनि विरागी होते ( कहलाते ) हुए भी बिंब फलके समान अत्यंत रागी होते हैं। कुंभकारके मटकोंको पक्क करनेवाली अनि समान कामपीडित रहते हैं ॥ ३२ ॥ लब्ध्वा राज्यमवंतीव भूपा बंधून्बलानि च । धृत्वा दीक्षां धनं लब्ध्वा केचिद्वान्धवपोषकाः ॥ ३३ ॥ १४३ अर्थ - जिस प्रकार राजा राज्यप्राप्ति करके अपने बंधुगण और सैन्यका रक्षण करते हैं । उसी प्रकार कोई मुनि दीक्षा धारण कर धन कमाते हैं और बांधों का पोषण करते हैं ॥ ३३ ॥ स्वामिद्रोहानिजं देशं मुक्त्वारिविषयं गताः । स्वामिद्रोहधराः केचिदशक्ता निरयं गताः ॥ ३४ ॥ अर्थ-स्वामिद्रोह के कारण जो अपने देशको छोडकर शत्रुराज्य में जावें तो वहां पीडित होते हैं, इसी प्रकार कितने ही अपने स्वामी व गुरुकी निंदा करनेसे नरक गये हैं ॥ ३४ ॥ निन्दन्ति निंदयंत्येव सगोत्रान्साधुपुंगवान् । जिनरूपधराः केचित् वायुभूत्यादयो यथा ॥ ३५ ॥ अर्थ – कोई २ वायुभूति आदि मुनियोंके समान मुनि उत्पन्न साधुवोंकी स्वयं निंदा करते होते हुए भी उत्तम कुलगोत्र में हैं और दूसरोंसे निंदा कराते हैं ।। ३५ ।। . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मायवा केचिदेवात्र देहसंस्कारकारकाः । आत्मघातकदुर्भावा वैदिकब्राह्मणा इव ॥ ३६ ॥ अर्थ-कोई २ मुनि वैदिक ब्राह्मणोंके समान मायाचारसे देहसंस्कारोंको करते हैं और आत्मघात करनेवाले दुर्विचारोंको सदा मनमें लाते रहते हैं ॥ ३६ ॥ _ व्यवहत्यान्यदेशेषु नंष्ट्वा स्वैरार्जितं धनं । ये नरास्ते यथा केचित्स्वकायक्लेशतत्पराः ॥ ३७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार कोई मनुष्य परदेश में व्यापार कर कमाये हुए धनको खोकर आता है, उसी प्रकार कोई २ मुनि व्यर्थ कायक्लेश कर जन्म खोते हैं ॥ ३७॥ केचिदूषवतिक्षेत्रे नित्याश्चितकृषिक्रियाः। अलब्धधान्या वर्तते यथास्युनिष्फलक्रियाः ॥ ३८ ॥ - अर्थ---कोई २ मूर्ख किसान जो कि सदा ऊसर भूमिमें ही कृषि करता रहता है परन्तु धान्यको पाता नहीं है । उसी प्रकार कोई २ मुनि अन्यथारूप क्रियाओं को करनेसे यथार्थ फलको पाते नहीं ॥३८॥ सर्वारंभपरिभ्रष्टाः केचित्स्वोदरपूर्तये । केचिस्वर्गसुखायैव केचिदैहिकभूतये ॥ ३९॥ अर्थ-समस्त आरंभोंसे भ्रष्ट होकर कोई २ मुनि अपने उदर पोषण के लिये दीक्षा लेते हैं। कोई स्वर्गसुखकी प्राप्तिके लिये और कोई ऐहिक संपत्तिकी प्राप्तिके लिये दीक्षा लेते हैं ॥ ३९ ॥ . दत्ते स स्याद्यथा दीक्षा यो मुनिर्बहिरात्मनः । काष्टांगारस्थापितश्रीविधरपिता यथा ॥ ४० ॥ - अर्थ-जो मुनि ऐसे बहिरात्मावोंको विना विचार किये ही दीक्षा दे देते हैं, वह उसी प्रकार की दीक्षा है जैसे काष्टांगारको सत्यंधर राजाने राज्यश्री देदी ।। ४० ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः दीक्षा के लिए अयोग्य पुरुष. कोभिक्रोधिविरोधिनिर्दयशपन् मायाविनां मानिनां । केवल्यागमधर्मसंघविबुधावर्णानुवादात्मनाम् ॥ मुंचामो वदतां स्वधर्मममलं सद्धर्मविध्वंसिनां । चित्तक्लेशकृतां सतां च गुरुभिर्देया न दीक्षा क्वचित् ॥४१ १४५ अर्थ - जो लोभी हो, क्रोधी हो, धर्मविरोधी हो, निर्दयतासे दूसरोंको गाली देता हो, मायावी व मानी हो, केवली, आगम, धर्म, संघ और देव इनपर मिथ्या दोषारोपण करता हो, " मौका आनेपर मैं निर्मल धर्म छोड़ दूंगा " ऐसा कहता हो, सद्धर्मका नाशक हो, के चित्तमें क्लेश उत्पन्न करनेवाला हो उसे गुरुजन दीक्षा कभी नहीं देवें ॥ ४१ ॥ स्त्रीणां भक्तिर्न च निजपतौ सेवकानां च देवे | भक्तानां सा न च गुरुजने सा न शिष्याधिकानां ॥ तास्ते ते वा विमलसुकृताच्छिन्न काचस्थधारां (2) यांतीवामि सदा दुर्गतिं तद्व्रजेयुः ॥ ४२ ॥ अर्थ --- लोकमें जिन स्त्रियोंकी भक्ति अपने पतिपर, सेवकों की भक्ति स्वामीपर, भक्तोंकी देवोंपर, शिष्योंकी गुरुजनोंमें यदि नहीं रहती है तो उनका जन्म व्यर्थ है । उनका पुण्यनाश होता है एवं वे नरकादि दुर्गतिको प्राप्त करते हैं ॥ ४२ ॥ सक्रियं कंबळं नष्टं नष्टं वासोऽक्रियं यथा । सक्रियः पापवान् नष्टः पुमानप्य क्रियस्तथा ॥ ४३ ॥ 1 अर्थ- हमेशा ओढना वगैरह कार्य में लाया गया कंबल नष्ट होता है। तथा उपयोग में नहीं लाया गया कपडा नष्ट होता है । उसी तरह अयोग्य आचरण करनेवाला अर्थात् पापक्रिया करनेवाला पुरुष नष्ट १९ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दानशासनम् होता है। तथा क्रिया नहीं करनेवाला अर्थात् पुण्यप्राप्ति नहीं करनेवाला अलसी आदमी भी नष्ट होता है अर्थात् संसारमें भ्रमण करता है। देहे जिनगृहे गेहे पत्तने गगने भुवि । उद्भवंति यथोत्पाता धर्ममार्गे तथा जडाः ॥ ४४ ।। अर्थ-देह, जिनमंदिर, घर, नगर, आकाश व भूमिमें जिस प्रकार उत्पात-अशुभ चिह्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धर्ममार्गमें अज्ञानियोंकी उत्पत्ति होती है ॥ ४४ ॥ तपोभंग कृतं सर्व यद्यैस्तद्धहिरात्मभिः । मिथ्यर्धिधर्मनाशाभ्यां मधुपिंगळपावत् ॥ १५ ॥ अर्थ-बहिरात्मा मधुपिंगल, पार्श्वमुनिके तमान मिथ्याऋद्धिको प्राप्त कर धर्मनाश करनेवाले एवं अपने सर्व तपको भंग करनेबाले बहिरात्मा मुनि भी होते हैं ॥ ४५ ॥ पुण्यं पुण्यवतां वृष्टिवर्षयत्यतिपापिनः । सा न स्पृशति वृष्टिः स्थाद्वृतिश्च सदृशी तयोः ॥४६॥ अर्थ--पुण्यवानों को ही पुण्यकी वृष्टि होती है। अतिपापियोंको बइ पुण्य वृष्टि स्पर्श नहीं करती। एवंच व्रत व सम्यग्दर्शन भी उन पापियों को स्पर्श नहीं करते ॥ ४६॥ सितार्जुनादीनि च शालिसस्यैः प्रवृद्धिमायोति यथा तथैव । कृतानि सर्वाणि तपांसि भव्यै रभंगवृत्तीनि भवंत्यभव्यैः ॥ ४७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार खेतमें सस्योंके साथ अनेक घास भी पैदा होकर बढते हैं उसी प्रकार भव्योंके द्वारा अभंगवृत्तिसे किये जानेवाले तप अभव्योंके लिए भी वृद्धि के लिए होते हैं ॥ ४७ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १४७ बह्वीः स्त्रियोपि गृहन्ति भूपालतनया यथा सुखानुभवनासक्ता अज्ञातोभयलक्षणाः ॥ ४८ ॥ अर्थ--सुखानुभवमें तल्लीन होनेवाले राजपुत्र मातृकुल तथा पितृकुल की शुद्धि रहित ऐसी भी स्त्रियां उपभोगनेके लिये अन्तःपुरमें रखते हैं । उसी तरह कितनेक पुरुष जिनदीक्षा हितकर है, और पारिव्राजक दीक्षा अहित कर ऐसा विचार न कर भाविसुखकी आशा से कोई भी दीक्षा धारण करते हैं । यह उनका अविवेक योग्य नहीं है ॥ १८ ॥ यथोदानोऽनिलः क्रुद्धो भोज्यद्रव्याणि यस्तथा । उद्दारयति दुष्कर्म पुण्यकर्म निवारयेत् ॥ ४९॥ अर्थ-यदि उदान वात कुपित हो जाय तो भोजन द्रव्यको वमन कराता है उसी प्रकार पापकर्म पुण्यकर्मके फलको भोगने नहीं देता है ॥ १९॥ कृतपुण्योदयात्पूर्व दोषाः प्रादुर्भवेत्यरं । उत्तबीजोदयात्सर्वा उद्भवंत्यखिलाः कलाः ॥ ५० ॥ __ अर्थ-पुण्यके फलके उदय आनेके पहिले अनेक दोष प्रकट होते हैं। जैसे कि बोये हुए बीज उगनेके पहिले अन्य तृण सस्यादि उत्पन्न होते हैं ॥ ५० ॥ मंदाग्नेगुरुभोजनेन विगळत्तेजा अनल्पागसा । स्वल्पायुर्विषभोजनाद्गतधना नष्टाधिकाराद्यथा ॥ निर्भाग्या नृपसेवया धृतधनाः स्वस्वाभ्युदासीनतः । क्रुद्धाद्या गुरुदीक्षयैव कतिचिन्नाशं गता दुर्गतिं ॥ ५१ ॥ अर्थ-मंदाग्निको धारण करनेवाले कितने ही लोग गरिष्ट भोजन करके कांतिरहित होते हैं । महत्पाप करनेसे स्वल्पायु होते हैं । आसन्नमरणजीव विषके भोजन करनेसे नष्ट होते Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् हैं। दरिद्री लोग नष्ट देशाधिपत्यसे, भाग्यहीनलोग राजाकी सेवासे, आजीविकाप्राप्त लोग अपने स्वामीकी उदासीनतासे, नष्ट होगये और दुर्गतिको गये। उसी प्रकार पार्श्वमुनिके समान कितने ही पापसे पीडित दिगंबर दीक्षा लेनेके बाद भी दुर्गतिको गये । अर्थात् भाग्यहीन व पापी पुरुषोंको अच्छा आश्रय भी नाशके लिये भी हुआ करता है॥ ५१ ॥ विभावसंयुतमिथ्यादर्शनादिमुनीश्वरैः । बभूवुर्धार्मिकैधर्महानिःस्यादविचारकैः ॥ ५२ ॥ अर्थ- मिथ्यादर्शनादि विभावोंसे युक्त धार्मिक कहलानेवाले अविचारी मुनियोंसे कितने ही बार धर्म की हानि हुई न होगी ॥५२॥ वैद्यान्विद्विषतां रुजामधिकता न स्पांदणो भेषजैः । स्वस्वामिद्विषतां न जीवितमघाधिक्यं च साधुद्विषाम् । स्वानीकद्विषतां च धावति रमा राज्यं च यद्यद्विषां । लाभस्तैन जलं विना फलति नो भक्तिं विना नो गुणः ५३ अर्थ-जो वैद्योंके साथ द्वेष रखते हैं ऐसे रोगी पुरुषोंके रोग बढेंगे ही। चाहे जितने औषध लेनेपर भी गुण नहीं होगा । अर्थात उनके रोग नष्ट नहीं होंगे। जो अपने मालिक के साथ द्वेष रखते हैं वे मूर्ख लोग अपनी उपजीविकाका नाश करते हैं। उसी तरह जो दुष्ट लोग साधुओंका द्वेष करते हैं उनको तीव्र पातकोंका नियम से बंध होता है । जो अपने सैन्यसे द्वेष करते हैं ऐसे राजाओंकी लक्ष्मी और राज्य नष्ट होता है। अभिप्राय यह है कि जो जिस हितकर वस्तुका द्वेष करता है उससे उसका फायदा नहीं होगा हानि ही होगी। जलके विना वृक्ष न बढेगा न फल देगा। उसी प्रकार यदि हम साधुके गुणों में भक्ति न करेंगे तो हमारा कल्याण नहीं होगा ऐसा समझकर उनकी उपासना हमेशा करनी चाहिये । ऐसा इस श्लोकका अभिप्राय है ॥५३॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १४२ भोजं भोजं येप्युपालब्धुकामा । दायं दायं दानिनः सानुतापाः ॥ तद्दोषैः स्यादानपुण्यादिनाशो | जिह्वालौल्यं स्वान्यलाभं निर्हति ॥ ५४ ॥ अर्थ – जो साधु भोजन करते २ श्रावककी निंदा करते हैं तथा दाता उसकी पूर्ति करते २ संतप्त होता हो तो इन दोषोंसे दान पुण्यका नाश होता है । वह साधु भी जिह्वालोलुपतासे अपने अन्य लाभोंको खो लेता है ॥ ५४ ॥ सत्कर्पूरालवालप्रसृतमृगमदासिक्त हैमांबुपूर | क्षेत्रोताशेषकंदद्रमतृणलतिकाः प्राग्गुणान त्यजंति ॥ दुर्भावैर्दुष्कषायैः : कृतनुतिजपसम्यक्तपोवृद्धयो या । दुर्भावान्दुष्कषायान्प्रकटतरबलान्वर्धयन्ति स्फुटं ताः ॥५५ अर्थ - यदि खेतको कपूरका बांध बनावें और कस्तूरिका व गुलाब - जलसे उसे छिडके तो भी उसमें उत्पन्न होनेवाले कंद, सस्य व लतायें अपने पूर्व गुणोंको कभी नहीं छोड सकते | उसी प्रकार अच्छे साधुवोंके संसर्ग में रहनेपर भी जो दुर्भाव व स्तोत्र, ध्यान आदि करते हैं उनके वे भाव कभी अपितु दुर्भाव व कषायोंको बढाते ही हैं ॥ ५५ ॥ मातुल्यभ्यस्तवध्वः प्रविमलचरिताः स्तूयमानाम्सतभिः । स्वाचार्याभ्यस्तशिष्याः प्रविमलचरिताः स्तूयमाना मुनींद्रेः ॥ स्युः पित्रभ्यस्त पुत्राः प्रकटितमतयो धीरवीरा रमेशाः । स्वस्वाम्यभ्यस्तभृत्याः प्रकटितमतयो धीरवीरा हमेशाः ॥ ५६ ॥ दुष्कषायसे जप, छूट नहीं सकते अर्थ — सासू के उपदेशको ठीक २ मनन करनेवाली सती निर्मल चारित्रवाली होती है । उसे सर्व पतिव्रता खियां प्रशंसा करती हैं । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् आचार्यके उपदेशके अभ्यास करनेवाले शिष्यका भी आचार पवित्र होजाता है । उसकी भी मुनिगण प्रशंसा करते हैं। पिताके उपदेश का अभ्यास करनेवाला पुत्र बुदिमान होकर धीर वीर व लक्ष्मीसंपन होता है एवं अपने स्वामीके उपदेशको अभ्यास करनेवाला सेवक भी बुद्धिमान् होकर धीर, वीर व लक्ष्मीसंपन्न होता है ॥ ५६ ॥ मुस्ताकंदानंतमूलानि वर्षाकाळे भूमि व्याप्नुवंतीव बहीं । ग्रीष्मे लीनानीव केषां दृशोऽस्मिन् काले काले संळयत्युद्भवंति ॥ ५७ ॥ अर्थ-मुस्ताकंद जो अनंतकाय है, वर्षाकालमें पैदा होते हैं और प्रीष्मकालमें नष्ट होते हैं, इसी प्रकार कोई सग्यग्दृष्टियोंके परिणाम पुराणश्रवण, मुनिदर्शन, देवदर्शन आदि समयमें तो श्रद्धायुक्त रहते है। और अन्य क्रोधादिक उत्पत्तिके समयमें वैसे परिणाम विलय हो जाते हैं॥ ५७॥ शियोकंद इवाक्षयोऽवनिगतो वर्षाबुनोत्पद्यते । निर्वृष्टिर्न च हानिरंघ्रिवपुषोरीषद्धहिर्वा भवेत् ॥ वाद्यांगस्य हतिर्न मूलविलयो मूलक्षयं मा कृथाः । सदृष्टेर्जिननायसैन्यहृदयक्षोभं सदा मा कुरु ॥ ५८ ॥ अर्थ--परंतु शिग्रुकंद वर्षाकालमें भी उत्पन्न होता है और वर्षा नहीं रहनेपर उसे कोई हानि भी नहीं होती । अन्य समय में भी वह नष्ट नहीं होता। कदाचित् गाय वगैरह उसे खा डाले तो भी जमीनसे बाहर निकला है उतने भागको ही खा सकती हैं अंदर से मूलोच्छेदन नहीं हो सकता है। अंदर अंकुर बना ही रहता है । इसी प्रकार बाह्य शरीरकी कुछ बाधा होनेपर भी अंतरंग सम्यग्दर्शन को मूलसे उच्छेदन नहीं होने देना चाहिए एवं जिनेंद्रभगवंतकी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः wwvie सेनारूप रहनेवाले चतुःसंघके हृदयको कभी क्षुब्ध नहीं करना चाहिए ॥ ५८ ॥ यावज्जीवावधिस्तावत् कृतकर्मविशेषतः । यथा पूगस्सुफलदस्तथा कश्चित्सुदृक्पुमान् ॥ ५९ ॥ अर्थ-कोई २ सुपारकेि पेडके समान जबतक जीवन धारण करेगा तबतक अपने पूर्वपुण्यके उदयसे सम्यग्दृष्टि ही बना रहता बहुक्रियो भूरिफलोऽल्पक्रियोऽल्पफलप्रदः । निष्क्रिये सति निश्शेषसस्यवृक्षाः क्षयन्त्यरं ॥ ६॥ अर्थ-खेतमें किसान यदि बहुतसी कृषिक्रिया करता है तो बहुत फल उसे मिलते हैं । यदि अल्पक्रिया करता है तो अल्प फल ही मिलते हैं । बिलकुल क्रियारहित होनेपर सर्व सस्यवृक्ष नष्ट होते हैं। इसी तरह मनुष्य भी बहु क्रियावाला हो तो उसे बहुफल मिलते हैं। अल्प क्रियावान् हो तो अल्पफल व निक्रिय हो तो न कुछ फल मिलता हैं ॥ ६० ॥ ध्रुवांबुभूप्तसद्धीजः कालोचितकृतक्रियः । शोधितांकुरदोषोऽयं वीक्षमाणाक्षिवल्लभः ॥ ६१ ॥ रक्षकाणां ददातीव धृतसत्फलगुच्छकः । यथा द्रुमो दाक्षिणात्यो भाति कश्चित्सुदृक् तथा ॥ ६२॥ अर्थ-जिस प्रकार खूब पानीके स्थानमें बोया हुआ, कालोचित संस्कारोंसे युक्त, अंकुरदोषोंसे रहित नारियलका वृक्ष फलगुच्छोंसे युक्त होकर रक्षकोंके आंखोंको आनंद उत्पन्न करता है उसी प्रकार कोई २ निर्दोष सम्यग्दृष्टि देखनेवालोंको आनंद उत्पन्न करते हैं ॥ ६१ ॥ ६२॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् । प्राग्रेभैकांकुरा पश्चात् तत्र स्युर्बहवोऽकुराः । तथैका रुचिराया सा जानीयाद्रहुधापरा ॥ ६३ ॥ अर्थ-जिसप्रकार केलेका अंकुर पहिले एक रहनेपर भी उससे बादमें अनेक वृक्ष होते हैं, उसी प्रकार पहिले गुरूपदेश आदि निमितसे श्रद्धान होता है तदनंतर चारित्रादिक होते हैं ॥ ६३ ॥ रंभाकंदो जलाभावात् स्वयमेव विनश्यति । यथा तथैव केषां दृक् क्रोधादेव स्वयं क्षयेत् ॥ ६४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गर्मीमें जलके अभाव होनेसे केलेका कंद अपने आप नष्ट होता है, इसी प्रकार क्रोधादिक कषायरूपी उष्णत'से किसी २ का सम्यग्दर्शन अपने आप नष्ट होता है ॥६४॥ - मूलरंभादलच्छेदादग्रोद्भवफलक्षयः व्यवहारगंगस्य नाशे फलहतिस्तथा ॥ ६५ ॥ अर्थ-लेके वृक्षके मूल पत्तेको काटनेसे आगे उत्पन्न होनेवाले फलका नाश होता है, उसी प्रकार व्यवहारसम्यग्दर्शन के नाश होनेसे पारमार्थिक सम्यग्दर्शनरूपी फल नहीं मिल सकता है ॥ ६५ ॥ पुनरुत्पन्नतत्पत्रच्छेदात्फलहतिर्न वा । परमार्थगंगस्य हानिन फलहानये ॥ ६६ ॥ अर्थ-उसके पुनः उत्पन्न पत्तोंको काटनेसे जिस प्रकार फलके लिए कोई हानि नहीं है, उसी प्रकार परमार्थ सम्यग्दर्शनकी न कोई हानि होती है और न उसके फलकी हानि होती है ।। ६६ ॥ अधोमुखान्येव फलानि जाती तस्याः पुनश्चोर्ध्वमुखानि च स्युः । यथा सुदृक्पूर्वमयानुपायो- (१) प्यशेषकर्माणि निहंति पश्चात् ॥ ६७ ॥ अधोमुखा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १५३ waiianminmamman अर्थ-वे केलेके फल उत्पन्न होनेके समयमें अधोमुखी होते हैं व बादमें ऊर्ध्वमुखी होते हैं उसी प्रकार कोई २ सम्यग्दृष्टियोंको पुण्य कमानेका कोई साधन नहीं रहनेपर भी बादमें वह अष्टकर्मीको नाश करते हैं ॥ ६७ ॥ स्वयं फलानि पकानि तस्याः परिणतौ यथा । तथा च गौतमस्वामी भवेत्कश्चित्सुदृक्पुमान् ॥ ६८ ॥ अर्थ-समय आनेपर केलेके फल जिस प्रकार अपने आप पकते हैं उसी प्रकार कोई २ समय आनेपर गौतमस्वामीके समान सम्यग्दृष्टि बनते है॥ ६८॥ __ रंभाफलगुलुंछेऽस्मिन्नल्पान्यूर्ध्वमुखानि च । बहून्यधः पतनीव केचिज्जीवा व्रजेत्युभे ॥ ६९ ॥ अर्थ-केलेके गुच्छमें जिस प्रकार कुछ केले तो ऊर्ध्वमुख और बहुतसे अधोमुखवाले होते हैं, इसी प्रकार बहुत संख्यामें सुदृष्टि सम्यग्दर्शनसे च्युत होते हैं ॥ ६९ ॥ पाटल्यंघ्रिषु यत्र यत्र बहवो भंगा भवत्यकुरा । जायंते यदि तत्र तत्र बहलास्ते स्युर्महापादपाः ॥ केषां दृक्च यथा तथैव बहुधा विघ्नान्विता चेत्तदा । सा दृक् नित्यमुखं ददास्यलमसंख्यातात्मिका स्याद्धवं ॥७०॥ अर्थ-जिस प्रकार पाटलीवृक्षमें किसी कारणसे भंग हो जाय, जहां २ भंग है वहां अंकुरोत्पादन होकर बहुतसे वृक्ष उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार किसी २ सम्यग्दृष्टिको यदि उनके भावोंको बिगाडने वाले अनेक विघ्न उपस्थित हो जाय तो वह सम्यग्दर्शन उसके भावोंके भेदसे असंख्यात प्रकारसे विभक्त होता है ॥ ७० ॥ |. सर्वागम्यशिलोच्चयोत्थतरवः संवृद्धिभाजो यथा ॥ | निर्भगा बहुनिझराईवरणाः शुद्धाशया निर्मदाः ।। २० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ comnooooooooo दानशासनम् निश्शंकादिगुणान्वितास्सकरुणा निर्धर्षनिर्मत्सराः । निर्दोषोत्तमदृष्टिनिर्मलजना मोक्षं श्रयंति ध्रुवं ॥ ७१ ।। अर्थ-पर्वतपर उत्पन्न वृक्ष मनुष्याद्यगम्यरूप से बढता है, उसी प्रकार भंगरहित, अनेक झरनोंसे गीले हुए है मूल जिनके ऐसे वृक्षोंके समान सच्चरित्रबाले, निश्शंकादि गुणोंसे युक्त, करुणासहित, घर्षणा व मत्सर भावनाओंसे रहित, निर्दोषसम्यग्दृष्टि नियमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ ७१ ॥ दुर्गजेषु कुजेष्वग्नौ जातेऽन्योन्यपघर्षणात् ॥ ___दग्धास्त इव दृग्वृक्ष क्रोधवह्निर्दहेद्धृवम् ॥ ७२ ॥ अर्थ- पहाडके वृक्षोंके समूहमें उत्पन्न वृक्ष, वृक्षोंके परस्पर वर्षणसे उत्पन्न अग्निसे जिस प्रकार जल जाता है इसी प्रकार क्रोधाग्नि' से सुदृष्टिका सम्यग्दर्शन नियमसे जलता है ॥ ७२ ॥ क्रोधोऽग्निः सुकृतं समिदृगशनं सर्दिया दुष्षमः । शाला कुण्डवपुः कषायनिचयास्सामाजिका दुर्वचः ॥ मंत्री होत जना विभावनिकरास्तद्यज्ञकर्ताघरा- । मिथ्यात्वं नृपतिः फलं बहुविधं तत्स्यानिगोदाप्तये ॥७३॥ अर्थ- यह संसार एक महायज्ञ के समान है | क्रोध अग्नि है। पुण्य समिधा है । सम्यग्दर्शन अन्नाहुति है। दया आज्याहुति है। यह पंचमकाल यज्ञशाला है । यह शरीर यज्ञकुण्ड है। कषायवर्ग यज्ञकर्ममें भाग लेनेवाले सामाजिक है । दुष्टवचन मंत्र है। विभाव परिणाम आहुति देनेवाले हैं या याज्ञिक पुरोहित हैं । वर्मराज मिथ्यात्व उस यज्ञ के कर्ता राजा है। उस यज्ञका फल बहुत प्रकारसे मिलता है । निगोदको प्राप्त होने के लिये भी वह साधन है ॥७३॥ क्रोधस्त्वाभवजो भवक्षणशमः कोपस्तयोः क्रोधतः । सद्धर्मा मधुपिंगलेन निहतस्तक्षिप्तलोकैश्च ते ॥ . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः घ्नंत्यद्यापि पुरोऽपि तत्फलमही जैनेष्विदं वर्तते ॥ क्रोधी हंति दृशं चितं सचरितं कोपो न तात्रयं ॥७॥ अर्थ---भवांतरसे या दीर्घकालसे आये हुए कोपको क्रोध कहते हैं । और उत्पन्न हुए क्षणमें ही नाश होनेवालेको कोप कहते हैं । इनमेंसे क्रोधके कारणसे मधुपिंगल नामक मुनीश्वरने सद्धर्मका नाश किया एवं उसके अनुयायियोंने भी धर्मध्वंस किया । आज भी मधुपिंगलके अनुयायी धर्मनाशके लिए उतारू रहते हैं । यह सब क्रोध का फल है । जिन जैनियोंमें यह क्रोध रहता है उनका दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय नष्ट होता है और कोप रत्नत्रय का नाशक नहीं है ॥ ७४ ॥ सर्वक्लेशकरो यथोद्भवति ये जैनास्त इच्छाकृति । भीत्वा वाह स एतदुत्तमशमं कुर्वत्यलं ते पुरा ।। क्रुद्ध तस्य सहायिनोऽत्र सकलाः क्रूरा भवंति ध्रुवं । ग्रैष्मैयाग्निमवेक्ष्य कक्षमखिलाः प्लोष्यंति शैले यथा ॥ अर्थ-पूर्वकालमें यदि किसीको वह दुःखकर क्रोध उत्पन्न होता था तो बाकीके जैनी पापके भयसे उसी समय उस क्रोधीके हृदयमें संतोष हो और वह क्षमा धारण करें इस प्रकारके उपाय करते थे। किसीको भी एक दूसरेका अहित होनेमें भानंद नहीं होता था। परंतु आज कलके जैनी यदि किसीको क्रोध आवे तो उसे और भी क्रूर बनने के लिये सहायक बनते हैं । जिस प्रकार कि ग्रीष्म कालमें यदि पर्वत में कोई अग्नि लगे तो सब हिंसातुर होकर उसमें जंगलके जंगलको जलाते हैं ॥ ७५ ॥ क्रोधोऽश्वत्थवदग्निकृत्पवनवत् पित्तापहृत्पुण्यहृत् । नित्यं धूमकृदग्निवदुरितकृन्मिथ्याग्रहाकृष्टिकृत् ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - मंत्रीवाशुचिरब्धिवाडव इव श्रीग्गिर्ववत् । वृत्तध्यानदवाग्निकल्लसति दुष्कर्माटवीमेघवत् १७६।। अर्थ-जिस प्रकार अश्वत्थकी लकडीमें आग जल्दी लग जाती है इसी प्रकार क्रोध भी जल्दी कुपित होजाता है । वायु जिस प्रकार पित्तको नष्ट करता है उसी प्रकार क्रोध पुण्यको नष्ट करता है। नित्य धूवा उत्पन्न करनेवाले अग्निके समान सदा पापको उत्पन्न करता है । मिथ्यात्व भूतके द्वारा आकृष्ट मंत्रीके समान मिथ्यात्वको उत्पन्न करता है, समुद्र के बीचमें रहनेवाला बडवाग्निके समान है, दर्शनरूपी पर्वतको तोडनेके लिए पत्रके समान है । चारित्र व ध्यानको जलानेके लिए दवाग्निके समान हे । दुष्कर्मरूपी जंगलकी वृद्धि के लिए बरसात के समान है ॥ ७६ ॥ चित्रं क्रोधहुताशनो तनुरयं निश्शेषलोकाशया-।. नाविश्याविचलो जवादय भवनकोऽप्यनेकात्मकः ॥ पीत्वा धर्मघृतं निनार्जितमिदं पुष्णाति दक्षः सतां । चेतःक्लेशकरस्ततोऽभवदयं लोकोऽप्यपुण्यक्रियः ॥७७॥ अर्थ-यह आश्चर्यकी बात है कि यह क्रोधरूपी अग्निकण संपूर्ण लोकमें प्राणियों के मनमें प्रविष्ट होकर यह एक होनेपर भी अनेक विकाररूप होजाता है। तथा धर्मात्माओंके द्वारा कमाये हुए पुण्य घृतको पीकर और ज्यादा प्रज्वलित होता है और उन सज्जनों के चित्तमें संक्लेश बढाता है । ऐसा जब संक्लेश बढता है तो लोकमें भी अन्याय, पाप आदि पापक्रियायें बढती हैं ॥ ७७ ॥ क्रुध्व्याघ्रं क्षुधितं यदातिकुपितं संस्थाप्य कुर्वति ये । ज्ञानक्षांतितपोजपाननुदिनं तस्यैव संपुष्टये ॥ क्षांत्य भश्च तपाक्षुधाभवदहो ज्ञानं स्तवोऽप्यामिषम् । तेषां क्रोधसमन्वितांचिततपाक्लेशाय पापाय च ॥७८॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकार: - - . अर्थ- क्रोधरूपी व्याघ्र जब क्षुधित व अत्यंत कुपित हो जाता है तब उस व्याघ्र के काममें मुनियोंका कमाया हुआ ज्ञान, क्षमा, तप, जप आदि आजाते हैं। क्रोधी मुनि इन बातोंकी कमाई उस व्याघ्रकी पुष्टि के लिये ही करते हैं । क्षमा पानी है । तप उसके लिये भूख है । ज्ञान व स्तुति यह मां है। विशेष क्या ? क्रोधी मुनियोंका तप क्लेश व पापकेलिये होता है ॥ ७८ ॥ क्रोधोङ्गष्वपि कंपनं हृदि दृशो राग मनोविभ्रमं । सत्पुण्यापलसर्वनीतिपदवीनिष्णातबुद्धिक्षयं ॥ तृष्णावृद्धिमधैर्यतामपधने पित्तज्वरात्युष्णतां । निंदामिंद्रियतापमेष न च भी कांतो विपत्तिं सदा ॥७९॥ अर्थ-क्रोध शरीरमें व हृदयमें कंप उस्पन्न करता है, आंखोंको लाल करता है, मनमें विभ्रम होता है । शुभ पुण्यको कमानमें व सर्वनीति मार्ग व अधिकारमें कुशल व्यक्तिकी बुद्धिको भी क्षीण करता है। लोभकी वृद्धि करता है । अधैर्यको बढाता है। जिस प्रकार कि गर्मियोंके दिनमें पित्तज्वर अत्यंत दाह उत्पन्न करता है । लोकमें क्रोधीकी निंदा होती है। इंद्रियों के विषयमें संताप रहता है । अनेक प्रकार की विपत्ति को उत्पन्न करता है। इसलिए बुद्धिमानोंको यह क्रोध सदा वl दृष्ट्वैकालयसंभवं हुतवहं मूढा हरंति क्षणात् । प्रज्ञा दुष्कृतभीरवाऽपि सहसा ग्राम दहति स्फुट ।। दोष कालभवं सुदुर्द्धरमिम क्षतुं समर्थाश्च के । सर्वे कालजदोषजाळपतिताः कुर्वति कि मंगलं ॥८०॥ अर्थ-कोई अज्ञानी किसी घरमें अग्निको देखकर उसे अपहरण करते हैं, तो बुद्धिमान् पापभीर होनेपर भी क्रोधसे बदला लेने के लिए उस ग्राम को ही जला डालते हैं । यह अत्यंत कठिन कालदोष है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ दानशासनम् PAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA000 इसमें असली क्षमा करनेवालोंका मिलना बहुत कठिन है। सबके सब जो कालदोषके जालमें फंसे हुए हैं उनका मंगल कैसे हो सकता है या वे क्या शुभ कर सकते हैं ?'॥ ८० ॥ क्रोधः स्वर्गगति हंति कुरुते नारकी गति । सुदृग्बंधुविभूत्यायुरभिमानादिकं क्षयेत् ॥ ८१ ॥ अर्थ-क्रोवकषाय मनुष्य को स्वर्ग नहीं जाने देता है, नरक गतिका बंध सरलतया करता है। वह सम्यग्दर्शन, बंधु, ऐश्वर्य, आयु, अभिमान आदिका सर्व नाश करता है |॥ ८१ ॥ स्त्रीविडंबनमाह भूकांतप्रियधीरवीरनृपते धर्मार्जितश्रीपते । सम्यग्धर्मगुणच्युतः क्षपयति प्राणान चित्रं शरः ॥ स्त्रीपुण्याप्यहमेव भीरुरबला धीरा दयालुश्च मे । सम्यग्धर्मगुणान्वितोक्षिकणयस्त्वामेव चाकर्षति ॥८२॥ अर्थ--उत्तम धनुष्यकी डोरीसे छूटा हुआ बाण प्राणोंको नष्ट करता है इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, वैसे उत्तम क्षमादिधर्म और निःशंकादि गुणोंसे रहित ऐसा स्त्रीका रागद्वेष उत्पन्न करनेवाला कटाक्ष प्राणोंको हरता है । हे पृथ्वीपति, प्रिय धीर वीर राजन् ! तुम अपने मनमें निश्चित समझो। वेश्या और व्यभिचारिणी स्त्रियोंके कटाक्ष पुरुषको धर्म और गुणोसें भ्रष्ट करके प्राणरहित करते हैं। परंतु जो स्त्री धीर दयालु, अधर्म भी6 और पवित्र विचारवाली है उसके नेत्रकट क्ष उत्तम धर्म और गुणोंसे युक्त होनेसे धर्माचरणसे संपत्तिको प्राप्त करनेवाले हे राजन् ! तुमको वे आकर्षण करते है । अर्थात् है राजन् ! पवित्र साध्वी आर्यिका वगैरह व्रतिक स्त्रियां प्रसन्न नेत्रोंसे आपको देखती हैं। उनके नेत्रोमें कामाविकार तिलमात्र भी रहता नहीं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १५९ है। और ऐसे पवित्र नेत्रोंसे देखनेपर हे राजन् ! तुम्हारा हित ही होता है॥ ८२ ॥ षट्त्रिंशद्गुणवत्प्रफुल्लवदानांभोजेक्षणाद्योषितां । पंकेनोपमसप्तविंशतिगुणोरोजद्वयप्रेक्षणात् ।। कामास्त्रोपमयोगिचित्तलयकृत्तौरुषसंदर्शनात् । पूर्वोपार्जितपुण्यसंततिरहो निर्मूलमुन्मूलितः ॥ ८३ ॥ अर्थ-छत्तीस गुणोंसे युक्त ऐसे प्रसन्न मुखकालवाली स्त्रीको चावसे देखनेसे, सत्ताईस गुणोंसे युक्त कमलसदृश दो स्तनोंको देखने से स्त्रियोंकी कामास्त्रसदृश भोंहे योगिजन के चित्तको विकृत कर देती हैं, तब आश्चर्य है कि पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मका समूह एकदम निर्मूल नष्ट होता है ॥ ८३ ॥ स्त्रीरूपालोकशिख्यन्तरनिहिततनुं मत्तयाविष्टचित्तं । लावण्यांभोनिमग्नं वचनभुजगदष्टं लसम्मोहपाशैः ॥ बद्धांगं दुर्विकारस्मरणरचितमूच्योपविद्धाखिलांग । लोकं कामाग्निदग्धं रिपरिव भुवने पीडयत्यन्वहं स्त्री॥ अर्थ-जो स्त्रीरूपरूपी अग्निके मध्यमें अपने शरीर को रख चुका है और मत्ता स्त्रीके विषयमें अपने चित्तमें सदा विचार करता रहता है, सुंदरतारूपी समुद्र के बीच में डूबा है, स्त्रियोंके वचनरूपी सर्पसे काटा गया है, मोहरूपी पाशसे बांधा गया है, और अनेक प्रकार के दुर्विकारोंके स्मरणसे जिसे सारे शरीरमें सूईके समूहसे चुभने के समान वेदना होती है, वह कामरूपी अग्निसे दग्ध है । यह स्त्री मनुष्य को शत्रुओंके समान दुःख देती है ।। ८४ ॥ क्ष्वेडं हत्यहिनं यथाशु गरुडध्यानं विधायात्मन-। श्चितापं हरतीव मातरुणीध्यानं सुपुण्यं हरेत् ॥ .. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० दानशासनम् चंद्रालोकनतोऽब्धिवच्च ललनालोकात्समुज्जभते । पापाब्धिः सुकृतं यथा गजमुतो नश्येत्स सिंहेक्षणात् ॥८५ अर्थ-जिस प्रकार गरुड-मंत्रका ध्यान सर्पके विषको नष्ट करता है, आत्मध्यान पापको नष्ट करता है उसी प्रकार तरुणीध्यान पुण्य का नाश करता है। चन्द्रमाको देखनेसे जिस प्रकार समुद्र उमड आता है, उसी प्रकार स्त्रियोंको देखनेसे पापसमुद्र उमड आता है । जिस प्रकार सिंहको देखकर हाथीका बच्चा शक्तिविहीन होजाता है उसी प्रकार स्त्रियोंको देखने से सुकृत नष्ट होता है ॥ ८५ ॥ स्वर्गोऽधःपातुकः स्वास्थितसुखिविबुधान्नारको दुःखिजीवा-। नू लोकं स मयों भ्रपयति नरकं स्वर्गलोकं दिवाभाः॥ कांताः स्वाध:प्रदेशस्थितिकृतिचतुराः स्वाश्रितानां जनानां । . स्याल्लोकाधःस्थितित्वं दधति बुधवरं दुर्गतियोषिताभ्यः ॥८६॥ अर्थ-स्त्रियोंका संसर्ग मनुष्यको स्वर्गसे भी नीचे गिरानेवाला है । और उनके संप्तर्गसे दूर रहनेवाले नारकी भी कालांतरमें ऊपर आते हैं। पुरुषोंसे नीचे रहनेवाली स्त्रियां हरतरहसे पुरुषोंकी दशा नांच करने के लिये समर्थ हैं। जो स्त्रियोंके पाशमें पड गये हैं वे अवश्य लोकके नीचे अपनी जगह कायम करते हैं। उनको अनेक नरकादि दुर्गति होती है ॥ ८६ ॥ कासंग सुगंधकृत्रिवलयः शूनी च वेणी कशा । चापो भ्रः कणयाः कटाक्षवलनाः श्वेडो मृदूक्तिः कुचौपुण्यापातनकंदुकौ पदहतिर्दूषीविषाखाहसिः ॥ हासेनारि सुतान्कर्षति वनिता नीतिस्त्वमोघा भवेत् ॥८७॥ अर्थ-स्त्रियोंका शरीर बंदीखाने के समान है। उनके सुंदर नेत्र मनुष्यको अंधा बनानेवाले हैं । तीन वलय हिंसाके स्थान हैं । वेणी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः चाबुक है । भ्रू बाण है | कटाक्ष भालेके समान है । मृदुवचन विष है । दोनों स्तन पुण्यको गिरानेवाले गेंद हैं । उनकी सुंदर चाल दूषित विषका अस्त्र है । वे मंदहास्य से सबको वश में कर लेती हैं। स्त्रियोंकी नीति अमोघ है । उसे कौन पहिचान सकता है ? ॥ ८७ ॥ 1 २१ १६१ दुर्गत्याविष्टजीवाः स्वकृत सकलदुः कर्मरूपं प्रपंचं | जानतो शेषकर्मप्रभव फळभुजः सर्वनिर्वगभाजः ॥ तत्कर्म क्षीयतेऽतो युवतिजनवशादूर्धते कर्म सर्वं । स्त्रीसंपर्काद्वरं दुर्गतिरपि यमिना योषितो दूरवर्ष्याः ॥८८॥ अर्थ — जो जीव अनेक प्रकारकी दुर्गतियोंमें भ्रमण करते हुए अपने किए हुए कर्मो के सर्व विषयको जानते हुए व उसके फलको अन्नुभव करते हुए वैराग्यको प्राप्त होजाते हैं, दिगंबर दीक्षा आदि लेते हैं, फिर भी यदि वे स्त्रियोंके फंदे में पड जाते हैं तो उनका वह शुभकर्म नष्ट होकर पापकी वृद्धि होती है । स्त्रियोंके संसर्गसे नरक भी कई गुने अच्छा है । इसलिए आत्मकल्याणेच्छु संयमियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको कोसों दूर छोडें, तभी उनका हित हो सकता 11 66 11 मध्यम पात्र. साणुव्रताः शुद्धदृशोऽकषायिणः । स्वस्त्रीप्रहृष्टाः सदयाः शुभाशयाः ॥ साधुप्रियाः जैनजनोपकारिण- । स्ते साधुभिर्मध्यम पात्रमीरितं ॥ ८९ ॥ अर्थ - जो अणुव्रतोंसे युक्त हैं, शुद्धसम्यग्दृष्टि हैं, मंद कषायी हैं, स्वस्त्रीसंतुष्ट हैं, दयासहित हैं, शुभ भावोंकर युक्त हैं, गुरुजनों में संतुष्टो यः स्वदारेषु पंचाणुव्रतपालकः । सम्यग्दृष्टिगुरौ भक्तः स पात्रं मध्यमं भवेत् ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दनिशासनम् प्रेम रखनेवाले हैं, जैनियोंको उपकार करनेवाले हैं उनको साधुगण मध्यम पात्र कहते हैं |॥ ८९ ॥ जिन मुनिपदाब्जभृंगा मुनिवचन सुधांबुपानसंतुष्टाः । जैनानुकूलवृत्तास्ते पात्रं मध्यमं ब्रुर्वत्यार्याः ॥ ९० ॥ अर्थ – जिनमुनियोंके चरणरूपी कमलके लिये जो भ्रमरके समान हैं, मुनियोंके वचनरूपी अमृतको पीकर जो संतुष्ट होते हैं, जिनेंद्र के उपदेशके अविरुद्ध आचरण रखनेवाले हैं, उनको सज्जन लोग मध्यम पात्र कहते हैं ॥ ९० ॥ दोषप्रकोपशमना इव भिषजं जैनदोषपिदधानाः । जैनगुणोज्ज्वळ करणास्ते पात्रं मध्यमं ब्रुवत्यार्याः ॥ ९१ ॥ अर्थ --- जिस प्रकार औषधि वातपित्तादिक दोषोंको शमन कर शरीरमें गुणोंकी वृद्धि करती है, उसी प्रकार जो जिनधर्म भक्तोंके दोषों को ढकनेवाले हैं और उनके गुणका उद्योत करनेवाले हैं उनको सज्जन लोग मध्यम पात्र कहते हैं ॥ ९१ ॥ दृष्ट्वा दोषिणमातरं भुवि भिषग्दोषः कृतोऽयं त्वया । मा भैषीर्धृतमामय स्त्यजति ते उक्त्वारुषन्नद्विषन् ॥ दत्वैवौषधमर्थमिष्टमखिलोपायैर्दयालुर्गदम् । दोषं मोचयतीह वर्तितजनाः पात्रं तथा मध्यमं ॥ ९२ ॥ अर्थ - जिस प्रकार कोई दयालु वैद्य अपने पास आये हुए दोषी रोगीको देखकर यह कहकर क्रोधित नहीं होता है कि तुमने अमुक दोष किया और न उसके ऊपर द्वेष करता है, प्रत्युत यह कहकर उसे आश्वासन देता है कि तुम घबराओ मत, यह रोग शीघ्र दूर हो जायगा । तदनंतर योग्य औषध व उचित उपायोंद्वारा उस रोगकी चिकित्सा करता है । इसी प्रकार कोई दोषी सज्जनो के पास आवे तो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १६३ उसके प्रति क्रोधित होकर तुमने अमुक दोष किया है, ऐसा कहकर फटकारना नहीं चाहिये और न उसके प्रति द्वेष करना चाहिये । प्रत्युत उसके लिए उचित द्रव्यादिक देकर और संतोष से उसके अंतरंग और बहिरंग दोषको दूर करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये । ऐसे लोगों को मध्यमपात्र कहा है ॥ ९२ ॥ सद्धर्मोद्धरणक्रियातिचतुरा योगींद्र विद्वज्जना | भूपा धार्मिकसद्विवेक सुजना यत्रागतास्तद्वचः ॥ श्रुत्वागत्य विनम्य साधुविनयं कृत्वा क्षणे चिन्वते । बुद्धिश्री सुकृतानि ये बुधजना भव्यास्त एवोत्तमाः ॥९३॥ अर्थ - सर्व कल्याणकारक जिनधर्मके उद्धार करने में जो चतुर हैं ऐसे योगींद्र, विद्वान्, राजा, धार्मिक, भेदविज्ञानी सृजन आदि जहां आवे उस समय उनके वचनको सुनते ही अपने स्थानसे उठकर उन के पास जाकर जो उन्हें नमस्कार करते हैं और विनय सेवा आदि कर बुद्धि, संपत्ति, पुण्य आदि कमाते हैं वे ही उत्तम विद्वान् हैं और वे ही भव्य हैं ॥ ९३ ॥ एते यत्र वसंति तच्च विमलं तीर्थ स पुण्यापगा - । पुरोत्पत्तिकुळाचछौघतिमिरध्वंस्यर्क पूर्वाचलः || पूतं पुण्यकरं भयापहरणं व्याध्यादिनिर्णाशनं । सर्वे जैनजनाश्च तत्तदखिलांस्तान्भावयेयुस्सदा ॥ ९४ ॥ अर्थ - उपर्युक्त प्रकारके मुनींद्र जहांपर वास करते हैं वह निर्मल तीर्थ है । वह पुण्यरूपी नदीके उत्पन्न होनेके लिये कुलाचल पर्वत है, पापरूपी अंधकार नाश करनेवाले सूर्यकी उत्पत्तिकेलिये उदयाचल के समान हैं, पवित्र है, पुण्यकर है, सर्वभय को दूर करनेवाला है । आधिव्याधि को नाश करनेवाले हैं । इसलिये सर्व धर्मभक्त वैसे मुनींद्रोंकी उपासना व भावना करते हैं ॥ ९४ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - जघन्य पात्र. पंचाणुव्रतरहितं सप्तव्यसनप्रवृत्तिकरणं चटुलं । मुनयो वदंति पात्रं ललितांगमिव द्युगामिनं सुदृशं ॥९५ अर्थ--जो पंचाणुव्रतसे रहित है, सप्तव्यसनमें प्रवृत्ति करनेमें चतुर है, परंतु सम्यग्दृष्टि है ऐसे ललितांगके समान स्वर्ग जानेवाले मनुप्योंको मुनिवर जघन्यपात्र कहते हैं ॥ ९५ ॥ धर्मकदीपावजनी वादी नैमित्तिकी तपस्वी च । पंचैते मुनिवृषभा जिनशासनदीपकाः प्रशस्ताश्च ॥९६॥ अर्थ-जिनधर्मी मुनीको धर्मक अथवा समयिक कहते हैं। निरतिचार महाव्रतोंको पालन करनेवाले आचार्य मुनिको दीपाव्रजनी कहते हैं। वादित्वगुणसे धर्मकी प्रभावना करनेवाले मुनिको वादी कहते हैं । ज्योतिःशास्त्र, मंत्रशास्त्र व निमित्तशास्त्रको जाननेवाले मुनियोंको नैमित्तिक कहते हैं। मूलोत्तर गुणोंको धारण करनेवाले वृद्ध मुनीश्वरको तपस्वी कहते हैं। ये पांच प्रकारके श्रेष्ठ मुनीश्वर जिनशासनकी प्रभावना करनेवाले और प्रशंसनीय मुनि माने जाते हैं।९६॥ भार्या मातरमंतरेण तरुणीगहं व्रती नो विशे-। दाविष्टे सति योषिता जगति भी निंदा भवेदन्यया ॥ साकं हासविचादनर्मधनदानादानभाषादिका- । न्दृष्ट्वा निंदति सव्रतं स विबुधोऽन्यस्त्रीगृहं को विशेत् ॥ अर्थ-जो शीलवान् पुरुष है वह अपनी पत्नी या माता जिस घरमें हो उसे छोडकर अन्य किसी घरमें कोई परस्त्री अकेली हो उस में कभी प्रवेश न करें । ऐसा प्रवेश करनेपर लोकमें उसकी निंदा होती है । और परस्त्रियों के साथ हास्य, विवाद, धनका लेनदेन, बोलना आदि भी नहीं करना चाहिये । इसे भी देखकर लोग उसकी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः निंदा करते हैं । इसलिये बुद्धिमान् पुरुष पर-स्त्रियोंके घर क्यों प्रवेश करेगा ? ॥ ९७ ॥ ईग्दोषमनारतं न कुरुते निर्दोषदृग्वान्स यः । पुण्यात्मा नमिताननोऽपि तरुणीवाचोऽप्यश्रृण्वन्क्षमी ॥ विद्वान्स्वर्गसुखादिदं व्रतमिदं निर्दोषमेधावति । . पात्रं मध्यममित्युशंति मुनयस्तं कर्मविध्वंसिनः ॥ ९८ !! अर्थ-जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है वह उपर्युक्त प्रकारके परस्त्रीजनित दोषोंको कभी नहीं करता है। उसे परस्त्रियोंके मुखको देखना भी पसंद नहीं है और न उनके वचन सुनने में सहन होता है। वे सचमुचमें बुद्धिमान् हैं | पुण्यात्मा हैं । ऐसे लोग स्वर्गादि संपत्तिको देनेवाले व्रतोंको निर्दोषरूपसे पालन करते हैं । उनको सर्वकर्मको नष्ट करनेवाले जिन मुनींद्र मध्यम पात्रके नामसे कहते हैं । अर्थात् गृहस्थों के सर्वव्रतोंको निरतिचार पालन कराने के लिए.शील बहुत प्रबल साधन धर्म वर्द्धयति क्षमां रचयति क्रोधं विवादं नृणां । शक्त्या वा वचसा नयेन मृदुना यस्तंभयत्यन्वहं ॥ धर्मच्छिद्रमुपावृणोति सकलं संघ मुदा रक्षति ।। पात्रं मध्यममाहुरुत्तमजनास्तं मयमुद्यदृशम् ॥ ९९ ॥ अर्थ-जो जिनधर्मकी प्रभावनाको बढाता है, क्षमा धारण करता है, क्रोध व विवादको अपनी शक्तिके द्वारा मिष्टवचनसे और चतुर नीतिसे रोक देता है । सदा धर्मके दोषको ढकने के लिए उद्यत रहता है, सर्व जैनसंघकी संतोषसे रक्षा करता है, उस सम्यग्दृष्टिको मध्यम पात्र ऐसा उत्तम ऋषिगण कहते हैं ॥ ९९ ॥ जघन्यपात्र निर्दोषसुदृशं पुंसां सर्वजीवहितैषिणं ॥ पश्यंतं मातृवज्जैन जघन्यं पात्रमुत्तमाः ॥ १० ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १६६ दानशासनम् mmmmmmmmma अर्थ-जो निर्दोष सम्यग्दृष्टि है, माताके समान सर्व जीवोंका हित चाहनेवाला है, ऐसे जैनको उत्तम ऋषिगण जघन्य पात्र कहते दृष्ट्वा जिनं गुरून् जैनान्संतुष्टः स्तौति नौति यः ॥ तमद्विषतं भक्त्यैव जघन्यं पात्रमीरितं ॥ १०१ ॥ __ अर्थ-जो जिनेंद्र, गुरुवोंको तथा जैनबंधुओंको देखकर उनके प्रति द्वेष न करते हुए संतोषसे भक्तिसे उनकी स्तुति करता है व नमन करता है उसे जघन्य पात्र कहा है ॥ १०१ ॥ ___ अपात्र वर्णन. देवगुरुधर्मधार्मिकशास्त्रव्रतविबुधदूषकास्तद्वाचः ॥ ये श्रृण्वंति दयंते सततं तमुशंत्यपात्रमिति विबुधाः॥१०२॥ अर्थ-जो जिनदेव, जिनमुनि, धार्मिक, शास्त्र, जिनोपदिष्टवत, विद्वान् आदिका दूषण करते हैं, उनको एवं जो उनके वचनोंको बहुत संतोष से सुनते हैं व उन दूषकोंको अन्न वस्त्रादिक देकर पोषण करते हैं उनको अपात्र कहते हैं ॥ १०२ ॥ तपोधनं वक्रमित सुवृत्तं कषायिणं दुर्गतिगामिन च ॥ वदंत्यपात्रं मुनयोऽघवृद्धिं करोति यस्तं मनसेव पार्थ ।।१०३॥ अर्थ-जो मुनीश्वर पार्श्वमुनिके समान जानबूझकर अपने चारित्रको मलिन करते हैं, अत्यंत कषायी हैं, नरकादि दुर्गतिको जानेवाले हैं, पापकी वृद्धि करते हैं उन्हें मुनिगण अपात्र कहते हैं ॥ १०३ ॥ धर्मापकारिणो धर्मद्वेषिणो धार्मिकद्विषः॥ कुतर्किणोपि येऽन्योन्यमपात्र ते विदुर्बुधाः ॥ १०४ ॥ अर्थ-जो मनुष्य धर्मकार्यमें विघ्न डालनेवाले हैं। धर्मद्रोही है, व धार्मिकमनुष्यों के साथ द्वेष रखते हैं व परस्परमें कुतर्क करते हैं उनको अपात्र कहते हैं ॥ १०४ ॥ . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः १६७ दूषकाणां विशुद्धिर्न श्रोतृणामेव शोधनं ॥ व्याघ्रध्वनिश्रुतिभव्यमृगाणामिव भीतिदा ॥ १०५ ॥ अर्थ-निंदा करनेवालोंकी शुद्धि या सुधारणा किसी तरह भी नहीं होसकती । केवल सुननेवाले अपने कान का शोधन करसकते हैं अर्थात् हम निंदायुक्त वचनोंको नहीं सुनेंगे ऐसी प्रतिज्ञा सुननेवाले कर सकते हैं। जंगलमें रहनेवाले साधुजीवोंके लिये व्याघ्रके शब्दको सुननेकेलिये भी भय लगता है इसी प्रकार भव्यरूपी मृगोंको दुष्टजन रूपी व्याघ्रोंका वचन भी भय उत्पन्न करते हैं ॥ १०५ ।। कुपात्र वर्णन. धर्मे यस्यानुरागो न न श्रुणोति गुरोर्वचः ॥ परं व्रतीव वर्तेत तं कुपात्रं विदुर्बुधाः ॥ १०६ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यको धर्ममें अनुराग नहीं और न गुरुवों के वचनको सुनता है परंतु दम्भसे अपनेको सबसे बडा व्रती व धर्मात्मा समझता हैं उसे मुनिगण कुपात्र कहते हैं ॥ १०६ ॥ स्वधर्माचरितं. चान्यधर्मवृत्तसमं च यः ॥ मनुते वर्ततेऽसौ दृक्कुपात्रं तं विदुर्बुधाः ॥ १७ ॥ अर्थ-जो मनुष्य अपने धर्मका आचरण व परधर्मके आचरणको बराबरीमें समझता है व तद्रूप आचरण करता है, उस मिथ्यादृष्टिको ऋषिगण कुपात्र कहते हैं। उसकी वृत्ति ठीक उसी प्रकारकी है जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री पर-पुरुष व अपने पतिको पतिभावसे देख रही हो ॥ १०७ ॥ स्वकीयपात्राणि सुरक्षयंतोऽन्यदीयपात्राण्यपि पालयंतः ॥ त एव सर्वेपि कुपात्रमुक्तम् पीडासुखं तेऽनुभवंति शश्वत् ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ क्षनशासनम् अर्थ – जो अपने पात्रोंकी भी रक्षा करते हैं और मिथ्यापात्रोंका भी पोषण करते हैं उन सबको कुपात्र कहा है । वे सदा अत्यधिक दुःख भोगते हैं ॥ १०८ ॥ पुनः तीन प्रकारके पात्रोंका वर्णन. विचित्रभावैर्नयहेतुदर्शनैस्सुधर्ममार्गे प्रतिपादयंति ये । मातेव शिक्षामनुबंधकारिणस्तान्कार्यपात्रं प्रवदति साधवः ॥ अर्थ- - अनेक प्रकारके परिणामोंसे एवं नयविवक्षाको बतलाते हुए जो धर्ममार्गका प्रतिपादन करते हैं, जो मातांके समान योग्य हितोपदेश देते हैं उन्हें साधुगण कार्यपात्र कहते हैं ॥ १०९ ॥ कार्यपात्र. प्रगल्भभृत्या वरकार्यको वेदाः प्रयोजिताः स्वाम्यनुकूलवर्तिनः । महत्सु कार्येष्वनुयायिनो नरास्तान्कार्यपात्रं प्रवदति साधवः ॥ अर्थ – जो सेवक अत्यंत कार्य कुशल हैं और स्वामी के अनुकूल वृत्ति रखनेवाले हैं एवं बड़े २ कार्यमें भी अनुसरण करनेवाले हैं या साथ देनेवाले हैं उनको भी कार्यपात्र कहते हैं । कार्यपात्रों को भी दान देना चाहिये ॥ ११० ॥ कामपात्र. संभोगयोग्या ललना मनोज्ञा यदंगसंगाल्लभते मनस्सदा ॥ सुखं हृषीकोद्भव सौख्यभाजां ताः कामपात्रं प्रवदति साधवः ॥ अर्थ – जो अपनी सुंदर स्त्री संभोग करनेके लिये योग्य है जिसके अंगस्पर्श करनेसे एक विशिष्ट मानसिक सुख होता है उसे ऋषिगण कामपात्र कहते हैं ॥ १११ ॥ पुनः पंचविधमाह जिने जिनगुरौ संघे यस्य साधु मनोऽचलं ॥ वर्तते नेतरत्रासौ समयीत्युच्यते बुधैः ॥ ११२ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः अर्थ - श्रीजिनेंद्र भगवंत, जिनगुरु व जैनसंघमें जिस भन्यकी भक्ति अचल है, सदा उनकी सेवा करता रहता है, अन्यत्र चित्त लगाता नहीं उसे महर्षि समयी कहते हैं ॥ ११२ ॥ साधक. जिनबिंबे जिनगेहे जिनागमे जिनबले च यो विद्वान् ॥ वितव्ययं च कुरुते स साधको मुक्तिसाधकैरुक्तः ॥ ११३ - अर्थ — जो धर्मात्मा विद्वान् जिनबिंब आदि निर्माण कराने में, जिन चैत्यालय आदिके करानेमें, जैनशास्त्रोंके प्रचार में, जैनसंघको उपकार कराने में, एवं जिनप्रतिष्ठा आदि उत्सव करने में अपना न्यायो - पार्जित वित्तका उपयोग करता है वह मोक्षको साधन करता है इसलिए मोक्षसाधक महर्षि उसे साधक कहते हैं ॥ ११३॥ जैनानां यो भिषग्व्याधिं निवारयति भेषजैः ॥ दद्यात्तस्येष्टवस्तूनि ततः स्याद्धर्मवर्द्धनम् ॥ ११४ ॥ १६९ अर्थ- जो वैद्य जैन संघ के रोगियोंको औषधि देकर रोगनिवृत्ति करता है उसे उसके इष्ट पदार्थोंको देकर सत्कार करना चाहिए | उस से धर्मकी वृद्धि होती है । धर्मात्माओंका स्वास्थ्य सदा धर्मके स्वास्थ्य की भी वृद्धि करता है ॥ ११४ ॥ २२ सुमुहूर्ते सुनक्षत्रे सुलग्नेऽयुत्सवद्वयं ॥ यःकारयति दैवज्ञस्तस्मै दद्यान्मनीषितं ॥ ११५ ॥ अर्थ – जो योग्य मुहूर्त, नक्षत्र व लग्नमें धर्म व धर्मात्माओं का उत्सव निर्विघ्नतया कराते हैं ऐसे ज्योतिषियोंका भी योग्य सन्मान करना चाहिये ॥ ११५ ॥ भूतप्रेतपिशाचादिग्रहपीडानिवारकः ॥ . तस्येष्टवस्तुदातुः स्यादारोग्यसुखसंपदः ॥ ११६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० दानशासनम् AAAAAVAL - अर्थ-जो भूत, प्रेत, पिशाच आदि ग्रहके उपद्रवीको मंत्रवादके द्वारा निवारण करते हैं ऐसे मंत्रवादियोंको भी दान देनेवाले गृहस्थका सुख व संपत्ति बढती है ॥ ११६ ॥ ज्ञात्वा भूतभवद्भाविशुभाशुभफलानि यः ।। . सत्यं वदति तस्यार्थ दातुः पुण्यफलं भवेत् ॥ ११७ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति नैमित्तिक शास्त्रके बलसे भूतभविष्यद्वर्तमानके ग्रहोंके उदयके शुभाशुभ फलको सत्यरूपसे कहता है उस दैवज्ञको जो द्रव्य दान करता है उसे पुण्यबंध होता है ॥ ११७ ॥ जिनान्यंत्राणि शांत्यर्थ क्रमेणाराधयत्यपि । - स एव पुण्यपात्रं स्यात्पूजनीयः सुदृष्टिभिः ॥ ११८ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति लोकमें रोगादिक शांति के लिए जिनधर्मसंबंधी यंत्रोको कर उसकी आराधना करता है, उसे भी पात्र समझें । भव्यात्माओंके द्वारा वह भी आदरणीय है ॥ ११८ ॥ - द्वादशांगनिविष्टा ये सदृष्टिब्रतिकादयः । " ते पात्रं तारतम्येन प्रवदंति मुनीश्वराः ॥ ११९ ॥ ' अर्थ-जो सदृष्टि व्रतिक आदि ग्यारह प्रतिमामें आचरण करने वाले हैं और बारहवें अंगरूप मुनिधर्मको पालन करनेवाले हैं उन सब को मुनिगण तारतम्य रूपसे पात्र ही कहते हैं ॥ ११९ ॥ शीलेन रक्षितो जीवो न केनाप्यभिभूयते । महाहदानमग्नस्य किं करोति दवानलः ॥ १२० ।। अर्थ-जो अनेक प्रकारके उत्तम चारित्र शील आदिकसे अपनी रक्षा करते हैं उनको दबानेवाले लोकमें कोई भी नहीं है। जो व्यक्ति बड़े भारी सरोवर में डूबा हुआ है उसे जंगलकी आग क्या कर सकती है? ॥ १२० ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रभेदाधिकारः मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतैः प्रभासुरं पावनदानशासनम् । मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं धनानि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ १२१ ॥ १७१ अर्थ- – समस्त आईत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ १२१ ॥ इति पात्रचक्षणविधिः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् AnAARAana - - दातृलक्षणविधिः प्रणम्यादिजिनं भक्त्या करणत्रयलक्षितम् । पात्रदानफलं सम्यग्वक्ष्येऽहं दातृलक्षणं । १ ॥ अर्थ--भगवान् आदिनाथ स्वामीको नमस्कार कर मनोवाकायके शुद्धरूप लक्षणको धारण करनेवाले दाता के लक्षण व पात्रदान के फलको अच्छीतरह कहेंगे ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥ दातलक्षण. सदा मनःखदनिदानमानान्विनोपरोपं गुणसप्तयुक्तः । त्रिकालदावप्रमुदैहिकार्थी न तं च दातारमुशंति संतः॥ अर्थ-जो व्यक्ति दानकार्यमें " आहा" जन्मभर कमाया हुआ धन मेरे हाथसे जाता है ! इसप्रकार मनमें खेद नहीं करता है, जो दानके बदलेमें कुछ चाहता नहीं, अभिमान व परप्रेरणासे रहित हो कर दान देता है, और दाताके लिये सिद्धांतशास्त्रमें कहे हुए सप्त गुणोंसे युक्त है । जिसे भूत भविष्यद्वर्तमानकाल-संबंधी दातारोंके प्रति श्रद्धा है व ऐहिक सुखकी इच्छा नहीं, उसे ऋषिगण उत्तम दाता कहते हैं ॥ २॥ विनयवचनयुक्तः शांतिकांतानुरक्तो । नियतकरणवृत्तिः संघजातप्रसत्तिः ॥ शमितमदकषायः शांतसतिरायः। स विमलगुणशिष्टो दातृलोके विशिष्टः ॥ ३ ॥ अर्थ-जो विनयवचनसे युक्त है, शांतिरूपी स्त्रीसे अनुराग रखने वाला है, इंद्रियोंको जिसने वशमें कर लिया है, जिसे जनसंघमें प्रसनता है, मद और कषायको जिसने शांत किया है एवं जिसके सर्व Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १७३ अंतराय दूर हो गए हैं और अनेक निर्मल गुणोंको धारण करनेवाला है उसे उत्तमदाता कहते हैं ॥ ३ ॥ वैद्या नृप्रकृतिबथानलविधि ज्ञात्वैव रक्षन्ति तान् । सर्वेऽष्टादशधान्यलोभमतयः क्षेत्रं यथा कार्षिकाः ॥ गां धारार्थनना अवंति च यथा रक्षेयुरुर्वीश्वराः । नित्यं स्वस्थलवर्तिनो वृषचितो धर्म च धर्माश्रितान् ॥१॥ अर्थ-जिस प्रकार वैद्य रोगियोंकी प्रकृति व उदराग्निको जानकर उनके योग्य औषधि वगैरह देकर उनकी रक्षा करते हैं, संपूर्ण अठारह प्रकारके धान्य के लोभसे जिस प्रकार किसान लोग खेतकी रक्षा करते हैं, ग्वाले लोग दूधके लिए गायकी रक्षा करते हैं, राजा लोग अपने राज्यकी स्थिति के लिए मनुष्योंकी रक्षा करते हैं, इसी प्रकार धर्मात्मा दाता धर्म व धर्मात्माओंकी सदा रक्षा करते हैं । वे ही उत्तम दाता कहलाते हैं ॥ ४ ॥ . सप्तगुण. श्रद्धा तुष्टिभक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः। यस्यैते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥ ५॥ अर्थ-जिस दाताके हृदयमें श्रद्धान, भाक्ति, संतोष, दानविधिका ज्ञान, लोभराहित्य, क्रोधादिक कषायोपशमरूपी क्षमा, व शक्ति इस प्रकार सप्तगुण मौजूद हैं उसीको उत्तम दाताके रूपसे कहते हैं ॥५॥ सप्तगुणलक्षण. अंदास्तिक्यमतिस्सतुष्टिरमलानंदम्तु भक्तिर्गुरी- । स्सेवालोलुपता विधौ कुशलता विज्ञानमर्थव्यये । १ श्रद्धा भक्तिरलोभत्वं दया शक्तिःक्षमापरा । विज्ञानं चेति सप्तैते गुणाः दातुः प्रकीर्तिताः ।। म Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ दानशासनम् - निर्लोभत्वमलोमताप्युपशमोत्कर्षः क्षमा सर्वदा ॥ . द्रव्यत्यागविधौ न नास्तिवचनं शक्तिस्तु सप्तोदिताः ॥६॥ अर्थ-अस्तिक्य बुद्धीको श्रद्धा कहते हैं, गुरुके आगमनसे होनेवाले आनंदको संतोष कहते हैं, गुरुसेवाकी अभिलाषाको भक्ति कहते हैं । दानविधिमें जो प्रवीणता है उसे विज्ञान कहते हैं । दानके लिये द्रव्यके व्यय करनेमें लोभ न करनेको अलोभत्व कहते हैं । कषायोंके उत्कर्षके उपशमको क्षमा कहते हैं, द्रव्यके त्याग करने में सदा उत्साह व उभंगको शक्ति कहते हैं । इस प्रकार दाताके ये सप्तगुण हैं ॥ ६॥ आस्तिक्यमतिः पात्रेष्वविकळेषु स्यादानेन फलमुत्तमं । निश्चितास्तित्वसदबुद्धिरास्तिक्यमनिरीरिता ॥ ७ ॥ ____ अर्थ-उत्तम पात्रोंको उत्तम दान देनेसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है एवं स्वर्ग नरक, पुण्य पाप, बंध मोक्ष व इह पर लोक सब मौजूद है, इस प्रकारकी आस्तिक्यबुद्धिको अस्तिक्यमति या श्रद्धा कहते + श्रद्धागुण. पापोच्चयं मम निवारयितुं समर्थ हंतुं दरिद्रमिदमाशु समर्थमेव । दातुं सुपुण्यमजडं रतिरद्वितीया श्रदेति तत्र मुनयः खलु तां वदंति ॥ ८ ॥ अर्थ-यह पात्र मेरे पापसमूहको नाश करने के लिए सर्वथा समर्थ है और मेरी दरिद्रताको नष्ट करनेके लिए भी समर्थ है, एवं मुझे + वित्तरागो भवेद्यस्य पात्रं लब्धं मयाधुना । पुण्यवानहमेवेति स श्रद्धावानिहोच्यते ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः अनेक प्रकारके पापोंसे छुडाकर पुण्यप्रदान करनेके लिए भी यही पात्र समर्थ है, इस प्रकार पात्रके आगमनमें अद्वितीय आनंदको प्राप्त करना इसे मुनिगण श्रद्धा नामक गुण कहते हैं ॥ ८ ॥ तुष्टिमाह. यथा चंद्रोदये जाते वृद्धिं याति पयोनिधिः ॥ सतां हृदयतोषाब्धिमुनिचंद्रोदये तथा ॥ ९ ॥ अर्थ-जिस प्रकार चंद्रके उदय होनेपर समुद्र उमड आता है उसी प्रकार मुनिरूपी चंद्रके उदय होनेपर सज्जनोंके चित्तमें संतोषरूपी समुद्र उमड आता है । इसे तुष्टिगुण कहते हैं ॥९॥ १ भक्तिमाह. आभुक्तर्मुनिसन्निधौ शुभमतिः स्थित्वा विशोध्यामला- । नाहारान्परिहार्य वीक्ष्य सततं मार्जारकीटादिकान् ॥ भुक्त्यंते परिणम्य साधुहृदि संतृप्तो भवेद्यः पुमान् । दाता तन्मुनिसेवनेयमुदिता भक्तिश्च सा पुण्यदा ॥१०॥ अर्थ-पुण्यवान् श्रावक जबतक तपोधनमुनियोंका आहार हो तबतक बहुत विनयके साथ उनके पासमें खडे होकर आहारशोधन कर उनके हाथमें निर्मल भोजनको देवें । सदा मुनियोंके आहारमें विघ्न करनेवाले मार्जार क्रिमिकीटादिकको पासमें नहीं आने देता है । निरंतराय भोजन होने के बाद संतुष्ट होकर तृप्त होता है । ऐसा जो निर्मल चित्तवाला श्रावक जब इस प्रकार की मुनिसंवा करता है उसे जाक्ति कहते है, रही पुण्यप्रदान करनेवाली है। वही भक्त उत्तमदाता है ॥ १० ॥ TAINMENT १ जिने जिनागमे सूरौं तपःश्रुतपरायणे । सनावशुद्धिसंपन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥ . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ . दानशासनम् प्रातः प्रोत्थाय दाता शुचिरपि निजहस्तात्तपूजोचितार्यो। गत्वा नुत्वा मुनीन्द्रान्धृतदिनमियमो देवपूजां गुरूणां ॥ भुक्तिं देहस्थितिं तत्तदुचितसुविधां तच्चिकित्सा विचार्य। क्षिप्रं बंधूनिवार्यानुपचरतु जिनेंद्राकृतीन्साधुसाधून् ॥११॥ अर्थ-धर्मात्मा दाता प्रातः काल उठकर शौचस्नानादि क्रिया वोंसे निवृत्त होकर अपने हाथमें पूजाकेलिये योग्य सामग्रियोंको लेकर मंदिर जावें । वहां देवपूजा व गुरुपूजा कर, मुनींद्रोंकी वंदना कर दिननियमव्रतको ग्रहण करें एवं उन मुनियोंकी देहस्थिति आदिको विचार कर उनकी देहस्थितिके लिये उपयुक्त आहार व चिकित्सा आदिको व्यवस्था कर बहुत शीघ्र अपने बंधुवोंके समान उन जिनेंद्राकारमें रहनेवाले उन सज्जन साधु आचार्योका उपचार करें । यह उत्तम दाताका लक्षण है ॥ ११ ॥ यद्भोगाय निजं वपुर्गणिकया दत्तं स्वभर्तुस्तदा । स्वादत्तं फल मेव नोत्तरफलं बाह्यक्रियास्तन्मनः ॥ स्वीकृत्याखिलमिष्टवस्तु च यथा सद्दापयंत्यन्वहं । पात्रक्षेत्रकृतक्रियाबहुफलं दद्यर्द्विजन्मोचितं ॥ १२ ॥ अर्थ-जिस प्रकार वेश्या यह समझती है कि अमुक पुरुषके साथ भोग करनेसे उससे मुझे सद्यःफलके सिवाय आगे कुछ नहीं मिलेगा, इसलिए उसे बाह्य क्रियाओंसे रंजन करना चाहिये । वैसा करनेपर वह पुरुष बार २ उसके पास आकर अनेक प्रकारके इष्ट पदार्थोको देकर उसकी इच्छापूर्ति करता है, उसी प्रकार खेतमें अच्छे फलको प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले किसानको भी खेतका बाह्य संस्कार करना पडता है। ठीक उसी प्रकार अंतरंग भक्तिके साथ बाह्य क्रियावोंसे युक्त होकर पात्रोंको दान देनेसे दोनों जन्मोंमें उसका फल मिलता है ॥ १२ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातलक्षणविधिः १७७ क्षुद्वंतं परितो विचार्य सुदृशं सद्वृत्तमेकं बुधं । वीथीगेहजिनालयर्षिनिलयद्वारस्थितं चैकधा ॥ जैनो जेमति यः क्रमाद्विगुणितान्दोषान्स याति क्षणात् । बुद्ध्वोदास्य स नित्यपुण्यधनतेनोमानहानि क्रमात् ॥१३॥ अर्थ-जो धर्मात्मा जैनी भूखे सम्यग्दृष्टि, व्रती, विद्वान् आदिको रास्तेमें, घरके द्वारमें, जिनालयमें, मुनिवासमें देखकर भी उसको भोजन के लिए नहीं कहता है, उसको अनेक प्रकार के दोषसंभव होते हैं। एवं इस प्रकार उदासीन होकर जो स्वयं जाकर भोजन करता है उसका पुण्य, धन व मान आदि क्रम २ से नष्ट होते हैं । साधर्मि भाईयोंका अतिथिसत्कार करना यह धर्मात्माओंका कर्तव्य है ॥ १३ ॥ विज्ञान. सात्म्यं सवतरक्षणं यदमलं सेव्यं त्वसेव्योज्झितं । यदुर्दोषहरं यथामयहरं यन्मानसस्थानकृत् ॥ यन्निद्रादिहरं यदव्ययमनुस्वाध्यायसंपत्तिकृत् । पूतं यद्वतिहस्तदत्तमशनं विज्ञाय दद्याद्यतेः ॥ १४ ॥ अर्थ--उत्तम दाताको उचित है कि वह पात्रको ऐसे आहार देखें जो कि पात्रके शरीरके लिए अनुकूल हो, व्रतरक्षणके लिए साधक हो, पवित्र हो, भक्ष्य हो, असेव्यपदार्थसे रहित हो, अनेक मिथ्यादोषों को दूर करनेवाला हो, रोगोंका नाशक हो, मनको स्थिर करने में साधक हो, जो निद्रातंद्रादिकको नष्ट करनेवाला हो, स्वाध्यायादि क्रियाओंमें सहायक हो, बालक आदि के द्वारा भुक्त व दुष्ट होनेसे अपवित्र न हो, इस प्रकार पात्रोंको आहार देते समय तत्संबंधी पूर्ण ज्ञान रखते हुए पात्रों के हाथमें आहार देना चाहिए ॥ १४ ।। कंजूस दाता बहनन्तमवेक्ष्य यो मनसि च स्मृत्वापि सन्विस्मितः । शक्तो नो भवितव्यपाढकशताहारोऽहमस्यान्वहं । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् भूतो वायमुदंभरिः सदनपक्काहारमेकोऽप्यदन् । दीनोऽयं तमुदासयत्यपि स ना दाता न लुब्धो भवेत् ॥१५॥ अर्थ- बहुत भोजन करनेवाले पात्रको देखकर जो दाता अपने मनमें आश्चर्यचकित होकर यह विचार करता है कि मैं इसको भोजन कराने के लिये समर्थ नहीं हूं। इसे सेकडों ही सेर अन्नकी जरूरत है । उसे मैं कहांसे लाऊं ? क्या यह भूत तो नहीं है ? अथवा पेटार्थी ( भोजन भट्ट ) है। मेरे घर पकाए हुए सर्व आहारको खिलाने पर भी इसका उदर भर नहीं सकता है । ऐसा समझकर जो दाता पात्रोंकी उपेक्षा करते हैं वे दाता नहीं है अपितु महाकंजूस है ॥५॥ अलुब्ध दाता. यावद्रोहलसंपदस्ति विमलं क्षेत्रं फलत्यद्भुतं । भूरिग्रासवतीव गौः क्षरति सुक्षीरं घटापूरितं ॥ वर्ष तृप्तिकरं रसेष्टवसुधो यात्रसौहित्यकृत् । तदानं सफलं स एव सफलो दाताप्यलुब्धो महान् ॥ १६॥ अर्थ-खेतमें यथेष्ट गोबर डालनेपर उसमें यथेष्ट धान्य वगैरह उत्पन्न हो सकते हैं, गायको घास वगैरे खूब खानेको देनेपर वह यथेष्ट दूध दे सकती है, वर्षा यथेष्ट पडनेपर भूमिको रसवती बना देता है । इसी प्रकार जो दाता पात्रों के लिए अनुकूल सर्व योग्य साहित्योंसे युक्त होकर दान देता है वह दान सफल है। इसीका नाम दाताका अलुब्धत्व गुण है ॥ १६॥ पात्रसेवाफल. यः श्रांति शमयत्यसौ सुकृतवान्पात्रस्य मुक्तश्रमः । स्वस्थो स्वास्थ्यमिहामयानगतरुजश्चिंतामचिंतक्षुधा ? ॥ तृप्ती दोषमदोषवान्ऋधमिमांतांतः प्रहृष्टोऽनिशं । संक्लेशं जडतां मतः शुभमतिर्ज्ञानी भवेनिर्मलः ॥ १७ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातलक्षणविधिः १७९ - अर्थ-जो धर्मात्मा पुण्यवान् दाता पात्रोंके श्रमको पानद्रव्यादिकोंको देकर दूर करता हो, वह जन्मभर श्रमरहित होता है । जो पात्रको स्वास्थ्य पहुंचाता है वह स्वयं भी जन्मभर स्वास्थ्ययुक्त हो जाता है । पात्रोंके असाता से उत्पन्न रोगोंको दूर करनेवाला स्वयं निरोगी शरीर को प्राप्त करता है । पात्रोंकी चिंताको दूर करनेवाला स्वयं चिंतारहित, आहारादिकको देकर क्षुधा दूर करनेवाला स्वयं सुखादिकसे तृत, पात्रोंके दोषको दूर करनेवाला स्वयं निर्दोषी, उनके क्रोधादिकको शांत करने वाला स्वयं सर्व प्रकारसे शांत, उनके संक्लेशपरिणामको दूर करनेवाला स्वयं सर्वप्रकार से संतुष्ट, एवं उनके अज्ञानको दूर करनेके लिए योग्य साधनको उपस्थित करनेवाला ज्ञानी व निर्मल होता है ॥ ११७ ॥ उत्तम क्षमा.. काषायोपशमोद्भवेव गुलिका शुद्धा क्षमा यात्र सा । साशंका भयमृत्युकृत्पथि गृहे क्षेमंकरी शंकरी ॥ संसारांबुधिसेतुरैनसगिरित्रातस्वरुस्सक्षमं । संस्थाप्य स्तुवति प्रशंसति जनश्चेतस्यजस्रं मुदा ॥१८॥ अर्थ--जिनके हृदयमें पच्चीस कषायोंके उपशमसे उत्पन्न शुद्ध क्षमा हो वह निर्मल व उज्ज्वल मोतीके हारके समान सबके मनको आकर्षित करती है। कीमती मोतीके हारको पहनकर रहनेसे घरमें या बाहर चोर वगैरहके द्वारा मृत्युका भय रहता है। रात-दिन उसकी शंका रहती है । परंतु यह क्षमा सर्वथा क्षेम व सुखको करनेवाली है, । स्वधर्मपीडामविचिंग्य योऽयं मत्पापशुद्धयर्थमिह प्रवृत्तः नो चेक्षमामण्यहमत्र कुयों मर्त्यः कृतघ्नो वद कीडशोऽन्यः।। स्तंभयतीम क्रोधं विकचयति च साधुहदयकमलानि । पल्लवयति पुण्यानि क्षमया किं किन्न साध्यते लोके ।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० दानशासनम् - संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिए वह सेतु है । कर्मरूपी पर्वतके लिए वज्रदण्ड है। उस क्षमावान महापुरुषको अपने चित्तमें स्थापना कर मनुष्य सदा हर्षसे स्तुति करते हैं, प्रशंसा करते हैं ॥ १८ ॥ मृदुवचनमाह. एलामाहुरनंगकलिविवृति गायंति यां वीणया । श्रुत्या गानविदः समं नृपसदस्यालापपूर्व बुधाः ॥ सर्वेऽर्थान्बुवतेऽतिचाटुवचनैर्दत्ते स चार्थान्बहून् । श्रुत्वोक्त्वा स निराकरोति च विना यांते दुरालापिनः ॥१९॥ अर्थ-बुद्धिमान लोग राजसभामें कामक्रीडाके विषयको वर्णन करते हैं तो उसे एला ( ? ) नामक सभ्यशब्दसे वर्णन करते हैं। और गायनको जाननेवाले उसे ही श्रुति आलाप पूर्वक वीणाके साथ गाते हैं जिसे सुनकर राजा प्रसन्न होकर उन्हे प्रशंसा करता है व उन्हे अनेक पदार्थोको भेटमें देता है। परंतु जिनका स्वर अच्छा नहीं है वे यदि गावे तो उसे सुनकर राजा अप्रसन्न होता है। और उन्हे गानेसे रोकता है, और उनको कुछ भी नहीं मिलता। वे खाली हाथसे जाते हैं। इसलिये निष्कर्ष यह निकला कि मृदुस्वर का भी बहुत उपयोग होता है ॥ १९॥ शक्तिमाह. ये जीमंति रुचेष्टवस्तु खलु यदाता च तदापय - । न्यद्वांचंति तदेव नास्ति च वचोऽवक्ता न वाचा हृदा ॥ कायेनापि मनो मुदा दद ददेदं वस्त्विदं संवदन् । शक्तःसोऽपि महान्बुधोऽतिसुकृती स्यादानशौण्डोऽनघः ।। अर्थः - श्रावकको उचित है कि वह पात्रोंको आहार देते समय पात्रोंकी रुचि, प्रकृति आदि बातोंको जान लें। उसे जानकर उनकी रुचिके Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १८१ अनुसार जो वे भोजन करते हों उन पदार्थोको परोसनेमें मन, वचन, काय से असंतोष न करें । बराबर संतोषसे परोसनेवालोंको परोसो, परोसो ऐसा कहना चाहिए, वही बुद्धिमान है, शक्तिशाली है, पुण्यवान् है, और दानशूर है ॥ २० ॥ धर्मो न स्वयमेष भावरहितः पुष्पादि बान्नादि वा।। दत्ता येन न बस्य दानकरणे मुख्यस्तु भावः शुभः ॥ . भावोदाटननर्तकीव ललिता या प्रेक्षकाणां मनां स्याहत्यार्थचयं तु पूर्णसुकृतं दाता लभताक्षयं ॥२१॥ अर्थ-कषाय, ईर्ष्या व दिखावट के लिए किया गया भावरहित धर्माचरण धर्म ही नहीं है। दान करनेमें दाताका शुभभाव ही मुख्य है, उसमें अन्न पुष्पादिकोंकी मुख्यता नहीं है । जिस प्रकार राजसभा नर्तन करनेवाली सुंदरी अपने भावोंके द्वारा प्रेक्षकोंके मनको आकर्षितकर धनसंचय को करती है उसी प्रकार दाता भी अपने शुभ भावोंके द्वारा पात्रोंकी सेवा कर अक्षय पुण्यको संचय करें ॥ २१ ॥ दातशत्रफलमाह. क्षेत्रं जनाजनःक्षेत्रावाभ्यां धान्यं यथा भवेत् । दात्रा पात्रं तेन दाता द्वाभ्यां सौख्यप्रदो वृषः ॥२२॥ अर्थ-- खेतका संस्कार मनुष्योंसे ब मनुष्योंका संस्कार खेतसे और दोनोंसे धान्यका संस्कार होता है, उसी प्रकार दातासे पात्रका व पात्रसे दाताका एवं दोनोंसे सौल्य देनेवाले धर्मका संस्कार होता है ॥ २२ ॥ HERImaginusaniamreturnmarama सप्तगुणविवरणम् . हिताहितमजानता च शिशुना कृतोऽयं वृषः ॥ समस्त जनतुष्टिकद्बहुफलं भवेत्तस्य च । हिताहितविजानता कपटिना कृतांहाफलं ॥ सदा कपटिमंत्रिसेवितनृपो यथा नश्यति ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२, दानशासनम् धान्यं प्रजाभिस्तेन स्याज्जीवत्यत्र यथा जगत् । दात्रा पुण्यं ततः क्षेमारोग्यायुः श्रीकुलर्द्धयः ॥ २३ ॥ अर्थ - लोकमें धान्यकी उत्पत्ति किसानोंके द्वारा ही की जाती है । परंतु उसी धान्यसे लोककी सब प्रजायें जीवन व्यतीत करती हैं अर्थात् किसानोंके परिश्रमसे ही लोक सब जीता है, उसी प्रकार एक भी उत्तम दाता पुण्यका संचय करें तो उस पुण्यके बलसे उसके घरमें ही क्या राज्यमें भी क्षेम, आरोग्य, आयु, ऐश्वर्य और कुल आदिकी वृद्धि होती है || २३ ॥ देहभोगं परित्यक्त्वा वृष्टिजतोक्ति संश्रुतेः । गत्वा क्षेत्र वपंतीव तत्र बीजं कृषीवलाः ॥ २४ ॥ पात्रागमोक्तिसंश्रुत्या ज्ञानवृष्ट्युश्यचेतसां । इष्टान्नानि पात्राणां दातारो दद्युरादरात् ॥ २५ ॥ अर्थ - जिस प्रकार किसान लोग पानी बरसने के समाचारको सुनकर अपने देहसुखकी किंचित् भी परवाह न करते हुए खेत को दौडते हैं व बीज पेरते हैं, उसी प्रकार पात्रों के आगमन के समाचार को सुनकर एवं ज्ञानरूपी वृष्टिसे प्लावित चित्त होकर पात्रोंको इष्ट व हितकर आहारका दान देवें ॥ २४ २५ ॥ मुमुक्षूणां क्षुधां तीव्रां यो निवारयतीदृशं । स एव मान्यो वंद्योऽसौ संसार/ब्धितरण्डकः ॥ अर्थ — मोक्षमार्गमें रत श्रीमहर्षियोंकी तीव्र क्षुधाको जो उपर्युक्त उत्तम भावोंसे युक्त होकर निवारण करता है अर्थात् आहारदान देता हैवी व्यक्ति आदरणीय है, वंदनीय है और संसाररूपी समुद्रको पार करनेके किए सहारे के रूपमें है || २६ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १८ क्षुधा कैसी है ? या सद्रूपविनाशिनी कृशकरी कामोत्सवध्वंसिनी । पुत्रभ्रातृकलत्रभेदनकरी धर्मार्थविध्वंसिनी ॥ चक्षुर्मदकरी तप:श्रुतहरी लज्जालुतानाशिनी । सा मां पीडति सर्वभूतदहनी प्राणापहारी क्षुधा ॥२७॥ अर्थ- जो शरीर की सुंदरताको नष्ट करती है, शरीरको कृश करती है, कामसेवनमें उत्साहका भंग करती है, पुत्र, भाई, स्त्री आदिमें भेदभाव उत्पन्न करती है, आंखकी दृष्टिको मंद करती है, तप व ज्ञानकी हानि करती है, लज्जा व विनयका नाश करती है, एवं जो सर्व प्राणियोंको रात-दिन जलाती है, इतना ही नहीं प्राणियोंके प्राण को अपहरण करने वाली है वह क्षुधा मुझे पांडा देती है ॥ २७ ॥ न दैन्यात्माणानां न च हृदयहरिणस्य रतये । .. न ददिंगानां न च करणकरिणोस्य मुदनात् ॥ विधावृत्तिः किंतु क्षतमदन चरितश्रुतविधेः । परे हेतौ मुक्तेरिह न खलु मुनिषु स्थितिरियम् ॥ २८ ॥ अर्थ-मुनिगण आहारमें जो प्रवृत्ति करते हैं वह दश प्राणोंकी कायरतासे नहीं, हृदयरूपी मृगके पोषणके लिए नहीं, शरीरके अवयवोंके मदसे भी नहीं, इंद्रियरूपी हाथीको संतुष्ट करनेके लिए भी नहीं है। अपि तु कामविकारका उपशम, चारित्रंकी वृद्धि व ज्ञान की निर्मलताके लिए आहारमें प्रवृत्ति करते हैं । क्यों कि मुनिगणोंका एक मात्र ध्येय उत्कृष्ट स्थान जो मोक्ष है उसीकी प्राप्तिका है । वे इहलोक संबंधी सुखको नहीं चाहते हैं ॥ २८ ॥ १ आहारं पचति शिखी दोषानाहारवर्जितः पचति ॥ दोषक्षयेऽपि धातून्पचति च धातुक्षये प्राणान् । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટક दानशांसनम् यज्जिह्वारुचि याचितेपि न वचः श्रुत्वा स्त्रियो येन स - 1 क्रुध्यंश्वेतसि नास्य सद्मनि सदा भुंजे त्यजस्तच्छवन् ॥ तस्मात्तद्वितयापकीर्तिरघमेव स्यादुपालंभनं । लोके मौनमनारतं सुकृतिनः कुर्युस्स पुण्यप्रदम् ॥ २९ ॥ अर्थ - आहार लेते समय सिद्धांतमें मौन धारण करनेका आदेश है । कारण कि भोजन में कोई पदार्थ उनके रसनेंद्रियको स्वादिष्ट लगे तो उसे मांगने की भी संभावना रहती है । कदाचित् आहार देनेवाली स्त्रीने उस पदार्थको देनेसे नकार कर दिया या वहांपर न हो तो, उस अवस्था में मुनिके मनमें क्रोध आकर वह प्रतिज्ञा कर सकता है कि मैं इसके घर में अब भोजन करनेके लिए कभी नहीं आऊंगा, और उस घर के मालिकको क्रोध से अनेक प्रकारसे शाप दे सकता है । इससे दाता और पात्र दोनोंकी लोक में अपकीर्ति, निंदा होगी एवं दोनोंको पापबंध होगा । इसलिए पुण्यवान् लोग सदा लोकमें पुण्यप्रदान करनेवाले मौनको धारण करते हैं जिससे उपर्युक्त किसी भी प्रकारके दोषों का संभव ही न हो ॥ २९ ॥ 1 गुणमाह. सुनेः कर्म सुधर्मोपदेशनारचितं वचः । भावः स्वशुद्धात्मचिंता मौनं मुनिभिरीरितम् ॥ ३० ॥ मौनमभिमानशरणं चित्करणं पुण्यकरणमघहरणं । देवादिवश्यकरणं क्रुद्धरणं चित्तशुद्धिसुखकरणम् ॥ ३१ ॥ आगमनविघ्नहरणं मैत्रीकरणं विवादसंहरणं । रत्नत्रय संरक्षणमज्ञानविनाशकरणमपि काळे || ३२ ॥ अर्थ - मुनिकी क्रियाको मौन कहते हैं, धर्मोपदेशके लिए उपयोग किए वचनको भी मौन कहते हैं । अर्थात् धर्मोपदेशके लिए बोलने पर भी उससे भी पाप नहीं होता है वह मौनके समान ही है । अपने शुद्ध आत्मा के विचार करना भी मौन है । इस प्रकार महर्षियोंने Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १९५ 2000mnnn आदेश दिया है । भोजन के समय व अन्य योग्य कालमें मौन रहने से स्वाभिमानकी रक्षा होती है, ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, पुण्यकी प्राप्ति व पापकी हानि होती है, देवादिक भी इससे वश होते हैं, क्रोधका नाश होता है, चित्तमें निर्मलता व आनंदकी वृद्धि होती है । मौनसे ही आगे आनेवाले विघ्न दूर होते हैं, परस्पर मित्रता की वृद्धि होती है, कषायवश उत्पन्न विवाद नष्ट होते हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्बकचारित्र की रक्षा होती है । इतना ही नहीं अज्ञानका भी नाश होता है । इस प्रकार मौनधारणसे अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है ॥ ३० - ३१ - ३२ ॥ + शादो वृष्टिजलप्रभावजनितः स्वच्छांभसा क्षीयते । तद्वहर्वचसा भरेण जनितं दुनिमाहन्यते ॥ मौनेनैव समंत्रकेण बलवकर्माद्रिवज्रेण ते । दुर्ज्ञानापहतीक्षकैस्सुकृतिभिर्मोन सदा धार्यताम् ॥ ३३ ॥ अर्थ- -जिस प्रकार बरसातके पडनेसे उत्पन्न कीचड स्वच्छ पानीके प्रवाहसे धुल जाती है उसी प्रकार सद्गुणोंको नाश करनेवाले क्रोधादिक वचनोंसे उत्पन्न अविवेक मौनसे नष्ट होता है । अपराजितमंत्र से युक्त मौनरूपी ब्रदण्डसे ही बलवान् कर्मरूपी पर्वत भी नष्ट होता है। इसलिये अविवेकको दूर कर सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिसे आत्माकी प्रभावना करनेकी इच्छा रखनेवाले पुण्यात्मा सजन मौनको सदा धारण करें ॥ ३३ ॥ + संतोषो भाव्यते तेन वैराग्यं तेन भाव्यते । संयमः पोष्यते तेन मौनं येन विधीयते ॥ घाचंयमः पवित्राणां गुणानां सुखकारिणां सर्वेषां जायते स्थानं गुणानामिव नीरधिः ।। वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसंदर्भगर्भिता । आदेया जायते येनं क्रियते मौनमुज्ज्वलं ॥ २४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् पत्ये या शयिता तदात्त्रसरसालापानुरक्तांगना- । न्येषां वक्त्रमवीक्ष्य वाचमनिशम्यैवान्वहं वर्तते ॥ तद्वत्साधुजनो वदेदयकरं यो देवताराधना- । शेषस्तोत्रजपान्करोति सफलं प्राप्नोति चेष्टं समं ॥३४॥ अर्थ-जो पतिव्रता स्त्री अपने पतिको संतुष्ट करनेकेलिये उसके साथ अनेक प्रकारसे सरस वार्तालाप करती है व प्रेमव्यवहार करती है वही दूसरे मनुष्य सामने आयें तों आंख उठाकर भी नहीं देखती और दूसरोंके वचनको भी नहीं सुनती, इसीप्रकार धर्मात्मा सज्जन पुरुष सदा अपने आत्माके हितके लिये पुण्यरूप वचनको ही बोलते हैं एवं जप, स्तोत्र, जिनेंद्रपूजा आदि कार्य अत्यंत तल्लीन होकर करते हैं, उनको सर्व प्रकारके इष्ट फल प्राप्त होते हैं ॥ ३४ ॥ जिनोक्तिरेव वक्तव्या वक्तव्या नेतरोक्तयः । तच्छिष्टवाक्कृतिौनं न मौनं पशुवत्परम् ॥ ३५ ॥ ___ अर्थ-वीतराग परमात्मा जिनेंद्र भगवंत के द्वारा प्रतिपादित वचन अर्थात् शास्त्र ही बोलने व सुनने योग्य है। मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा रचित शास्त्र न कथन करने योग्य है और न सुनने योग्य है । शिष्टोंके वचनको स्मरण करते रहना वह असली मौन है। बाकी नहीं बोलनेपर भी वित्तमें दुश्चिंतन करना वह पशुमौन है ॥ ३५ ॥ - जिह्वालोल्यमृषेर्नास्य वृप्तोऽयं दत्तवस्तुभिः । तपश्चापि तपोज्ञानं ज्ञानं शंसत्ययं जनः ॥ ३६॥ अर्थ-जो साधु या कोई संयमी मौनपूर्वक भोजन करते हैं, उनके संबंधमें श्रावकगण कहते हैं कि इस साधुको जिह्वाकी लोलु ~ पदानि यानि विद्यते वंदनीयानि कोविदः । सर्वाणि तानि लभ्यते भणिना मौनकारिणा ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १८७ पता नहीं है, जो पदार्थ देवें उन्हीसे संतोषपूर्वक ये तृप्त होते हैं, इनका तप ही सचमुचमें तप है, ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है। इत्यादि प्रकारसे लोक उनकी प्रशंसा करते हैं ॥ ३६ ॥ पाठांतर भुक्तौ येन यदिष्टवस्तुनि मुहुः संयाचिते नास्ति चेतत्तेऽयच्छति दातरीह सभवेत्क्रोधोऽन्यथा शाश्वती दत्वानं परमावयोर्मनसि कं क्लेशं च कर्ता वृथा पुण्यद्रव्ययशः शुभक्षतिरिह दातुः क्षयः पात्रतः ॥३७॥ अर्थ-भोजनके समय यदि जिह्वालौल्यसे किसी मध्यम पात्रने अपनी इष्ट वस्तुकी याचना इशारा व अन्य प्रकारसे करें तो उस समय यदि वह पदार्थ घरमें नहीं हों तो गृहस्थको लाचार होकर नास्ति कहना पडता है। उस समय अपनी इच्छाकी पूर्ति नहीं होनेसे उस पात्रको भी क्रोध आता है । दाताको भी व्यर्थ दुःख होता है । दोनों के हृदयमें मानसिक क्लेश होनेसे पुण्यके बजाय पापका बंध होता है, यशका नाश होता है, एवं शुभफल का भी अभाव होता है। इस प्रकार पात्रके कारणसे दाताको अनेक प्रकार से अनिष्ट परिणाम होते हैं ॥ ३७ ॥ __भोजननिषिद्धस्थान भांडागारिकतुन्नवायगणिकादासीत्वरीचित्रिक- । व्याधश्राद्धिकगीतिमालिककुलालक्षौरिकाणां गृहे ॥ कर्मारादिकुविंदवंदिनटकाहारादितद्वर्तिनां । वर्णी तैलिकमूतकिद्वयतलाराद्यस्य नो भोजयेत् ॥३८॥ अर्थ-वर्णी अर्थात् तपस्वी, बतिक या श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न श्रावक को उचित है कि वह अपने आहारकी विशुद्धि के लिए भंडारी, दर्जी, वेश्या, दासी. व्यभिचारिणी, चित्रकार, भील, मरणसंस्कार करनेवाले, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ दानशासनम् Mr.RamRAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA गायक, माली, कुंभार, नाई, कारु+ कोळी, स्तुतिपाठक, नट, कहार इनके घरमें वा इन वृत्तियोंको धारण करनेवालोंके घरमें भोजन म करें । इसी प्रकार तेली, वृद्धि क्षय सूतकवाले और कोतवालके यहां भी भोजन न करें ॥ ३८ ॥ दाननिषेध भूगोवाजीभकन्याघनकनकविभूषांशुकामत्रदानं । हिंसादानं च सर्व भवसुखकरणं वृष्टितोयं यथा स्यात् ॥ पात्रेष्वेतेषु तस्माद्विरचितममलं चान्नदानं प्रधानं । पात्रेष्वेतस्य दानं रचयति स नरः पंडितः खंडिताधः॥३९ अर्थ-बुद्धिमान दाताको उचित है कि वह पात्रोंके लिए भूमि, गाय, घोडा, हाथी, कन्या, धन, कनक, आभरण, वस्त्र, शरीरोपभोगी पदार्थ, हिंसाके साधक उपकरण, आदि का दान न करें। क्यों कि इन पदार्थोके दान करनेसे संसारकी ही वृद्धि होती है। जिस प्रकार कि बरसातके पानीसे एकेंद्रिय घास आदिकी उत्पत्ति, वृद्धि व संरक्षण होता है, उसी प्रकार इन पदार्थोसे संसारकी ही वृद्धि होती है । इसलिए जो व्यक्ति इन बातोंको समझकर पात्रोंके लिए उपयोगी प्रधान अन्नदानका प्रदान करता है, वह सचमुच में पंडित है' व · पापोंको खंडित कर सकता है। क्यों कि अन्नदान के फलको शास्त्रकारोंने बहुत ही अधिक बतलाया है ॥ ३९ ॥ + शालिको मालिकश्चैव कुंभकारस्तिलंतुदः नापितश्चेति पंचैते भवंति स्पृट्यकारुकाः ॥ रजकस्तक्षकश्चैवायस्कारो लोहकारकः । स्वर्णकारश्च पंचते भवंत्यस्पृश्यकारुकाः || Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १८९ कहा भी है * सद्यस्तृप्तिकरं चानदानं सद्यः फलप्रदम् । सर्वदानं मुहुः कांक्षावर्द्धनं भववर्धनम् ॥ यः स्वामिशत्रुक्षयदत्तवृत्तस्संदापयन् रक्षति तद्वधं सः । स्वामी भवेदुत्तरजन्मनीव कर्मघ्नपात्राय धनं च देयम् ॥४० अर्थ - जिस प्रकार लोक में स्वामीके शत्रुओंको नाश करने में प्रवृत्त भट उस कार्य में प्रवृत्त अन्य सहायकों को भी धनादि देकर संतुष्ट करता है एवं उनका संरक्षण करता है और उत्तर जन्ममें वही सेवक स्वामी बनजाता है, इसलिए इस पवित्र भावनासे कि अपने कर्मोंको नाश करने में यह पात्र समर्थ है, उसे धनादिक प्रदानकर उपकार करना अपना कर्तव्य है, उपकार करें | दान देवें । शत्रुवोंके नाशके लिए धनादिकका दान आवश्यक है । उसीप्रकार कर्मशत्रुओंको नाश करने के लिए दान देना आवश्यक है ||४०|| भोजनातराय. गृहरोधेऽखिलधान्यप्रशोषणे जंतुघातिपशुबंधे । रोदन विवादनिष्ठुरवचने सावधकर्मयुजि गेहे ॥ ४१ ॥ * वघनजीवान्कृषन्नुर्वी गुर्विणामिव संस्थिताम् तस्मान्न युज्यते विद्भिर्भूमिदानं कदाचन ॥ बंधनात्ताडनाद्दुःखं नित्यं गोर्जायते यतः तस्मान्न युज्यते दातुं गोदानं भव्यदेहिभिः ॥ अग्रासोदकतो बंधाद्दूरादारुह्यते जवात् स्वाघवृद्धेरयोध्वंसान्तस्य दानं न दीयते ॥ कन्यायां जायते रागो रागात्कर्मनिबंधनम् । कर्मणानंतसंसारी तस्मात्तद्दानवर्जनम् || पात्रे हिरण्याचितास्याद्गमनागमनादिषु निमित्तं भवेन्मृत्युस्तस्मात्तन्नैव दीयते ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० दानशासनम् भिक्षां कर्तुं न विशेत्मविश्य तच्चत्वर मुहुर्दातॄन् । नो वीक्षेत च योगी सप्तोच्छासात्परं निवर्तेत ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिस समय योगी आहारकेलिए श्रावकोंके घरपर जावे तो यदि उनके घरका दरवाजा बंद हो, बंद न होते हुए भी योगियोंके मार्गमें कोई रुकावट हो, घरके आंगनमें कोई धान्य वगैरेह बिछाये गये हों, हिंसक कुत्ता बिल्ली आदि प्राणियोंको सामने बांधा हो, बच्चों को छोडकर अन्य किसीका रोना सुननेमें आरहा हो, विवाद कठोर वचन सुनने में आरहा हो, घरके लोग हिंसादिक पापोंमें लगे हों, ऐसे घरमें भोजनके लिए प्रवेश न करें। यदि किसी तरह प्रवेश कर गये तो दाता को बार २ नहीं देखें । सात उच्छासके बाद वह लौटजावें ॥ ११ ॥ ४२ ॥ ____ आहारगमनके समय दया व्याध्यांत योगिनं वीक्ष्य नोपेक्षेत कदाचन ।। स्वयिं परकीयं वा विदर्शनमथापि वा ॥ ४३ ॥ अर्थ-आहारको जाते समय यदि किसी रोगसे पीडित रोगी योगीको देखें, चाहे वह अपने संघका हो या अन्य संघका हो, चाहे अन्य दर्शनवाला ही हो तो भी ऐसे साधुवोंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ बालवृद्धतपःक्षीणान्सश्रमान्व्याधितानपि । मुनीनुपचरेन्नित्यं ते भवेयुस्तपःक्षमाः ॥ ४४ ॥ अर्थ-योगियों का कर्तव्य है कि वे बालयोगी, वृद्धयोगी, तपसे क्षीणयोगी, थके हुए योगी व रोगसे पीडित योगियोंको अंतर्बाह्योपचारसे संरक्षण करें। ऐसे वात्सल्यको धारण करनेवाले योगी ही उत्तम तपको धारण कर सकते हैं॥ ४४ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः तपःसमर्थेषु तपोधनेषु । त एव कल्पावनिजा इवात्र ॥ फलंति ताभिः सुजनाः सपुण्या- । स्समस्तलोकाः मुखिनश्च तैः स्युः ॥ ४५ ॥ अर्थ-यदि इस लोकमें अनशनादि तपोंको निर्दोष रूपसे आचरण करनेवाले तपोधन हों तो वे ही भव्योंके इष्टार्थको पूर्ण करनेवाले 'कल्पवृक्षके समान हैं। उनके द्वारा सज्जनोंकी सर्व इच्छायें पूर्ण होती हैं। समस्त लोकमें पुण्यमय कार्य होते हैं । एवं समस्त संसारके प्राणी सुखी होते हैं ॥ ४५ ॥ प्रतीकदानमाह क्षीरं तकं दधिघृत जलं शाकमन्नं ददद्यः । शुष्कं पात्रं खपुरलवणं सधैर्याध्वदर्शम् ॥ जंभं बालोदकगुडसिता चुक्यलंग कपित्थम् । त्रीण्यैकं द्वौ वितरति समं यस्सदाता नरः स्यात् ॥४६॥ - अर्थ-जो श्रावक त्यागियोंको (पात्रोंको) उनकी शरीर प्रकृति आदि लक्ष्य में रखते हुए दूध, छाछ, दही, घी, जल, शाक, मुद्गादिक अन्न, उचित पात्र, शुष्क पा वगैरे, लवण, घर व धैर्य, मार्गदर्शन निंबू , कच्चा नारियल का पानी, गुड, शक्कर, चिंच, माहढुंग, कैथ आदि पदार्थों में से एक दो तीन चीजों को जैसी आवश्यकता हो, प्रदान करें, वह उत्तम दाता कहलाता है । कारण इन पदार्थोके प्रदान से शरीरमें स्वास्थ्य बना रहता है । स्वास्थ्यके रहने से संयम स्वाध्यायादिक में वह लग सकता है ॥ ४६ ॥ शास्त्रं तत्त्वं व्यवहनिकृषी भोजनं स्वापिसेवां । स्नान पानं द्रविणमगदं राज्यलक्ष्मीविचारं ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् AAAAAAN रोग रागं स्वयुवतिसुखं नित्यमिच्छंति जैनाः । दानं पूजां कुरु कुरु न भो नोऽद्य वारो वदेन ॥ ४७ ॥ अर्थ-आत्मकल्याणेच्छु भव्य हमेशा शास्त्रज्ञानकी अपेक्षा करते हैं । तत्त्वविचार करना चाहते हैं । लोकमें सुंदर व्यवहार चाहते हैं। इसी प्रकार कृषि, भोजन, स्वामिसेवा, स्नान, पान, धन, औषध निरातंक राज्यलक्ष्मी, रोगपरिहार, धर्मानुराग, स्वतरुणीसुख इत्यादि बातोंको चाहते रहते हैं । इसलिए हे भव्य ! पुण्य की सिद्धि के लिए दान व पूजा सदा करो। दान पूजाके लिए " आजका वार अच्छा नहीं कल करेंगे " इत्यादि प्रकार से टालने की कोशिस मत करो । कारण कि दान व पूजासे पुण्य की वृद्धि होती है जिससे उपर्युक्त सुखसाम. ग्रियों की प्राप्ति सरलतासे होती है ॥ ४७ ।। यावद्यावद्ग्रंथ एकस्य वृद्ध तावत्तावव्यनाशोऽधवृद्धिः ॥ तावत्तावदानपूजाभिवृद्धिं कुर्यात्तत्पुण्याभिवृद्धि प्रमेव ॥४८॥ अर्थ-जबतक यह मनुष्य परिग्रहोंकी वृद्धि करता जाता है तबतक उन परिग्रहोंके बढाने के निमित्तसे धनका नःश व पापकी वृद्धि होती है । इसलिए बुद्धिमान सज्जनको उचित है कि वह परिग्रहोंके संग्रह के साथ २ दानपूजादिक सत्कार्योको भी करें। क्यों कि दान पूजादिक कार्य संतानोत्पत्ति के समान पुण्यकी वृद्धि को करते हैं । पुण्य की वृद्धि होनेसे धन की प्राप्ति होती है। उससे इच्छित पदार्थकी प्राप्ति होती है। वैसा न कर जो व्यक्ति केवल परिग्रहोंका संग्रह करता है, उसका द्रव्य नष्ट होता है । पाप की वृद्धि होकर पुनः धनादिककी प्राप्ति नहीं हो पाती जिससे उसे कष्ट उठाना पडता है ॥ ४८ ॥ सद्यः कार्य श्वोपि कार्य विदं भो । जीव ज्ञात्वा संविचार्यैव कृत्यम् ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातुलक्षणविधिः कर्तव्यं चेदीदृशं यो न कुर्यात् । पश्चाच्छद्बो नास्तिपर्याय उक्तः ॥ ४९ ॥ १९३ अर्थ – हे जीव ! यह कार्य अभी करने योग्य है, यह कल करने योग्य है, इत्यादि प्रकार से अच्छी तरह विचार करके ही समस्त कर्तव्यों का पालन करना चाहिये | इसप्रकार कार्य विभागोंको न कर " बाद में करेंगे " इस श्रेणीमें जो कर्तव्योंको ढकेलता है वह आलसी है । उसके कोई कार्य नहीं होते हैं। क्यों कि बादमें करनेका अर्थ ही नास्ति है ॥ ४९ ॥ वित्तान्नांशुकचाटुभिः पटुभटान्पाता सुरक्षन्विदन् । जित्वा तैर्निजवैरियुद्धमिव भो जीवत्यजस्त्रं मुदा || रोगे भूपतिविग्रहे रिपुभये तेजःक्षये बंधने । धर्मोद्योगकृतौ च दानमतुलं देयं बुधैस्साधवे ॥ ५० ॥ अर्थ - जिस प्रकार राजा अपने आश्रितोंका संरक्षण, धन, अन्न, वस्त्र, मिष्टवचन आदिकसे करते हुए उनसे अपने वैरियोंको जीतता है उसी प्रकार साधुओंको रोगकी हालतमें, राजाओंकी ओरसे उत्पात के समय में, शत्रुभयमें, तेजक्षय के समयमें, बंधन के समय में, धर्मप्रभावनाके समय में दिल खोलकर दान देवें जिससे पुण्यकी वृद्धि होती है ॥५०॥ लोकरीति दुःखे दुःखकरोद्योगं सुखे सुखकरं सदा । लोकः करोति शास्त्रेऽस्मिन्यदुक्तं तन्न जातुचित् ॥ ५१ ॥ अर्थ – लोक में यह परिपाटी है कि संसारीजन दुःखमें दुःखको बढानेवाली क्रियाओं को ही अधिक करते हैं । सुखकी हालत में सुखको बढानेवाली क्रियाओं को ही करते हैं। जैनागम में ऐसे समय में जिन कर्तव्यों का पालन करनेके लिए आदेश दिया है उसका पालन कोई नहीं करते हैं यह खेद की बात है ॥ ५१ ॥ २५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासन - साधुसंतर्पणमें बहाना बही रोगादिवाधास्ति गेहे नो घटतेऽद्य न । इत्युक्तिं वद मा जीव ! साधून संतपयेः सदा ॥ ५२ ॥ अर्थ-किसी उत्तम पात्र साधुके अपने नगरमें आनेके बाद यदि आहारदान देना नहीं हो तो लोग बहाना करते हैं कि आज हमारे घरमें कोई बीमार है, आज आहार नहीं बनाया जा सकता है इत्यादि । आचार्य कहते हैं कि पात्रदानमें इस प्रकार बहानाबाजी करना ठीक नहीं है । साधुवोंका संतर्पण सदा करना चाहिये । यही सत्पुरुषों का कर्तव्य है ।। ५२ ॥ __ आहारमें वर्जनविषय शाठ्यं गर्वमवज्ञामधीलचरणप्रवेशवाक्पारुष्यम् । भिक्षो जनसमये जीवं चासंयमं त्यजेत्परिप्लावम् ॥५३॥ अर्थ-जिस समय साधु आहारके लिए अपने घरमें आवें, उस समय दुष्टताका परित्याग करना चाहिये, गर्वको छोडना चाहिये, साधुका अनादर न करें, पैर न धोकर अंदर प्रवेश न करें, कठोर वचन न बोलें, हिंसानंदी कुत्ते बिल्ली आदि प्राणियोंको सामने न रवखें, चंचलता का परित्याग करें। इन बातोंसे साधुवोंके चित्तमें क्षोभ उत्पन्न होनेकी संभावना है । इसलिए इन बातोंको अवश्य छोडना चाहिये ॥ ५३ ॥ कठोरवचनका त्याग ... यत्र कर्कशवचोस्ति तं नरं नाश्रयंति सुगुणा यशांस्ययाः । बंधुसेवकवुधास्मृताः स्त्रियो व्याघ्रगेहमिव गोमृगा इह ॥५४॥ अर्थ- जिस प्रकार व्याघ्रके गुफाका आश्रय गाय, हरिण आदि नहीं करते, उसी प्रकार जो मनुष्य कठोर वचनको बोलता है उसका . आश्रय रत्नत्रयादिक गुण, कीर्ति व पुण्य नहीं करते हैं। इतना ही Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः १९५ नहीं, बंधु-बांधव, सेवक, विद्वान्, पुत्र, स्त्रियां आदि कोई उसके आश्रयम जाते नहीं । वह सदा दुःखी रहता है ॥ ५४ ॥ आहारके समय वर्ण्य मनुष्य मिथ्यादृग्वृषनाशको गुणहरः क्षुद्वान्त्रणी दृषकः । कुष्ठी क्रूरमना विरोधकरणः फेलादनः सामयः ॥ वित्री सूतकवान्मतच्युतजनो दोषी निषिद्धांबरः। स्निग्धांगोऽक्षिविषश्च भुक्तिसमये वो गुणगुरोः ॥५५ अर्थ-गुणवान् पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे साधुओंके आहार के समय में मिथ्यादृष्टि, धर्मद्रोही, गुणापहारी, पातिव्रत्यादि गुणोंसे रहित स्त्री, भूखा, व्रणी, धर्मनिंदक, कोढी, क्रूरपरिणामी, विरोधी, उच्छिष्ट खानेवाले, रोगी, श्वेतकुष्टी, सूतकी, मतभ्रष्ट, समाजबहिष्कृत, मैले कपडेके धारक, तेलसे लिप्त शरीरवाले, नेत्रदोषी, आदिको वर्जन करें अर्थात् साधुवोंको आहारके समय उपर्युक्त प्रकारके मनुष्य दृष्टिगोचर न हों इसका ध्यान रखें ॥ ५५ ॥ ___ और भी वर्ण्य विषय विण्मूत्राघशुचौ जिनालयगते येनानदाने कृते । साधुभ्यश्च स सप्तजन्मनि भवेच्छुित्रादिकुष्टी स च ॥ जैन गेहमृषिविंशेन मलिनी भाण्डादिकं न स्पृशेत् । स्पृष्ट तत्र गृह गतेऽधिकरुनो गच्छेदसौ दुर्गतिम् ॥५६॥ अर्थ-मलमूत्र विसर्जनादिसे उत्पन्न अशुचिकी अवस्थामें जिनालयमें प्रवेश नहीं करना चाहिए । एवं उस हालतमें साधुवोंको आहार दान भी नहीं देना चाहिए । यदि उस अशौवावस्थामें जिनालय में प्रवेश करें एवं साधुवोंको आहारदान देखें तो वह सात जन्मतक श्वेतकुष्ठादि भयंकर रोग से पीडित होता है। कोढीको सूतकीके Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - - समान जिनमंदिर, व मुनिवासमें प्रवेश करनेके लिए निषेध किया गया है एवं च वह जिनमंदिरके उपकरणोंको बरतन वगैरेहको बया मुनिदानके उपकरण व बरतनोंको स्पर्श नहीं कर सकता है। यदि वह इस आदेशकी आवहेलना कर जिनमंदिर व मुनिवासमें प्रवेश करें एवं उन उपकरण व बरतनों को स्पर्श करें तो वह कोढ सर्वांग व्याप्त होता है और बादमें वह नरकादि दुर्गतिको+ चला जाता है। इसलिए मुनिदान, जिनपूजादिकार्योंमें बहुत ही पवित्रताका व्यवहार करना चाहिये ॥ ५६ ॥ उत्तमदातृयुगललक्षण पात्रं स्वागतमुक्तमुत्तमवचः पत्युर्निशम्यांगना । वंध्या पुत्रमदृग्दृशं निधिमरा राज्यं यथा राजतुक् ॥ . कब्ध्वाधत्त इति प्रमोदमतुलं सा तस्य धेनुनिधिः । कल्पद्रुः सदयानघा गुणवती पुण्यात्मिका देवता ॥५॥ अर्थ-जो स्त्री अपने पति के, साधुवोंको प्रतिग्रहण कर स्वागत करने के उत्तम वचनोंको सुनकर, वंध्या स्त्री पुत्रके पानेपर, अंधा आखोंके पानेपर, दरिद्री निधि के मिलनेपर, राजपुत्र राज्यके मिलनेपर जिस प्रकार प्रसन्न होता है, उसी प्रकार प्रसन्न होती है वह स्त्री सामान्य स्त्री नहीं है। कामधेनु है. निधि है, कल्पवृक्ष है, दयालु है, पापरहित है, गुणवती है, इतना ही क्यों ? वह साक्षात् पुण्यदेवता है ॥ ५७ ॥ प्रशस्तदात्री. वीक्ष्यास्यं श्रममंगना च यतिनो वाचावलेनांबुना । ज्ञात्वा तत्प्रकृति प्रमूरिव शिशोः कालोचितामाहतिम् ॥ + दत्तेऽन्ने वित्रिणा येन तदोषादधिकामयी । न्यक्कुर्वति च तं सर्वे पश्चादच्छति दुर्गतिम् ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातलक्षणविधिः दत्वा तच्छ्रमदोषशांतिकरणी रक्षेद्यति तं तया । सा लक्ष्मीः सुकृतपदा गुणकरी लोकः पवित्रीकृतः॥५८॥ अर्थ-जिस प्रकार माता बालककी शरीरप्रकृतिको अच्छी तरह जानती है, उसी प्रकार साधुवोंके मुखको या आवाजके बलाबलको देखकर उनके शरीरके श्रम व प्रकृतिको जानलेना चाहिये । फिर उन की प्रकृति के लिए अनुकूल, श्रमदोषोपशमनमें सहायक, संयमवर्धक कालोचित आहारको बुद्धिमत्ताखे प्रदान करना चाहिये एवं उस साधु का संरक्षण करना चाहिये । वह सती सचमुचमें लक्ष्मी है, पुण्यदायिनी है । गुणोंको बढानेवाली है । एवं उसके द्वारा लोक भी पवित्र किया जाता है ॥ ५८ ॥ दृष्टवैका मनिमागतं निहितसर्वार्थागता नौरिव । साक्षात्सिद्धरसः करागत इव स्वर्धनुरागता ।। इत्यात्माशयजाततुष्टिललिता सा स्त्री विना तत्तपः । स्वाकूनस्मृतिमात्रतो द्विगुणिती लब्धस्तयायो गुरोः॥५९॥ अर्थ-जो स्त्री अपने घरमें मुनियोंके आगमन होने पर ऐसा समझती है कि सर्व संपत्तिसे भरा हुआ जहाज ही आगया है, साक्षासिद्धरस ही हाथमें आगया है, स्वर्गकी कामधेनु ही आगई है, वह सस्ती अपने पुण्यमय अभिप्रायसे संतुष्ट होती हुई, ऋषिराजके तपश्चर्याके प्रभावके विना ही अपनी शुभ भावनासे ही उन मुनिराजके तपसे भी द्विगुणित पुण्यको प्राप्त करलेती है । भावनाका फल अचिंत्य है ॥५९॥ पात्रशंसन. माता पुत्रमवेक्ष्य लोचनयुगापूर्ण समभ्युत्थिना । राजा वा कळभोऽग्रजो मम पितानंदेन वाऽत्रागतः ॥ पुण्यं पुण्यकरं सुखं सुखकर पात्रं नराः श्राविका- । स्सयो विघ्नहरं सतां हितकरं शंसन्ति संदर्शनात्॥६०॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - - अर्थ-जिस प्रकार माता अपने प्रिय पुत्रके आनेपर उसे आंख भरकर देखलेती है व हर्षसे उठकर उसे लेती हुई, “ मेरा राजा आगया, हाथीका बच्चा आगया, भाई आया, बाप आया " इत्यादि शरोंको कहकर अपने हृदयके सातिशय आनंदको व्यक्त करती है, उसी प्रकार जिनभक्त श्रावक श्राविकायें पुण्यस्वरूप व पुण्यकारक, सुखस्वरूप व सुखकारक, सद्यः ही विघ्नको दूर करनेवाले, सर्व लोकके हितकारी बंधु पात्रोंको देखकर भक्तिसे प्रशंसा करते हैं ॥६०॥ या प्रक्षाल्य पदद्वयं निजपतेः संमार्य गंधादिभि-।। स्सा विक्षिप्य सुमं तयोर्नमति सा पुण्यानुकूलांगना ॥ सा साध्वी च पतिव्रता निजगुणद्वेषे च रागे समा। तस्मान्मर्त्य सुरोद्भवं सुखमलं निर्वाणमेति क्रमात् ॥६१॥ अर्थ-जो स्त्री अपने पतिके चरणकमलोंको धोकर गंधादियोंसे पूजा करती है व वंदना करती है वह स्त्री पुण्यवती है, साध्वी है, पतिव्रता है, उसके गुणके प्रति कोई द्वेष करें या अनुराग करें, दोनोंमें उसके हृदय में समान भावना है। ऐसी साध्वीमणिको पानेवाला पुरुष धन्य है । वह स्वर्गकी देवताओंके द्वारा भोगने योग्य सुखको यहांपर पाता है। एवं क्रमसे उसे मुक्तिलक्ष्मी भी प्राप्त होती है ।। ६१ ॥ दानकार्यमें वय. क्षुदितो मुखवारि गिरनशुची रोगी जुगुप्सकोऽतिविषः ॥ मुनिहस्तकबलदाने लुब्धो नाभीष्टवस्तुदानाज्ञः ॥ ६२ ॥ अर्थ-मुनियोंको आहारदान देते समय भूखेको, मुंहसे पानी गिरनेवालेको, अशुचीको, रोगीको, ग्लानीको, मेत्रदोषीको, लोभीको व निर्दोष व प्रकृतिके अनुकूल पदार्थ देनेके विषयों मूर्खको वर्ण्य करना चाहिये अर्थात् ऐसे व्यक्तियोंको आहारदानके कार्यमें नहीं लेना चाहिये ।। ६२ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दातृलक्षणविधिः AAAAAnnuman दानमें प्रशस्त. शुचिः पटुः साधुमनोनुकूलपथ्यान्नदाने निपुणोऽनुरागी ॥ मुदृग्वती तृप्तमनाः श्रमघ्नो भुक्तिप्रदाने यतिनां प्रशस्तः॥६३॥ अर्थ-मन, वचन, कायसे शुद्ध दानकार्यमें निपुण साधुवोंके मनके अनुकूल संयमवर्धक पथ्य आहारको देने में समर्थ, धर्मानुरागी, सम्यग्दृष्टि, व्रती, संतृप्त मनवाला, साधुवोंके श्रमको दूर करनेवाला, यतियोंके आहारदान में प्रशस्त है ॥ ६३ ॥ सूतकी व आहारदान. स्नाता चतुर्थदिवसे पक्तुं योग्या तु दानयोग्या न ॥ :. दत्तेऽने तु तया सा उत्तरजन्मनि च पुत्ररहिता स्यात् ।। ' अर्थ-रजस्वला स्त्री चौथे दिन में स्नानसे शुद्ध होकर घरमें रसोई बना सकती है । वह रसोई घरवालोंके ही काम में आसकती है । वह चौथे दिन मुनिदान नहीं दे सकती । यदि इस आज्ञाको उल्लंघन कर वह दान देवें तो उत्तरभवमें संतानविहीन होती है अर्थात् वंध्या होकर उत्पन्न होती है ॥ ६४ ॥ . दत्तेऽनं सूतकी या स्यादवीरा साग्रजन्मनि ॥ न कुर्यात्मूतकी दानं पूजां दुर्गतिदुःखकृत् ॥ ६५ ॥ अर्थ-सूतकी स्त्री यदि मुनियोंको दान देवें तो वह आगे के जन्ममें पुत्रसंतानसे रहित होकर उत्पन्न होती है। इसलिए सूतकी दान व देवगुरुपूजाको न करें । अन्यथा वह नरकादिदुर्गतिको प्राप्त करती है ॥ ६५ ॥ स्वहस्तकर्तव्य. .... धर्मेषु स्वामिसेवायां पुत्रोत्पत्तौ श्रुतोद्यमे ॥ भैषज्ये भोजने दाने प्रतिहस्तं न कारयेत् ।। ६६ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० दानशासनम् अर्थ-धर्मकार्यमें, स्वामिसेवामें, पुत्रोत्पत्ति में, शास्त्रस्वाध्यायमें, औषधग्रहणमें, भोजनमें व दानमें प्रतिहस्त व्यवहार नहीं करना चाहिये अर्थात् इन कार्योंमें अपने बदले दूसरों से कार्य चलानेका प्रयत्न नहीं करना चाहिये। ये कार्य स्वतः ही करने योग्य हैं॥६६॥ दानफल. श्रीमज्जैनमुनीश्वरेण रचिता भिक्षा हि यस्यालये । पंचाश्चर्यपिहाभवत्सवचनं तत्तच्छ्रते विश्रुतम् ।। मुख्यं चाहतिदानमेव मुनयो नित्यं वदंत्युत्तथा । दातारो महदमदानममलं कुर्वतु संतस्सदा ॥ ६७ ॥ अर्थ-जिस घरमें निर्मल चारित्रधारी जैनमुनियोंने आहार ग्रहण किया उस वरमें पंचाश्चर्यादि हुए यह बात शास्त्रोमें सुनी जाती है । सर्व दानोमें मुख्य *आहार दान है। इसलिए सज्जनदानियों को उचित है कि वे सदा सर्व दानों में श्रेष्ठ व पवित्र अन्नदान को सदा करें ॥ ६७ ॥ आहार और आदर सद्यो जीर्यति सादरातिमधुरा दत्ताहतिर्या तयो- । नश्यत्याईचणो यथा जजति न धौव्यांबुवच्चादरः ।। अंतर्वाह्यपरार्थदा च सकला भावेन भावार्पिता । तद्भावाश्रितपुण्यराशिमतुलं प्रोद्भावयंत्यन्वहम् ॥ ६८ ॥ अर्थ-पुण्यार्जन करनेमें तत्पर श्रावकोंको उचित है कि परम आदरके साथ उत्तम पात्रोंको आहारदान देवें । उन दोनों [ आहार व आदर ] में आहार तो उसी समय जीर्ण होता है । परंतु आदर * मुखेऽक्षि मुख्यं द्रविणे च धान्यं शास्त्रे च मुख्यो विमलागमश्च दानेषु सद्यः फलमन्नदानं लोकेषु सर्वेषु मनुष्यलोकः ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २०१ चिरकाल तक रहता है । जिस प्रकार गीला चना मट्टीमें पङकर एकदम नष्ट होता है, उसी प्रकार आहार जीर्णताको प्राप्त होता है । परंतु उत्पन्न अंकुर नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार आदर तो नष्ट नहीं हो सकता है। भावशुद्धिके द्वारा दिया हुआ आहार अपने आत्माके लिए हितकर अंतरंग रत्नत्रयादिकको उत्पन्न करनेमें सहायक होता है व बहिरंग ऐश्वर्यादि विभूति को उत्पन्न करने में साधक होता है । इसलिए बहुत आदरके साथ प्रतिदिन आहारदान देते हैं वे अनुपम पुण्यराशिको संचित करते हैं ॥ ६८ ॥ आधारं त्वमृतं वदंति मुधियः पीतस्स सद्धर्मवदोषान्हंति सुखं करोति दहने क्षिप्तः समस्तं दहेत् ॥ धर्मस्तद्वदयं त्वनेन मनसा पुण्येऽर्पितः पुण्यदः । - पापे पाप उशंति नाविकमनो वाद्धौ यथा वर्तते ॥६९॥ अर्थ-- बुद्धिमान् लोग घृतको अमृतके नामसे कहते हैं । यदि उसे कोई पी तो सद्धर्मके समान शरीरके समस्त दोषोंका नाश करता है । यदि अग्निमें डाल दिया तो सबको जला भी देता है। इसी प्रकार इम धर्मको भी इस मनके द्वारा पुण्यकार्यमें उपयोग टगाया तो पुण्यार्जन होता है, पापकार्यमें उपयोग किया तो पापार्जन होता है, जिसप्रकार समुद्रमें जहाजको डुबाना या तारना यह नासिकके मनके भाधीन है अर्थात् वह अपने मनोविचारके अनुसार कर सकता है इसीप्रकार यह मनुष्य अपने मनकी भावनाके अनुसार पुण्य व पापका अर्जन करता है॥ ६९॥ दानमाहात्म्य दानं ख्यातिकरं सदा हितकरं संसारसौख्याकरं । नृणां प्रीतिकरं लसद्गुणकरं लक्ष्मीकरं किंकरं ॥ स्वर्गावासकरं गतिक्षयकरं निर्वाणसंपत्करं । वर्णायुर्बलबुद्धिवर्धनकरं दानं प्रदेयं बुधैः ॥ ७० ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ दानशासनम् .: अर्थ-दानकी महिमा अचिंत्य है, वह त्रिलोकमें कीर्ति करनेवाला है, देहात्महितको करनेवाला है, संसारमें सुखको प्रदान करनेवाला है, सबके प्रेमको संपादन कर देनेवाला है, अनेक गुणोंको प्राप्त करा देनेवाला है, संपत्तिको प्रदान करानेवाला है, इच्छित कार्यकी पूर्ति कर देनेवाला है। स्वर्गगतिको प्राप्त करानेवाला व नीच गतिका नाश करनेवाला दान है, विशेष क्या ? मोक्षलक्ष्मीको भी प्राप्त करादेता है, देहकांति, आयु, बल, बुद्धि आदिको बढाता है। इस प्रकारकी विशेषताओंसे युक्त दानको बुद्धिमान् लोग सदा करें ॥ ७० ॥ सद्रूपान्वयवृत्तशीलगुणसच्छिक्षामतिर्लक्षणम् । धान्यं वाहनवस्तुवित्तपितृमातृभ्रातृभार्यात्मजं ॥ चक्रित्वं सकलं शुभं भवमुखं भुक्त्वाष्टजन्मांतरे । निर्वाणं कृतिनां भवेतदखिलं सत्पात्रदानादिदम् ॥७१॥ अर्थ-सत्पात्रदानके फलसे यह जीव सुंदररूप, विशुद्धवंश, उत्तम चारित्र, पवित्र शील, श्रेष्ठ गुण, विशाल ज्ञान, कुशाग्रबुद्धि व शुभलक्षणोंको प्राप्त करता है । एवं धान्य, वाहन, वस्तु, धन, पिता, माता, भ्राता व पुत्र आदि सभी इष्टपरिकरोंसे सुसंपन्न रहता है । सकल चक्रित्वपदको प्राप्त करता है । इसप्रकार आठ भवतक संसारके उत्तम सुखोंको भोगकर वह मोक्ष साम्राज्यका अधिपति बनता है॥७॥ + सौधर्मादिषु कल्पेषु जायते पात्रदानिनः । साध रमंते निक्लेशा देवस्त्रीभिस्सदा नराः ॥ ७२ ॥ अर्थ-सत्पात्रदानी जीव सौधर्मादि स्वर्गीय कल्पोंमें जाकर जन्म + अपात्रदानिनः केचिन्मृत्वा षण्णवतिष्वपि । अंतीपेषु जायंते लांगूलैकांघ्रिमानवाः ॥ सत्पात्राय प्रदत्तेऽन्ने स्वशक्त्या भक्तिपूर्वकम् । कुदृष्टिमानवाः केचिजायते भोगभूमिजाः ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २०३ लेते हैं और वहां देवांगनावोंके साथ क्लेशरहित होकर सदा सुख भोगते हैं ॥ ७२ ॥ आयव्ययविवेक आयो वस्तु कियान्व्ययो मम विभज्यालोच्य देवाय यं । दानायापि गृहाय चैवसि सदा कुर्यानिजार्थव्ययं ॥ यो वर्तेत भवेद्रती स लभते पुण्यं धनं कार्षिको । भृत्यायेव परिग्रहाय च करायोपक्षयायात्ममः ॥ ७३ ।। अर्थ-बुद्धिमान किसान सदा इस बातका विचार किया करता है कि मेरे खेतमें उत्पन्न कितना होगा, और व्यय कितना होगा । उससे खेती करनेवाले नौकरोंको मुझे कितना देना होगा। मेरे कुटुंबीजनोंको कितना देना होगा। सरकारी कर कितना भरना होगा एवं बीज भादिका खर्चा व अन्य खर्चा कितना होगा । इत्यादि प्रकारसे आयव्ययको विचार कर खेती करनेसे उसे लाभ होता है । इसी प्रकार पुण्यधनको अर्जन करनेवाला श्रावक इस बातका विचार करें कि मुझे आय कितना है और व्यय कितना है । मेरी संपत्तिसे देवपूजाके लिए कितना लगाना है । दानके लिए कितना लगाना है । कुटुंबियोंके पोषणके लिए कितना लगाना है । मुझे उसे किस प्रकार उपयोग करना चाहिये । इत्यादि विषयको विवेकपूर्वक सम्झकर धनका उपयोग करें तो बाह्यसंपत्ति के साथ अंतरंग संपत्ति ( पुण्य ) भी बढ़ती है ॥७३॥ आयव्ययमनालोच्य यो व्ययत्यनिशं स ना।। विनश्येत्सर्वदा तस्य सुखं स्वप्नेऽपि दुर्लभम् ॥ ७४ ॥ अर्थ- जो व्यक्ति अपने आयव्ययको विचार न कर व्यय करता जाता है वह अवश्य ही एक दिन नष्ट होता है अर्थात् उसे दिवाला निकालना पड़ता है। उसे स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता है ॥७४॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ दानशासनम् - - - - - - - - - - - - गुरुसेवा दहति दुरितकक्षं जन्मबंध लुनीते ।। वितरति यमसिद्धिं भावद्धिं तनोति ॥ नयति जननतीरं ज्ञानराज्यं च दत्ते । ध्रुवमिह मनुमानां वृद्धसेवैव साध्वी ॥ ७५ ॥ अर्थ- इस संसारमें जिनभक्तों के द्वारा की हुई वृद्धसेवा अर्थात् गुरुजनसेवा बनाग्निके समान पापारण्यको जला देती है, दातृजनोंके जन्मबंधको नाश करती है । आजन्मत्रत धारण करनेका सामर्थ्य प्रदान करती है, भावशुद्धिको प्राप्त कराती हैं, विशेष क्या ? इस संसारके तीरपर इस आत्माको ले जाकर ज्ञानराज्यमें अधिष्ठित करती है ॥७५॥ असहमिह दरिद्रं मारयत्याशुलक्ष्मी- । रगद इव विशिष्टो दुष्टरोगानशेषान् ॥ गिरिमिव पविरात्मा शेषपापं निहन्ति । ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसैवैव साध्वी ॥ ७६ ॥ .. अर्थ-गुरुजनोंकी सेवाके फलसे ही असहनीय दरिद्रता भी दूर होकर लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । अमृतौषध जिसप्रकार समस्त रोगोंको दूर करता है, वज्रायुध जिसप्रकार पर्वतको तोड देता है इसी प्रकार यह गुरुसेवा आत्माके समस्त पापोंको नष्ट करती है ।। ७६ ॥ रविरिव दुरिताख्यं नाशयत्यंधकारं । पटुतरजठराग्निः क्षिपमाहारदोषान् ॥ भवभवकृतकर्मव्यापदुग्रामयादीन् । ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसेवैव साध्वी ॥ ७७ ।। अर्थ-यह वृद्धसेवा सूर्यके समान पापरूपी अंधकारको नष्ट । करती है। तीव्र जठराग्नि जिस प्रकार आहारके समस्त दोषोंका नाश Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २०५ - करती है उसी प्रकार भवभवमें अर्जित कर्मसमूह व तत्फलरूष दुष्ट रोगादिकोंको शीघ्र नष्ट करती है ॥ ७७ ॥ निजपतिवदनाग्रे येन सेवा कृतातो । हृदि जनितमहोऽसौ तस्य भाग्यं ददाति ॥ अविलयमिह राजा नित्यसौख्यं च दत्ते । ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसैवैव साध्वी ॥ ७८ ॥ .. अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि किसी सेवकने स्वामीकी सेवा निष्ठापूर्वक की तो स्वामी उससे प्रसन्न होता है, और उस प्रसन्नता व उत्साहसे उस सेवकको अनेक संपत्तिको प्रदान करता है । उसकी संपत्ति बढती हुई, क्रमसे वह नित्य सुखको प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार यदि गुरुजनोंकी सेवा की तो यदि वे प्रसन्न हो जाय तो उस प्रसन्नताके उत्साहमें वे भक्तोंको पुण्यधन प्रदान करते हैं, उसके द्वारा उस सेवककी संपत्ति बढकर क्रमशः वह नित्यसुखको प्राप्त करता है। इसलिए आत्महितैषी भव्योंको उचित है कि वे सदा गुरुसेवामें तत्पर रहे ॥ ७८ ॥ .. वृद्ध कौन है ? : वयस्तपोज्ञानकुलैर्विशुद्धैरखंडितैश्चारुचरित्रवगैः ।। :: विशुद्ध पुण्यैरभिवृद्धिमेति स एव वृद्धो वयसा न वृद्धः ॥७९॥ - अर्थ--विशुद्ध आबाल्य अनशनादि तप, ज्ञान, कुल, अखंडितचारित्र व विशुद्ध पुण्यके द्वारा जो बडे हैं व बढ़ते हैं उनको वृद्ध कहते हैं, उमरसे जो बूढे हैं उनको वृद्ध नहीं कहते हैं । परंतु इन बातोंसे जो बढे हैं उनको वृद्ध या गुरु कहते हैं ॥ ७९ ॥ .. यो गुरुसेवा साध्वीं करोति तस्यालयेऽत्र पंचाश्चर्य । अभवदिति शास्त्रसिद्धं कर्तव्या सर्वदा हि गुरुसेवा ।।८०॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ दानशासनम् अर्थ - जो त्रिकरण शुद्धिपूर्वक उत्तम पात्रोंकी सेवा करता है उसके घरमें पंचाश्चर्य दृष्टि होती है यह शास्त्रसिद्ध विषय है । अतएव सदा गुरुसेवा करनी चाहिये ॥ ८० ॥ बुधसमये चतुर्थे रत्नाश्रिते शुक्तिपुटे सुपात्रे । दत्ता सुवार्जा इव सति मुक्तास्ते दातृलोकास्त किमत्र चित्रं ॥ अर्थ – जिसप्रकार रत्नके आश्रयभूत समुद्र में स्वाति नक्षत्र में शरद् ऋतु में सीपके पुटमें पडे हुए जलबिंदु मुक्ता ( मोती ) होते हैं, उसी प्रकार रत्नत्रयके आश्रयभूत धर्मरूपी समुद्र में चतुर्थकालमें उत्तम पात्रमें उत्तम दातावोंके द्वारा दिये गये आहारोंसे वे दाता मुक्त होते हैं इसमें आश्चर्य की क्या बात है ॥ ८१ ॥ पुण्यावान्दाता वित्तं नास्ति तदस्ति चेदपि मनो नो तत्तदस्तीति चे- । नास्तीषत्सुसहायता तदपि तत्सा चास्ति चेन्नास्ति यत् ॥ पात्रं तत्तदपीह सा तदपि चेत्संतीति यस्यानिशं ॥ क्षिप्रं भावसमुद्रपारगतवानाहुस्तमेकं बुधाः ॥ ८२ ॥ अर्थ-लोकमें दाताके लिए उपयुक्त सभी परिवारोंका मिलना बडा कठिन है । दाताको यदि दान देनेकी उत्कट भावना हो तो उसकी पूर्ति केलिए कहीं धनका अभाव है, कदाचित् धन हो तो मनका अभाव रहता है । मन और धन दोनों रहनेपर उसे दूसरोंकी सहायता नहीं मिलती । कदाचित् धन हो, मन हो, दूसरोंकी सहायता भी हो तो उत्तमपात्र नहीं मिलते हैं । इसप्रकार कुछ न कुछ न्यूनता रहती है । ये सभी बातें जिस दाताको एक साथ मिलती हैं वह सचमुच में धन्य है । उसे बुद्धिमान लोग संसारसागरके बिलकुल तीर में पहुंचा हुआ कहते हैं ॥ ८२ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २०७ आहारदानमें सर्वदान समस्तपो दया धर्मः संयमो नियमो यमः । सर्वे तेन वितीयते येनाहारो वितीर्यते ॥ ८३ ॥ अर्थ-जिस दाताके द्वारा आहारदान दिया जाता है उसके द्वारा समता, तप, दया, धर्म, नियम व यमरूपी संयम आदि सभी गुण दिये जाते हैं ऐसा समझना चाहिये । आहार ग्रहण करनेसे इन गुणों की वृद्धि होती है ॥ ८३ ॥ गुरुभक्तिफल गुरुपदनतेस्सुगोत्रं तदुपास्तेरसर्वसेव्यता दानात् । भोगकरी श्रीः पूता कीर्तिभक्तिभवंद्गुरून् भजताम् ।।८४॥ अर्थ-गुरुवोंके चरणमें भक्तिसे नमस्कार करनेसे उच्च गोत्रका बंध होता है । उनकी उपासना करनेसे स्वतः सबके द्वारा उपास्य होता है । दानसे भोगने योग्य अलोट संपत्ति मिलती है । गुरुवोंकी पूजा करनेसे पवित्र कीर्ति, घ यथार्थ भक्ति प्राप्त होती है ॥ ८४॥ सम्यग्दृष्टिज्ञानचारित्रवद्भ्यो । योगिभ्यो यैर्दत्तमाहारदानम् ॥ ते सदृष्टिज्ञानचारित्रवंत स्तेषामात्मा स्यात् च्युताब्दो यथार्कः ॥ ८५ ॥ अर्थ- जो दाता सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रसे अलंकृत योगियोंको आहारदान देते हैं वह स्वयं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रको धारण करते हैं। उन दाताबोंकी आत्मा मेघके आच्छादनसे रहित सूर्यबिंबके समान निर्मल होती हैं । ८५ ॥ उत्तमदाता अपुष्पफलिनः कंटकावृतानल्पसत्फलाः । तृप्तिकहानिनः केचिदुत्तमाः पनसा यथा ।। ८६ ।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ दनिशांसनम् अर्थ-कोई उत्तमदानी पनसके फलके समान रहते हैं। पनसके फलमें यह विशेषता है कि वह फल पहिलेसे पुष्प नहीं छोडा करता, एकदम फल होता है और फलके बाहरका भाग एकदम कांटोंसे भरा हुआ रहता है । परंतु अंदर फल बहुत व मिष्ट रहता है । एवं खानेवालोंको तृप्त कर देता है । इसी प्रकार उत्तम दाता भी रहते हैं। पनस जिस प्रकार पहिलेसे फूल छोडकर लोगोंको फल होनेकी बात प्रकट नहीं होने देता है, उसी प्रकार उत्तमदाता भी ' मैं दानी हूं' इस प्रकार लोगोंको डिंडोरा पीटकर नहीं बतलाया करते हैं । अनेक कंटक व आपत्तियोंसे थिरे रहनेपर भी दूसरोंको सत्फल ही देनेवाले, उपकार करनेवाले एवं पात्रोंको तृप्ति करनेवाले वे दानी रहते हैं ॥ ८६ ॥ सकुसुमफलवन्त आम्राः फलानि यावच्च संति तावदिमे । तरतमफलानि ददते यथा तथा दानिनो विराजते ॥८७॥ __ अर्थ-जैसे आम्रका वृक्ष पहिले फूल छोडकर बादमें फलको छोडता है अतएव उममें अनेक प्रकारके तरतम फल होते हैं। इसी प्रकारके भी दानी लोकमें होते हैं ॥ ८७ ॥ सत्पात्रदान फल. राजेवामलसौख्यदार्थमनिशं दत्ते च दोषान्व्यथा । मंत्रीवाशु तिरस्करोति मुगुणान्व्यक्तीकरोतीव सन् ॥ क्षुद्रान्यक्कुरुतेऽवद्भिषगिवाशेषामयान्मोचय-। त्येनो भेदयतीति धर्मगुरुवन्मातेव रक्षत्ययः ॥ ८८ ॥ ___ अर्थ-सत्पात्रदानसे उपार्जित पुण्य इस मनुष्यको राजाके समान अनेक उत्तम पदार्थीको सदा प्रदान करता है। मंत्रीके समान दोष व चिंताको दूर करता है । सज्जनोंके समान सुगुणोंको व्यक्त करता है। सूर्यके समान क्षुद्रोंका तिरस्कार करता है। वैद्यके समान समस्त Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २०९ रोगोंको दूर करता है । धर्मगुरुके समान पापको दूर करता है, विशेष क्या ? साक्षात् माताके समान संरक्षण करता है ॥ ८८ ॥ भूतादावपि वज्रपंजरवदन्ध्यादौ तरंडो यथा । शीते वह्निवष्णिके हिमवद्रोगेऽपि पीयूषवत् || ज्ञाने वागिव दर्शने तरणिवयुद्धे जयं दुर्जये । कुर्याद्धावति वारि वाघविपिनं भस्मीकरोत्यग्निवत् ॥ ८९ ॥ अर्थ - सत्पात्रदानसे उपार्जित पुण्यफळ भूतप्रेतादिक की बाधामें वज्रपंजरके समान रक्षण करता है, समुद्र में तरणसाधन के समान बचाता है, कडक शीतमें अग्निके समान, उष्णकाल में चंद्रके समान, रोगमें अमृत के समान, ज्ञानमें सरस्वती के समान, दर्शन में सूर्य के समान, दुर्जय युद्ध में जयलक्ष्मी के समान संरक्षण करता है । जल के समान पापों को धो डालता है । पापरूपी जंगलको अग्निके समान जला देता है ॥ ८९ ॥ पुण्यस्वरूप. शुक्त्यतः स्थितमुक्तेव | करंडस्थितरत्नवत् ॥ अब्दावृतार्कवत्पुण्यं । कुंभांत स्थितदीपवत् ॥ ९० ॥ अर्थ - वह पुण्य सीपके अंदर छिपी हुई मोतीके समान, करण्डमें स्थित रत्नके समान, बादलसे छिपे हुए सूर्य के समान, कुंभके अंदर रक्खे हुए दीपक के समान इस आत्मप्रदेश में अंतलीन होकर रहता है ॥ ९० ॥ पुण्यकी प्रबलता. २ न हन्यते तथा पुण्यं दुष्कृतेन मनागपिः । गाधभूमिगतैरंडबीजवच्छ्रेणिको यथा ॥ ९१ ॥ अर्थ - यदि इस जीवने विपुल पुण्यका संचय किया तो उस पुण्य २७ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०: दानशासनम् को पापकर्म नाश नहीं कर सकता है । जिस प्रकार जमीममें थोडा खोल गया हुआ एरंड का बीज नष्ट नहीं होता है । जैसे श्रेणिक राजाने मुनियोंको उपसर्ग किया तो भी उसका पाप उसके पूर्वसंचित विपुल पुण्यके होने से उसका अधिक घात नहीं कर सका, उस पुण्यके बल आगे उसने तीर्थंकर प्रकृतिका बंध किया ॥ ९१ ॥ भक्तिविशेष.. यापयति यापयिष्यति, साधूनस्वयमेव यः पुमाननिशं ॥ पूर्णाक्षयाकलंकाविघ्नाभयदानवान्स सुखी ॥ ९२ ॥ . स्तंभयति सर्वविघ्नान् प्रजादिपीडाश्च यत्प्रसादेन ॥ इहपरसुखयुगमयमनुभूत्वा सुखमनंतमपि लभते ॥ ९३ ॥ अर्थ-नो श्रावक साधुवोंको पात्रदान देकर स्वतः उनको भेजता है या अनेक सज्जनोंके साथ भक्ति से पहुंचाता है वह पूर्ण अक्षय, अकलंक व विनरहित अभयदानको प्राप्त करता है व सुखी होता है। जो श्रावक साधुबोंके मार्गमें आये हुए सर्व विघ्नों को दूर करता है, प्रजा आदिसे उत्पन्न पीडावोंको दूर करता है, वह उस पुण्यके प्रसादसे इहपरसुख को प्राप्तकर अनंतसुखात्मक मोक्षको भी प्राप्त करता है ॥ ९२ ॥ ९३ ॥ स्वक्षेत्रे कृषिको यथा त्वभयदानत्युक्तिभक्त्यन्वितः । स्वां भार्यामिह यापयन्निव सदा तत्तातगेह प्रभुः॥ राजा वा निजनीवृतं त्वभयदानत्युक्तिभाक्तिर्विना । दत्वान्नं स परं सुखं च लभते पात्राय दाता कयं ॥९॥ अर्थ-जिस प्रकार किसान अपने क्षेत्रमें अत्यधिक श्रद्धा व भक्तिसे युक्त होकर उसके संरक्षण करनेके लिए प्रयत्न करता है। एवं जिस १कार कोई सज्जन अपनी भार्याको उसके पिताके घर बहुत सुव्यवस्था के साथ पहुंचाता है । जिस प्रकार कोई राजा अपने प्रजावर्गको Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २११ बहुत ही आदरके साथ पालन करता है तब वे सुखी होते हैं। उसी प्रकार बहुत आदर व भाक्तिके साथ जो श्रावक दान देते हैं वे सुखी होते हैं । विनाभक्तिके आहारदान देनेसे सुखी कैसे होसकते हैं ? कभी नहीं ॥ १४ ॥ अंतरायफल भिक्षाकालेन्तरायांत्रिकरणजनितान्येऽत्र कुर्वति तेषां । चेतस्थो योग्यलक्ष्मी क्षपयति स च यो बाह्यलक्ष्मी बलाख्यां। वाक्यस्थो देहिवाचं स्थगयति सकलं जाड्यगाद्गद्यमौक्यं । शारीरो देहसाताकरयुवतिधनाहारभूषादिनाशम् ॥ ९५ ।। अर्थ-साधुवोंके आहारके समयमें जो व्यक्ति मन वचन कायसे उनको मानसिक, वाचिक व कायिक आघात पहुंचाते हुए विघ्न करते हैं उनको उस पापके फलसे अनेक प्रकारसे हानि उठानी पडती है । यदि मानसिक क्षोभ साधुवोंको पहुंचाया हो तो उस पापीका मानसिक सामर्थ्य व बल कम होता है। एवं बाह्यलक्ष्मी भी घट जाती है। यदि वाचनिक अंतराय हो तो उस पापीके लिए वाचनिक शक्तिकी हीनता होती है । वचनमें जाड्यता [ अज्ञान ] बढती है, गद्गदता अर्थात् तोतलापना आता है । विशेष क्या ? क्रमशः मूकता ही आती है । यदि देहसंबंधी विघ्न किया हो तो देहका सुख, स्त्रीसुख, धन, आहार, आभरण आदि का नाश हो जाता है ॥ ९५ ॥ सुकृती व पापीका जीवन उप्तं कदल्या इव कंदयुग्मं सम्यक् क्रियायां फलति द्रुतं तत् । दत्तन किंचित् फलमक्रियायां पापी चिरायुः मुकृती गतायुः ॥ ९६ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दानशासनम् अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि पापियोंका जीवन दीर्घ हुआ करता है, पुण्यात्मा लोग अल्पजीवी होते हैं । इसका क्या कारण है। प्रकृति ही ऐसी है। लोको केलेका वृक्ष व एक जमीकंद इस प्रकार दोनोंका बीज बोनेपर केलके वृक्षको देशकालोचित अनेक क्रियाओं के करनेपर भी फल कम देता है । परंतु थोडीसी क्रिया करनेपर भी कंद अधिक फल देता है। इसी प्रकार पापियोंका जीवन अधिक होता है, पुण्यात्माओंका जीवन अल्प होता है ॥ ९६ ॥ उपकार्यपात्र स्वशामित्रकृतोपकारविधिना भृत्यांगनानां भयं । सद्यस्तत्पतिना भवेदिव सदा तत्कर्म संवर्जयेत् ॥ पुष्यात्पात्रसुबंधुसेवकसतीपुत्रादिकान्प्रीतितो । . नित्यं नान्यजनाय धर्मनिपुणैर्दानं च देयं वृषात् ॥९७॥ अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि अपने स्वामीके शत्रुओंको किसी सेवकने उपकार किया तो उससे स्वामी क्रोधित होकर अनेक प्रकारसे हानि कर सकता है । इस प्रकार का भय उन सेवकोंको व उनकी स्त्रियोंको सदा रहता है । इसलिए ऐसे कार्यको कभी नहीं करना चाहिए। बुद्धिमानोंको उचित है कि सत्पात्र, अपने उत्तम बंधु, सेवक, अनाथ स्त्रियां, बालक आदिका अपने धनसे पोषण करें। अन्य जनोंको देने की जरूरत नहीं ॥ ९७ ॥ . भक्तिफल किं दुष्टाः पुरि सावधौ तलवरे दोषान्यथा कुर्वते । पुष्टियन बले यदीयमहसा लोकेषु नो वैरिणः ॥ क्रूरावांतरिताः प्रणश्यति तमः सूर्ये निरभ्रे यथा । भक्तिधर्मर ले जने गुरुजने यस्यास्त्यघं तस्य न ॥९८॥ . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार अर्थ-यदि कोतवाल सावध रहा तो नगरमें चोर जार आदि दुष्टोंका कोई भय नहीं रह सकता है, इसीप्रकार यदि यह मनुष्य विवेकी रहा तो उसके लिये दोषोंका भय नहीं रहता है । राजाने यदि अपनी प्रजा व सेनावोंका संरक्षण बहुत प्रेमके साथ किया तो उसे शत्रुवोंका भय नहीं रह सकता है, क्रूर उससे दूर जाते हैं । जिसप्रकार सूर्यके निरभ्र होनेपर अंधकार चला जाता है, इसी प्रकार धर्मप्रेमसे गुरुजनोंके प्रति भक्ति जो मनुष्य रखता है, उसके पास पापदोष आदि नहीं ठहरते हैं ॥ ९८ ॥ . देयपदार्थ राजा चारवदन्यवित्तहरणे नानाविधोपायवान् । राजासावचिराद्विनश्यति बलात्तद्वित्तमेनोवहम् ॥ .. वयं सद्व्यवहारवृत्तिनिपुणः पूतार्थचिद्वा विदन् । वैश्यः साधुजनार्जितं हितकरं दाता स एवोत्तमः ॥९९॥ ४. अर्थ-कलिकालके कोई .२ अविवेकी राजा प्रजावोंके द्रव्योंको अपहरण करनेके लिए अनेक प्रकारके उपायोंको करते हुए चोरोंके समान आचरण करते हैं। वे राजा पापके उदयसे शीघ्र नष्ट होते हैं। उनका द्रव्य पापोर्जित है, उस द्रव्यको पात्रदानादि पवित्र कार्यमें कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । परंतु धर्मकार्यमें सदा उत्तमद्रव्यको ही ग्रहण करना चाहिये । द्रव्यार्जन करने. वाले वैश्योंको उचित है कि घे न्यायमार्गसे द्रव्यार्जन करें, सद्वयवहार वृत्ति निपुण वैश्य होना चाहिये अर्थात् निर्दोषतासे व्यापार करना चाहिये । व्यापारके लिए वह जिस समय अन्य देश द्वीपांतर आदिमें जाता है, उस समय वह अपने बंधु, बांधव, पिता, पुत्र, कलन आदियोंसे मोहका परित्याग कर दीक्षित होनेवाले साधुओंके समान दीक्षित होना • चाहिये । अपने गुरुके द्वारा निरूपित सद्धर्मका श्रवण कर उनके द्वारा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ হলালন - - उपदिष्ट तत्वोंके अनुकूल प्रवर्तन करने की तैयारी उसमें होनी चाहिये, प्रस्थानको लेकर पुरप्रवेश तक सावधिक दीक्षासे दीक्षित होना चाहिये । ___ कहा भी है--- रोगे विदेशगमने जिनोत्सवे धर्मकार्यकरणेषु । रणराजांगणगमने सुजनोऽवधिदीक्षितोऽत्र भवितव्यः ।। रोगकी हालतमें, विदेशप्रयाणमें, जिनोत्सवके प्रारंभमें, धर्मकार्यके प्रारंभमें, युद्धको जाते समय, राजमहलको जाते समय, सज्जन को उचित है कि वह उस कार्यकी पूर्ति होने तक कुछ न कुछ नियम व्रत आदि लेवें। अपने स्वामी, गुरु, विद्वान् धार्मिकजनोंकी सेवा करने योग्य एवं पुण्यसाधक परिग्रहोंके संरक्षण करने योग्य अर्थको उपार्जन करनेके लिए मनुष्यको उद्योग करना चाहिये । व्यापारादिक कार्यमें जाते समय दुर्धर उपसर्ग करनेवाले चोर दुष्ट मृग सादिकके द्वारा कोई आपत्ति आवे तो उसे निराकरण करने के लिए उसे समर्थ रहना चाहिये । आवश्यकता पडे तो राजा व उनके भृत्योंको धनादि दानसे परितुष्ट करें और लोगोंको संतुष्ट करनेवाले वचनोंको बोले, अपने लिए व्यापार करने योग्य नगरमें प्रविष्ट होकर अपने हृदयमें अत्यंत दयारसप्रपूरित भावनाओंको रखते हुए सर्व व्यवहारिक जनोंके साथ अनुकूल प्रवृत्ति से व्यवहार करें। विविध विषयोंको ध्यानमें लेकर द्रव्योपार्जनकी वृत्तिमें दूरदर्शितासे काम लेवें । जिस पदार्थके लेनेसे कोई प्रकारकी हानि नहीं हो ऐसे पदार्थीका संग्रह करें। अपने वचन को दृढ़ता से साधन करें। लोकव्यवहारको देखें। ऐसे निर्दोष व्यवहारसे जो व्यापार करता है उसका धन पात्रोंको दान देने योग्य है । क्यों कि वह वैश्य स्वतः साधुजनोंके समान वृत्ति रखकर धनार्जन करता है, वही हितकर है । वही उत्तमदाता कहलाता है ॥ ९९ ॥ .. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २१५ २१५ धर्मामासस्कार धर्ममभावनायै ये वाकायाथै स्सहायिनः । ... तेषां प्रियोक्तिभिश्चित्तं तर्पयेदुचितैर्धनैः ॥ १० ॥ अर्थ--धर्मप्रभावना करनेके लिए जो मन वचन कायसे व धनसे सहायता करने हैं उनका प्रियवचन व उचित द्रव्योंसे सत्कार करना चाहिये ।। १०० ॥ येन केन च मयेन धर्मकार्य प्रवर्द्धते । कर्तव्या सत्कृतिस्तस्य चित्तक्षाभं न कारयेत् ॥१०१ अर्थ-जो व्यक्ति धर्मकार्यकी वृद्धि करता है, उसका सत्कार करना चाहिये उसके चित्तको क्षुब्ध नहीं करना चाहिये ॥१०१॥ दानफल दत्तं दानमयाचिते सविभवं पात्रे ददात्यद्भुतं । दैवायाचितदत्तमल्पविभवं संप्रार्थनाजायते ॥ नीत्वा तत्समयं मनः कलुपयनल्पेऽपि दत्ते सतां । निस्वं क्लेशकरं शपतमनृतं भूपं भजत्यत्र ते ॥ १०२ ॥ अर्थ-अयाचित पात्रमें दान देनेपर उसके फलसे चक्रवर्ति देवेंद्रादिकके विभव प्राप्त होते हैं। याचितपात्रमें दान देनेसे अल्प विभव प्राप्त होता है । यदि पात्रने अविक प्रार्थना की, दाताने दानके समयको टालकर मनको संक्लिटकर दान दिया तो वह दरिद्री होता है, धन मिले तो भी उस धनसे कष्ट ही होता है। उस मनुष्यका धन दुष्ट राजाको सेवन करनेवालेके समान है ॥ १०२ ॥ दातृवात्सल्य माता पुत्रीसौख्यसंरक्षणाभ्यां । प्रीत्या तं जामातरं रक्षतीव ॥ दाता सद्धर्मोपकारमेनं । स्वेनार्थेनानारतं सर्वजीवम् ॥ १०३ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् अर्थ-जिसप्रकार माता अपनी पुत्रीको सुखके साथ संरक्षण करने के उद्देश्यसे जमाईका रक्षण करती है, उसीप्रकार सद्धर्मको उपकार करनेवाले समस्तजीवोंको अपने द्रव्यसे उपकार करना चाहिये ।। १०३ ॥ मिथ्यादृष्टि होनेपर भी सहकार धान्यानि लब्धं कृषिको ददाति । क्षेत्रक्रियाकारिजनाय वित्तम् ॥ यथा तथैवात्मवृषक्रियां ये । कुर्वति तेभ्यो द्रविणो विदद्यात् ॥ १०४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार अष्टादश प्रकार के धान्योंको प्राप्त करनेके लिए किसान खेत करनेवाले मनुष्योंको धनादिकको देता है, इसी प्रकार अपने धर्मकार्योको करनेवाले जो सज्जन हैं, उनको धनादिक देकर उपकार करना चाहिये ॥ १०४ ॥ श्रद्धानफल निदोषसद दृक्चरितं विदंतं ग्रामीणदेवाश्च नरा दयते । , - सम्यक्पबाधां परिहार्य तस्मानिर्दोषभक्तिं कुरु जैनधर्मे ॥१०५ अर्थ-निर्दोष सम्यग्दर्शन व चारित्रको धारण करनेवाले भव्यकी अनेक बाधाओंको भी दूर कर प्रामीणदेवतायें, जलदेवतायें व वनदेवतायें एवं मनुष्यगण रक्षण करते हैं । इसलिए हे भव्य ! जिनधर्म में विशिष्ट भक्तिको करो ॥ १०५ ॥ स्वग्रामावृतसैनिकं च नृपनि शप्यत्यसौ किं नृपो। योद्धारं शफ्तीह किं रिपुचमं दृष्ट्वा क्षमाशंसति ।। चित्रं मूढजनः शपत्यनुदिन निष्कारणं तिष्ठ भो । पुष्टेषु श्वसु भिक्षुकोऽपि विहान्वी षु मौनी यथा ।१०६॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २१७ अर्थ-जिस प्रकार वीर राजा अपने नगरको घेरे हुए शत्रुराजा व उसकी सेनाके योद्धावोंको गाली नहीं दिया करता है, उलटा उनकी. वीरताको देखकर प्रशंसा करता है, उसी प्रकार सबको अपने आत्माको न्यायवृत्तिकी ओर लेजाना चाहिये । परंतु आश्चर्य है कि मूर्ख लोग रात्रिंदिन दूसरे बंधुओंको गाली वगैरह देकर दुर्वचन कहते हैं । परन्तु बुद्धिमानोंको उचित है कि जिस प्रकार मुनिराजके मार्गमें जाते समय दोनों ओरसे मोटे ताजे कुत्तोंके भोंकने पर भी वे मौन धारण करते हुए जाते हैं, उसी प्रकार बडे पुरुषोंको ऐसी गालियों की उपेक्षा करनी चाहिये ॥ १०६ ॥ कुत्ते के समान कृतज्ञ रहो जीवासीत स * रात्रिजागर इव स्वस्वामिसमाप्यवंस्तस्मिन्कुप्यति मौनवानिह भवान् स्वस्वामिभक्तो यथा। घाते तेन भषन्न तत्र न दशन् कुप्यन् कृतज्ञो यथा भक्तः स्वामिनि जागरोऽवतिमिरे भूत्वा कृतज्ञो वृषे ॥१०७ अर्थ-हे सुखार्थी जीव ! तू कुत्तेके समान कृतज्ञ बनना सीख ! जिस प्रकार वह कुत्ता अपने स्वामीके सुखसे निद्रित होनेके बाद स्वयं जागरण करते हुए अपने मालिकके ही नहीं अडोस-पडोसके घरको भी संरक्षण करता है। स्वामी यदि उसपर क्रुद्ध हुआ तो वह मौनधारण कर लेता है, इतना ही नहीं यदि स्वामीने उसे मारा तो भी अपने स्वामीको काटता नहीं, भोंकता भी नहीं, सदा स्वामिभक्त ही बना रहता है। इसी प्रकार पापांधकाररूपी रात्रिके होते हुए धर्म व धर्मगुरुरूपी स्वामीके प्रति हे जीव ! तू कृतज्ञ बनना सीखो । तभी तुह्मारा कल्याण होगा॥१०७॥ * जागर्ति स्वामिवर्गेऽस्मिन् निद्रितो मौनवान्भवेत् निद्रिते तत्र जाग्रस रात्रिजागर इष्यते ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.१८ दानशासनम्. करणत्रयलक्षण मनो राजवदाभाति यद्वचःसत्कलावत् । x - कायः सेवकवत्मास्त्रितयं दावलक्षणम् ॥ १०८ ॥ . अर्थ-----दाताका मन राजाके समान उदार रहना चाहिये। वचनमें सच्छील सतीके समान मितभाषण रहना चाहिए । और कायमें सेवक के समान विनयवृत्ति होनी चाहिये । यही प्रशस्त दाताका लक्षण है ॥१०८ . राजलक्षण या दातृहृदय अस्मरन्नवदजातु नस्ति शब्दममूचयन् ।। ददामि भाति वाग्वक्ता सदा राजेव दातृहत् ॥ १०९ ॥ अर्थ-राजाका धर्म है कि वह कोई याचक आवे तो नास्ति शब्दका स्मरण कभी हृदयमें भी न करें, वचनसे न बोले, कायसे नास्तिकी सूचना न देवें । परंतु जन्मभर " ददामि " देता हूं, इसी प्रकारकी वृत्ति रक्खें । प्रशस्त-दाताका भी हृदय वैसा ही होना चाहिये ॥१०९॥ दातृवचन स्वामी ददेति किं किंतु तद्विदन्ननुशन् ददत् । साध्वीजन इवाभाति सर्वदा दातृभाषणम् ॥ ११० ॥ अर्थ-जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री यदि परोसने के लिए बैठी तो उसके लिए अमुक पदार्थ चाहिये ऐसा कहकर मांगने की आवश्यकता नहीं है। किंतु वही सब कुछ समझकर पतिको जो चीज चाहिये परोसती है, इसी प्रकार दातावोंका वचन अत्यंत संयत होना चाहिये ॥ ११० ॥ दातृकाय : या या नियुक्ता सत्सेवा तां तां कुर्वन्मुदा सदा । . भासते दासकायोऽयं सेवको भक्तिमानिह ॥ १११ ॥ , x भाण्डागारिकवद्वचः ' ऐसा भी पाठ है । कोषाधिकारीके समान जिसका वचन है । अर्थात् कोषाधिकारी जैसे पाचकको अल्पधन देता है वैसे उत्तम दाता मितभाषी रहता है । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २१९ MMAAM अर्थ-जिस प्रकार भक्तिमान् सेवक अपने स्वामीके द्वारा नियुक्त सभी सेवावोंको बहुत भक्ति व संतोषसे करता है उसी प्रकार दाताका शरीर भी हो, वह सदा गुरुसेवामें प्रवृत्त हो ॥ १११ ॥ तामसदान ... + पात्रापात्रसमज्ञताज्ञ इह हेमादेः परीक्षाविधावाहूयानुचरैरसंस्तुतमसत्कारं स पात्रं च यः । दास्या पाचितदापितं भृतिधरैर्यदापितं चाहतं तदान न फलं तु भाटकचितं तत्तामसाख्यं विदुः॥११२॥ अर्थ-जिस प्रकार सुवर्णकी परीक्षा न जाननेवाला अज्ञानी परीक्षा करनेमें असमर्थ रहता है, उसी प्रकार पात्रापात्रके भेदको न समझनेवाला अज्ञानी अपने नौकरोंके द्वारा उन पात्रोंको अपने घरपर बुलवाकर स्तुतिस्तोत्र व नवधाभक्ति आदिसे रहित होकर, दासी के द्वारा तैयार किये गए आहार को अपने नौकरोंके द्वारा दिलाता है, उस दानका कोई फल नहीं है । वह तो भाडोत्री मनुष्योंको रखकर कमाये हुए धनके समान भाडोत्री दान है, उसे महर्षिगण तामसदान कहते हैं ॥ ११२ ॥ यः शयानो न संतिष्ठेन्नोत्तिष्ठन्सस्थितोऽपि न । अनुत्थितः पात्रमीक्षन्स दाता गर्वितो यथा ॥ ११३ ॥ अर्थ तामस दानी दाता गर्विष्ठ मनुष्यके समान पात्रोंके आग.: + सुखी दुख न सहते दुःखी दुःखं सुखं सदा यथा ताडनमुष्टोयं सहते कंटकाशनः ॥ धार्मिका यदि वर्तते धर्मवित्तेषु वंचकाः ॥ तत्रस्थाधार्मिका धर्म बहुव्याजाल्लयांत च ।। पात्रापात्रासमावेक्ष्यमसत्कारमसंस्तुत ॥ दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० दानशासनम् मनकें समय सोता हो तो उठता नहीं, बैठा होतो उठकर खड़ा नहीं होता है, खडा हुआ हो तो नमस्कार भी नहीं करता है ॥ ११३ ॥ मनुष्य कपि होता है। कृतगर्वोऽनमन्धर्मेऽनादरी यो भवांतरे । स पुपान्कुजशाखासु जीवन कपिभवेत् ॥ ११४ ॥ अर्थ-जो दानकार्ममें यहांपर गर्व करता है, एवं धर्मकार्यमें व धार्मिक सज्जनोंमें अनादर करता है, वह आगेके भवमें जाकर वृक्षोंकी शाखामें जीनेवाला बंदर होकर पैदा होता है ॥ ११४ ॥ मानी दातासे हानि दातायं गर्वितो नष्टोऽगर्वस्तुग्वच्चरन्मुनि । नष्टत्वनोभयोर्लोको बहुनष्टो भवेत्सदा ॥ ११५ ॥ अर्थ- गर्ववान् दाता अपने गर्वके कारणसे नष्ट होता हैं । मुनिगर्वरहित होनेपर भी बच्चे के समान इधर उधर स्वेच्छाचार पूर्वक . फिरे तो वह भी नष्ट होता है। इन दोनोंके नष्ट होनेसे लोक और राजा नष्ट होता है । लोक, राजा, दाता और पात्रों के नष्ट होनेसे असंख्यात प्राणियोंकी हानि होती है, धर्मकी हानि होती है ॥ ११५ ॥ राजसदान + साधुप्रेरणजातमेकघटिकाहाशियोत्थभ्रमम् । सत्पात्रांचितभूरिवर्णनरसक्लिनान्तरंगोद्भवम् । पात्राकूतदयारसप्रशमितक्रोधोत्थळोभोदयम् । यत्तद्राजसदानमुक्तमृषिभिः कारुण्यपण्यापणैः ॥ ११६ ॥ + यदात्मवर्णनप्रायं क्षणिकाहार्यविभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं दानं तद्राजसं मतम् ॥ आतिथेयं स्वयं यत्र या पात्रपरीक्षणं । गुणाः श्रद्वादयो यत्र दानं तत्सात्विकं विदुः ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २२१ - अर्थ-जो दान साधुवोंकी प्रेरणासे किया गया है। एक घटिका मात्र के लिए साधुवोंके उपदेशसे जिसका भ्रम दूर होकर दिया गया है। सत्पात्रों के द्वारा अनेक प्रकारसे वर्णन करनेपर, उस वर्णनरूपी रससे जिसका अंतरंग आर्द्र होकर दिया गया है, पात्रोंके द्वारा उपदिष्ट दयारसके कारणसे जिसका क्रोध व लोभ प्रशमित होकर दिया गया है उसे करुणाके व्यापार करनेवाले साधुजन राजसदान कहते सात्विकदान दृष्ट्वाभ्युत्थाय गत्वा मुनिपमपि परीक्ष्याशु नत्वा पबंधी। दत्वा प्रक्षाल्य पीठं स्तुतिनतिगुणसंकीर्णनैः श्रातिशांति ॥ कृत्वैवोल्लोल्य संतयं च शुभहदयं दत्तभक्त्या मुनींद्रस्तृप्तः स्यायेन यत्तद्रचितमभिहितं सात्विकं दानमार्यैः।।११७॥ अर्थ-मुनिराजके आते ही उनको देखकर भक्तिसे उठे, उनको देखकर उनके चरणोंमें नमस्कार कर प्रतिग्रहण कर अंदर ले जावें, वहांपर उच्चासन देकर पादप्रक्षालन करें एवं अनेक प्रकार की स्तुति, भक्ति, पूजा आदि करके उनके मार्गश्रमको निवारण करें, तदनंतर उनको बहुत भक्तिसे, त्रिकरण शुद्धिसे आहारदान देकर संतुष्ट करें। साधुगण उसे सात्विकदान के नामसे कहते हैं ॥ ११७ ॥ उत्तमादि भेद. सात्विकमुत्तमदानं मध्यमदानं तु राजसाख्यं च । सर्वेषां दानानां जघन्यदानं तु तामसाख्यं स्यात् ॥११८॥ अर्थ-सर्व दानोंमें उत्तम दान साविक दान है, गजसदान मध्यम है, और सबसे जघन्य दान तामस दान है ॥ ११८ ॥ . सात्विकराजसतामसमुत्तममध्यमजघन्यदानमिदम् ॥ इव्यव्यय एकोऽत्र त्रिकरणभेदेन तद्भवेत्रिविधम् ॥११९॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ दानशासनम् - - - - अर्थ-सात्विक, राजस व तामस जो उत्तम, मध्यम व जघन्य दानके भेदसं कहे गये हैं, उन तीनोंमें द्रव्यव्ययकी तो समानता है, अर्थात् द्रव्यव्यय तीनोंमें होता है । परंतु तीन प्रकारके परिणामों के भेदसे उसके तीन भेद होते हैं ॥ ११९ ॥ . असीमव्यवहारका फल. देशयोगपृषादीनां वर्तन्ते येऽवधिं विना ॥ त एव नाशं गच्छति सगरस्य सुता इव ।। १२० ॥ . अर्थ-देश, मन वचन, काय योग, धर्म, स्वस्त्री, बंधुमित्र आदि के साथ जो नीति की मर्यादाको उल्लंघन कर व्यवहार करते हैं वे सगर चक्रवर्ति के पुत्रों के समान नष्ट होते हैं। अर्थात् उनको अनेक प्रकार से हानि उठानी पडती है ॥ १२० ॥ ___ गर्बसे हानि. - मनुते तृणवल्लोकं सगर्वो निस्पृहो यथा ॥ स्वयं मुंचति भाग्यं च सगरस्य सुता इव ॥ १२१॥ __ अर्थ--अहंकारी मनुष्य निस्पृह मनुष्य के समान लोकको तृणवत् समझता है, उसकी करतूतोंसे वह स्वयं अपने भाग्यको खो देता है। जिस प्रकार सगर चक्रवर्तिके पुत्रोंकी हालत हुई ।। १२१ ॥ यत्रास्ते निस्पृहोऽसौ तृणमिव भुवनं बोधने यस्स गर्छ । धर्म देवं गुरुं च स्वजनपुरजनान्भूपमंहो न पुण्यम् ॥ कुप्या शप्यः स सद्यः फलति परिभवं सर्वमुर्वीश्वरायेस्त्यक्त्वा गर्व च तस्माद्भज भज मनुजत्वं धर्ममार्ग स्वभावात्॥ अर्थ-जिस जिसप्रकार कषायेंद्रियादिको वर्धन करनेवाले लोकको एक निस्पृहव्यक्ति तृणके समान समझता है उसी प्रकार गर्षीपुरुष Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार . २२३ भी स्वर्गापवर्ग सुखसाधनसमर्थ इस लोकको तृणके समान समझकर, उसः मानकषायके कारणसे रत्नत्रयात्मक, धर्म, निर्दोषदेव, गुरु, स्वजन, पुरजन, राजा, स्वयंका पाप, पुण्य, आदि किसीकी भी परवाह नहीं करता है, वह अनेक लोगोंका कोपभाजन बनता है, लोग उसे शाप देते हैं । राजा आदिकेद्वारा भी वह दण्डित होता है। इसलिए आत्मकल्याणको चाहनेवाले हे भव्य ! इस गर्वका परित्याग कर स्वभाषसे सद्धर्ममार्गका आश्रय करो । तभी तुम्हारा हित होसकता है ॥ १२२॥ मनरहित दान मनोऽन्तरेण यो दानं करोति स जडो जनः । भोगाशक्तो महाभाग्यः षढोऽन्धस्त्रीजनो यथा ॥ १२३ ।। अर्थ-मनकी भावनाके विना जो दान करता है वह सचमुचमें मनुष्य नहीं है, जड है। उसकी हालत महान् भाग्यशाली होनेपर भी भोगने में असमर्थ श्रीमंत समान व भोगने की इच्छा होनेपर भी नपुंसक स्त्रीके समान है ॥ १२३ ।। मनो विनैव कुरुते दानं पात्राय यः पुमान् । शिकास्नानमिवाभाति सुवर्णकलशो यथा ॥ १२४ ॥ अर्थ-मनकी भावनाके विना जो पात्रके लिए दान देता है वह दाता सुवर्णकलशके समान है, अर्थात् सुवर्णकलश होनेपर भी स्वतः सुवर्णकलशके लिए उसकी उपयोगिता नहीं है और वह जड ही है। एवं शिलास्नानके समान उस दाताका दान निरुपयोग है ॥ १२४ ॥ मन-वचनरहितदान यद्वचःकारितं दानं भाति तच्चटुकादिवत् । यथा तुलाहकः प्रस्थो मनसा वचसा विना ।। १२५ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दानशासनम् अर्थ-मन व वचनके विना केवल दूसरोंके कहने से काय से ही जो दान करता है वह दाता उस चमचेके समान है जो परोसे जानेवाले रसायनों के स्वादको नहीं जानता है । जिस प्रकार तोल, मापके सेर वगैरे तुलनेवाली चीजोंके मोल को नहीं जानते उसी प्रकार उस दाताकी हालत है ॥ १२५ ॥ उपरोधादुपालभाद्भासते कायदानिन: ॥ संक्लेशाः पशवो भारवाहाः केचिद्यथा तथा ॥१२६॥ अर्थ-दूसरों के अनुरोध से व दूसरे निंदा करेंगे इस भयसे, जो केवल काय से दान देते हैं वे सदा क्लेश को सहन करनेवाले, भारवहन करनेवाले बैल घोडे आदि पशुओंके समान हैं ॥ १२६ ॥ पात्रे शंपेव या भक्तिर्येषां दानं कृतं च तैः ।। राजयोग्यगना अश्वास्त एक स्युभवांतरे ॥ १२७ ।। अर्थ-पात्रोंके प्रति बिजली के समान क्षणिक भक्ति को रखकर जो दान देते हैं वे उत्तरभवमें राजाके लिए बैठने योग्य हाथी, घोडा आदि होकर उत्पन्न होते हैं ॥ १२७ ॥ भिन्नभावदत्तदान भिमभावःक्षणे भूत्वा दानेऽगेन कृते फलम् । स्त्रीभावे तुरजनौ भिन्ने यथान्यामसुतो भवेत् ॥१२८॥ अर्थ- यदि दान देते समय दाताने मनमें भिन्न भाव रखकर केवल कायसे दान दिया तो उसकी हालत ठीक उसी प्रकार होती है जिस. प्रकार कि पुत्रात्पत्ति के समयमें स्त्रीने यदि मनमें परपुरुष की भावना की तो वह पुत्र भी दूसरोंके समान ही होता है ॥ १२८ ॥ मनोवचोविना केचिद्भासते कायदानिनः। संक्लेशादोगजोऽश्वोंष्ट्राः केचिद्वारवहां यथा ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार त्रिकरणशुद्धिकी आवश्यकता चित्ते भाग्यसमिच्छवोपि चरितैर्यन्नाशयंत्युक्तिभिवृत्तः के मनसा वचोभिरिह के वाचैव हद्वर्त्तनैः । हृवृत्तैः कतिचिचोभिरपि के वाग्वर्तनश्चेतसा ॥ वाग्वृत्तर्मनसापि भाग्यमपि यत् पुण्यं सुपुण्येच्छवः॥१२९॥ अर्थ संसारमें प्रत्येक मनुष्य भाग्यकी अभिलाषा करते हैं। परंतु कोई मनमें भाग्यकी इच्छा करते हुए भी अपमे आचरणों से उस भाग्य को बिगाडते हैं । कोई अपने आचरणसे उसकी इछा करते हुए भी वचमोंसे उसकी बिगाड करते हैं। कोई वचनसे उसे चाहते हुए भी मनसे उस भाग्यको बिगाडते हैं। कोई हृदय व चारित्र इन दोनोंसे उसकी अपेक्षा करते हुए भी वचनसे उसको बिगाडते हैं । कोई वचनसे उसकी अपेक्षा करें तो भी मन व वर्तनसे उसकी बिगाड करते हैं। इसी प्रकार पुण्यकी अपेक्षा करनेवाले सज्जन पुण्यको चित्तसे चाहने पर भी अपने आचरणोंसे उसका तिरस्कार करते हैं । अर्थात पापमय वृत्तिको धारण करते हैं । कोई अपने आचरणसे पुण्यकी आकांक्षा करते हुए भी वचनसे उसका घात करते हैं। कोई वचनसे पुण्यकी अपेक्षा करें तो भी वे मनसे उस पुण्यकी हानि करते हैं । कोई मन व आचरणसे पुण्यकी अपेक्षा करते हुए भी वचनसे उस पुण्यको नाश करते हैं। कोई वचनसे उस पुण्यकी अपेक्षा करें तो भी मन व आचरण से उसको बिगाडते हैं । कोई वचन व आचरणसे उसकी अपेक्षा करते हुए भी मनसे उसको बिगाडते हैं। कोई मनसे उसकी अपेक्षा करते हुए भी वचन व आचरणसे उसका नाश करते हैं। और कोई मन, वचन व कायसे पुण्यका अर्जन करें तो वे मन, बचन व कायसे ही उसका नाश भी करते हैं। त्रिकरणशुद्धिसे विकल होकर जो भी पुण्यार्जन करें वह व्यर्थ है । बिकरणशुद्धिपूर्वक किए गए कार्योसे ही यथार्थ पुण्यबंध व उससे सौभाग्य प्राप्त होता है॥१२९ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ दानशासनम् . + त्रिकरणशुद्धिपूर्वकदत्तदान करणत्रयसंशुध्या कृतं दानं फलं भवेत् । तवैकल्यात्कृतं दानं विधवाप्रसवो यथा ॥ १३० ॥ . अर्थ-मन, वचन व काय इन तीनोंकी शुद्धिसे जो दान दिया जाता है वह सचमुचमें फलकारी होता है । उसकी विकलतासे दिया हुआ दान व्यर्थ है । वह विधवास्त्रीकी प्रसूतिके समान है ॥१३०॥ + त्रिकरणशुद्धिदत्तदानफलमन्यैरुक्तम् । सत्पात्रोपगतं दानं सुक्षेत्रगतबीजवत् । फलाय यद्यपि स्वल्पं तदनल्पाय कल्पते ॥१॥ न्यग्रोधस्य यथा बीजं स्तोकं सुक्षेत्रभूमिगं।। बहुविस्तीर्णतां याति तदान सुपात्रगम् ॥ २ ॥ सोधमोदिषु कल्पेषु भुंजते स्वेप्सितं सुखम्। . मानत्राः पात्रदानेन मनोवाक्कायशुद्धितः ॥३॥ ते तस्मादेत्य जायते चक्रिणो वार्द्धचक्रिणः । इक्ष्वाक्वादिषु गोडोषु पात्रदानभवा नराः ॥ ४ ॥ कलानां यावती वृद्धिरतावती कौमुदी विदुः । लोकस्यार्पयते त्याग सतामिव निदर्शयत् ॥ ५ ॥ संपदस्तीर्थकर्तृणां चक्रिणामर्द्धचक्रिणां । भजते दानिनं सर्वाः पयोधिमिव निम्नगाः ॥ ६॥ केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् । आहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् ॥ ७ ॥ तुरगशतसहस्रं गोकुलं भूमिदानं, कनकरजतपा मेदिनी सागरांता ॥ सुरयुवतिसमानं कोटिकन्यामदानं ॥ म भवति च समानं चान्नदानं प्रधानम् ॥ ८ ॥ कायस्थित्यर्थमाहारः कायो ज्ञानार्थमिप्यते । ज्ञानं कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं सुखम् ॥ ९ ॥ तद्भोजनं युन्मुनिभुत्त.शेषं स बुद्धिमान्योन करोति पापम् तसोहदं यत्क्रियते परोक्षे दर्चिना यः क्रियते स धर्मः॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २२७ दाता वेश्याके समान हो दत्वा द्रव्याय करणत्रयं प्रीतिं प्रकुर्वते । बारमुख्या यथा लोके संतः पुण्याय चाईते ॥ १३१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार लोकमें वेश्या स्त्री द्रव्यकेलिए अपने मन, वचन, व कायको अपने विटपुरुषको समर्पण कर प्रेम करती है, उसीप्रकार पुण्यार्जके लिए सज्जन दाता अपने त्रिकरणोंको पात्रको अर्पण कर भक्ति करें ॥ १३१॥ पात्रानुसार द्रव्यपरिणमन किंपाके विषतां सदा कटुकता कोलेऽपि माधुर्यता- । मिक्षावमलकुजेऽम्लतां लवणतामभोनिधौ तिक्ततां ॥ ऋर्षाणां भुक्तिशेषस्य भोजने स नरो भवेत् तुष्टिपुष्टिबलारोग्यदीर्घायुःश्रीसमन्वितः ॥ ११॥ सद्यः प्रीतिकरं दानं महापातकनाशनं । अन्नतोयसमं दानं न भूतं न भाविष्यति ॥ १२ ॥ पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि हान्नमापः सुभाषितं । । असुखे रत्नपाषाणे रत्नशब्दो निरर्थकः ॥ १३ ॥ भुक्तमसाक्षिकमफलं श्रुतमफलं दुर्विनीतस्य । कृपणस्य च धनमफलं यौवनमफलं दरिद्रस्य ॥ १४ ॥ बालेषु जीर्णातुरदुर्बलेषु भ्रष्टाधिकारेषु निराश्रयेषु । राजाभियुक्तेष्वपरायणेषु येषां कृपा नास्ति न ते मनुष्याः॥ योऽन्तस्तप्तपरव्यथाविघटनं जानात्यसौ पंडितः। संसारोत्तरण विवेकपटुता यस्यास्त्यसी पंडितः ॥ तत्त्वं शाश्वतनिर्मलं च सनयं जानात्यसौ पंडितः । शेषाः कामविडंबिता विषयिणः सर्वे जनाः खंडिताः ॥१६ यः सापात्रसुभुक्तिशेषममृतं भुंजीत तस्यानिशम् । तुष्टिः पुष्टिररोगतातिबलता दीर्घायुरहःक्षयः॥ संपरस्परिनता गुणरधिकता रत्नत्रयोज्जेंभता । स्यारसौख्यं शुभभावता निपुणता निर्माणसंपनमात्॥१७॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ दानशासनम् - - varanvvind w r in ...........-Nov-newsnrovinArrrr - ----------... तिक्तद्रौ च कषायके तुवरजां यद्यद्गुणे तद्गुणा- । नप्येकांधुजलं प्रयाति च यथा पानेषु दत्तं धनम् ॥१२२॥ अर्थ-जिसप्रकार एक ही कूएका मिष्टजल किंपाकवृक्षमें जाकर विषरूप, निंबके वृक्षमें कडुआ, ईखमें माधुर्य, इमलकि वृक्षमें खट्टा, समुद्रमें खारा, तीखे वृक्षमें तीखा, कषायले वृक्षों कषाय आदि जो जिसका जो गुण हो धारण कर लेता है। इसीप्रकार दाताके द्वारा दिये गये द्रव्य जैसा पात्र हो उस प्रकार के गुणोंको धारण करता है । इसलिए विवेकी दाताको चाहिये, कि वह पात्रभेदोंको अच्छीतरह जानकर दान देवें ॥ १३२ ॥ ग्रैष्मातीवसंतापायथा पद्माकरव्ययः । लोभोऽल्पोऽथ व्ययो भूरिदर्दानं कुर्यात्ततो बहुः ॥ १३३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गर्मीके दिनोमें सूर्यके उष्ण किरणोंसे सरोवर वगैरे सूख जाते हैं, उसीप्रकार सातिशय पुण्यके किरणोंसे लोभरूपी सरोवर सूख जाता है । इसलिए अधिक दान देकर पुण्यकी अर्जना करना चाहिये ॥ १३३ ॥ शूद्रानत्याग शुद्राग्नं कुलनाशकं बहुवदन्विप्रोऽधकृत्पुण्यहद्वेश्यावक्त्रमशेषलोकमणिकासास्वभांडोपमं । क्षेत्रग्रामजलाशयोपममिदं स्पृष्टं स्वाहम् नो सेव्यं यदि सेव्यसेवकजनो विषः कथं जायते ॥१३॥ अर्थ-संपूर्ण लोकको धर्माचरणमें स्थिर रहने के लिए उपदेश देनेवाला ब्राह्मण कभी शूदान्न, जल, तैल, घृत, नवनीतादिकका भक्षण न करें । वह कुलनाशक है । पापका संचय करनेवाला है, पुण्यको नष्ट करनेवाला है, वेश्याकं मुखके समान अपवित्र है, उच्छिष्ट पात्रके Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २२९ AAAA am.AAN AAAAAAAAN - - समान है, गामके पासमें रहनेवालं शौचोपयोगी जलाशयके समान है, उनके द्वारा स्पृष्ट गृह भी ब्राह्मणके लिए प्रवेश करने योग्य नहीं है । यदि उपर्युक्त बातोंका वह ब्राह्मण सेवन करे तो वह ब्राह्मण कैसे हो सकता है ? ॥ १३४ ॥ ब्राह्मण्यस्य लयं विचारयसि जीवाय क्षयं न्यग्गतिं । किं नांगाय धमाय संचरसि संस्थायां च संवर्तसे ॥ कि कर्मास्ति न तस्य नीचनृपतेः सेवां करोष्यस्ति किं । नाचं शूद्रगृहान्नभुक्तिरघदा पुण्याय किं योगिनाम् ॥१३५ अर्थ-सच्छूद्रके घरभे आहार लेनेसे ब्राह्मणत्वका नाश होता है और जीवको अक्षय नाचगतिकी प्राप्ति होती है, ऐसा समझना भूल है। हे द्विज ! तू नीच राजाकी सेवा करके शरीरपोषण करता है, धन कमाता है, ऐसे कर्म करनेसे अशुभ कर्म बंधनेसे क्या तुझे दुर्गतिकी प्राप्ति नहीं होगी ? अवश्य होगी । अतः सच्छूद्र का आहार लेने में दोष नहीं है । क्यों कि वे सच्छूद्र त्रिवर्णमेंसे ही उत्पन्न हैं। अतः आहारदान योग्य समझ कर मुनिजन उनके घरमें शुद्ध आहारको लेते हैं। और वह आहार लेनेवाले मुनिवर्यको और देनेवाले सच्छूद्र को पुण्यके लिए कारण होता है । पापकारण नहीं होता है ऐसा समझना चाहिए ॥ १३५ ॥ वित्रं दुर्गतिगामिनं बुधजना नीचं वंति ध्रुवम् । नीचं सद्गतिगामिनं द्विजवरं पुण्याधिकं भूमिपं ।। पापाचाररतं द्विजं परिहरन्त्यत्रैव तत्संगति । कर्मण्येव विनाशयंति मुनयः शूद्वैस्सुपुण्यार्थिभिः॥१३६॥ अर्थ-अनेक दुराचरणोंसे युक्त ब्राह्मणको बुद्धिमान् लोग नीच कहते हैं, वह इसी भवमें नीच होता है एवं आगेके भवमें भी नीच गतिको ही जाता है । इसी प्रकार सदाचरण, धर्माभ्यास आदिमें रत Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० दानशासनम् ऐसे शूद्रको लोग प्रशंसाकी दृष्टिसे देखते हैं । नहीं वह आगामी भवमें ब्राह्मण सातिशय पुण्य के धारक राजा होगा । पापाचरण मग्न ब्रह्मण को इसी भवमें गुरुजन, बंधुजन बहिष्कृत करते हैं जिससे उसे सत्संगति से वंचित होना पडता है । पुण्यकी अपेक्षा करनेवाले व्रतादि शुभ आचरण में मग्न सच्छूद्र मुनिगणोंको आहार देकर अपने कर्मों. को नष्ट करते हैं ॥ १३६ ॥ इतना 5 होगा 1 या - दिमा धर्मचितोऽधना नृपतयश्चोरा भवंति स्म ते । वैश्यास्तत्र वृषद्वयाय ददते वित्तानि यत्रासते ॥ शूद्रा दानपरा जिनोत्सवकरास्सद्धर्मधौरेयका- 1 स्तेषां सद्मसु झुंजतेऽत्र मुनयो निर्मुक्तवंशक्रमाः ॥ १३७ ॥ अर्थ- - कालके परिवर्तन से ब्राह्मण लोग दरिद्री होगये, क्षत्रिय दुष्टनिग्रह शिष्टपरिपालन के बजाय दूसरोंके धनको अन्याय से अपरण करने लगे, अतएव चोर बन गये । वैश्यजन जहां रहते हैं वहां अपने न्यायोपार्जित वित्तसे देव धर्म के लिए द्रव्य खर्च करते हैं, परंतु सच्छूद्र सदा दानतत्पर रहते हैं । अतएव उनके घरमें मुनिगण आहार लेते हैं ।। १३७ ॥ चातुर्वर्ण्यमहत्त्व. निधिदशरुद्रदिवाकर वर्णान्वितकनकसन्निभाश्वत्वारः || शूदोरव्यक्षत्रियविप्राः स्युजैिनमुनींद्ररक्षणयोग्याः ॥ १३८ ॥ अर्थ - नवनिधि, दश, एकादशरुद्र, वारह सूर्य इन वर्णोंसे युक्त सुवर्ण के समान तेजःपुंन रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व सच्छूद्र जिन मुनियोंकी रक्षा करने में समर्थ हैं | इतर नहीं ॥ १३८ ॥ यो विप्रः स सुहग्सुधीः सुचरितो ज्ञानी पुमान्ब्राह्मणः । संसारार्णववाद वोऽनुपहतस्त्रैरत्न संपत्तिमान् ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २३१ भूदेवः मुतपोऽन्वितोऽप्यघहरः स्यादग्रजन्मा तत-। बैलोक्याधिपपूजितांत्रिकमलो देवोऽद्वितीयोऽनघः ॥१३९॥ अर्थ-जो निर्दोष सम्यक्त्वको धारण करता है वह विप्र कहलाता है, और जो बुद्धिमान् सम्यक्त्वके साथ व्रताचरण भी करता है वह ब्राह्मण कहलाता है । जो संसाररूपी समुद्र के लिए वडवाग्निके समान है, निर्दोष रत्नत्रयको धारण करता है वह भूदेव है । उच्च तपोंको धारण करनेवाला जो पापोंको नाश करता है, आगेके जन्ममें वह तीनलोकके द्वारा पूजित चरणकमलवाला पूज्य देव ही होता है ॥१३९॥ स्वर्गच्युतोंका लक्षण निशंकता निर्भयतातिवाग्मिता । + निर्भगता वादिजनास्यमूकता ॥ संघे नतिः साधुपदेषु सेवना । रागो गुणेष्वेव दयोगिषूत्तमा ॥ १४० ॥ सत्संगो जिन पूजनं गुरुनतिर्दानप्रसंगःक्षमा। भूतिर्धार्मिकतर्पणं स्वजनसंपूजातिमेधामतिः ॥ आरोग्यं कविता वचो मधुरता स्वप्नेषु तथ्यं रमा-1 हाद लक्ष्म भवेत्कलानिपुणता स्वर्गच्युतानामिदम्॥१४१॥ अर्थ--शंकाराहित्य, निर्भयता, जनमनोहर भाषण, भंगरहितवृत्ति, पादिजनोंको मूक बनानेका सामर्थ्य, जनसंघमें विनय, साधुजनोंके चरण कमलोंकी सेवा, गुणोंमें अनुराग, प्राणियोंके प्रति दया, सत्संगति, जिनेंद्रकी पूजा, मातापिता गुरु आदिका विनय, दानविधानका श्रवण, क्षमा, संपतिप्राप्ति, धार्मिकजनोंका सत्कार, स्वजनोंका आदर, कुशाग्रबुद्धि, आरोग्य, कवितागुण, वचनका माधुर्य, स्वप्न + निर्भगता वादिजनोक्तिभंगिता इति पाठांतरम् ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् देखनपर फलकी निश्चिति, सातिशय संपत्ति, कलानैपुण्य आदि बातें जिन व्यक्तियो में पाई जाय वे स्वर्गसे च्युत होकर आये हैं ऐसा समझना चाहिये । अर्थात् स्वर्गच्युत जीवोंके ये लक्षण हैं । ॥ १४० ॥ १४१ ॥ * दातावोंका परिणाम दाक्षिण्यादपवादतः शकुनतो यंत्रात्सुमंत्रौषधाचाटूक्तः परिचर्यतोऽनुतपनान्मानादुदासीनतः । आलस्यादुपरोधवर्णनयशोदुष्पक्षपाताज्जनाः खेदात्मश्ननिमित्ततश्च ददत पात्राय दानानि ते ॥१४२॥ अर्थ- लोकमें अमेक प्रकारके दाता रहते हैं । परिणाम शुद्ध रखकर केवल पुण्यार्जन करने के लिए दान देनेवाले बहुत दुर्लभ हैं। कोई पात्रों के वचन उल्लंबन न कर सकने की लिहाजसे दान देते हैं । कोई दूसरोंके अपवाद के भयसे दान देते हैं, कोई शकुनके निमित्तसे तो कोई मंत्र यंत्राराधनाके निमित्त, कोई प्रियवचन के निमित्तसे, कोई सेवाको अपेक्षासे, कोई मानसे, कोई औदासीन्यभावसे, कोई आलस्यसे, कोई दूसरोंके दबावसे, कोई मिथ्यापक्षपातसे, कोई बडे दानियोंकी श्रेणीमें नाम लिखानेके लिए अर्थात् ख्यातिकी अपेक्षासे और कोई मनमें दुःखी होते हुए दान देते हैं । इस प्रकार अनेक प्रकारके अभिप्रायोंको रखकर दान देते हैं ॥ १४२ ॥ * अनुलोमो विनीतश्च दयादानरुचिम॒दुः । प्रहसो मध्यमो बस्स मानुष्यादागतो नरः॥ बह्वाशी नैव संतुष्टो मायावी च क्षुधाधिकः । म्वप्नमूढोऽलसश्चैव तिर्यग्योन्यागतो नरः ।। विरुद्धता बंधुजनेषु नित्यं सरोगता मूर्खजनेषु संगः || भतीव रोषः काका च वाणी नरस्य चिन्हं नरकागतस्य ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दामफलविचार २३३ तिष्ठत्यंहस्तरक्षौ प्रविशति हृदि किं धर्मगौस्तत्प्रविष्टे । तस्मिन्मृत्युभवेत्तस्य च बलवदघद्वीपिनो धर्मगाश्च ॥ हत्वा न त्वा दयंते किमिव निजसुतान्सर्वथा भक्षयति । ज्ञात्वा ते धर्मगावस्तदुपजनसमा वीक्ष्य धावंति दूरात् ॥१४३।। अर्थ-पापरूपी व्याघ्रके हृदयमें निवास करते हुए धर्मरूपी गाय उस स्थानमें प्रवेश कर सकती है ? कभी नहीं । यदि वह प्रवेश करे तो उसकी मृत्यु अवश्यमेव हो जायगी । गाय यदि व्याघ्रोंकी गुफामें प्रवेश करें तो क्या वे उस गायको न खाकर अपने बच्चोंके समान संरक्षण करते हैं ? कभी नहीं । वे खायेंगे ही, इस बातको जानकर वे गाय उन व्याघ्रोंकी गुफाओंको देखकर दूरसे जिस प्रकार भागती हैं उसी प्रकार पापी हृदयको देखकर धर्मरूपी गाय दूरसे ही भागती हैं ॥ १४३ ॥ द्वारं संश्रित्य दातुः प्रतिदिनयमलाः स्वस्थिति संविहाय । ग्लानास्याः कुंचितांगा विकृततनुवचोगद्गदध्वानकंठाः ॥ दीनोक्तीः संवदंतः कुलिशनिनदवचंडवाचो निशम्य । व्योमात्मानो भवन्नः प्रतिफलितफलाः कुर्वते किं किमाशाः॥ अर्थ-कोई कोई याचकजन दातावोंके घरके पास पहुंच कर अनेक प्रकारसे याचना करते हैं। उस समय अपने मुखको ग्लान कर, शरीरको सिकुडाकर, अपने वचनमें दीनता व्यक्त करते हुर, गद्गदकंठसे तोतले शब्दोंसे याचना करते हैं । दाताने यदि मेघगर्जना के समान क्रोधभरे वचनोंसे फटकारा तो भी सुन लेते हैं । आशा बडी बुरी चीज है, उससे मनुष्य क्या क्या नहीं करता है ॥१४४ ॥ . याचकत्व महाकष्ट है कष्टं देहि ददामि दातृवचनं कष्टं न कष्टं ददे । ___कष्टं याचितुराशये बहुतरः क्रोधाग्निरुज्जम्मत। . . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ दानशासनम् स्निग्धामत्र शिखीव दातृहृदये नीतिस्त्वमोघेत्यहो (१) ोकेनैकपुरं क्षयेन कुरुते पापस्य किं किं फलम् ॥१४५॥ अर्थ-लोकमें दूसरों के पास जाकर "देहि" ऐसा कहना कष्ट है । देता हूं यह कहना भी कष्ट है, नहीं देता हूं कहना भी कष्ट है। दाता यदि देने के लिए संकोच करें तो याचक अनेक प्रकारके आशयोंको प्रकट करते हुए याचना करता है, तब दाताकी क्रोधाग्नि बढती है । जिस प्रकार अग्निपर तेल पडनेपर वह प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार दाताका कोध बढता है । एक ही व्यक्तिसे एक नगर नष्ट होता है, इस प्रकारकी कहावत है वह सत्य है, पापका फल क्या क्या नहीं होता है ? ॥ १४५ ! पूर्णे पूरितमानसे, स्थितधृतिश्री हीयशोबुद्धयो । देव्यः पंच वसंति यस्य स नरो दतिव नो याचिता ।। शुष्कं तच्च यदाभवद्यदि तदा नियोति ता देहि वा-। ग्द्वारेऽरुंधति दातरीह कुटवत्पापं शिखी स्यात्तयोः॥१४६॥ अर्थ-जिसप्रकार मानससरोवरमें श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि इस प्रकार पांच देवियों का निवास है, उसी प्रकार दाताके मनरूपी मानससरोवरमें धृति (धैर्य ) श्री ( संपत्ति ) ही ( लज्जा ) यश ( कीर्ति ) बुद्धि (ज्ञान ) नामक पांच देवियां निवास करती हैं । वह दाता हमेशा दाता ही बना रहता है, याचक नहीं रहता है। जब वह मानस सरोवर किसी कारणसे शुष्क होजाता है तो वे देवियां निकलजाती हैं, इसी प्रकार दाताके हृदयमें दानबुद्धि न रहे तो उपर्युक्त पंत्र देवियां भी निकल जाती हैं। यदि उस समय दात ने उनको रोकनेका प्रयत्न नहीं किया तो अग्नि जिस प्रकार मकानको जलाती है इस प्रकार दाता व पात्रको पापरूपी अग्नि जलाती है। सारांश यह है कि दाताको सदा अपने हृदयमें धृति आदि गुणोंको धारण करना चाहिये ॥४६॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २३५ दान मौमसे देवें के कुप्यंति शपंति वैरमनिशं कुर्वति चास्यालयम् । प्लोषामः प्रभुणापि मंदिरमिदं निर्णाशयामःश्रियम् ॥ केनोपायशतेन के वयमिमं मार्गे कषासस्ततो ॥ नोक्त्वा मा वद मा मनोगतधनं मौनेन देयं सदा ॥१४७॥ अर्थ-दुनियामें दान देन के वचनको देकर फिर उस वचनका भंग करना यह महान् कठिन कार्य है। उस व्यक्तिका कोई विश्वास नहीं करते हैं। कोई उसके प्रति क्रोधित होते हैं, कोई गाली देते हैं, कोई सदा उसके साथ वैर बांधते हैं, कोई उसके घर को जलानेकी बात कहते हैं, कोई स्वामीके द्वारा उसके घरको नष्ट करानेकी बात कहते हैं। इतना ही क्यों ? हजारों उपायोंसे उस व्यक्तिको कष्ट देनेके लिए प्रयत्न करते हैं। इसलिए दान देनेके धन को एकदम अविचारित होकर नहीं बोलना चाहिये । बोलने के बाद नकार नहीं करना चाहिये । बुद्धिमान् दाताको उचित है कि वह जो कुछ भी दान देना चाहें मौनसे ही देवें ॥ १४७ ।। दानरहितसंपत्तिकी निरर्थकता पुण्यपुत्ररहितस्य जीवितं, ज्ञानदृष्टिरहितस्य संयमाः। दानमानरहितस्य संपदोऽरण्यपुष्पमिव निष्फलाः स्युराः॥ अर्थ-पुण्यवान्, धर्मात्मापुत्रसे रहित मनुष्यजीवन, ज्ञानदृष्टि अर्थात् विवेकसे रहित संयम और दान व सन्मानसे रहित संपत्ति, ये सब अरण्यपुष्पके समान व्यर्थ हैं । हा! मनुष्य विवेकसे काम नहीं लेता है, और अपनी संपत्तिका योग्य स्थानमें उपयोग नहीं करता है ! आश्चर्य है ! ॥ १४८ ॥ * बतित्वमप्रमादित्वं सदयस्वं सुतृप्तता । अनक्षेच्छानुवर्तित्वं संतः प्राहुस्सुसंयमं ॥ . . Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ दानशासनम् मानवीयमनोवृत्ति देहसुखान्यनुभवितु स्वीकृतद्ग्रंथपवितुमर्थमशेषं । दातुं ताम्यति नेषत्स्वागो दण्डाय परिणयाय निजादेः॥१४९॥ ऋणानुबंधात्परवित्तभुक्तिबलागतग्रंथसुरक्षणाय । व्ययत्यजस्रं सकलं धनं च क्लिश्नाति पुण्याय जडो जनोऽयम् ॥ अर्थ- अज्ञानी मनुष्योंकी मनोवृत्ति इस प्रकार रहती है कि वे अपने देहसुखको अनुभव करनेके लिए, अपने पासमें स्थित स्त्री, पुत्र, घर, वाहन आदि परिग्रहोंके संरक्षणके लिए चाहे जितना धन खर्च करते हैं, उनको उसमें जरा भी दुःख नहीं होता है, अपने लिए किसी अपराधमें दण्ड हुआ तो लाखों रुपये देनेके लिए तैयार रहते हैं। अपने व अपने पुत्रोंके विवाहमें लाखों रूपये फूंक देते हैं। ऋणानुबंधसे दूसरोंके द्रव्य आनेपर भी उसे बलात्कारसे प्राप्त परिग्रहों के संरक्षणकेलिए ही लगाते हैं । इस प्रकार संसारवृद्धि के कार्यमें व्यय करते हुए उनको जरा भी खेद नहीं होता । अपितु धर्मकार्यके लिए, पुण्यार्जनके लिए, दान देना पडे तो बडा दुःख होता है। ॥ १४९ ॥ १५० ॥ दूसरोंको कर्ज देनेवाला. यावत्पत्रं वसति निळये यस्य तस्याधमणस्तावत्पुनाः वृषहयखराभृत्यदासीः स्त्रियःस्युः ॥ तस्मिन्मिन्ने सपदि मरणं यांति ते मृत्युकाले । पत्रं दद्यात्सुकृतिपुरुषस्तानि पत्राणि भिंद्यात् ॥ १५१ ॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंको कर्ज देता है, उस कर्ज लेनेवालेसे जो पत्र वगैरे लिखालेता है, वह पत्र जबतक अपने घरपर मौजूद हो तब अपमेलिए पुत्र, कलत्र, दासी, दास, बैल घोडा, आदि हरतरहकी Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २३७ समृद्धि होती है । अर्थात् वह आनंदसे रहता है। परंतु जब वह पत्र फट जाय या छिन्न भिन्न होजाय तो उसका मरण ही होजाता है । कर्ज लेनेवाला पुरुष मरण सन्मुख हो तो धर्मात्मा सज्जन उसे उस ऋण पत्रको वापिस देवें, नहीं तो फाड डालें ॥ १५१ ॥ परापहरणफल । येऽर्थान्यस्य हरंति तस्य सकला ग्रंथा भवे याग्रिमे । भृत्यास्तस्यु ऋणागता निभृतयः सेवारसदा कुर्वते ॥ सत्पुण्यागतजंतवः सुकृतिनां पूतं वृषं स्वं कुलम् । रक्षतीदृशभेदवेदि विबुधोऽन्यार्थ त्रिधा वर्जयेत् ॥१५२॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंके धनको अपहरण करते हैं वे इस भवमें या अग्रिम भवमें उस धनके स्वामीके यहां भृत्य होकर पैदा होते हैं, चेतन परिग्रह होकर उत्पन्न होते हैं। उनको तबतक उनकी सेवा करनी पडती है जबतक कि वे ऋणमुक्त हो जाय। पूर्वजन्मके पुण्यसे संपत्तिको पाकर जो उत्पन्न होते हैं वे अपनी संपत्तिसे सज्जनोंकी, अपने पवित्र कुलकी ब धर्मकी रक्षा करते हैं। इस प्रकार पुण्य व पापोंके विभागको समझकर विवेकी पुरुष परधन अपहरण करने के कार्यको मन, वचन व कायसे वर्जन करें ॥ १५२ ॥ नीचव्यवहारत्याग नीचस्यार्थ न गृह्णीयाद्यान्नीचाय नोत्तमः । गृह्णीयान्यग्धनं नीच उत्तमस्यार्थमुत्तमः ॥ १५३ ॥ अर्थ-चांडालादि नीचोंको उत्तम पुरुष कर्ज न देखें एवं उन नीचोंसे कर्ज लेवें भी नहीं। वे चांडालादि अपने समान जातियोंसे ही इस प्रकारका व्यवहार करें, एवं उत्तम पुरुष उत्तम जातिके लोगोंसे ही व्यवहार करें ॥ १५३ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ दानशासनम् ऋणनीति तीव्र गदेऽधमर्णस्य पत्रं भित्वा ददत्तुजा । गृह्णीयाल्लिखितं साधु सर्वनाशो विपर्ययात् ॥ १५४ ॥ अर्थ-जिसने कर्ज लिया है वह मनुष्य तीत्र व असाव्य रोगसे पीडित हो तो उसके ऋणपत्रको फाडकर उसके पुत्रसे दूसरा पत्र लिखा लेना चाहिये । ऐसा न करें तो सर्व नाश होता है ॥ १५४ ॥ ऋणदोष श्रुत्वोत्तमर्णवचनं मनुजस्तरक्षोः श्रुण्वन्ध्वनि मृग इवाविरतं स्खलद्वाक् । मूर्छन्ससन्निपतनोत्थितलक्षणः स्या द्विान्विमुक्तपरवस्तुरिहापि पूज्यः ॥ १५५ ॥ अर्थ-जिसने किसीसे कर्ज लिया हो तो कर्ज देनेवालेके वचन को सुनकर वह भयभीत होता है, जिस प्रकार कि व्याघ्रकी ध्वनिको सुनकर हरिण भयभीत होता है, उसी प्रकार वह भी भयभीत होता है । उसके सामने बोलते समय स्खलित वाणीसे बोलता है। मूछित होता है, विशेष क्या ? सन्निपात ज्वरीके लक्षण ही प्रकट होते हैं । ऐसी अवस्थामें दूसरोंसे कर्जा लेनेका जो त्याग करता है वही सचमुचमें विद्वान् है और पूज्य है ॥ १५५ ॥ मायाचारदोष. यत्रास्ति वंचना तस्य न रत्नायार्थलाभता । विश्वसंति न सर्वे तं, पापवृद्धिः परा भवेत् ॥ १५६ ॥ अर्थ--जिसके हृदयमें मायाचार या वंचकत्वभाव मौजूद है उसे कभी रत्नत्रय, पुण्य व अर्थलाभ नहीं होसकता है। उसे दुनिया कोई भी विश्वास नहीं करते । और उसके पापकी वृद्धि होती जाती है ॥ १५६ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २३९ - - दरिद्र स्मृत्वा चेतसि गोपतिः क्षुदितवान् संपन्नसस्यां घरां। गत्वा तत्र विचारयनिव सदा वर्तेत योऽतीवके ।। ग्रंथो दुःखकरो भवन्न मदनं नास्य व्ययायागमत् । कश्चिन्नो ऋणदोऽधमर्ण इह चान्यार्थान्हरेयुर्मिषात्॥१५७॥ अर्थ-जिसप्रकार भूखसे पीडित बैल किसी सस्यसंपन्न खेतको स्मरणकर जाता है व उस खेतको खा डालता है एवं सदा इसी प्रकारके विचार में रहता है कि मुझे और कहां खेत मिलेगा। इसी प्रकार दुःखकर परिग्रहोंको एकत्रित करनेवाला एवं उसके संरक्षण व व्ययकेलिए धन जिसके पास नहीं है ऐसा दरिद्र सदा अनेक प्रकारकी बहाना बाजीकर दूसरों के द्रव्यको अपहरण करता है ॥ १५७ ॥ विभावभावसे युक्त युवती श्रुत्वा पात्रमिहागतं च तरुणी पत्युर्वचस्तत्क्षणात् । स्फूर्जती खलु वज्रवत् प्रसविनीव्याधीव सा स्फोटिनी ।। घुष्टा शूलवतीव पातितधनेवादिनी तन्मुखं । राहुग्रस्तरवींदुर्विवमिव निस्तेजोकरं निष्पभम् ॥ १५८॥ अर्थ-घरमें यदि क्रूर परिणामसे युक्त पत्नी हो तो वह पतिके द्वारा पात्रके प्रतिग्रहणके वचनको सुनकर एकदम क्रोधित होती है, . बिजलीके समान गर्जती है, प्रसविनी शेरनीके समान स्फोटन करती है, शूलवतीके समान शब्द करती है। अपने धनके खोए हुए के समान रोती है, विशेष क्या ? उसका मुख राहुग्रस्त चंद्र व सूर्यबिंबके समान निस्तेज हो जाता है ॥ १५८ ॥ धर्मविध्वंसिनी स्त्री रक्ताक्षी कुपितानना हतशिरा या विक्षिपती हठात् । पुत्राद्यर्थचयं नदरपदयुगा पात्रं शपंती कुधा ।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० निशासनम् साऽस्य स्यान्मृतिरद्य तस्य सुकृतं निर्मूलयंती वधूः । ज्येष्ठा दुर्गतिदायिनी गुणहरी सद्धर्मविध्वंसिनी ॥ १५९ ॥ अर्थ - इसी प्रकार और एक प्रकारकी स्त्री पात्रके आगमनको सुनकर आंखे लाल करलेती है, क्रोधसे मुखको फुला लेती है, शिर पीट लेती है, जबर्दस्ती बच्चे व बरतन वगैरेको इधर उधर फेंकने लगती है, चलते समय नाचनेके समान पैरके शब्द जोर-जोर से करती हुई चलती है, इतना ही क्यों अनंतानुबंधी क्रोध के उदयसे उन मुनिराजों को खूब गालियां देती है । वह स्त्री सचमुच में स्त्री नहीं, पतिकें लिए मृत्यु के समान है, वह आज पतिके संपूर्ण पुण्यको नष्ट करती है, ज्येष्ठा है, दुर्गति प्रदान करनेवाली है, समस्त गुणोंको नाश करनेवाली है एवं सद्धर्मको बिध्वंस करनेवाली है ।। १५९ ॥ न क्षीरं दधि नो न तक्रममलो ना तंडुलो नो घृतं । नो शाकं द्विद्वलं न तैललवणं नो नोषणं धनम् ॥ भांडं नाभिनवं गृहं न शुचि न स्नाताहमन्या न मे । सामयं च विना करोमि गुरवे पाकप्रयत्नं कथम् ॥ १६०॥ अर्थ – कोई कोई स्त्रियां आहार दान देनेकी इच्छा न हो तो बहानाबाजी करती हैं । घरमें दूध नहीं, दही नहीं, छाछ नहीं, अच्छे चात्रल नहीं, घी नहीं, शाकभाजी नहीं, दाल वगैरे नहीं, तेल नहीं, नमक नहीं, मिर्च नहीं, लकडी नहीं, नवीन बरतन नहीं, घर भी साफ सुथरा नहीं, मैंने भी स्नान नहीं किया, मुझे मदत करनेवाली दूसरी कोई नहीं, इसके अलावा मुझे योग्य सामग्री भी नहीं है । ऐसी अवस्था में मैं पात्रों को आहारदान किस प्रकार करूं । इत्यादि प्रकार से कहती है ॥ १६० ॥ बहानाबाजीका प्रकार मद्भर्ता च सुतः पुरे न नपरो न द्रव्यमेकं गृहे । वित्तं मे नः करे पुरेऽत्र ऋणदो नैकोत्र यात्रागते । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनफलविचार २४१ एका साश्रुरहं वचस्यघवती मायाविनी चिंतिता। गेहं शून्यमिदं वपुः स्वहृदयं क्लिश्नाति लुब्धांगना ॥१६१॥ - अर्थ-और कोई स्त्री इस प्रकार बहाना करती है कि मेरे पति गाम में नहीं हैं, पुत्र भी नहीं है, मेरे लिए सहायता करनेवाले दूसरे कोई भी नहीं है, घरमें कुछ भी सामान नहीं है, मेरे हाथमें पैसा नहीं, यहां कोई उधार देनेवाला भी नहीं है, पात्रके आनेपर यहांपर कोई नहीं है, हा ! मेरा दुर्दैव ! इस प्रकार कहती हुई मायाचारसे लोभी स्त्री अपने हृदय में संक्लेश परिणामको करती हुई रोती है। उसका हृदय व शरीर सब कुछ शून्य है ॥ १६१ ॥ पात्रानादरफल गृहागतं च यत्पात्रं यस्तिरस्कुरुते यदा । आजन्मत्रितयं तेन दुःखमेवानुभूयते ॥ १६२ ॥ अर्थ-घरपर आये हुए पात्रका जो तिरस्कार करता है, वह तीन जन्मतक तीव्र दुःखका अनुभव करता है ॥ १६२ ॥ गर्भिणी अनादर करें तो गृहागतं पात्रमवेक्ष्य गर्भिणी । नाद्य स्ववारो घटते न निष्ठुरात् ॥ तस्मिन्गते स्यात्स सुतो दिवन्पना । जन्यत्रये दुःखमिहानुभूयते ॥ १६३ ॥ अर्थ-घरपर आये हुए पात्रको देखकर गर्भिणीको हर्ष. होना चाहिये । उसे विचार करना चाहिये कि मेरे व गर्भस्थ बालकके शुभचिह्नके रूपमें ये मुनिराज आये हैं। ऐसा न कर जो गर्भिणी उन ऋषियोंका तिरस्कार करती है, उसका बालक असंज्ञी, अंधा, पांगला, बहरा आदि होकर उत्पन्न होता है । वह स्वतः तीन जन्मसक दुःख अमुभर करती है ॥ १६३॥ . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् अर्ध-अन्नदान सव्यार्धानदात्री या पात्रेभ्यः सा तु निर्धना । इहालाभा व्याधिता वा क्लिष्टचित्ता परत्र च ॥ १६४ ॥ अर्थ-घरमें भरपूर आहारद्रव्य व धनके होते हुए भी जो स्त्री साधुओंको अर्ध पेट ही आहार खिलाकर भेजती है, वह इस भवमें ही दरिद्री हो जाती है, उसको प्राप्त होनेवाले लाभ नहीं मिलते । अनेक प्रकार के रोगोंसे पीडित होती है, परभवमें भी अनेक दुःखोंको भोगती है ॥ १६४ ॥ क्रोधदत्ताहार स्वकीयचंधून्परितर्य वाग्भिः पात्रस्य तृप्तिं च न कुर्वते ये । क्लिष्टाशयाःस्यु सततं दरिद्राः क्रोधेन काचिन्नरकं प्रयाता ॥ अर्थ-अपने बंधुवोंको उत्तम वचन व आहारादिकसे, एवं साधुवोंको मृदुवचन व आहारोंसे जो तृप्त नहीं करते हैं वे हमेशा दुःखी व दरिद्री ही रहते हैं । क्रोधसे किये हुए किसी भी कार्यका फल अच्छा नहीं हुआ करता है, पात्रके प्रति क्रोध करनेसे एक स्त्री नरकको गई है ॥ १६५ ॥ क्रोधेनोपकृतं च कार्यमखिलं व्यर्थ यथा जायते । क्षेत्रे भृष्समुप्तवीजनिकरः संपद्यते नो यथा ॥ जैनद्वेषकृतं च दानमपि सक्ष्वेडा यथा शर्करा ॥ कारुण्याईमनःकृतं च सकलं सार्थ भवेच्छाश्वतम् ॥१६६॥ अर्थ-हे भव्य ! जिसरकार जलेहुए बीजको खेतमे बोनेसे उसका कोई उपयोग नहीं हुआ करता है, उसी प्रकार क्रोधसे यदि पात्रके लिये उपकार किया जाय तो वह सर्व व्यर्थ होता है, जिसप्रकार शक्कर में विष मिलाकर खिलाया जाय तो वह प्राणको हरण करता है Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दामफलविचार २४३ - इसीप्रकार द्वेषसे दिया हुआ दान सफल नहीं होसकता है । करुणासे आई हुए मनसे किये हुए सर्वकार्य सफल व शाश्वत होते हैं ॥१६६॥ पंक्तिभेदकृतफल. पंक्तिभेदे कृते येन बहग्निझुक्तिवर्जितः । भस्मकन्याधिवान्स स्यादन्हिवत्सर्वभक्षकः ॥ १६७ ॥ अर्थ-यदि दाताने पात्रोमें अमुकपात्र मेग उपकारी है, अमुक उपकारी नहीं है इत्यादि प्रकार के विचारसे पंक्तिभेद अर्थात् आहार द्रव्यके देनेमें भेद किया तो उसके फलसे वे दंपति भस्मक रोगसे पीडितके समान तीव्र अग्निके रहते हुए भोजन रहित होते हैं । अग्निके समान भक्ष्याभक्ष्य सर्व पदार्थोका भक्षण करते हैं ॥१६॥ ये स्वस्वामिन्युदासीनास्त्रिकालविभवच्युताः । तथा देवे गुरौ ते स्युत्रिकालसुकृतच्युताः ॥ १६८॥ अर्थ-जो सज्जन अपने स्वामीकी सेवामें उदासीनता को धारण करते हैं वे त्रिकालमें भी संपत्तिको पा नहीं सकते । इसीप्रकार जो सज्जन देव व गुरुकी सेवामें उदासीनताको धारण करते हैं, वे त्रिकालमें पुण्यार्जनकार्यमें च्युत होते हैं ॥ १६८ ॥ उपकारियों का प्रकार कार्पासबीजान्यास्वाद्य दत्त क्षीरं यथा पशुः । ग्रहाः के फलमादाय धर्मकार्य च कुर्वते ॥ १६९ ॥ अर्थ-जिसप्रकार कार्पास बीजको ग्रहण कर गाय भैंस वगैरे दूध देती हैं, एवं जिसप्रकार दूसरोंको कष्ट देनेवाले भूतपिशाच फलादिक प्रहणकर संतुष्ट होते हैं, इसप्रकार कोई २ संसारमें उपकारी होते हैं ॥ १६९ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ दानशासनम् - दत्वानाणि रत्नानि गृह्णन्काचांस्तुषं यथा। धर्मकार्याणि कुर्वति धर्मबुद्धया न कुर्वते ॥ १७० ॥ अर्थ-जिसप्रकार कोई सज्जन उत्तमोत्तम रस्नोंको देकर बदले में कांचके टुकडोंको लेते हैं, इसी प्रकार कोई सजन धर्मकार्योको तो करते हैं परंतु उसे धर्मबुद्धिसे न करके केवल ख्यातिलाभ पूजाके लिए करते हैं ॥ १७० ॥ वंचित्वात्मपति जारान्यस्योपकुरुते यथा। तथात्मपात्रं वंचित्वैवान्येभ्यो ददतेऽत्र के ॥ १७१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री अपने पतिको ठग करके अन्य पुरुषको उपकार करती है, उसी प्रकार कोई २ सजन अपने उत्तम पात्रोंको आहारदान न देकर दूसरोंको दे देते हैं ॥ १७१ ॥ दाताओंका प्रकार केचित्कुर्वति दानं पशव इव जनस्संयता दुर्मनस्काः । केचिन्नित्यं च भृत्यैरिव कृषिकजनाबाधिता दुर्मनस्काः ॥ स्वामिप्रेष्याश्च केचिद्युवतय इव संकुप्यमानामनस्काः । केचित्कुर्वति दानं धृतभृतिमनुजा ये यथा तेऽत्र वप्रे॥१७२॥ अर्थ-कोई मनुष्योंके द्वारा बंधे हुए पशुवोंके समान मनके विचारको रखते हुए दान करते हैं । कोई नौकरोंके द्वारा बाधित कृषिकके समान हृदय रखते हुए दान करते हैं। कोई २ स्वामीके द्वारा कुपित स्त्रीके हृदयके समान विचार रखते हुए दान देते हैं। एवं कोई वेतनभोगी मौकरोंके समान दान देते हैं। इस प्रकार दान देते समय भिन्न २ प्रकारके परिणाम रहते हैं ॥ १७२ ।। केचित्पात्रमवेक्ष्य चाटुवचनैः संतर्य यांत्यधिनः । केचित्पात्रमवेक्ष्य सद्मनि चिरं भीता इवात्रासते ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २४५ केचित्तद्वचनं वदंतममलं निर्भर्सयंत्यद्भुतम् । उक्त्वा दैन्यवचोऽपि तेन कतिचित्कस्यालये ब्रूहि भो ॥१७३॥ अर्थ-कोई धनिक सज्जन पात्रोंको देखकर उनके साथ मीठी २ बातें बनाकर चलते बनते हैं। कोई उन पात्रोंको देखकर कर्ज दिये हुए साहुकारके आने के समान भयभीत होकर घरमें बैठ जाते हैं। कोई निर्मल वचनको बोलनेवाले पात्रकी निर्भर्सना करते हैं। कोई दानी पात्रागमनकी सूचना देनेवाले सज्जनसे दीनताके साथ बोलते हुए पात्रको किसी घरमें लेजानेके लिए कहते हैं ॥ १७३ ॥ एकोऽहमस्यां पुरि किंच नान्ये द्वाराग्रगेई द्रुतमेषि दृष्ट्वा । कुप्यंतमेतं विबुधा वदंति मन्येऽधदोऽयं समयोऽहमन्ये ॥ १७४ ॥ अर्थ-कोई दानी अपने घरके दरवाजे पर खडे होकर पात्रोंके आगमनको देखता है। यदि पात्र दूसरोंके घरको छोडकर अपने घरकी ओर आवे तो उस पात्रकी सूचना देनेवालेके प्रति वह क्रोधित होकर कहता है कि " क्या इस नगरमें मैं अकेला हूं, दूसरे कोई नहीं हैं । क्यों दूसरेके घरको छोडकर मेरे धरकी ओर ही आते हो"। इस प्रकार उसके प्रति क्रोधित होनेवाले दाताके लिए वह पापार्जन का समय है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । हम भी कहते हैं ॥ १७४ ॥ केचित्सत्पुरुषा द्विषंति कुपितान् कुप्पंत्ति शप्यंत्यलं । केचिदुःपुरुषान्नमति ददते शंसंति वित्तं स्वयम् ॥ पुण्याः पुण्यकरा भवंति दुरघाः पापातुरा विश्रुता । जीवतोऽप्यगदं पिति विषमिच्छतो मृति ये यथा॥१७५॥ अर्थ- कोई सत्पुरुषों के प्रति द्वेष करते हैं, उनके प्रति क्रुद्ध होते Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ दानशासनम् - - हैं, उनको अमेक प्रकारसे + गालियां देते हैं, कोई दुष्टपुरुषोंको नमस्कार करते हैं, एवं उनकी प्रशंसा करते हुए स्वयं उनको धन देते हैं । लोकमें दो प्रकारके मनुष्य होते हैं । एक तो सदा पुण्यका अर्जन करते हैं । पुण्यमय कार्योको करते हैं । पापकार्योसे उपेक्षा करते हैं । कोई सदा पापक्रिया करते हुए पापार्जन ही करते हैं । जिस प्रकार जीने की इच्छा रखनेवाले औषधको व मरने की इच्छा रखनेवाले विषको पीते हैं, इसी प्रकार लोकमें पुण्यार्जन व पापार्जन करते हैं ॥ १७५ ॥ मिथ्यादृष्टियोंको दानदेनका फल मिथ्याशे ये ददतेऽथ दानं शुद्धाश्च जैनाः सुदृशोऽपि तेषां । यक्षा हरंति श्रियमर्थमन्ये दृग्बोधवृत्तानि लयं प्रयोति ॥१७६॥ अर्थ-शुद्धसम्यग्दृष्टि जैन दाता मिथ्यादृष्टियोंको पुण्यार्जनके निमित्त यदि दान देते हों तो उनकी संपत्ति आदिको यक्ष अपहरण करते हैं एवं दूसरे भी उनके द्रव्यको अपहरण करते हैं । उनके रत्नत्रय भी नष्ट होते हैं ॥ १७६॥ स्वस्वाम्यरिभटेभ्योऽर्थ यो दत्ते स्वामिना स च । हतो बद्धो दण्डितो वा, स्वामिद्रोहीत्युशंति तम् ॥१७७॥ अर्थ--जो व्यक्ति अपने स्वामीके शत्रुवोंको धनादिक देकर मदत करता है वह उसके स्वामीके द्वारा मारा जाता है, बद्ध होता है, एवं लोकमें उसे स्वामिद्रोही कहते हैं । इसी प्रकार जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टियोंको धनादिक देकर मदत करता है वह आत्मद्रोह करता है ॥१७७॥ भयप्रदत्त-दान देहि देहि न मुंचेऽहं वदतां दानिनो जनाः । बाळरुग्बलिदातार इह भांति महीतले ॥ १७८ ॥ + शपनं जीवितं हंति ज्ञानं पुण्यं श्रियं धियं । करोति मूकतां मांद्यं नीचर्गोत्रं च दुर्गतिम् ।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २४७ RAVNA~~ ~~~~ ~~VVVVNA अर्थ-कोई वाचक आकर किसी दातासे यह कहें कि मुझे दीजिये, दीजिये, मैं छोड नहीं सकता। उस हालत में उसको दान देनेवाला दाता ठीक उसी प्रकारका है जैसा कोई अपने बालक के रोगशमनके लिए बलि देता हो ॥ १७८ ।। __व्याघ्ररूपदाता चण्डोऽपवादभीतो यो वाचि क्रुध्यति चेतसि ! बाधां न कुरुते भाति पंजरस्थतरक्षुवत् ॥ १७९ ।। ‘अर्थ--जो दाता याचकोंके प्रति मन व वचनमें अत्यंत क्रुद होता है, परंतु अपबादके भयसे कोई बाधा नहीं पहुंचाता वह पंजरमें बद्ध व्याघ्रके समान है ॥ १७१ ॥ तरण्डमापूरितसर्वलोकं । नदीतटं तारयिताऽमनस्कः ॥ तदंतरस्थानपि सर्वलोकान् । शपन्कुप्यभिव दातृलोकः ॥१८०॥ ___ अर्थ-जहाजमें भरे हुए लोगोंको दयासे समुद्र या नदीके किनारे पर न पहुंचाकर उनके प्रति क्रोधित होते हुए अनेक प्रकारसे गाली देनेवाला जो नाविक रहता है, उसके समान कोई दाता रहते हैं । आये हुए पात्रोंको दयाभावसे उचित दान देकर भेजने के वजाय उनके प्रति क्रोधित होकर उनके साथ गालीगलौजका व्यवहार करते हैं यह . बडे दुःखकी बात है ॥ १८० ॥ .. व्याजेनान्यार्थमाहत्य पुण्याय ददते नृणाम् । तैलकर्पूरमिश्रायाः केचिन्निणेजका इव ॥ १८१ ।। अर्थ-जो लोग दूसरोंके धनको किसी बहानेसे अपहरण कर धर्मकार्यके लिए देते हैं, उनका पुण्य तेल कपूर के मिश्रके समान है उनकी वृत्ति धोबीके समान है ॥ १८१ ।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ दानशासनम् असेव्यानि सजंतूनि फलानि ददते बहु । यथा क्षीरिद्रुमाः केचिदोषयुग्दानिनस्तथा ॥ १८२ ॥ स्ववत्सपुष्टिबुद्धयैव न क्षरंति यथा नृणाम् । वंचक्यः पशवश्वण्ड्यः काश्वियुवतयस्तथा ॥ १८३॥ धनवंतस्तथा केचिनिरर्था दानवर्जिताः । श्रीफलाः फलवंतोपि यथा सेव्या न चाम्रवत् ॥ १८४ ॥ या स्त्रियो ये नरा वृद्धः स्वसेवां कारयति ताः । दास्या भवेयुस्ते दासास्तवृत्या जन्मजन्मनि ॥१८५॥ - अर्थ--कोई दानी क्षीरिद्रुमादिक वृक्षोंके समान है, क्यों कि वे असेव्य बहुतसे फलों को प्रदान करते हैं, इसीप्रकार कोई दानी दोषयुक्त अनेक द्रव्योंको दान देने के लिए रखते हैं ॥ १८२ ॥ कोई २ मायाचारिणी गायें अपने बछडेके पोषणके लिए ही दूध को छोडती हैं, उसी प्रकार कोई २ स्त्रियां अपने बच्चोंके व घरके पोषण के लिए आहार द्रव्य रखकर पात्रों के आनेपर उसके अभावको बतलाती हैं ॥ १८३ ॥ कितने ही धनवान् ऐसे रहते हैं कि धनके रहते हुए भी दान-कार्यको नहीं करते हैं। उनका धन भी निरर्थक है। जिस प्रकार कि बेल के वृक्षमें विशेष बेल फल रहने पर भी आमके समान सुगमता •से वे फल नहीं खाये जाते ॥ १८४ ॥ जो स्त्रियां व पुरुष अपनेसे ज्ञान वय आदियों से वृद्धजनोसे सेवा कराते हैं वे जन्मजन्ममें दास दासी होकर उत्पन्न होते हैं ॥ १८५ ॥ यः क्लिनात्यधनः सरा यदि भवेदत्तेऽहंसे दुर्दशे । वेश्याहासकगीतिभंडभृतये देहाक्षसौख्याय च ॥ : दुस्थाने भवनाय मूलधननि शोधमायाखिल स्तस्यायों घटते सदा न घटसे धर्माय वित्तादिकः॥१८६॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार . २४९ अर्थ-जो व्यक्ति दरिद्रताके कारण पात्रदानादिक न करसकनेसे सदा खेदखिन्न होता रहता है, यदि उसे किसी तरह धन मिलकर श्रीमंत हुआ तो फिर वह देव, धर्म आदिको भूल जाता है । उस समय वह पापकार्यमें, मिथ्यादृष्टियोंके लिए, वेश्या, विदूषक, गायक, भांड आदिके लिए अपने द्रव्य का व्यय करता है । एवं देह व इंद्रियभोगमें व्यय करता है । खराब स्थानोंमें, अपना घर वगैरे बनाने में व्यय करता है। उसकी क्रियायें मूलधनके ही नाशके लिए होती हैं । उसे चाहे तो और भी लोग कर्ज वगैरे देते हैं । परंतु धर्मके लिए धनादिककी सहायता नहीं मिलती है, अर्थात् लोकमें पापकार्योंके लिए धन आदिकी कभी कमी नहीं होती है । परंतु धर्मकार्य, पात्रदान आदि करना हो तो उसके लिए धन आदिककी बडी अडचन रहती है ॥ १८६ ॥ ... मिथ्यादृष्टिदत्तदानफल. भुक्त्यादौ बहुपीतमंबु दहनं निर्नाशयत्युज्ज्वलम् । पश्चाद्धक्तमहाशनं गरलवत्पाणान्यथा हंति यत् ॥ सद्वृष्टिः कुदृशेषु पात्रमिति तं मत्वा च दत्ते धनं । हत्वा दृषसुकृतं पुनः कृतमघं संवयं तत्स्वं क्षयेत् ॥१८७॥ - अर्थ-जिस प्रकार तीव्र भूख लगे हुए व्यक्तिने यदि भोजनके पहिले यदि खूब पानी पीलिया तो तीक्ष्ण उदराग्नि एकदम नष्ट होती है, और उसके बाद पुनः अधिक भोजन किया तो उसे पचाने योग्य अग्निके न होने के कारण वह भोजन भी विषके समान होता है । इसी प्रकार जो मनुष्य मिथ्यादृष्टिको भी पात्र समझकर दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि अपने सम्यग्दर्शन व पुण्यको खो लेता है, और पापकी वृद्धि करता है । एवं अपने वंश इत्यादिकके विभवको नष्ट करता ३२ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० दानशासनम् दानं मिथ्यादृशे दत्तं दृष्टिं पुण्यं च नाशयेत् । साधितेऽरिपुरे शत्रुः कंटकद्रून्वपत्रिव ।। १८८॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि के लिए दान देनेपर वह सम्यक्त्व व पुण्यका नाश करता है । शत्रुके नगरको साधन करने के बाद शत्रुराजा जिस प्रकार कंटकवृक्षोके बीजको बोता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंको दान देनेपर अपनी हानिके लिए ही कारण होगा ॥ १८८ ॥ मुक्त्वा निजस्वामिनमेव वित्ताः । शत्रु समाश्रित्य सभाति रास्ति (?) ॥ सायुर्विभूतिः स यथा विनश्येत् । सुदृक्तथा स्यात्कगाश्रितश्च ॥ १८९ ॥ अर्थ--जो व्यक्ति अपने स्वामीको छोडकर शत्रुका आश्रय करता है वह अपनी हानि ही कर लेता है । और उसकी संपत्ति आदिक नष्ट होती है, इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टी जीव मिथ्यादृष्टियोंका आश्रय करता है उसकी हालत होती है ॥ १८९ ॥ ब्रह्मवते दर्शन एव नष्टेऽवग्राहतः स्यादिव लोक एषः । ज्ञाने तटाकादिविभेदवत्सद्वृत्तेपि सस्यादिविनाशवच्च॥१९०॥ अर्थ-इस जीवका ब्रह्मचर्यत्रत व सम्यग्दर्शन यदि भ्रष्ट हुआ तो लोकमें बरसात न पडनेसे जो दुर्भिक्ष फैलता है उसके समान उस की हालत होती है । ज्ञानके नष्ट होनेपर तालाब आदिके बांधके टूटने के समान होता है । अइिंसादि व्रतों के नष्ट होनेपर खेतके सस्यादिकके नाशके समान होता है ॥ १९० ॥ . एषामासां न दानेच्छत्युक्त्वा यस्तानिवारयेत् । स एव सैव पापात्मा स्यानिस्त्री जन्मजन्मनि ॥ १९१ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति " अमुक पुरुषकी दान देने की इच्छा नहीं है, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २५१ अमुक स्त्री की दान देनेकी इच्छा नहीं है" ऐसा कहकर दान देनेसे रोकता है, वह पापी व्यक्ति व वे जन्म जन्ममें दरिद्र होकर उत्पन होते हैं ॥ १९१ ॥ या स्त्री मृतेशा सकला यदाता पौराः कषतीह तदैव येन । सहश्चरित्रं च यदा विनष्टं कर्माणि देवाश्च जनास्तदा तं ॥ अर्थ-कोई स्त्री मृतपति अर्थात् विधवा होती है तो उसे पुरवासीजन यदि दुःख देंगे तो उन पुरुषोंने अपने सम्यग्दर्शन व चारित्र को नष्ट किया तथा उसके फलसे उनको पापकर्म, शासनदेवतायें व मनुष्य उनको मारते हैं अर्थात् उनकी अनेक प्रकारसे हानि करते हैं ॥१९२॥ भोक्तुं प्रार्थितभुक्ति संस्थितं तद्गृहमागतं । तस्य दानांतरायः स्याद्यः पुमांश्च विहापयेत् ॥ १९३ ॥ अर्थ-यदि कोई भोजनके लिए बैठा हो, या भोजनके लिए निमंत्रण पाया हो तो उसको निवारण करनेवाले स्त्री-पुरुषोंको घोर अंतरायकर्मका बंध होता है ॥ १९३ ॥ कार्याय बद्धमशनं कुदृशे जनाय । नीचाय तंडुलपटिं दययैव दद्यात् ।। जैन विनात्मनिलये शयनं च भुक्ति । नो कारयेदिव फलानि च विक्रयतः ॥ १९४ ॥ अर्थ-अपने कार्यके निमित्तसे किसी मिथ्यादृष्टिको भोजन बंधा हो, एवं किसी नीचको चावल या धान्यकी वारी बंधी हो तो उनको दयाके भावसे ही देना चाहिये । अर्थात् पात्र समझ कर नहीं देना चाहिये । जैन कुलोत्पन्नको छोडकर अपने धरमें दूसरोंको भोजन कराना व शयन कराना ठीक नहीं है । बीज के लिए रखे हुए फलका विक्रय करना जिस प्रकार अनुचित है, उसी प्रकार सत्पात्रोंके दान के Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ दानशासनम् योग्य द्रव्यको मिध्यादृष्टियोंको प्रदान करना अनुचित है - ॥१९॥ आहूय जैनान्बहिरालयेषु ये भोजयंत्येव त एव सर्वे । . पापं लभते न विशंत्ययास्तन्नोदासयेयुः कृतिनोऽपि जैनाः ॥१९५॥ अर्थ-अपने घरपर जैनियोंको बुलाकर जो उनको बाहरके सामान्य घरपर भोजन कराते हैं वे पापार्जन करते हैं। पुण्यका नाश करते हैं । पुण्यात्मा सज्जन जैनियोंकी उपेक्षा नहीं करते हैं ॥१९५॥ अशिक्षितकुदृग्भ्यो ये दानानि ददते नराः । महारण्ये भवेयुस्ते मदोन्मत्ता मतंगजाः ॥ १९६ ॥ अर्थ-जो सज्जन अशिक्षित व मिथ्यादृष्टियोंको दान देते हैं वे उस दानके फलसे बडे भारी जंगलमें मदोन्मत्त हाथी होकर उत्पन होते हैं ॥ १९६ ॥ नो दद्यादपकारिणे च रिपवे धर्मद्विषे भीकृते । भृत्येभ्यः परिहासकाय यशसे भूपाय संगीतिने । नृत्ताया अपि विनोदकाय गणिकालोकाय दुर्वृत्तये । गोवृत्ताय खलाय धार्मिकजनो नैनं धनं धर्मतः ॥१९७॥ अर्थ-धार्मिक जनाको उचित है कि वे धर्मबुद्धिसे अपकारी, शत्रु, धर्मद्वेषी, भयंकर, भृत्य, हास्यकार, स्तुतिपाठक, गजा, गायक, नर्तक, विनोदक, वेश्याजन, दुराचरणी, दुष्ट आदियोंको अपने धनको न देवें । अर्थात् धर्मबुद्धिसे इनको धन देना वह पाप संचयके लिए कारण है ॥ १९७ ॥ x जैनमुक्तिगृहाद्भित्त्यन्तरगेहेषु भोजयेत् । शयनं च न कर्तव्यं कर्तव्यं सद्भिरेव वा ॥ ग्रहदुःस्वप्नचोराद्यैरसतीनां घोषणे यदि ।। अपवादो भवेन्नृणां न स्वदन्यमंदिरम् ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार - - गायकवादकनर्तकमागधपरिहासकादिलोकेभ्यः । सेवार्थ दाता धनमपवादभयेन चार्थिने दद्यात् ॥ १९८ ॥ अर्थ-गानेवाला, बजानेवाला, नर्तन करनेवाला, स्तुति करनेवाला, हास्यकार, याचक, भादियोंको सेवा करनेके उपलक्षमें, लोकमें अपवाद न हो इस भयसे ही धन देना चाहिये । उनको पात्र समझकर दान नहीं देना चाहिये ।। १९८ ॥ प्रमत्तनागाः सृणिशिक्षितास्सदा । सुमंत्रतंत्रानुगता महोरगाः । कुधर्मजश्रीमदमत्तमानवाः । ... समंत्रतंत्रैरपि शिक्षिता न च ॥ १९९ ॥ ... अर्थ-मदोन्मत्त हाथियोंको अंकुशसे वशमें कर सकते हैं। काले सर्प भी मंत्रतंत्रोंसे अनुकूल होते हैं । परंतु कुधर्म अर्थात् अपात्रदानादिकके. फलसे उत्पन्नसंपत्तिके मदसे जो मदोन्मत्त हैं उन पुरुषोंको कोई भी मंत्र तंत्रोंसे वशमें नहीं कर सकते हैं॥ १९९ ॥ अनियतकरणान्ये मानवांस्तर्पयंती- । त्यनियतकरणास्ते दुर्विनीता भवेयुः। दुरितकरणशक्ता ध्वस्त पुण्यार्थभक्ता। नियतकरणवृत्ताः पालनीयाः स्ववित्तैः ॥ २० ॥ अर्थ-जो व्यक्ति पंचेंद्रियविषयों में अनियमितवृत्तिके धारक इंद्रिय लोलुपी असंयमियोंका पोषण करते हैं, वे पापार्जनमें सहायता पहुंचाते हैं । इंद्रियलोलुपी व असंयमी स्वेच्छाचारी व अष्टकर्मोके अर्जन करने में समर्थ होते हैं । एवं पुण्य व पुण्यात्मावोंको कष्ट भी देते हैं। इसलिए हमेशा नियतकरण-वृत्तिवाले अर्थात् इंद्रियदमन करनेवाल संयमियोंका ही अपने द्रव्यसे पोषण करना चाहिये ॥ २००..॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ दानशासनम् 200000000000000000000ccccmmenance AAAAAAAAAAAAAAA 24.com मूढाः कंवलदेहसौख्यमतयो विश्वस्य वैश्यासुख । दत्तात्मीयमुखोचितार्थमुखिता न्यक्कृत्य तांस्तान्परैः ॥ सार्थर्गाढरतिक्रियैस्सुखधनाः क्रीडति दृष्ट्वापि ताः। संक्रिश्यंत इवोचितव्ययमजानंतोऽत्र ताम्यंत्यहो ॥२०१॥ अर्थ-हे जीव ! इस लोकमें शरीरसुखको ही सुख माननेवाला बहिरात्मा वेश्यासुखपर विश्वास रखकर उनको अनेक प्रकारसे धना. दिक देते हैं। परंतु वह वेश्या उनपर प्रेम करती है क्या ? नहीं। वह तो अधिक धन देनेवाले कोई दूसरे मिले तो पहिले पुरुषको तिरस्कार कर उससे प्रेम कर क्रीडा करने लगती है। वेश्याकी संगति पैसेवालोंके साथ होती है। तब वे मूर्खजम उसे देखकर दुःखित होते हैं । अपने द्रव्यको उचित स्थानमें व्यय करनेके लिए यदि मनुष्यने नहीं जाना तो ऐसा ही होता है ॥ २०१ ॥ निजतनुसुखकरभर्तुः कुलांगना अन सकलसेवाभक्त्या। कुर्वत इव दातारो देहाक्षसुखोपकर्द लोकस्यालम् ॥२०२॥ अर्थ-अपने लिए शरीरसुखको देनवाले पतिकी सेवा-भक्ति एक कुलस्त्री जिस प्रकार करती है उसी प्रकार शरीर व इंद्रियमुखमें उपकार करनेवालोंकी सेवा दाता करें ॥ २०२ ॥ नाजीर्ण चटुलानलस्य सततं नागो कसत्तेजसः । पापं नाव्रतिकस्य जीव सुदृशो दुष्टोद्यम माकुरु ॥ नैनो नागसमईदुक्तचरितं हेतु समर्थ तथा। नास्यागः किमिमं निहन्मि च कथं राज्ञा यथा चिंत्यते ॥२०३!! अर्थ--लोकमें देखा जाता है कि जिसकी उदरानि तेज है उसे अजीर्ण कभी नहीं होता है । जिसका विवेक शौर्य आदि तेज है उससे अपराध कभी नहीं होता है। अवती होनेपर भी सम्यग्दृष्टि Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २५५ जीवकेलिए पापकी वृद्धि नहीं होती है । वह अपने सम्यक्त्वसे पापके नाशके लिए ही प्रयत्न करता है। इसलिए हे जीव ! यदि तुम्हे लोकविजयी होना हो तो दुष्ट कार्योंमें उद्योग मत कर । जैनधर्म के धारण करनेवाले जीवको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता । जिस प्रकार राजा अपने सामने खड़े हुए निरपराधी कैदीके संबंध में विचार किया करता है कि यह निर्दोषी है, इसे मैं कैसे मारूं, किस प्रकार दंड दूं । इसी प्रकार जिनधर्मको धारण करनेवाले सदृष्टि जीवके प्रति हिंसाभावको धारण नहीं कर सकता है। क्यों कि उससे दूसरों के प्रति कष्टदायक व्यवहार नहीं हुआ करता है ॥ २०३ ।। न पश्येन्नस्मरेदन्यकलत्रमिव न स्पृशेत् ।, जैनत्वमपि दत्तार्थ न स्मर स्पृश पश्य न । २०४ ॥ अर्थ-जिसप्रकार शीलवान् पुरुषों का कर्तव्य है कि उनको अन्य स्त्रियोंको कामविकारसे नहीं देखना चाहिये ( गुणानुरागसे देख सकते हैं ) कामविकारसे स्मरण नहीं करना चाहिये ( गुणानुरागसे स्मरणकर सकते हैं ) काम विकारसे स्पर्श नहीं करना चाहिये ( वैद्य, पिता, पुत्र आदि जिस पवित्रभावसे स्पर्श करते हैं, कर सकते हैं ) इसीप्रकार हे जैन ! तुमने जिस पदार्थ को दान में देदिया उसकी ओर देखो मत ! उसका स्मरण मत कर ! और उसका स्पर्श भी मत करं। यही सज्जनों का लक्षण है ॥ २०४ ॥ दानादानविशुद्धवंशमखिलान दोषान्यथा ध्यायति । रूपं पश्यति साम्यमीक्षितुमिमां कन्यामनूढां जनः ॥ तद्नो लक्षणमुत्तम स्पृशति तामूढां सुतां न व्रती । - देवर्षिद्वयदत्तमर्थमखिलं नित्यं विधा वर्जयेत् ॥२०५॥ ___ अर्थ- जिस प्रकार कोई सज्जन अपनी पुत्रीका विवाह होनेके पहिले उसके योग्य वरको ढूंढता है और अपने पुत्रीके गुणदोषोंका Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ दानशासनम् विचार करता है, सामुद्रिक लक्षण आदिको देखता है, उन लक्षणों को देखने के लिए उसे स्पर्श करता है । परंतु वह व्रती विवाहित होनेके बाद उसे स्पर्श नहीं करता है। क्योंकि उसका दान दूसरोंको दे चुका है । इसी प्रकार देव व ऋषियोंको जो धन दानमें दिया जा चुका है उसका मन, वचन व कायसे परित्याग करें ॥ २०५ ॥ आक्रामत्यूढकन्यां यस्तं इंतारो न के पुरि । पौराः निदन्ति इतीशो दंडयंति नृपा यथा ॥ २०६ ॥ अर्थ -यदि किसी विवाहित कन्यापर किसीने आक्रमण किया तो पुरजन उसे मारे बिना नहीं छोड़ सकते । पुरजन उसकी निंदा करते हैं । जिस प्रकार राजा दंड देता है उसी प्रकार उस खीका पति भी दंड देता है । इसलिये दूसरोंको दिए हुए परद्रव्य पर भी आक्रमण 1 नहीं करना चाहिए | लोकमें उसकी निंदा होती है । पुरवासीजन उसे कोसते | राजा भी दंड देता है ॥ २०६ ॥ त्रीणि गंधपुष्पाणि सेव्यान्येव जिनाश्रितैः । जिनार्चिखिलार्थेषु नान्यवस्तूनि सर्वथा ॥ २०७ ॥ - अर्थ – जिन भक्तों को उचित है कि जिनेंद्रको अर्चन किए हुए द्रव्यों में से तीनही पदार्थ अर्थात् गंध, उदक व पुष्प सेवन करने योग्य है । अन्य पदार्थोको सेवन नहीं करना चाहिये ॥ २०७ ॥ स्वक्षेत्रफले हते न च नृणां धान्यादिलाभो यथा । सत्यंकारधने हृते न वणिजां लाभः स पात्रार्पितं ॥ आदने दविणेन पृण्यमतुलं सत्पुण्यभाजां नृणां । दत्ताहारमितापितामिव सुतां पात्रार्पितं न स्पृशेत् ॥ २०८ ॥ अर्थ - जिस प्रकार लोक में देखा जाता है कि अपने क्षेत्रमें बोये हुए बीजको यदि निकाल लिया तो उससे कोई धान्यादिक का लाभ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २५७ नहीं हो सकता है, किसी सौदेको निश्चित करनके लिए दी हुई साही का ही यदि व्यापारीने अपहरण कर लिया तो उसको कोई लाभ नहीं हो सकता है। इसी प्रकार पात्र के लिए दिए हुए धनको ग्रहण करने पर विपुल पुण्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो सज्जन शुद्ध पुण्य का अर्जन करना चाहते हैं, उनको उचित है कि जिस प्रकार दिए हुए आहारको पुनः स्पर्श नहीं करते एवं दी हुई कन्याको पुनः प्राण नहीं करते, उसी प्रकार पात्रोंको दिए हुए दानद्रव्यको पुनः स्पर्श न करें ॥ २०८ ॥ दत्तद्रव्यग्रहणनिषेध मुक्षेत्रोप्तसुतुंगपूगपनसबीह्यादिवीजानि यः । किं गृहाति कृषीवलःस्मरति किं बीजं समुप्तं मम । सोऽये सर्वफलानि संति मनसि स्मृत्वैव तृप्तो भवे-॥ इत्तद्रव्यमुददं तु सदया जैना उदकैषिणः ॥ २०९ ॥ अर्थ-अच्छी भूमिमें बोए हुए नारियल, सुपारी, पनस, धान आदिके बीजको क्या कोई किसान ग्रहण करता है ? कभी नहीं, वह उन के उत्तर फलोंको मनमें स्मरण करते हुए संतुष्ट होता है। इसी प्रकार दयालु प्रशस्त दाताको भी उचित है कि वह दानके उत्तरफल को ध्यानमें रखते हुए दिए हुए व्यका पुनः ग्रहण न करें ॥ २०९॥ भूगोतटाकनयब्धिशुक्त्यन्दाधुनुमा यथा । न स्मरंति न गृह्णन्ति दत्तद्रव्याणि दानिनः ॥ २१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार भूमि, गाय, तालाव, नदी, समुद्र, सीप, आकाश, कूआ और वृक्ष परोपकार करते हैं और दिये हुए पदार्थको वापिस नहीं लेते हैं, उसी प्रकार दानी भी दिए हुए द्रव्योंको न स्मरण करते हैं और न ग्रहण करते हैं ॥ २१० ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ दानशासनम् विशेषार्थ - भूमि - यह जमीन बहुत से प्रकार के धान्यादिकों को उत्पन्न कर दूसरोंके उपकारके लिए दिया करती है । परंतु उनको कभी वापिस नहीं लेती है, धान्यों की उत्पत्ति के लिए स्वयं की छाती पर वह इल चलाने देती है, अनेक प्रकारसे कष्ट सहन करती है, यह सब किस लिए ? परोपकार के लिए । गो - जिस प्रकार गाय घास और पानीको ग्रहण कर दूध देती है, उसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं है, उसी प्रकार दानियोंकी वृत्ति होनी चाहिये | तटाक- - तालाव अपने पानीके द्वारा समस्त वृद्धि में सहायता करता है, उसीप्रकार दातृजन भी परोपकार करते हैं । मदी - जिसप्रकार नदीसे पानी कोई ले जाकर उसे कम करें, चाहे कोई शत्रु आकर उससे पानी लेजाय, बंध बांध देवें, तो उसके साथ या चाहे जैसी अनुचितवृत्तिको धारण करनेवालोंके साथ लडती नहीं, भिडती नहीं, अन्यथा विचार नहीं करती है, इसी प्रकार उदार हृदयी दानियों की वृत्ति रहती है । खेत के सस्यों की अपने धनके द्वारा समुद्र - जिसप्रकार समुद्र गंभीर रहता है, उसके पास जो रत्न हैं उसे कोई ले जावें तो भी उसकी महत्ता में कोई अंतर नहीं आता है, इसी प्रकार दानियोंकी गंभीर मनोवृत्ति रहती है । शुक्ति - सीपके अंदर पडे हुए मोतीके समान दाताजनों की आत्मा मुक्तिस्थित सिद्धके समान शुद्ध रहती है । * मेघ - जिसप्रकार बादल अबाचित होकर ही पानी बरसाती है, एवं लोकको संतुष्ट करती है उसी प्रकार दातावों की वृत्ति रहती है । अयाचितस्तृप्तिकरो रसाढ्यः सध्वावलीतापहरः पयोदः । ताबधानः शिशुपोऽत्रधात्रीजनो यथा दातृजनस्तथा स्यात् ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २५९ कूप--भू, शिला, मट्टीके खोदनेसे उत्पन्न कूप जिसप्रकार अमृतके समान मिष्ट जलको प्रदान करता है, इसी प्रकार दानियोंकी वृत्ति होनी चाहिये। , द्रुम स्वयं धूपमें खडे होकर दूसरोंको छाया प्रदान करते हुए दूसरोंके उपकारकेलिए फल छोडते हैं ऐसे वृक्षोंके समान दातावोंकी वृत्ति होनी चाहिये। __ दत्तद्रव्याग्रहणफल यो देवाधर्पितं द्रव्यं नादत्ते न च बांछति । सत्यकारधनं दत्तं मुक्त्य सेन विदुर्बुधाः ॥ २११ ॥ अर्थ-जो मनुष्य देव व ऋषियोंको दानमें दिए हुए द्रव्यको ग्रहण नहीं करता है और न चाहता है उसने दान नहीं दिया, अपितु मुक्तिलक्ष्मीके साथ विवाह करनेके लिए संचकार धन [साही] दिया ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ॥ २११ ॥ . दत्तद्रव्यग्रहणफल । ... येन यस्मै धनं दात्रा दत्तं तेनाहतं पुनः । तत्सर्वमपि बंधूनामुत्सवे दत्तवस्तुबत् ॥ २१२॥ ___ अर्थ-यदि किसीको दिए हुए द्रव्यको उस दानी ने वापिस लिया तो वह दान नहीं है, बंधुओंके घरमें उत्सवके समय दी हुई सहायता है ॥ २१२ ॥ . यो दत्तद्रव्यमादत्ते तस्योत्तरफलं न च । उप्तबालफलो दातमूढवद्धार्मिको भवेत् ॥ २१३ ।। अर्थ-जो मनुष्य दिए हुए द्रव्यको ग्रहण करता है, उसको उस दानका उत्तर फल बिलकुल नहीं हो सकता है । उसकी हालत ठीक Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० दानशासनम् उसी प्रकारकी है जिस प्रकार कि एक मनुष्य बोए हुए नारियलको निकालकर खाता है । उसी प्रकारका वह मूढ धार्मिक है ॥ २१३ ॥ अन्यद्रव्य ग्रहणनिषेध योऽशेषवस्तुप्रकरोपकर्ता तद्वस्तुलेशांशकयाचिता चेत् । शप्यत्यलाभे यदि कुप्यति प्रियं स एव मूर्खो न कृतिर्न धर्मवान् ॥ अर्थ - जो सज्जन अपने धनसे दूसरोंको उपकार करता है, यदि उसने उस द्रव्यके कुछ अंशको अपने लिए याचन किया तो उसने दिया तो ठीक है, नहीं दिया तो उसके ऊपर क्रोधित होता है, गाली देता है, वही मूर्ख है, वह सज्जन नहीं, धार्मिक नहीं । क्यों कि दूसरोंको दिए हुए द्रव्यपर उसका कुछ भी अधिकार नहीं है, इस बातका वह विचार नहीं करता है ।। २१४ ॥ गर्ताटोऽन्यचितं कुमूलनिहितं धान्यं यथास्यन्वहम् । दारिद्र्योद्भवदुःखभाजन जनोऽन्यार्थ तथा सेवते । यद्दीनारशतांश तस्करजनो दत्ते नृपायाखिलम् । तस्मादन्यधनं च साधिपतृणं धन्यो जनो न स्पृशेत् ॥ २१५ ॥ अर्थ – जिसप्रकार गर्ताट ( चूहे के समान जमीन के अंदर रहनेवाला जंतु ) कुसूल भरे हुए धान्यको सदा खाती है, उसी प्रकार दारिद्रयके दुःख से पीडित मनुष्य अनेक उपायोंसे परद्रव्यको अपहरण करते हैं । उसका फल बहुत बुरा भोगना पडता है । जिसप्रकार एक चोरने एक शतांश द्रव्यकी चोरी की तो भी राजाके द्वारा दिया हुआ दंड तो उस से शतगुणा अधिक होता है, और उसे देना ही पडता है । इसलिए परधनको धन्य सज्जन कभी भी स्पर्श न करें, इतना ही क्यों ? जिस घासका मालिक हो उस घासको भी नहीं लेवें ॥ २१५ ॥ देवाय गुरवे राज्ञे दत्तं पात्राय यद्धनं । दातृभिस्तच्च न ग्राह्यं स्वक्षेत्रेषूतबीजवत् ॥ २१६ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २६१ onannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnno mannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn - अर्थ-देव, गुरु, राजा व सत्पात्रोंको दिये हुए धनको दातालोग मनवचनकायसे ग्रहण न करें, जिसप्रकार अपने खेतमें बोये हुए बीजको यह प्रहण नहीं करता है ॥ २१६ ॥ आत्मीयमन्यदीयं स्वं दानं यः कुरुतेऽघदं । दातृत्वहानि कुर्यान ग्राह्यमन्यकलनवत् ॥ २१७ ॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंके द्रव्यको अपने द्रव्यके रूपमें संकल्पकर दान करता है वह पापके लिए कारण है । उससे दातृत्वको हानि होती है। परस्त्रीके समान परद्रव्यको भी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ २१७ ॥ देवगुरुसेवाफल दसं निंबूफलं राज्ञामुत्पाद्य करुणां हृदि। दत्तं तैरधिकं वित्तं देवगुर्वोस्तथाधिकम् ॥ २१८ ॥ .. अर्थ- राजाके पास जाकर प्रतिनित्य निंबू फलको भेटमें देवें तो उसके द्वारा यह प्रसन्न होकर एवं हृदयमें करुणा धारण कर उस नौकरको अनेक संपत्ति प्रदान करता है। इसी प्रकार देवगुरुवोंकी सेवा करनेपर, उनके प्रसादसे अनेक सुख संपत्ति मिलती है ॥२१८॥ स्वं स्वं देवाय संकल्प्य स्वयमेव व्ययत्यदः । स्वानर्थाय भवेत्कन्यादानवत्सोऽनरिः स्मरेत् ॥ २१९॥ अर्थ-जो सज्जन अपने द्रव्यको देवताकार्यके लिए संकल्प करके उसे अपने लिए उपयोग करता है, उससे उसका सर्वनाश होता है, यदि कन्यादान करके भी उस कन्याको पतिगृह में नहीं भेजे तो प्रिय दामाद भी शत्रु हो जाता है ॥ २१९ ॥ देवद्व्यग्रहणफल देवकल्पितरैहारे वैरं तेजोहति रुजं । पापं पुण्यक्षयं तिर्यग्गतिं गच्छेत्स नारकीम् ॥ २२० ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् nirmirmix अर्थ-जो मनुष्य देवसंकल्पित द्रव्यको अपहरण करता है उसके प्रति बंधु राजा आदि उससे वैर विरोध करते हैं। उसके तेजका क्षय होता है, रोगादिबाधा बढती है, पापकी वृद्धि होती है, पुण्यका क्षय होता है, वह तिर्यंच या नरकगतिमें जाता है ॥ २२० ॥ प्रशंसाकृतदान कृतात्मवर्णनं पात्रः श्रुत्वा हृष्टाशयांचितं । दानं सर्व प्रशंसाकृद्धंदिभ्यो दत्तदानवत् ॥ २२१ ॥ अर्थ-~पात्रोंके द्वारा की हुई अपनी प्रशंसा से प्रसन्न होकर दिया हुआ दान बंदीजनोंको दिए हुए दामक्के समान प्रशंसाकर दान है ॥ २२१ ॥ .... निष्फलद्रव्य ... - अत्युच्चाः पाटला. स्थूला निष्फलाः कुमुमोद्भवाः । , ... साध्वयोग्या भवेयुस्ते दातारः कतिचिद्यया ।। २२२ ॥ *. अर्थ-जिस प्रकार पुष्पसे उत्पन पाटल वृक्ष बहुत ऊंचा, बडा, होनेपर भी निष्फल हुआ करता है, इसी प्रकार किसी सज्जन के पास बहुत धन कनक रहने पर भी कह साधुके लिए अयोग्य हुआ करता है, अर्थात् पात्रदानके काममें उसका धन नहीं आता है। अतएव व्यर्थ है॥ २२२ ॥ देवादिद्रव्यहरणफल देवगुर्वादिभव्यानां योऽर्थानपहरत्यपि। स भिन्नपद्माकरवत्स्यात्पुण्यरहिताशयः ॥ २२३॥ अर्थ-जो देव, गुरु आदिभव्योंके अर्थको अपहरण करता है उसकी हालत टूटे हुए तालावके समान है । उसके हृदयमें पुण्यका अभिप्राय नहीं है । अर्थात् वह पापी है ॥ २२३ ॥ . . . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार स्मरणकर न देनेका फल यो ददामि धनं स्मृत्वा न दत्ते स भवांतरे । वंध्यद्रुम इवाभाति कर्माशक्त उदंभरिः॥ २२४ ॥. अर्थ-जो व्यक्ति दान देता हूं ऐसा मनमें स्मरणकर पीछे उसे नहीं देता हो तो वह आगेके भवमें वंध्यद्रुम ( बेकारवृक्ष ) के समान बन जाता है। और उसे अपना पेट भरना भी कठिन होता है ॥२२४ ध्यातं वित्तं न दत्तं यैर्येषां कालावधिर्मदा। ध्यातं तैर्न फलं कार्य सेषामिष्टं न कुत्रचित् ॥ २२५ ॥ अर्थ-दूसरों को देने के लिए विचार किये हुए धनको योग्य समयमें संतोष से यदि नहीं दिया तो उस शुभ विचारका कोई फल नहीं हुआ करता है, और ऐसे लोगोंको कोई विश्वास नहीं करते । अतएव उनकी इष्टसिद्धि कहीं भी नहीं होती है ॥ २२५॥ लिखितादत्तदानफल. लिखितं तु न दत्तं यैर्यभ्यस्तेषां बहुव्ययः । नष्टः स्यादुद्यमः सर्वः स्वात्मीयायबहुक्षयः ॥ २२६ ॥ अर्थ-किसी को धन देनेके संबंधमें लिखकर देनेपर भी बादमें जो व्यक्ति नहीं देता है। उसे बहुत खर्चेका सामना करना पड़ता है, उसके सर्व उद्योग नष्ट होते हैं और पुण्यका भी क्षय होता है ।।२२६ . पचन देकर न देनेका फल यस्तु द्रव्यं ददाम्पुक्त्वा न दत्ते स भवांतरे। शाल्मलीतरुवद्भाति निष्फलोधमतत्परः ॥ २२७ ॥ में अर्थ-जो व्यक्ति दान देता हूं ऐसा कहकर बादमें नहीं देता हो तो वह आगेके जन्ममें विना प्रयोजन उद्यम करनेवाले शाल्मली वृक्ष के समान होकर उत्पन्न होता है ।। २२७ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ दानशासनम् AAAAAAAAAA मर्यादाके भीतर नहीं देना वित्तमुक्तं न दत्तं यैर्येषां प्रागवधेर्मुदा। उक्तं तैर्न फलं कार्य तेषामिष्टं न कुत्रचित् ॥ २२८ ॥ अर्थ--जो सज्जन देनेकी बात कहकर मुदतके अंदर नहीं देते हैं उनका कहना व्यर्थ है। उन्हे कोई भी विश्वास नहीं करता है। अतः उनके मनोरथकी सिद्धि कहीं भी नहीं होती है ।। २२८॥ अयोग्यधनग्रहणफल योऽदायं दायमाहृत्य वर्तते स भवेद्धनम् । सक्लेशो निष्फलोद्योगो मृतपुत्रांगनेशवत् ॥ २२९ ॥ अर्थ-जो अपने लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है ऐसे धनको अपहरण कर धनवान् कहलाता है, वह सदा दुःखी रहता है। संतान के मृत होने के बाद स्त्रीका पति बने रहना जिस प्रकार निष्फल व दुःखकर है उसी प्रकार उसकी हालत है ॥ २२९ ॥ कृतसेवाधिकं वित्तं येषां दत्तं पुरा च यैः । ते सर्वे किंकरास्तेषामधिश्रीणां भवांतरे ॥ २३० ॥ अर्थ-जो राजा वगैरे अपने सेवकोंको उनकी सेवासे भी अधिक धन देकर संतुष्ट करते हैं या पूर्वजन्ममें देकर संतुष्ट किया है, वे मृत्य पुनः अन्यभवमें भी उन श्रीमंतोंके ही ईमानदार नौकर होकर उत्पन्न होते हैं ॥ २३० ॥ स्मृत्वा न दत्तमुक्त्वा दत्तं द्रव्यं समाहृतं येन । त्रिभिरेतै होनिः स्यात् दानस्यायस्य तस्य नास्ति फलम् ॥२३१॥ अर्थ-जो व्यक्ति देनेके विचार कर नहीं देता हो, देनेकी बात कहकर नहीं देता हो एवं दिए हुए को पुनः अपहरण करता हो, वह Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २६५ कापी है, इन तीनों प्रकारोंसे उसकी हानि होती है। और उसके दान व पुण्यका क्षय होता है, एवं उसका कोई फल नहीं है ॥ २३१ ॥ पुण्यपापभेद यथा करोतीह सुगंधपुष्पं मनोहरत्वं सुकृतं तथैव । यथा करोतीह कुगंधपुष्पं मनोजुगुप्सां दुरितं तथैव ॥२३२॥ अर्थ-जिस प्रकार सुगंध पुष्प अपने सुगंधके द्वारा मनुष्य के मनको हरण कर लेता है अर्थात् मनुष्यको अच्छा लगता है उसी प्रकार पुण्यकर्म भी मनुष्यको सुख पहुंचाता है । दुर्गंधपुष्प जिस प्रकार घृणा उत्पन्न करता है उसी प्रकार पापकर्म मनुष्यको दुःख पहुंचाता है ॥ २३२ ॥ दातावोंकी शक्ति देखकर याचना करें यावत्पशूधसि पयोऽस्ति विहाय सर्व । पाकाय तस्य पयसोऽर्धमुपाहरंतः ।। गोपा इवात्र भुवि दातृजनस्य शक्तिं । याचेत चित्तमधिगम्य गुणं च मर्त्यः ॥ २३३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार ग्वाले लोग गायके स्तनसे सर्व दूधको न निकालकर उसके अर्धभाग ही अपने कामके लिए लेते हैं उसीप्रकार दातावोंकी शक्ति, मनोवृत्ति व गुणको जानकर ही उनसे धनकी याचना करें ॥ २३३ ॥ वा फलति न फलतीति क्षेत्रं भूपा यदा हरंति धनम् । . धनमधनमजानंतो दानमिति द्रव्यमाहरंति जनाः ॥ २३४॥ अर्थ-खेतमें उत्पन्न अच्छा हुआ है या नहीं इस बातको न जानकर ही राजा लोग धनको वसूल कर लेते हैं। इसी प्रकार यह धनवान् है या निर्धन है यह न जानते हुए ही उन लोगोंसे याचकजन धन लेते हैं ॥ २३४ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ दानशासनम् .. दाताके प्रति क्रोध नहीं करनेका उपदेश पापादेहीति कष्टं यदि फलति वचो मुद्भवेनिष्फलं त-। हुःखं मा माच कोपं कुरु दुरितफलं जातमेतत्क्षमस्व । अक्षत्वा दातृलोकं शपति शपति किं प्राक्कृतैनोवनौघ- । प्राबल्यायैव वृष्टिः क्षरति बहुतरा विद्धि भो भावय त्वं॥२३५। अर्थ- "देहि" इस प्रकारका वचन पापकर्मके उदयसे ही बोलना पडता है, महान् कष्ट है, यदि वह वचन सफल हुआ तो हर्ष होता है, निष्फल हुआ तो दुःख होता है। परंतु हे भव्य ! निष्फल होनेपर भी दुःख मत कर, क्रोध मत कर, यह पापकर्मके उदयसे हुआ, इस लिए क्षमा कर । यदि क्षमा न कर दातावोंको गाली दें तो क्या होता है । पूर्वजन्ममें किए हुए पापके फलसे ही ये सब कुछ होते हैं । इस लिए विचार करो । व्यर्थ ही किसीके प्रति क्रोधित मत होवो ॥२३५॥ सफलजीवन भूरि जीर्णमिदं सर्व येन साधू कृतं तदा । तस्यैव स्यात्फलं सर्वमिति चिंतां प्रचिंतयेत् ॥ २३६ ॥ अर्थ- यह सब कुछ जीर्ण हो चुके हैं, अतः साधुवोंके योग्य नहीं है, ऐसा विचार सदा करना चाहिए उसीका जीवन सफल है ॥२३६॥ सार्थो जीर्णमिदं कृत्स्नं मुदा साधूकरोम्यहम् । स्मृत्वा न कुर्यादुक्त्वा च चिंतामिति न चिंतयेत्॥२३७॥ अर्थ-यह पदार्थ अत्यधिक जीर्ण हो चुका है, इस लिए साधुवों को संतोषसे दे डालता हूं इस प्रकार के विचार मनमें व वचन में कभी नहीं लाना चाहिए ॥ २३७॥ प्रसादलक्षण देवाय पात्राय निजोचितानि याति वस्तूनि वसंति गेहे । सावत्सु चैकैकलवं प्रदद्याच्छेषं प्रसादं प्रवदंति जैनाः ॥ २३८ । न Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २६७ अर्थ-देव व पात्रोंके लिए उपयोग में आनेवाले जितने पदार्थ घर में मौजूद हैं उन में से कुछ अंशको पहिले से दानमें देना चाहिए बाकी बचे हुए को अपने उपयोग में लेना चाहिए । उसे ऋषिगण प्रसाद कहते हैं ॥ २३८ ॥ ____पुण्यात्माओंकी वृत्ति यत्राघुष्टं निशम्याप्यतिपटुवणिजो यत्र यत्रास्ति वित्तं । गत्वाहत्यापणं तत्सकलवसुचयं तत्र निक्षिप्य कृत्वा । शुल्कर्णप्रातिभावैट्तलवरनृपदायादिचोरादिकानां । चानम्योक्त्वा चटूक्तीरिदमखिलधनं जागरूकाश्च गुप्ताः ॥२३९॥ क्रीत्वार्थे द्वारमाश्रित्य च नमितकराः कांश्च मासांश्च नीत्वा । निर्वृद्धं किंच किंच प्रशमितमनसो दीनचाटुभवाचः । सर्वद्रव्यं गृहीत्वा व्यवहतिनिपुणाः स्वस्वगेहं गता ये । षण्मासाद्वत्सराद्वा तदुपरित इवाचिन्वते यं च जैनाः ॥ २४० ॥ अर्थ-किसी स्थान में कोई बडी यात्रा-उत्सव हो, वहांसे निमंत्रण मिले तो व्यापार कार्यमें कुशल वैश्य उसी दिनसे इधर उधर जाकर रुपये एकत्रितकर जहां जहां जो चीज उत्पन्न होती है उन को खरीदकर उस महोत्सवके स्थानमें दुकान लगाता है। वहांपर टेक्स लेने वाले, कर्ज देनेवाले, उधार लेनेवाले, कोतवाल, राजा, राजसेवक, दायाद, चोर आदियोंसे बहुत प्रेम से ब लता है, एवं अपने धन का संरक्षण करता है, और व्यापार करता है, तदनंतर कुछ समयतक वहां रहकर अपने व्यापार से द्रव्य कमाकर छह महीने में या वर्ष में अपने स्वदेश को पहुंचता है, उसी प्रकार की वृत्ति पुण्यधनको कमा नेवाले की होनी चाहिए । बहुत उपायसे सत्कार्योको करते हुए किसी के हृदय को न दुखाकर पुण्यका अर्जन करना चाहिए ॥२३९-४०॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ दानशासनम् देव व ऋषिसेवाफल जैनं विवामिहोपलेन तरुणा लोहेन चैत्यालयम् ।.. कृत्वा मृत्तिकया च भांडमखिलं कृत्वैव लोकोचितं ॥ पुण्यं लौकिककार्यमाशु लभते सर्वो जमः पामरः । पात्रं स्वामिपदानुरक्तममलं संमार्च्य धन्यो भवेत् ॥२४१॥ अर्थ- इस लोकमें दूसरे लोग जैनबिंबको पत्थरसे, काष्ठसे बनाकर, चैत्यालयको लोहा, मिट्टी, चूना आदिसे बनाकर व इतर सदुचित पात्रोंको बनाकर उसके बदलेमें विपुल धनको पाकर संतुष्ट होते हैं। फिर साक्षात् देव व ऋषियोंकी सेवा करनेवाले विपुल पुण्यको क्यों नहीं प्राप्त करेंगे । अवश्य ही उन देव गुरुओंके चरणोंकी सेवा कर व धन्य होते हैं ॥ २४१ ॥ देव व गुरु आदिके प्रति दुर्वचननिषेध योऽपथ्यः सरुजी यथा समनुजो दुर्वासमंतुर्यथा।। दुष्कर्माणि कृतानि येन स पुरा दुःखं लभेताद्भुतं । दुष्टाष्टादशदोषवृत्तिरहिते जीवेऽपि देवे गुरौ। निर्दोषास्युरिवार सव्रतयुतास्तिष्ठति संतस्सदा ॥२४२॥ अर्थ-रोगीने यदि अपथ्य किया तो उसका रोग बढता है, उसको भयंकर दुःख भोगना पडता है। यदि अपराधीने राजसेवकोंके साथ दुर्वचनका प्रयोग किया तो उससे उसको भयंकर दुःख अनुभव करना पडता है। पूर्वजन्ममें जिसने दुष्कर्मीका आचरण किया उसको यहांपर दुःख भोगना पडता है । दुष्ट रागादि अठारह दोष जिनके हृदयमें नहीं है, ऐसे जीवोंके प्रति-देव व गुरु निर्दोष हैं उनके प्रति दुष्ट वचनोंका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये ॥ २४२ ॥ अन्योंसे द्वेष करनेका निषेध . येऽन्यद्विषः सुतपीता जीवंति स्वपरिग्रहे । ... तेषां न भातिर्नमनः स्वास्थ्यं रोगादिभिवृथा ॥२४३॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार अर्थ - जो व्यक्ति दूसरोंका द्वेष करते हैं एवं अपने परिग्रहपर स्नेह करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं उनका हृदय अच्छा नहीं है, उनका स्वास्थ्य भी रोगादियों से युक्त होनेसे उनका जन्म व्यर्थ है ॥२४३॥ अन्यस्त्रीगुणरक्षण तस्वीगुणमवत्यन्ये येऽन्यस्त्रीगुणरक्षकाः । येऽन्यस्त्रीगुणहर्तारस्तत्स्त्रयोन्ये हरंत्यपि ॥ २४४ ॥ अर्थ — जो दूसरों की स्त्रियोंके गुणको संरक्षण करते हैं उनकी स्त्रियोंके भी गुण दूसरे रक्षण करते हैं । जो दूसरोंकी स्त्रियोंके गुणोंको अपहरण करते हैं दूसरे भी उनकी स्त्रियोंके गुणोंको अपहरण करते हैं ॥ २४४ ॥ पापरतों को सुख नहीं मिलता है षंढाः स्त्रीजनमेव राज्यमधना वृद्धाः स्त्रियो नंदना - | नारोग्यं गतजीविताश्च कुदृशो मोक्षं दिवं पापिनः ॥ मूकास्सद्वचनं सुशास्त्रहृदयं तत्त्वस्वरूपं जडाः । वांछतीन जनास्सुखं सुखकरं द्रव्यं च पापक्षयाः ॥ २४५ ॥ अर्थ - इस लोक में सांसारिक प्राणियों की परिपाटी है कि वे हमेशा उल्टे मार्गका अनुसरण करते हैं । नपुंसक लोग स्त्रियोंकी इच्छा करते हैं । दरिद्रीलोग राज्यकी कामना करते हैं, वृद्धस्त्रियां पुत्रोंको चाहती हैं। बिलकुल मरणसन्निकट मनुष्य स्वास्थ्यको चाहता है, मिध्यादृष्टिलोग मोक्षको चाहते हैं, पापीलोग स्वर्गको चाहते हैं | मूक लोग सुंदर वचनको बोलना चाहते हैं । अज्ञानी व मूर्ख शास्त्र व तत्वज्ञानकी लालसा करते हैं । इसी प्रकार पापकार्य में संलग्न सज्जन सुख व सुखकर साधनों की अपेक्षा करते हैं । परंतु जब उनका उद्योग उल्टी दिशा पर है तो वह सुख किस प्रकार मिल सकता है ? ॥२४५॥ केवल्यादिकी निंदाका निषेध केवल्यागमसंघ देववृषनिर्वादाद्धनादानतो । मर्मस्थानभवक्षतादिवं सरत्यात्माप्यपुण्यो भवेत् । २६९ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् २७० mmad 'वीराक्रांतरवींदुविमिव मंदाग्नौ रुजौघो यथा ।। वर्द्धतेऽल्पबलं नृपं त्वनियतं हंति स्वसेना यथा ॥२४६॥ अर्थ-भगवान् केवली, निर्दोष आगम, चतुर्विध धार्मिकसंघ, चतुर्णिकायामर देव, सर्वहितकारी धर्म, इनकी निंदा करनेसे व इनके संबंध के धन का अपहरण करनेसे इस प्राणीको महान् दुःख भोगना पडता है। मर्मस्थानमें मार लगनेसे जिसप्रकार इस शरीरसे आत्मा निकल जाता है, उसीप्रकार यह आत्मा पुण्यरहित होता है | राहु केतुके द्वारा प्रस्त चंद्रसूर्यके मंडल के समान निस्तेज होता है, मंदाग्नि की प्रबलता होनेपर जिसप्रकार रोगका समूह बढता है, हीनशक्तिवाले व अनियमितवृत्ति के धारक राजाको उसकी सेनाही जिसप्रकार मारती है, उसीप्रकार केवल्यादिककी निंदा करनेवालोंको दुःख भोगना पडता है ॥ २४६॥ देव, गुरुके प्रति विघ्न न करनेका उपदेश विघ्नो हत्यभवच्च रावणमृतिश्चेल्लक्ष्मणेनेव तं । स्मृत्वा चेतसि संविचार्य विळयो येनास्य सप्रेरितः ॥ विघ्नज्ञः स्वरिपो रिपुः सुकृतिनां चोरो यथार्थ हरे-। . द्विघ्नो यत्र भवेदविघ्नसुजनस्तेनैव नश्येत्स च ॥२४७॥ ___ अर्थ-दूसरों के पुण्य कार्य में विघ्न उपस्थित करना व परनिंदा करना यह महान् पाप बंधके लिए कारण हुआ करता है। इसी विघ्न के कारण से लक्ष्मणके द्वारा रावण का भरण हुआ । भवितव्य टळ नहीं सकता है। कहां रामचंद्र ? कहां रावण ? कहां अयोध्या और कहां लंका । दशरथके कैकयीके साथ वचनबद्ध होना, रामचंद्र और सीता को वनवासके लिए भेजना, शंभुकुमार की तपश्चर्या, लक्ष्मणको चंद्रहास खड्गकी प्राप्ति, सूर्पनखाके द्वारा रावणका बहकना, सीताप. हरण, आंजनेयके द्वारा सीतासंदेश, लंकाप्रयाण व लक्ष्मणके द्वार Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २७१ रावणमरण यह सब बातें विधिके वैचित्र्यको सूचित करती हैं। रावण को विघ्नका फल भोगना ही पडा । इन बातोंको विचार कर अपने शत्रुवों के प्रति भी कोई विघ्न व अंतराय करने के लिए प्रयत्न न करें । पुण्यात्माओंके प्रति दुष्टजन विघ्न उपस्थित करते हैं जिस प्रकार कि चोर दूसरोंके द्रव्यको अपहरण करता है, परंतु वह दुष्टजन दूसरोंको विघ्न करनेमें स्वयं नष्ट होता है । तात्पर्य यह है कि अपनी भलाई चाहनेवाले देव, गुरु, धर्मके प्रति कोई विघ्न उपस्थित न करें ॥२४७॥ विधिकी विचित्रता कोऽयं किं बलमस्य केऽत्र सुहृदोऽमित्राः कियंतस्सुता। दक्षाः किं क इनः स्वबांधवजनाः के तेर्थिनः पेशलाः । स्मृत्वांतक्षतिरेव कैरिति तदा तत्रैव तैः कारयेत् । साचेत्कैरपि नास्तिवैरमखिलेष्वेवं विधिस्तामयान् ॥२४८॥ अर्थ-विधि बहुत विचित्र है, वह मनुष्यको किस समय क्या दुःख देना है इसकी व्यवस्था पहिलेसे कर लेता है, वह पहिलेसे विचार करता है यह कौन है ? इसकी शाक्त क्या है ? इसके मित्र कौन हैं ? वे कितने हैं, इसके शत्रु कौन हैं ? और कितने हैं, पुत्र कितने हैं ? और वे स्वधर्मव्यवहार कार्यमें कुशल है या नहीं ? इसके स्वामी कोन हैं ! कौन इसके बांधव हैं ? याचकजन कौन हैं ? इत्यादि बातोंको विचार कर यह भी विचार करता है कि इस समय किनसे इसका अहित हो सकता है, उनसे अहित कराता है । यदि उस समय कोई अहित करनेवाले नजर न आवे दुष्ट रोगादिक बाधावोंको लाकर पटक देता है ॥ २४८ ॥ धर्मकार्योंमें विन न करनेका उपदेश स्वस्वार्थ स्वमुतं स्वदं स्वपितरं स्वां मातरं स्वानुजं । स्वां दासी स्वपशुं च हंति दहति स्वावासमेषां गदान् ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ दानशासनम् आदत्तेऽर्थहरान्नृपादिभिरलान्यक्कारयत्यन्वहम् । स्वं गेहं स्वपुरं स्वदेशमखिलं विघ्नो वृषागोर्जितः ॥ २४९ ॥ अर्थ-धर्मकार्यके लिए उपस्थित किया हुआ विघ्न बहुत बुरे फलको अनुभव कराता है । अपने, अपने पुत्र, अपनी भार्या, अपने पिता, अपनी माता, अपने भाई, अपनी दासी, द्विपद चतुष्पदादि पशु, आदिको वह मार डालता है, अपने आवास स्थानको जला डालता है। उसके घरपर अनेक भयंकर रोगोंको उत्पन्न करता है। चोरोंको प्रवेश कराता है, राजाके द्वारा अपमान कराता है, अपने घरपर, नगर में, देशमें सर्वत्र उसे कष्ट उठाना पडता है । इसलिए देव, ऋषि, धर्मकार्यमें विघ्न उपस्थित नहीं करना चाहिये ॥२४९ ॥ मृत्युः सर्वबलस्य नास्ति समरे केषांचिदस्त्यंगिनां । भुक्तानां न गदोस्ति नामयवतामंतोऽखिलास्सूनवः ॥ किं जीवंति वसंति किं युवतयो भोगोचिताः किं जनाः । श्रीमंतः किमिमे भवंति महता विघ्नेन नानाविधाः ।।२५०॥ अर्थ-युद्ध में जितने जाते हैं उन सबका मरण नहीं हुआ करता है, उनमेंसे किसीका मरण होता है। भोजन करनेवाले सबको रोग नहीं हुआ करता है। किसी किसीका होता है। उत्पन्न हुए पुत्र सबके सब जीते नहीं, कोई कोई जीते हैं । स्त्रियां सबके सब भोगोचित नहीं हुआ करती हैं। उनमेंसे कोई ही हुआ करती हैं। मनुष्य सबके सब श्रीमंत नहीं हुआ करते हैं। कोई २ ही हुआ करते हैं। इस प्रकार देव, गुरु व धर्मके प्रति किए हुए विघ्न व अपराधके फलसे अनेक प्रकारकी विचित्रता लोकमें देखी जाती है । तदनुसार फल इस जीवको अनुभव करना पडता है ॥ २५० ॥ चोरस्त्वात्मकरागतं धनमरिहस्तागतं हंति वा। व्याघ्रो गोनिवहैकमेव कणयः सेनाजनैकं यथा ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानफलविचार २७३ दोषोऽत्रात्ममनोरथागतमिदं द्रव्यं सजीवादिकं । गेहं वा पुरमेव वा स्वविषयं संदापयेच्छावे ॥ २५१ ॥ अर्थ-जिसप्रकार चोर अपने हाथमें आये हुए द्रव्यको अपहरण कर ले जाता है, शत्रु हाथमें आये हुएको मार डालता है, व्याघ्र पशुओंके समूहको मारता है, बाण सेनाजनको मारता है, उसी प्रकार पुण्यकार्य में किये हुए अंतरायका दोष मनुष्यके मनोरथको मारता है अर्थात उसकी इष्टसिद्धि नहीं होने देता, धन अपहरण करता है । सजीव द्विपद चतुष्पदादिजीवोंको मारता है, अपने घर, नगर व देशको शत्रुवोंके हाथमें दिलाता है, इस प्रकार अंतरायका बहुत बुरा फल होता है ॥ २५१ ॥ स्वामिन्नोऽस्ति पुरः किमस्ति विळयः केनापि द्वीपायनास्मृत्युस्ते जलविष्णुना वददिमां श्रुत्वा तदुक्तिं तदा । द्वेषः स्वामिनि चोदपादि वदतो विष्णोर्वचस्तो श्रुते-। भूत्वकः शबरो मुनिः खलु तयोर्निर्जग्मतुस्तत्पुरात् ॥२५२॥ द्वारावती सा मुनिनैव दग्धा कृष्णस्य मृत्युर्जलविष्णुनैव, विघ्नस्य वैचित्र्यमिदं प्रसिद्धं विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥२५३॥ ___ अर्थ-कृष्णचंद्रने जाकर मुनिनाथसे पूछा कि स्वामिन् ! क्या हमारी द्वारावतीका नाश किसीके द्वारा होगा ? मुनिराजने उत्तर दिया कि द्वीपायनके द्वारा द्वारावतीका नाश होगा । मेरा मरण किससे होगा, यह पुनः कृष्णने पूछा। मुनिराजने उत्तर दिया कि जलविष्णुके द्वारा होगा । इस प्रकार मुनिराजके वचनको सुनकर उन मुनिराजोंके प्रति ही क्रुद्ध होते हुए जो वचनको कृष्णचंद्र बोल रहा था, उसे सुनकर द्वीपायन व जलविष्णु उस नगरसे बाहर निकल गये । उनमेंसे एक तो भिल्ल बनकर चला गया और एक मुनिदीक्षा लेकर चला गया। प्रकृतिके वैचित्र्यको देखिये । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ दानशासनम् द्वारावती तो अशुभ तैजसऋद्धिप्राप्त उस मुनिके द्वारा ही जलगई । और कृष्णचंद्रका मरण भी उसी जलविष्णुके द्वारा ही हुआ। अंतरायका वैचित्र्य लोक में प्रसिद्ध है, वह फल दिये विना नहीं छोड सकता । लोकमें यह उक्ति प्रसिद्ध ही है किं विनाशकाल में मनुष्यको विपरीत बुद्धि सूझा करती है । मनुष्य चाहता है कुछ, होता है और कुछ, सब कुछ विधिविलसित हुआ करते हैं । उससे अघटित घटना विघटित होती है । इसप्रकार विचार कर मनुष्यको सदा शुभ आचरण में प्रवृत्ति करनी चाहिये ।। २५२-२५३ ॥ मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतेः प्रभासुरं पावनदानशासनम् । मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं धनानि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ २५४ ॥ अर्थ- समस्त आईत ऋषियोंके शासन के अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमाने की इच्छा रखनेवाले दानी श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिकद्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ २५४ ॥ इति करणत्रयलक्षणलक्षिताहारदानविधिः * Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधदानविचार २७५ - औषधदानविधानम् मंगलावरण व प्रतिज्ञा. नत्वा जिनं जिनमुनीनखिलागमज्ञान् । वक्ष्ये मुनींद्रतनुरोगहरी चिकित्साम् ॥ यूषैः कषायखलचूर्णसुकल्कपथ्य स्तां दोषशांतिकरणैर्यतिनां प्रकुर्यात् ॥ १॥ अर्थ-श्री जिनेंद्र भगवंतको एवं संपूर्णशास्त्रोंके पारगामी मुनीश्वरोंको नमस्कारकर मुनीश्वरोंके शरीर में उत्पन्न होनेवाले रोगोंकी चिकित्साका निरूपण करेंगे। ऋषियोंको निर्दोष औषधिको सेवन करना पडता है, अतः उनकेलिये योग्य यूष, कषाय, खल, चूर्ण, कल्कोंसे शरीरके वात पित्त कफादिक दोषोंकी उपशांति करनी चाहिये । उत्कृष्टजैन आधि पूतवचोभिरिष्टधनदानर्मोचयित्वैव यः । सौचित्तीकरणं करोति खलु वैयावृत्य मुक्तं जिन : ॥ पात्राणां विमलौषधैरनुगुणैः पथ्यैः सुखैस्तैर्गदान् । भक्त्या वत्सलतागुणेन सुकृती जैनोऽधिकःसन्स च ॥२॥ अर्थ-पात्रों के मनमें संक्लेश परिणाम है उसे भक्तिपूर्ण मृदुवचनोंसे एवं उनके योग्य संयमोपकरण व ज्ञानोपकरणको प्रदान कर, उनके परिणामको निर्मल बनाना उसे वैयावृत्य कहते हैं। पात्रोंको शरीरमें । जो रोग है उनको उनके लिए अनुकूल पथ्य, सुखकर औषधियोंको देकर भक्त व वात्सल्यगुणसे दूर करें। उसीको उत्कृष्ट जैन कह सकते हैं ॥२॥ वात्सल्यगुण भक्तिसंपत्तिरर्थित्वमिष्टोक्तिः सक्रियाविधिः । स्वधर्मस्वसिसौचित्ति- कृतिर्वात्सल्यमूचिरे ॥ ३ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ दानशासनम् - - - अर्थ-दाताके हृदयमें जो भक्ति है, उदारता है, पुण्यफलापेक्षता है, प्रियवचन है, दान देनेको यथार्थविधि है एवं पात्रोंके हृदयको प्रसन्न करनेकी भावना है, उसे बात्सल्य कहते हैं ॥ ३ ॥ पुत्रस्तातं सुतमिव पिता रोगिणं प्राणकांता । ग्लानां भोप्यनुगुणगणैर्बधुवगैश्च धृत्वा ॥ काश्चित्तरं दधिघृतमिदं ग्राहि निंबूफलेखून् । वैयावृत्यं रचयति सदा रोगिणां योगिनांच ॥ ४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार पुत्र पिताकी सेवा करता है, पिता रोगी पुत्रकी परिचर्या करता है, रोगपीडित भार्याकी पति जिस प्रकार अपने बंधुबांधवोंकी सहायतासे रक्षा करता है, इसी प्रकार दही, दूध, घृत, निंबूफल, इक्षु आदि प्रदान करते हुए रोगी व योगियोंकी सेवा शुश्रूषा करें । अर्थात् योगियोंकी रोगावस्थामें हरतरहसे सेवा करनी चाहिये । आहारके समय उनकी प्रकृतिके अनुकूल भोजन व निर्दोष औषध प्रदान करना चाहिये ॥ ४ ॥ आदरगुण. स्वाध्याये स्वाध्यायिनि संयमिनि गुरुषु संघे च । अनतिक्रममौचित्यं कृतयोगः प्राहुरादरं विनयं ॥ ५ ॥ अर्थ-अपने साथी यतियों के साथ, अर्जिकाओं के साथ, गुरुवोंके साथ, संयमियोंके साथ एवं संघके साथ औचित्यको उल्लंघन न करके व्यवहार करना उसे आदर कहते हैं या विनय कहते हैं ॥५॥ यथोचितं संघमवेक्ष्य धार्मिकः करोति तोषं विनयं न जानुचित । स एव मूर्खः स च नैव धार्मिको न च व्रती नो समयी सुदृक् च न ।। अर्थ-जो व्यक्ति संघको देखकर संतुष्ट नहीं होता है एवं संघका विनय नहीं करता है, वहीं मूर्ख है, वह धार्मिक नहीं है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधदानविचार 1 व्रती भी नहीं है, शास्त्रज्ञ भी नहीं है, सम्यग्दृष्टि भी नहीं है । संघका आदर विनय करना सम्यग्दृष्टि भव्योंका कर्तव्य है ॥ ६ ॥ साधुओंको औषधि देनेकी विधि यावज्जीर्यति भेषजं रसभवं पीतं तु भुक्त्वाशनं । तावत्तिष्ठत्ति सामयो हरति तद्रोगं विधत्ते बलम् ॥ भुंक्तं भेषजमन्नमेकसमयेऽजीर्णेपि तस्मिन्यते । स्तद्रोगाधिकतां च कानपि गदान्कुर्यात्सदा संहिताम् ||७|| २७७ 1 अर्थ - आयुर्वेदशास्त्रका सामान्य नियम ऐसा है कि जो औषध ग्रहण किया जाता है, उस औषधिका पचन होनेके बाद ही आहारको प्रहण करना चाहिये । तभी उस औषधिसे अनेक रोग दूर होते हैं एवं शरीरको बलप्रदान करता है । यदि औषधिके जीर्ण होनेके पहिले ही आहार ग्रहण किया तो अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । जैनमुनि एकवार ही भोजन करते हैं। भोजन के समय ही औषध भी उनको लेना पडता है, औषध और आहार एक साथ लेने के कारणसे औषध के जीर्ण न होनेसे रोगकी वृद्धी होने की संभावना है व इतर अनेक रोगोंके उत्पन्न होने की संभावना है । इसलिए जैन साधुवों को आहार के समय औषध देना हो तो संहिताप्रयोग _ करना चाहिये ॥ ७ ॥ ‡ प्राभक्तादि औषधिसेवनफल. प्रातरिहौषधं वळवतामखिलामयनाशकारणं । प्रागपि भक्ततो भवति शीघ्रविपाककरं सुखावहम् ॥ ऊर्ध्वमथाशनादुपरि रोगगणानपि मध्यगं । स मध्याशय गान्विनाशयति दत्तमिदं भिषजा विजानता ॥८॥ + भुंक्ते मुनिस्त्वशनभेषजमेककाले तस्मात्तदौषधफलं न हि किंचिदस्ति । जीर्णौषधं हरति तत्कुरुते बलं चाजीर्ण रुजाधिकमतो न रसः प्रशस्तः ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ दानशासनम् . अर्थ-जिनमुनियोंकी चिकित्सामें प्रवीण वैद्यको जानना चाहिये कि प्रातःकाल लिया हुआ औषध जिनका कोष्ठ, अग्नि व देहकी शक्ति विशिष्ट हो उनके समस्त रोगोंको नाश करता है, भोजनसे पहिले लिया हुआ औषध शीघ्र भोजनको पचाता है व सुखकर है। भोजनके बाद लिया हुआ औषध बादमें आनेवाले सर्व रोगोंको दूर करता है । भोजनके बीचमें लिया हुआ औषध कोष्ठमध्यमें स्थित अनेक रोगोंको दूर करता है ॥ ८॥ . अंतरभक्तादिफल आंतरभक्तमौषधमथानिकरं परिपीयते तथा । मध्यगते दिनस्य नियतोभयकालमुभोजनांतरे ॥ औषधरोषिबालकृशवृद्धजने सहसिद्धमौषधै- । यमिहाशनं तदुदितं स्वगुणैश्च सभक्तनामकं ॥ ९ ॥ अर्थ-अंतरभक्त उसे कहते हैं जो सुबह शामके नियत भोजनके बीच ऐसे दिनके मध्यसमयमें सेवन किया जाता है । यह अंतरभक्त अग्निको अत्यंत दीपन करनेवाला, [ हृदय-मनको शक्ति देनेवाला पथ्य ] होता है । जो औषधोसे साधित [ काथ आदिसे तैयार किया गया या भोजनके साथ पकाया हुआ ] आहारका उपयोग किया जाता है उसे सभक्त कहते हैं । इसे औषधद्वेषियोंको [ दवासे नफरत करनेवालोंको ] व बालक, कृश, वृद्ध, स्त्रीजनोंको देना चाहिये।॥९॥ भोजनसमय विण्मूत्रे च विनिर्गते विचलिते वायौ शरीरे लघौ । शुद्धेऽपींद्रियवाङ्मनःसुशिथिले कुक्षौ श्रमव्याकुले ॥ कांक्षामप्यशनं प्रति प्रतिदिनं ज्ञात्वा सदा देहिना- । माहारं विदधीत शास्त्रविधिना वक्ष्यामि युक्तिक्रमं ॥१०॥ अर्थ-जिस समय शरीरसे मलमूत्र का ठीक २ निर्गमन हो, अपानवायु भी बाहर छूटता हो, शरीर भी लघु हो, पांचों इंद्रिय Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधदानविचार २७९ प्रसन्न हों, लेकिन वचन व मनमें शिथिलता आगई हो, पेट भी श्रम (भूक ) से व्याकुलित हो, तथा भोजन करने की इच्छा भी हो, तो वही भोजन का योग्य समय जानना चाहिये । उपर्युक्त लक्षण की उपस्थिति को ज्ञात कर उसी समय आयुर्वेदशास्त्रोक्तभोजनविधिक अनुसार भोजन करें । आगे भोजनक्रमको कहेंगे ॥ १० ॥ भोजनविधि. स्निग्धं यन्मधुरं च पूर्वमशनं भुजीत भुक्तिक्रमे । मध्ये यल्लवणाम्लभक्षणयुतं पश्चात्तु शेषानसान् ॥ ज्ञात्वा सात्म्यबलं सुखासनतले स्वच्छे स्थिरस्तत्परः । क्षिप्रं कोष्णमयं द्रवोत्तरतरं सर्वर्तुसाधारणम् ॥ ११ ॥ अर्थ- भोजन करने के लिये जिसपर सुखपूर्वक बैठ सके ऐसे साफ आप्तनपर स्थिरचित्त होकर अथवा स्थिरतापूर्वक बैठे । पश्चात् अपनी प्रकृति व बलको विचार कर उसके अनुकूल थोडा गरम [ अधिक गरम भी नहो न ठण्डा ही हो ] सर्व ऋतु के अनुकूल ऐसे आहार को, शीघ्र ही [ अधिक विलंब न भी हो व अत्यधिक जल्दी भी न हो ] उस पर मन लगाकर खावें । भोजन करते समय सबसे पहिले चिकना, व मधुर अर्थात् हलुआ, खीर, बर्फी, लड्डू आदि पदार्थों को खाना चाहिए । तथा भोजन के बीचमें नमकीन, खट्टा आदि अर्थात् चटपटा मसालेदार चीजोंको व भोजनान्त में दूध आदि द्रवप्राय आहार खाना चाहिये ॥ ११ ॥ भुक्त्वा वैदलसुप्रभूतमशनं सौवीरपायीभवे- । न्मय॑स्त्वोदनमेवचाभ्यवहरंस्तकानुपानान्वितः ॥ स्नेहानामपि चोष्णतो यदमलं पिष्टस्य शीतं जलं । पीत्वा नित्यसुखी भवत्यनुगत पानं हितं प्राणिनाम्॥१२॥ अर्थ-भोजनमें दालसे बनी हुई चीजोंका ही, मुख्यतया उपयोग करना Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० दामशासनम् चाहिए। खाते वखत कांजी पीना चाहिये । भात आदि खाते समय, तत्र (छाच ) पीना योग्य है। घी आदि से बनी हुई चीजोंसे भोजन करते ये, या स्नेहपीते समय, उष्ण जलका अनुपान करलेना चाहिये । पट्टी से बने पदार्थोंको खाते हुए ठण्डा जल पीना उचित है । प्राणियों के हितकारक इस प्रकार के अनुपान का जो मनुष्य नित्य सेवन करता है वह नित्य सुखी होता है ॥ १२ ॥ * औषधिदानफल. दत्तं येन सुभेषजं विमलं पथ्यं गुरूणां सतां । मुक्तास्तेन गदास्ततोऽति विमलं चित्तं सुरत्नत्रयम् ॥ पूतं जातमखंडितं धृततपोध्यानं हतं दुष्कृतम् । लब्धं तेन समस्तमेव सहसा नित्यं सुखं लभ्यते ॥ १३॥ अर्थ - जिस पुण्यवान् दाताने साधुषोंको उनके रोग शरीर प्रकृति आदिको देखकर आहार के समय योग्य, पवित्र, पथ्यकर औषध दे दिया, उससे वे साधु रोग मुक्त होते हैं, इतना ही नहीं उनका चित्त निर्मल होता है, उससे रत्यत्रयकी विशुद्धि होती है, उससे अखंडित तप व ध्यानकी सिद्धि होती है । दुष्कृत अर्थात् पाप नष्ट होता है । पापके नष्ट होनेसे ध्यानकी सिद्धि होती है, उससे नित्य सुखको वे प्राप्त करते हैं । औषधदानके देनेवाले दाताके उस निर्मल दानसे उस पात्रको जब साक्षात् मोक्ष मिलता है तो फिर दाताको उत्तम फल क्यों नहीं मिलेगा ॥ १३ ॥ 樂 टीप - इस प्रकरण के श्लोक नं. ८-९ उग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक के २० वें अध्याय में १८ व १९ वें श्लोक हैं । उक्त कल्याणकारकके चौथे अध्याय १६ - १७ - १८ वें श्लोक हैं । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधदानविचार .२८१ X भेषजदान फलोदयतः स्यात्सत्त्वपरः सकलामयदुरः । शंखरवींदुझषांकुशपद्माद्यक्षयलक्षणलक्षितगात्रः ॥ १४ ॥ अर्थ – औषध दानके फलसे यह मनुष्य समस्तरोगों से रहित होकर हृष्ट पुष्ट शक्तियुक्त शरीरको प्राप्त करता है । उसके शरीर में शंख, सूर्य, चंद्र, मत्स्य, अंकुश, कमल आदि उत्तम लक्षणोंके चिन्ह रहते हैं, वह भाग्यशाली होता है ॥ १४ ॥ पात्रनिंदासे रोग दूर नहीं होता है. रोगो मुंचति भेषजोऽत्र भिषजा दत्तौषधैरेव सोऽ- I होजस्त्वगदैर्न मुंचति पुनर्दाना ईदर्चादिभिः || नो रुक्साधुजनव्यथामयकृतावज्ञाभवो मुंचते । गर्भिण्यावधिपतितैलविभवो तत्काललब्धीव सा ॥ १५ ॥ ३६ अर्थ – संसारीजीवोंको योग्य वैद्यने औषध दिया तो उस औषधिसे वह रोग दूर होता है । यदि वह रोग पात्रदूषणादिसे उत्पन्न पापसे प्राप्त हो तो वह औषधप्रदानसे दूर नहीं होता है । और यदि पात्रदान, अईत्पूजादिकी अवज्ञासे एवं साधुजनों के रोगको देखकर भी तिरस्कार परिणामकर उत्पन्न हुआ हो तो वह औषधसे भी दूर नहीं होता है । जिस प्रकार गर्भिणीके द्वारा पीया हुआ तैल उसकी प्रसव x चारित्रं दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायविनयो नयः । सर्वेऽपि विहितास्तेन दत्तं येनौषधं सतां ॥ १ ॥ सद्भैषज्य सुदानतः परभवे मुक्तस्त्रिपीडादितो । नीरोगश्चदुलानलोऽतिबलवान् क्ष्वेडादिबाधोज्झितः ॥ शंखाकेंदुझषांकुशांबुजमुखाद्यक्षूणलक्ष्मांकितः स्यात्सत्पुण्यभवप्रभावबलतो निर्मुक्तशत्रुः सदा ॥ २ ॥ * पात्रादिरोगमाकर्ण्य य उदासीन ईक्ष्यते ॥ न चिकित्सति तस्यापि रोगोऽसाध्यो भवे भवे ॥ १ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ दानशासनम् वेदनाको दूर करता है, इसी प्रकार काललब्धिके आनेपर ही वह रोग दूर होता है ॥ १५॥ दुष्टजन भूपे सेवकसकुलेऽत्र धनिके ग्रामप्रजाप्रेषके । चाकृष्टे धनहर्तरीह सशमास्तिष्टीत मौनान्विताः ॥ निर्षीजं विवदंति चोभयभवस्वात्मार्थपुण्यार्थिभि- । स्त्वाकोशंत्यतिदूषयंति कुदृशस्तान्पापवित्तार्थिनः॥ १६ ॥ अर्थ-इस कलिकालमें काष्ठांगारके समान मिथ्यात्वसे दूषित व्यक्ति पापसे द्रव्यार्जन करनेकी इच्छासे दुष्ट राजाने, सेवकोने, धनिकोने, गांवके प्रजासंरक्षकोने या चोरोने कोई धनका अपहरण किया या कोई गालियां दी तो कुछ भी प्रत्युत्तर न देकर शांति धारण कर मौनसे बैठे रहते हैं। परंतु उभयभवके हितको साधन कर देनेवाले अपने धर्मात्मा बंधुवों के साथ अकारण ही विवाद करते हैं । उनको गाली देते हैं । उनका दूषण करते हैं ॥ १६ ॥ श्रुत्वा ज्ञात्वा पुराणं प्रतिदिनमपि नः श्रेणिकादिप्रपंचं। . - यात्यात्मैकां गतिं वानृतमिदमखिलं काललब्धिप्रधान ।। धर्मः सर्वो वृथा स्यादिति विदितजना जैनवंधूनबीजं । घ्नंत्याक्रोशंति निंदति हि सकळधनं दंडयंत्याहरंति ॥१७॥ अर्थ-पापक्रिया करनेकी इच्छा रखनेवाले पापी गत्रिंदिन विचार किया करते हैं, प्रतिदिन पुराण व शास्त्रको सुनकर व जानकर भी श्रेणिकादि अपने कर्मके अनुसार किसी गतिमें गये अर्थात् नरकमें गये । इसलिए यह सब झूठा है । काललब्धि एक मात्र प्रधान है। धर्म वगैरह सर्व व्यर्थ है, ऐसा अपने अज्ञानसे समझकर व्यर्थ ही अकारण अपने हितैषी बंधुवों को कोसते हैं, मारते हैं, उनकी निंदा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधदानविचार wwwAAMAN करते हैं, दंड देते हैं, धन अपहरण करते हैं। यह कालकी विचित्रता मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतैः प्रभासुरं पावनदानशासनम् । मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं धनानि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ १८॥ अर्थ-समस्त आहेत ऋषियोंके शासन के अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है। इसलिए पुण्यधनको कमाने की इच्छा रखनेवाले दानी श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिकद्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ १८ ॥ इत्यौषधदानविधानम् ॥ - 6 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ दानशासनम् अथ शास्त्रदानविधानम्. शास्त्रकी निरुक्ति शास्वनुशिष्टौ धातुः शास्ति हितं भव्यजीवसुखहेतुं । शासनमिव तत्रायत इति शास्त्रमदोषमखिळदोषहरम् ॥ १ ॥ अर्थ - शास धातु अनुशासन अर्थ में प्रयुक्त होता है । अर्थात् वह भव्य जीवोंके लिए सुखके हेतुभूत हितको उपदेश देता है । एवं शासन के समान भव्य प्राणियोंकी रक्षा करता है, अत एव वह शास्त्र समस्त अज्ञानादिक दोषको दूर करनेवाला होने से निर्दोष है ॥ १ ॥ शास्त्रका महत्व शास्त्रादेव हि तत्त्वार्थ श्रद्धानं ज्ञानमांजसम् । ज्ञानपूर्व हि चारित्रं धर्मः शास्त्रादिति स्थितिः ॥ २ ॥ अर्थ - शास्त्रोंके पठन व श्रवण करनेसे ही तत्त्वार्थश्रद्धान अर्थात् सम्यग्दर्शन व निर्मलज्ञानकी प्राप्ति होती है । ज्ञानपूर्वक चारित्र होता है । इसलिए रत्नत्रयात्मक धर्मकी स्थिति शास्त्र से ही होती है ॥२॥ 1 धर्मक्रियावोंकी सिद्धि दानं पूजा तपः शीळं साधुसम्यक्त्व पूर्वकम् । तच्च शास्त्रादतः शास्त्र- मूलधर्मक्रियाखिला ॥ ३ ॥ अर्थ - दान, पूजा, तप व शील ये सब गुण सम्यक्त्वपूर्वक प्राप्त होते हैं । वह सम्यक्त्व शास्त्र के श्रवण व पठन से प्राप्त होता है । इसलिए संपूर्ण धर्मक्रियायें शास्त्रमूलक ही सिद्ध होती हैं ॥ ३ ॥ केवलज्ञानकी सिद्धि एकतः शेषदानानि पूजा शीलं तपोऽखिलं । एकतः शास्त्रदानात्स्यात् केवलज्ञानसाधनम् ॥ ४ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविचार २८५ अर्थ-एक ही शास्त्र दानसे अन्य सभी दानोंकी सिद्धि होती है । विशेष क्या ? केवल शास्त्रदान से केवलज्ञानकी भी प्राप्ति होती है ॥ मिथ्याज्ञाननाश मिथ्याज्ञानतमोमूढो बंभ्रमीति भवार्णवे । मिथ्याज्ञानतमोध्वंसी शास्त्रज्योतिर्न चापरम् ॥ ५ ॥ अर्थ-मिथ्याज्ञानरूपी अंधकारसे यह मूर्ख जीव इस संसारसमुद्रमें परिभ्रमण करता है । यह शास्त्र ही मिथ्याज्ञानरूपी अंधकारको दूर करनेके लिए उज्ज्वल दीपकके समान है। अन्य कोई भी समर्थ नहीं है ॥ ५॥ যমজাহান। शास्त्रप्रकाशने तस्माद्रुवं धर्मः प्रकाशितः । . धर्मे प्रकाशिते सर्वे पुरुषार्थाः प्रकाशिताः ॥ ६॥ अर्थ-शास्त्रके प्रकाशन करने से उससे धर्मका प्रकाशन अपने आप होता है अर्थात् लोग धर्मके तत्वसे परिचित होते हैं । धर्मका प्रकाशन करनेपर समस्त पुरुषार्थ प्रकाशित होते हैं । अर्थात् समस्त जीवोंका उपकार होता है । इसलिए शास्त्रप्रकाशन का महत्त्व अधिक लोकका उपकार पुरुषार्थोपदेशे हि लोकस्योपकृतिर्भवेत् । ततो लोकोपकारार्थ शास्त्रमार्या वितन्वते ॥ ७ ॥ अर्थ-धर्म, अर्थ, काम व मोक्षपुरुषार्थके उपदेश देने से लोकका उपकार होता है । इसलिए लोकके उपकार के लिए सज्जन लोग शास्त्रदान करते हैं एवं इसीलिए पूर्वाचार्य शास्त्रकी रचना व व्याख्या करते हैं ॥ ७ ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ दानशासनम् लोकका उद्धार अपि तीर्थकरास्तीर्थमुद्धरति जगद्धितम् । अत एव हि ते पूज्याः सर्वलोकैश्च योगिभिः ॥ ८ ॥ अर्थ - इस संसार में तीर्थंकर परमेष्ठी भी द्वादशांगादिशास्त्रका उद्धार जगत् के हित के लिए ही करते हैं । इसलिए ही वे समस्त संसार के प्राणियोंसे व मुनीश्वरोंके द्वारा पूज्य होते हैं ॥ ८ ॥ 1 शास्त्रप्रतिष्ठा शास्त्रे प्रतिष्ठिते साक्षान्ननु धर्मः प्रतिष्ठितः । स्वात्मा प्रतिष्ठितो भव्यलोकश्चापि प्रतिष्ठितः ॥ ९ ॥ अर्थ - शास्त्रकी प्रतिष्ठा करनेपर साक्षात् धर्मकी स्थापना होती है । अपने आत्माकी प्रतिष्ठा होती है । जिसमें भव्य लोगों की भी प्रतिष्ठ होती है ॥ ९ ॥ किमत्र बहुनोक्तेन धर्मः शास्त्रात्प्रवर्तते । ततो धर्मार्थिनः शास्त्रमुद्धरंतु प्रयत्नतः ॥ १० ॥ अर्थ - इस संबंध में विशेष क्या कहें ? धर्मकी प्रवृत्ति शास्त्रसे ही होती है । इसलिए धर्मको चाहनेवाले सज्जन यत्नपूर्वक शास्त्रका उद्धार करें ॥ १० ॥ शास्त्रदानफल. ये संलिखतीह विळेखयंति व्याख्यांति श्रुण्वंति पठंति शास्त्रम् । अर्चति शंसति नमति तेऽर्थान्यच्छंति शास्त्राब्धितटं गताः स्युः ११ अर्थ – जो सज्जन शास्त्रको लिखते हैं, लिखाते हैं, व्याख्यान करते हैं, सुनते हैं, पढते हैं, पूजा करते हैं, प्रशंसा करते हैं, नमस्कार करते हैं, शास्त्रके निमित्तसे द्रव्यका दान करते हैं, वे शास्त्र समुद्र के तटपर पहुंचते हैं अर्थात् समस्तशास्त्र में पारंगत होते हैं ॥ ११ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविचार २८७ AKAirror विद्वदभ्यो ददते नित्यं लिखितालिखितानि ते। पुस्तकान्युचितानि स्युः शास्त्रवाराशिपारगाः ॥१२॥ अर्थ-जो सज्जन लिखित व अलिखित शास्त्रोंको ज्ञानोपार्जन करनेके लिए विद्वानोंको प्रदान करते हैं वे शास्त्ररूपी समुद्र के पारगामी होते हैं ॥ १२ ॥ लिखितं पुस्तकमलिखितमंबरनाराचकंटगुणमंजूषाः । ये ददते ते पुरुषा जिनशास्त्रपयोधिपारगा एव स्युः ॥१३॥ अर्थ-जो सज्जन साधुसंतोंके लिए ज्ञानार्जनके साधनभूत लिखित शास्त्र, अलिखित शास्त्र, वस्त्रवेष्टन, लोहकंटक आदि दान में देते हैं वे शास्त्ररूपी समुद्रके पारगामी होते हैं ॥ १३ ॥ भक्ती राज्ञि वृथा भवेद्बहुविधा यच्छंति सेवा यथा । सप्तांगं सफलं तथा जिनपतौ धर्मप्रभावोत्सुके ॥ धर्मे धर्मबलद्वये गुरुवरे साधौ सदा धार्मिके । शास्ने शानिणि पुस्तकेषु पठति व्याख्यातरि श्रोतरि॥१४॥ पापं नाशयितुं मुखं च सुकृतं लब्धं सुबोधांबुधेः । पारं गंतुमिमा रुजां जडमति इंतुं स भव्यो जनः ॥ वर्णाभ्यासकरे तुजां जनपतौ नार्थव्ययस्यावधि । कुर्यात्क्षेत्रविधाविमास्तदुचिताः पूतक्रिया भक्तितः॥१५॥ अर्थ- जिसप्रकार राजाके प्रति की हुई सेवारहित भक्ति व्यर्थ होती है, यदि वही भक्ति सेवासहित की गई तो उससे अनेक प्रकारके फल मिलते हैं । इसीप्रकार जिनेंद्रभगवंत, धर्मप्रभावनातत्पर साधर्मी भाई, धर्म, धर्माश्रित स्वपर बंधुगण, गुरुजन, साधुगण, धार्मिकजन, शास्त्र, शास्त्री, पुस्तक, पढनेवाले, व्याख्यान करनेवाले, और श्रोता आदिकी सेवा भव्यजन पापके नाशकेलिए, पुण्यकी वृद्धिकेलिए, सुखकी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् प्राप्ति के लिए, ज्ञानसमुद्रके पार जानेके लिए, समस्त रोग व अज्ञानको दूर करनेकेलिए, अवश्य करें ! जिसप्रकार अपने पुत्रके विद्याभ्यास व अपनी खेत के संरक्षण केलिए मनुष्य धनव्ययका विचार नहीं किया करता है उसी प्रकार इन पवित्र कार्योंके लिए धनव्ययकी मर्यादा नहीं रखनी चाहिये ॥ १४ ॥ १५ ॥ + विनयका महत्व २८८ अंकुरयति पल्लवयति व्याप्नोति पुत्रजडबुद्धिः । बहुफलति सरसगोहलवीर्येणलेव विनयधनदानात् ॥ १६ अर्थ – जिसप्रकार जमीनमें खातके डालने से सस्यकी समृद्धि होती है, उसीप्रकार अज्ञानी बालकों की जडबुद्धि में विनयरूपी धनके प्रदान करने से वह अंकुरिक होती है, पल्लवित होती हैं । उसका विकास होता है | अतः विनयगुणको धारण करना आवश्यक है ॥ १६ ॥ शास्त्रपठनयोग्यस्थान सौधे नगे वने रम्ये मंदिरे विमले स्थळे | शास्त्राणि पठतां नित्यं बुद्धिरंकुरयत्यहो ॥ १७ ॥ अर्थ – हे भव्य ! प्रतिनित्य महल में, पर्वतपर, वनमें मल मूत्र उच्छिष्टादिर इत निर्मलस्थान में जो प्रतिनित्य शास्त्रका स्वाध्याय करता है, उसकी बुद्धि अंकुरित होती है, अर्थात् उसके ज्ञानमें निर्मलता बढती है !! १७ ॥ पुस्तकादि दानफल पठतामुपदेष्णां पुस्तकगृहचित्तदेह रक्षणवित्तैः । यः कुरुते सुमनस्त्वं सम्यग्ज्ञानं स मोक्षमपि लभते ॥ १८॥ + संप्रत्यत्र न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूडामणि - | स्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्योतिताः ॥ सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तासां समालंबनं । तत्पूजा जिनवाक्य पूजनतया साक्षाज्जिनः पूजितः || Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदोनविचार २८९ अर्थ-जो सज्जन पढनेवाले व उपदेशदेनेवाले विद्वानोंको पुस्तक, घर, देहसंरक्षणके साधन आदिको प्रदान कर उनको निराकुल बनाते हैं, वे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करते हैं, एवं क्रमसे मोक्षको भी प्राप्त करते हैं ॥ १८ ॥ गुरुभक्तिका फल निजगुरुपदसद्भक्तिर्यस्य सदा वसति बुद्धर्जाड्यम् । मुगुरुपसादभानोस्तमोऽपसरतीव सुमतिमालभते ॥१९॥ अर्थ-जिसकी भक्ति अपने गुरुके चरणोंके प्रति सदा काल रहती है उसकी बुद्धि की जडता शीघ्र ही गुरुके प्रसादसे दूर होती है। जिसप्रकार सूर्यके उदयसे अंधकार दूर होता है उसी प्रकार उसका अज्ञान दूर होकर वह सुबुद्धि को प्राप्त करता है ॥ १९ ॥ . सज्जन कभी शास्त्राध्ययन छोडते नहीं मां दीपनमस्ति नैव भुवने मुंचंति किं भोजनम् । रोगोऽसाध्य इहाभवद्यदहितं जेमंति किं लौकिकाः ॥ उद्योगो बहुदोषदोपि सकलोद्योगांस्त्यजंतीति किं । यच्छास्त्रश्रुतिपाठमल्पमतयस्सतस्त्यजंतीति किं ॥२०॥ अर्थ—इस लोकमें पाचनशक्ति न हो तो क्या मनुष्य भोजन करना छोडते हैं ? नहीं । रोग असाध्य हुआ जानकर अपथ्यपदार्थोंका सेवन करते हैं ? कभी नहीं । बहुतसे दोषपूर्ण उद्योगोंको जानकर • समस्त उद्योगोंको छोडते हैं ? कभी नहीं । इसी प्रकार अपनी बुद्धि मंद व अल्प जानते हुए भी सज्जन शास्त्रोंका श्रवण व पठनको छोडते हैं ! कभी नहीं ॥ २० ॥ पुत्रका अज्ञान दूर करनेका उपदेश तमो निवार्य सकलमिवार्को दर्शयन्करैः । तुजा पितेव ज्ञानार्को जीवादिद्रव्यमुल्वणम् ॥ २१ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० दामशासनम् अर्थ - जिस प्रकार सूर्य अंधकार को दूर करके समस्त पदार्थोंको अपने करों (किरणों) से दिखाता है, उसी प्रकार ज्ञानसूर्यरूपी पिता का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्रका अज्ञानांधकार दूर कर अपने हाथसे जीवादि द्रव्योंको स्पष्ट रूपसे दिखलावें ॥ २१ ॥ शास्त्रदानफल स्वाध्यायोचितवस्तुभिर्विनयवागुत्साहनानंदनै- । ये बुद्धिं परिवर्धयति यतिनां रक्षति शास्त्रामृतैः ॥ ते साधुजिनभाषितागमघरान्कुर्वति शंसति ता- । नचेत्यर्थचयैः स्तुवंति विनमंत्यग्रे श्रुतज्ञानिनः ॥ २२ ॥ : अर्थ – जो सज्जन स्वाध्यायोचित पुस्तक वेष्टन आदि द्रव्योंको प्रदान कर विनयवचन, उत्साह व आनंदके द्वारा साधुवोंकी बुद्धिकी वृद्धि करते हैं, एवं शास्त्ररूपी अमृत से साधुवों की रक्षा करते हैं, वे साधुवोंको जैनागमके धारक बनाते हैं, एवं जो उन साधुवोंकी अनेक प्रकार के द्रव्योंसे पूजा करते हैं, प्रशंसा करते हैं व नमस्कार करते हैं, वे आगे के भवमें श्रुतज्ञानी होते हैं अर्थात् सकल श्रुतज्ञान को प्राप्त करते हैं ॥ २२ ॥ जिनबिंबपूजाफल जिनरूपधरं चित्रं सद्द्द्रव्यैरचयति ये । जिनपूजाफलं तेऽत्र लभतेऽनेकधा पुरः ॥ २३ ॥ अर्थ - जो सज्जन भक्तिसे जिनेंद्र भगवंतके रूपको धारण करनेवाले जिनबिंबकी भक्तिसे अनेक उत्तम द्रव्योंसे पूजा करते हैं, वे इसी जन्ममें साक्षात् जिनेंद्र की पूजा करनेके सातिशय फलको प्राप्त करते हैं । एवं आगे के जन्म में अनेक प्रकारसे ऋद्धिसहित संपत्ति सुख आदि फलको प्राप्त करते हैं ॥ २३ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविचार २९१. साधुसेवाफल जिनरूपधरं साधुं ये स्वार्थैरर्चयति ते । फलं लभते बहुधा जिनपूजाफलादिकम् ॥ २४ ॥ अर्थ - जो सज्जन जिनेंद्र भगवंत के रूपको धारण करनेवाले जैन साधुवोंकी बहुत भक्तिसे अपने अनेक उत्तमद्रव्योंसे पूजा करते हैं, वे उससे साक्षात् जिनेंद्रकी पूजा, पंचाश्चर्य आदिके रूपमें अनेक उत्तम फलोंको प्राप्त करते हैं ॥ २४ ॥ तद्धराञ्जनशास्त्राणि ये स्वार्थैरचर्येति ते । लभते विमलज्ञानं केवलज्ञानसाधनम् ||२५|| अर्थ – जो सज्जन लोकहितकारक पवित्रशास्त्रोंकी एवं उन शास्त्रोंको धारण करनेवाले संयमियोंकी अनेक उत्तम द्रव्योंसे पूजा करते हैं, वे केवलज्ञानको प्राप्त करने योग्य निर्मलज्ञानको प्राप्त करते हैं ॥ २५ ॥ अल्पानल्प गुणियोंकी पूजा अल्पगुणानमितगुणानल्पज्ञानखिळवेदिनो मत्वा ये । उचितं सत्कारं ते पुण्यं बोधं स्वधर्मवर्धन बुध्या ॥ २६ ॥ अर्थ - जो सज्जन अल्पगुणियोंको विशिष्ट गुणी समझ कर एवं अल्पज्ञानियोंको अखिलज्ञानी समझकर धर्मवृद्धिकी बुद्धिसे उचित सत्कार करते हैं वे सातिशयपुण्यको व विशिष्ट निर्मलज्ञानको प्राप्त करते हैं || २६ ॥ अल्पानल्पज्ञानियोंकी पूजा अल्पज्ञानल्पन्तानल्पानल्पश्रियो नृपानिव सर्वान | नृपनामानो मत्वा मज्ञाः कृतिनो बुधाय पुण्यं ज्ञानम् ||२७|| Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ दानशासनम् अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि कम संपत्ति व अधिकसंपत्तिको धारण करनेवाले राजावोंको सबको राजाके नामसे उल्लेख कर उनका आदर, विनय किया जाता है, इसी प्रकार अल्पज्ञानी व महाज्ञानी साधुवोंको भेद न कर साधुवोंके नामसे उनका विनय, आदर व भक्ति करें तो वे सज्जन बुद्धिमान्, विद्वान् होते हैं एवं सातिशय पुण्य व निर्मलज्ञानको प्राप्त करते हैं ।। २७ ॥ व्यसहायसे विद्वान तैयार करानेका फल सतीव दीप प्रज्वाल्य सर्वनेत्रांधता हरेत् । जातो येन बुधस्तेनभव्यचित्तांधता हृता ॥ २८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी सतीने एक दीपक लगाया उससे अनेक लोगोंके नेत्रकी अंधता दूर होकर वे पदार्थोको देखते हैं, उसी प्रकार कोई सज्जन अपने द्रव्यादिकको दान देकर किसी एक को विद्वान बनाता है तो उससे भव्योंके हृदयका अज्ञानांधकार दूर होता है। उसका श्रेय उस व्यक्ति को भी मिलता है जिसने उसे विद्वान् बनाने के लिए सहायता दी है । इसलिए शास्त्रदानकी महिमा अपार है ॥ २८॥ दान देते समय सज्जन प्रमाण नहीं करते क्षेत्राय योध्ने विदुषे तरुण्य भृत्याय सेवाकृसिलंपटाय । सुताक्षराभ्यासकराय वित्त-दानप्रमाण विबुधा न कुर्युः॥२९॥ अर्थ-बुद्धिमान व पुरुषार्थी सज्जन खेतके लिए, योद्धाके लिए, विद्वानोंके लिए, अपनी स्त्रीके लिए, सेवाकार्यमें तत्पर सेवकके लिए, अपने पुत्रको विद्याभ्यास करानेवालेके लिए, द्रव्यदान करते समय कोई प्रमाणका विचार नहीं करते हैं । दिल खोलकर देते हैं ॥ २९ ॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टविवादान्वीक्ष्य शौल्किकाः । धनान्याददते तद्वद्धनिको दानमाचरेत् ॥ ३० ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविचार . २९३ anAmAhnAAAAACirwAAAAAA000000on - - AAAAAAAAAAAAAAAAAAA अर्थ-जिसप्रकार कस्टम महसूलको लेनेवाले अधिकारी उस मार्गसे आनेवाले उत्तम, मध्यम व जघन्य धान्य वस्त्रादि पदार्थोको देखकर महसूल वसूल करते हैं, उसीप्रकार धार्मिक दानी सज्जन भी पात्रोंके भेदको देखकर तदुचित दान देवें ॥ ३० ॥ दानहीनमनुजस्य धनान्यायांति यांति किमिमानि निस्तुजः । वंशहानिरिव पुण्यनाशनं स्यादरण्यकुसुमानि वृथैव ॥ ३१ ॥ अर्थ-जो सज्जन कभी दानक्रिया नहीं करता है, उसको संपत्तिका आना नहीं आना दोनों बराबर है। संपत्ति व्यर्थ ही है। जिस प्रकार पुत्ररहितकी वंशहानि होती है, उसी प्रकार दानरहितकी पुण्यहानि होती है। उसकी संपत्ति अरण्यपुष्पके समान व्यर्थ है।' ३१ ॥ विद्वानोंका अपमान न करें स्याज्जैनेंद्रागांभोनिधिपरिमथनं तद्दिशदूषणं कृत् । तत्स्वाध्यायप्रणाशो जिनगुरुभजकावर्णवादो विरोधः॥ हिंसापायोपदेशो जिनपतिवृषसन्मार्गसम्यग्विशंतम् । घिकृत्याहं प्रवेत्ता बुधपरिभवनं ज्ञानविध्वंसहेतुः ॥३२॥ अर्थ--जिनेंद्र भगवंतके द्वारा प्रतिपादित शास्त्ररूपी समुद्रको मंथन करना, उसके उपदेशकोंका दूषण करना, स्वाध्याय करनेवालोंको अंतराय करना, देव, गुरुवोंकी उपासना करनेवालोंपर आरोप करना व उनसे विरोध करना, हिंसा व मिथ्यात्व आदि पापोंका उपदेश देना, एवं जिनधर्मके मार्गको योग्यरूपसे बतलानेवालोंको धिक्कार कर मैं ही बडा विद्वान् हूं ऐसा समझकर जो विद्वानोंका अपमान करता है वह उसकी क्रिया ज्ञानके नाशके लिए कारण है ॥ ३२ ॥ + + जिनोक्तशास्त्रास्वाध्यायशालिनः परिभूय च ॥ स्वाध्यायनाशो मात्सर्याच्छुद्धशानविनाशकृत् ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ दानशासनम् शास्त्र पढनेवालोंको इतर काममें लगानेका फल । शास्त्राणि पठतां नित्यं प्रयोक्तारोऽन्यमुखमम् । मूढाः स्युरिह तेऽमुत्र दृग्ज्ञानावृतयोऽधनाः ॥ ३३ ॥ अर्थ-जो सज्जन प्रतिनित्य शास्त्र पढनेवालोंको गुरुसेवा शाखस्वाध्यायसे बाह्य अन्य उद्यममें लगाते हैं वे इसी भवमें हिताहित विवेकरहित मूर्ख होते हैं। एवं परभवमें दर्शनावरण ज्ञानावरण से युक्त होते हैं एवं दरिद्रो होकर उत्पन्न होते हैं ॥ ३३ ॥ * . प्रसिद्धगुरुका नाम लेना। अमसिद्धेन गुरुणा बुधो भूत्वा महात्मना । बुधोऽभवं ब्रुवन्नेवं ज्ञानरत्नं विलुपति ॥ ३४ ॥ अर्थ-अप्रसिद्ध सामान्य गुरुसे विद्वान् होकर किसी लोकप्रसिद्ध बडे महात्मा गुरुसे विद्वान् हुआ हूं ऐसा कहनेवाला अपने ज्ञानरत्नको नष्ट करलेता है । ३४ ॥ शानसाधनापहरणफल पुस्तकालेखासिक्तं तु मंजूषादीन्हरंति ये । भवेद्ज्ञानावृतिस्तेषां पुस्तकानि क्षयंत्यरम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो सज्जन दूसरोंकी पुस्तक, लेख, वेष्टन, डोरा, पेटी आदि ज्ञानोपकरणको अपहण कर लेते हैं, उनको ज्ञानावरण व दर्शनावण कर्मका बंध होता है । एवं उनकी पुस्तकादिक ज्ञानसामग्री शीघ्र ही नष्ट होती है ॥ ३५॥ ज्ञानसाधनदहनफल यदैव जिनशास्त्राणि दग्धान्यपि परैः स्वयम् । स्यात्तथैव च तत्कर्म ज्ञानदृक्पुण्यनाशनम् ॥ ३६ ॥ शास्त्रापाठश्रुतिं येषां मोचयित्वान्यमुद्यमम् ॥ प्रयोक्तारस्तच्चिदकं दोषराहुर्गिरत्यरम् ।। - - Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविचार AN अर्थ-जो सज्जन शास्त्रोंको स्वयं या दूसरोंके द्वारा जलाते हैं वे उसीप्रकारके कर्मको अनुभव करते हैं, एवं उनका ज्ञान, दर्शन, व पुण्यका नाश होता है ॥ ३६ ॥ गुरुवोंके आविनयका फल . शाम्राणां पठने श्रुतौ पटुतरा बुद्धिमुनीनां सतां । तान्दृष्ट्वा विनयोक्तिभक्तिविनतिर्द्रव्यैर्मुदं ये मुदा ॥ नो कुर्वति न कारयति तनुवाक्चित्तैरलं वंचकाः । षण्मासावधि भूरिवित्तलयनं तेषां भवेदज्ञता ॥ ३७ ॥ अर्थ---शास्त्रस्वाध्याय जहां चला है वहां, जहां शास्त्र सुनरहे हैं वहां, एवं निर्मलबुद्धि के धारक साधुवोंके पासमें जानेके बाद वहां, जो उनको देखकर विनयपूर्ण वचन, भक्ति, विनय आदि नहीं करते हैं, एवं अपने द्रव्यसे व मन, वचन, कायकी विशुद्धि से उनका सत्कार नहीं करते हैं, और दूसरोंसे नहीं कराते हैं वे वंचक हैं । उनको उनके पापके फलके रूपमें छह महीनेके अंदर उनके धनका नाश होता है एवं उनका ज्ञान मंद होता है एवं वे विवेकभ्रष्ट होते हैं ॥ ३७॥ अज्ञानी उल्लू जिनधर्मामलाकाशे उदिते शास्त्रभास्वति । घूका इवांधा नेक्षते सन्मार्ग मोक्षसाधनम् ॥ ३८ ॥ अर्थ-जिनधर्मरूपी निर्मल आकाशमें शास्त्ररूपी सूर्यके उदय होनेपर उल्लूके समान अज्ञानी जीव मोक्षसाधनसमर्थ सन्मार्गको देख नहीं सकते हैं ॥ ३८ ॥ आगमपर मलिनवस्त्राच्छादनफल आगमशास्त्रावासस्योपरि मलिनांवरादिभारारोपः । येन कृतस्तस्य महाज्ञानार्कबिमस्तमेति क्षिपम् ॥ ३९ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ दानशासनम् अर्थ-जो सज्जन शास्त्र व शास्त्र रखनेकी पेटीको मलिनवस्त्र व सोनेकी चटाई, दरी आदिसे ढकते हैं उनका ज्ञानसूर्य बहुत जल्दी अस्त होता है अर्थात् बुद्धि भ्रष्ट होती है ॥ ३९ ॥ अविनयफल स्वासनाधःस्थले पादाधःस्थले भूतलेऽशुचौ । कटादौ पुस्तकन्यासादस्तमेति चिदंशुमान् ॥ १० ॥ अर्थ-आगमोंको अपने बैठने के आसन के नीचे, पैरके नीचे, अशुचि भूमिपर, चटाई आदिपर रखनेसे उनका अविनय होता है । उस अविनयीका ज्ञानसूर्य अस्त होता है ॥ ४० ॥ हसंति मूढाः परिहासयंति । प्रज्ञा न चाज्ञाः स्वकृतोऽनुयोगः ॥ ब्रुवंति नाग्रे च वृथा स्वदृष्टि ज्ञानावृति ते स्वयमाप्नुवंति ॥ ४१॥ अर्थ --अज्ञानी जीव अपनी कृतिका फल आगे क्या होगा इन बातोंको विचार नहीं करते हैं । कोई अपने हाथसे गलती होनेपर भी हम बुद्धिमान् ही हैं, अज्ञ नहीं है, युक्तिशास्त्राविरोधि परमागमकी प्रशंसा नहीं करते हैं, अपितु अनेक प्रकारकी कल्पना कर उसकी हसी उडाते हैं। दूसरोंके द्वारा उस परमागमकी हसी कराते हैं, वे ज्ञानावरणकर्मके द्वारा बद्ध होते हैं ॥ ४१ ॥ साधुजनोंकी परोक्षमें निंदा न करें ये शंसति नमंति साध्धिव पुरो भक्त्या भवेयुजडाः । पश्चाज्जैनजनास्त्रिरत्नसहितान्कुर्वत्युपालंभनम् ॥ शून्यग्रामनिविष्टकाष्ठनिगलपक्षिप्तपादो यथा । शंसन्नद्य नुवन्नमन्करशिरो दैन्यं ब्रुवन्मूढधीः ॥ ४२ ॥ अर्थ-जो व्याक्त सामने साधुजनोंको देखकर प्रशंसा करता Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविचार २९७ है, नमस्कार करता है, एवं पीछेसे उन रत्नत्रयधारियोंकी निंदा करता है, वह अज्ञानी जीव है । उसकी दीनता, भक्ति आदि ठीक उसी प्रकारकी है जैसे कोई सूने प्राममें बंधनकाष्ठमें किसीके पैरको फसाने पर रास्ते चलनेवालोंको देखकर वह दीनताको धारण करता है, स्तुति करता है, प्रशंसा करता है, हाथ जोडता है, आदि अनेक मायाचार पूर्ण क्रिया करता है। इसी प्रकार साधुवोंकी प्रशंसा सामने कर पीछेसे निंदा करनेवाले की दशा है ॥ ४२ ॥ ___ गुरुके प्रति क्रोधका निषेध सदृष्टिं विबुधं दयालुममलं चारित्रवंतं गुरुं । ये कुप्यंति शपंति चेतसि सदा प्रद्वेषमाकुर्वते ॥ तेषां सर्वधनं हरंति यद, सज्ज्ञानमाहंति तद् प्रस्तेऽर्के तमसा यथा जगदिदं तद्वत्सचित्तो भवेत् ॥४३॥ अर्थ- जो सम्यग्दृष्टि, विद्वान्, दयालु, निर्मल, व चारित्रधारी अपने गुरुवोंके प्रति क्रोधित होते हैं, उनको गाली देते हैं, एवं चित्तमें सदा द्वेष करते हैं, उनके सर्व धनको चोर आदि अपहरण करते हैं, एवं उसके ज्ञानको पापचोर नष्ट करता है। जिस प्रकार सूर्यके राहुप्रस्त होनेपर यह लोक अंधकारसे आवृत होता है, उसी प्रकार उसके चित्तकी दशा होती है, अर्थात् अज्ञानांधकारसे आवृत होता है ॥४३॥ अन्यनिंदाफल ज्ञानं पुण्यमयं श्रियं शुभधियं तेजोऽभिमानं गुणं । बंधुत्वं शपनं निहंति सुगति स्नेहं चरित्रं दृशम् ॥ कुर्यानीचगतिं परिग्रहरुजां दैन्यं विषाद सतां । मृत्युं बंधनवैरताडनमिइकद्वित्रिबंधादिकं ॥ १४ ॥ अर्थ--दूसरोंको एवं साधुवोंको गाली देनेसे ज्ञान व पुण्यका नाश होता है, पुण्यकारक परिणामोंको नाश करता है। संपत्ति, शुभबुद्धि, तेज, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् अभिमान, दानादिक गुण, बंधुत्व आदि नष्ट होते हैं । प्रेम नहीं रहता है, चारित्र व सम्यक्त्वका नाश होता है, उत्तमगति भी उसे नहीं हो सकती है । एवं उसके व्यवहारसे नरकादि नीचगतिका बंध होता है । परिग्रह व रोगकी वृद्धि होती है, दीनता बढ़ती है, सज्जनोंके हृदयमें विषाद बढता है, कदाचित् मृत्यु ही इसकी होती है। बंधन ( काराग्रह ) वैर, ताडन आदियोंसे एक दो या तीन दुःख प्राप्त होते हैं । इसलिए विवेकीको उचित है कि यह दूसरोंकी निंदा न करें और गाली न देवें ॥ ४४ ॥ मूर्खाका शाप कुछ नहीं करसकता है. मूर्खाणां शपनं शांतं मौनिनं न च बाधते । शपंत बाधते सत्यं रावणोक्षिप्तचक्रवत् ॥ ४५ ॥ अर्थ-मूर्ख मनुष्य यदि किसी शांत व मौनीको गाली देवें तो वह गाली उस मौनीको कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकती है, उल्टा उस गाली देनेवालेकी ही उसस हानि होती है । जिस प्रकार रावणके द्वारा छोडा हुआ चक्र उसीके मरणके लिए कारण हुआ, उसी प्रकार वह गाली उसी व्यक्तिके लिए बाधक है ॥ ४५ ॥ गाली देनेवालोंके लिये प्रायश्चित्त नहीं है. प्रायश्चित्तं न शपतां शप्तानां नाघहानितः । -शोधनं सर्वथा देयं श्रोतृणां योगभेदतः ॥ १६ ॥ अर्थ-गाली देनेवालोंके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है, क्यों कि गाली देनेवालोंके पापकी निवृत्ति नहीं होती है । तथापि उनके आत्माको शोधन करनेके लिए गाली सुननेवालोंके योगके भेदको लक्ष्यमें रखकर प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४६ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदानविवार विना शुद्धिके दानपूजा व्यर्थ है नष्टाग्नेः प्रबलाहारभुक्त्या तीव्रा गदा यथा । शुदि विना दानपूजास्तस्य येन कृताः क्षयाः॥ ४७ ॥ अर्थ-उदराग्निके नष्ट होनेपर गरिष्ठ आहारके सेवन करनेसे तीव्ररोगकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार मन वचन व कायकी शुदिके विना दानपूजा करना व्यर्थ है,उससे अनेक अनर्थ होते हैं॥४७॥ शास्त्रादिके प्रति उदासीन न होवें. चक्रे भाग्यलयं त्रियां तुगजनि देवेऽपि धर्मे गुरौ। दौर्गत्यं द्रविणार्जनेषु विलयं लाभस्य मूलस्य च ॥ शास्त्रे शास्त्रिाण पुस्तकेऽपि पठति व्याख्यातरि श्रोतरि । प्रेक्षानाशमिहैव तस्य यदुदासीनं करोतीति यः ॥ ४८ ॥ अर्थ-यदि राजाने अपने सेनाचक्रके संरक्षणमें उदासीनता की तो उसका भाग्य नष्ट होता है, अपनी स्त्रीमें मनुष्यने उपेक्षा की तो पुत्रोत्पत्ति नहीं हो सकती, देव, धर्म व गुरुवोंके प्रति अनादर किया तो दुर्गतिकी प्राप्ति होती है । धनके कमानेमें आलस्य किया तो लाभ व मुद्दल दोनोंका नाश होता है, इसी प्रकार शास्त्र, शास्त्री, पुस्तक, पढनेवाले, व्याख्यान करनेवाले, श्रोताके प्रति उदासीनता धारण करें तो इस लोकमें ही उसका ज्ञान नष्ट होता है ॥ ४८ ॥ शास्त्रपठननिषिद्धस्थान मूतकोच्छिष्टविण्मत्रे नीचसंवेष्टिते स्थले । शास्त्राणि पठतां नित्यं मंदबुद्धिः प्रजायते ॥ ४९ ॥ अर्थ-जन्ममरण सूतकीसे व उच्छिष्टसे स्पृष्ट स्थानमें, मलमूत्रसे युक्तस्थानमें एवं चांडालादि नीच कुलोत्पन्नोंसे युक्तस्थानमें जो शास्त्र बांचता है वह मंदबुद्धि होता है ॥ ४९ ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् मूर्खलोग विद्वानोंका अनादर करते हैं: - लोकोपकर्तृन् कृषिकान् पोषयंति यथा नृपाः। . लोकोपकर्तविबुधान्यक्कुर्वति तथा जडाः ॥५०॥ अर्थ-लोकको उपकारकरनेवाले किसानोंको जिसप्रकार राजालोग पोषण करते हैं उसी प्रकार मूर्खलोग लोकोपकार करनेवाले विद्वानोंका अपमान करते हैं ॥ ५० ॥ शास्त्रोपदेशकके अभिप्रायका घात न करें शास्त्रोपदेष्टुराकूतघातनादतितानवान् । श्रोतृणां श्रुतशास्त्राणां पक्कबुद्धिश्च नश्यति ॥ ५१॥ अर्थ-शास्त्रोपदेश देनेवालोंके अभिप्रायको घात करनेसे उनको अत्यधिक दुःख होकर श्रोता व अनेकवार शास्त्र सुनकर जो बुद्धिमान हुए हैं उनकी पक्कबुद्धि भी नष्ट होती है ॥५१॥ .. उपदेशकोंके प्रति उदासीन नहीं होवे. यावधावदुदासीनमुपदेष्टरि कुर्वते । तावत्तावद्विपकृष्टं निर्गच्छति सरस्वती ।। ५२ ॥ अर्थ-यह मनुष्य शास्त्रके उपदेशको देनेवाले उपदेशकोंके प्रति जितना २ उदासीन होता जाता है, उतना ही उससे सरस्वती दूर चली जाती है ।। ५२ ॥ उदासीनलक्षण विघ्नाट्स्मृनिधीभ्रंशरुग्विद्वेषणवैकलम् । दुर्मेधाज्ञत्वमित्यष्टबाधोदासीनलक्षणम् ।। ५३ ॥ अर्थ-(१) शास्त्र सुननेमें अंतराय उत्पन्न होना, (२) निरंतराय होनेपर भी शास्त्र सुननेकी इच्छा न होना, (३) निरंतराय व सुन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रादानविचार - MAR - नेकी इच्छा होनेपर भी श्रुतविषयका स्मरणाभाव व बुद्धिका भ्रंश होना, (४) निरंतराय, इच्छा, बुद्धि, स्मृति आदिके होनेपर भी रोगयुक्त शरीरके होना, (५) निरंतराय, इच्छा, बुद्धि, स्मृति व आरोग्यके होनेपर भी गुरुशिष्योमें आपसमें द्वेष होना, (६) निरंतराय, इच्छा, बुद्धि, स्मृति, आरोग्य व गुरुशिष्योमें प्रेम होनेपर भी गुरु शिष्योमें मनोविकलताका होना, (७) उपर्युक्त सभी बातोंके होने पर भी दुर्बुद्धि उत्पन्न होना, (८) कदाचित् उपर्युक्त बातोंके साथ सुबुद्धि रही तो भी जडता अर्थात् मंदबुद्धि होना, ये आठ बातें उदासीनताके लक्षण हैं । ये आठ बातें संसारमें सम्यग्दृष्टि व विद्वानोंके प्रति की गई उदासीनतासे - मनुष्यको प्राप्त होती हैं ॥ ५३॥ विद्वानोंके अनादरसे होनेवाली दस बातें सदाचि क्रुदूर्तताक्षानुवृत्तिनिद्रातंद्राभणं विस्मृतिश्च ।। पाठाशक्तिमूर्खतास्पष्टवाक्स्युरज्ञानाद्यद्भूतजाता विकाराः ॥५४॥ . अर्थ-सम्यग्मार्गके उपदेश देनेवालोंके प्रति क्रोधित होना, धूर्तता, इंद्रियोंके आधीन होना, शास्त्रश्रवणके समय निद्रा आना, मालस्य आना, जंभाई आना, विस्मरण होना, कितनी ही वार पाठ करनेपर भी पाठ न होना, मूर्खता, तोतली बोली, ये दस बातें विद्वानोंके अनादरसे होती हैं, या यों कहिये ये दस बातें * अज्ञान भूतसे उत्पन्न विकार हैं ॥ ५४॥ __ अल्पवेतनका निषेध सुतानामुपदेष्टणां दत्वाल्पं तैर्बहूद्यमान् । ये कारयन्ति तेषांश्च ज्ञानपुस्तादिनाशनम् ॥ ५५ ॥ * भूतास्त्यजति बलिदानगुणेन मयं । त्याज्याः सुमंत्रिजनरक्षणदक्षमंत्रः ॥ जाड्यग्रहा न बलिदानगुणेन मयै । त्याज्या न दिव्यमुनिदत्तगुरुत्रिरत्नैः ॥ .. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् __ अर्थ-जो सज्जन अपने पुत्रोंको पढानेवाले विद्वानोंको अल्प वेतनको देकर उनसे बहुतसे उद्योग कराते हैं, उनके व उनके पुत्रोंके ज्ञान, पुस्तक आदिका नाश होता है । यदि शब्दसे द्रव्यनाश भी होता है ऐसा समझना चाहिये ॥ ५५ ॥ पुस्तकादि न्यासापहरणनिषेध न्यस्तं दत्तं पतितं विस्मृतमिह पुस्तकादि वंचित्वा । यो नास्ति वदति तस्य ज्ञानावरणं च दर्शनावरणम् ॥५६॥ अर्थ-जो सज्जन अपने पास दूसरोंकी रक्खी हुई, दी हुई, पडी हुई, भूलकर रही हुई पुस्तकादिज्ञानसाधनको ठगकर ' हमारे पास नहीं है, ऐसा कहता है उसे ज्ञानावरण व दर्शनावरणकर्मका बंध होता है ॥५६॥ इससे शानदर्शनावरणकर्मका बंध होता है । ज्ञानविषयस्सर्वो ज्ञानावरणं पटस्थदीप इव । दृशमावृणोति सर्वो दृग्विषयो रविमिवावृणोत्यन्दः ॥५७॥ अर्थ-ज्ञानके संबंधमें जो मनुष्य दोष करता है उससे पत्राच्छादित दीपकके समान ज्ञानावरणके द्वारा उसका ज्ञान आवृत होता है। इसीप्रकार दर्शनके संबंधमें जो दोष करता है उससे दर्शनावरणसे उसकी दर्शनशक्ति आवृत होती है जिसप्रकार मेघसे सूर्यबिंब आवृत होता है ॥ ५७॥ मिथ्यादृष्टि सहग्वचनसंदर्भ यो निराकुरुते यदा। तदा कुदृष्टिस्तस्यापि दृष्टिानावृतिर्भवेत् ॥ ५८ ॥ अर्थ--सम्यग्दृष्टियोंके हितकारी वचनोंको जो निराकरण करता है वही मिध्यादृष्टि है, उसे भी ज्ञानावरण व दर्शनावरणकर्मका बंध होता है ॥ ५८ ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হলিৰিকা ३०३ - कलिकालमें शास्त्रस्वाध्यायकी दशा शास्त्रं पठंतो न च संति ते चेत्सम्यग्दिशंतो न च संति तेऽत्र । अध्यापयंतो न च संति तेऽज्ञास्तत्तं च तान् संति विनाशयंतः॥५९॥ अर्थ--इस पंचमकालमें पहिले शास्त्रको पढनेवाले ही नहीं हैं। पढनेवाले कदाचित् मिले तो उन शास्त्रोंके गूढरहस्यको अच्छी तरह समझानेवाले नहीं हैं। वे भी मिले तो उन पढनेवाले व प्रवचन करनेवालोंकी रक्षा कर उनसे पढवानेवाले नहीं है । कदाचित् इन सबकी प्राप्ति होजाय तो उस शास्त्रको, शास्त्र पढनेवाले, उपदेश देनेवाले व उनको रक्षण करनेवाले सज्जनोंको कष्ट देकर नाश करनेवाले मूढजन बहुत हैं ॥ ५९॥ यावद्यत्र सुवक्रबुद्धिरळया तावच्च तस्याशये । किंचिच्छुद्धमतिस्मुदृषसुचरितं ज्ञानं च भावः शुभः ॥ भक्तिर्वत्सलता विचारविनयः पुण्यं च धर्मक्रिया। . नासीनोद्भवतीह सर्वमफलं दोषाय पार्चे यथा ॥६०॥ अर्थ-जबतक इस मनुष्य के हृदयसे मायाचार-पूर्ण बुद्धि नष्ट नहीं होती अर्थात् निर्व्याज धर्मसेवनकी भावना नहीं आती है तबतक उसके चित्तमें शुद्ध निर्मलबुद्धि, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान, शुभभाव, भक्ति, वात्सल्य, विनय, पुण्य और धर्मक्रिया आदि कोई भी उत्पन्न नहीं होती है, होनेपर भी व्यर्थ हैं । पार्श्वमुनिके समान * वक्रपरिणामसे की हुई उसकी सर्व क्रियायें व्यर्थ व निष्फल हैं ॥६॥ दुराचारी विद्वानोंको कष्ट देते हैं. के मूढाः कतिचिज डा गतधना दुष्टामया दुःखिनो। भाग्याव्याः मुखिनः प्रमत्तमनसः कामेच्छवो गर्विताः॥ * जारचित्तमावच्छिन्नालातवद्यस्य चेतसि | शाश्वती वक्रबुद्धिस्तन्मिथ्यावं शल्यमुच्यते ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् दुवृत्ताः शमनोक्तयः कुमतयो निंद्यक्रियाः सक्रुधः । प्रज्ञास्संति न संति वात्र कुदृशस्तान्मारयति ध्रुवम् ॥६१॥ अर्थ-संसारमें कोई मूर्ख होते हैं, कोई अज्ञानी, कोई दरिद्री, कोई असाध्य रोगसे पीडित, कोई दुःखी, कोई भाग्यवान, कोई सुखी, कोई प्रमादी, कोई कामी, कोई अहंकारी, कोई दुराचारी, कोई शांत बोलनेवाले, कोई दुर्बुद्धि, कोई निंद्यक्रिया करनेवाले और कोई क्रोधी होते हैं । परंतु सन्मार्गका उपदेश देनेवाले विद्व न् होते हैं या नहीं यह नहीं कह सकते हैं, अर्थात् प्रशस्तमोक्षमार्गके उपदेश देनेवाले विद्वान् बहुत कम होते हैं । यदि कोई हों तो मिथ्यादृष्टि अविवेकी उनको अनेक प्रकारसे कष्ट देते हैं ॥ ६१ ॥ जिनागमकी रक्षा करो. दायादचोरकुसुतस्त्रीजळकृमिधूलितैलदहनाचैः । स्याजिनशास्त्रविनाशस्तेभ्यस्तद्रक्ष सर्वयत्नेन ॥६२॥ अर्थ-दायाद, चोर, कुपुत्र, दुराचारिणी स्त्री, जल, कीडे, धूल, तेल, अग्नि आदिसे जिनागमका नाश होता है। इसलिए हे भव्यात्मन् ! इनसे जिनागमोंकी रक्षा कर, जिससे इस लोकमें सम्यग्ज्ञानका साधन बना रहे ॥ ६२ ॥ मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतैः प्रभासुरं पावनदानशासनम् । मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं धनानि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ ६३ ॥ अर्थ-समस्त आहेत ऋषियोंके शासन के अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमाने की इच्छा रखनेवाले दानी श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिकद्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ ६३ ॥ इति शास्त्रदानविधानम् Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविलक्षणविधानमें - भावलक्षणविधानम् राजाकेसमान पुण्यपरिकरोंको मिलाना चाहिये । यत्कर्मार्जितमुच्चयेन समुदा सत्सावधानं सदा । तं भावं च तमुद्यमं तदुचितं देशं सहायं च तम् ॥ तन्मित्रं च तमीश्वरं च तमृर्षि तान्सेवकांस्तत्कुलं । तं ग्रंथं च नियोज्य तच्च कुरुतेऽरिष्टं च भूपालवत् ॥१॥ अर्थ-जो मनुष्य यहांपर पुण्यक्रियावोंको करता है उसको बहुत थानंद व सावधान होकर उन क्रियावोंको करनी चाहिए । उन क्रियावोंके योग्य भाव, उद्योग, उचितदेश, योग्य सहायता, अनुकूल मित्र, हितैषी स्वामी, निस्पृहगुरु, अनुकूलसेवक और तदनुकूल परिग्रह आदि को योग्यरूप से मिलाकर पुण्यकार्योको करना चाहिए। तभी उसमें सफलता मिलती है जैसा कि योग्य राजा राज्यकार्यमें सर्वपरिकरोंको मिलाया करता है ॥१॥ दुष्टोंके हृद्रयमें जिनमुनि आदिके प्रति दयाभाव नहीं रहता । जैनः पूतगुणाकरो विगुणिनी दुष्टाः कुतषिणोsप्यानंतादिकषायिणः सशपना बंधुद्वयाघातिनः ॥ . दाक्षिण्यं दयया गुणेन च विना ये यत्र यत्रासते । सस्नेहं सहवासवर्तनसहाळापान्सदा तैस्त्यजेत् ॥ २ ॥ अर्थ-लोकमें ऐसे कितने ही लोग हैं जिनके हृदय में जिनमुनि व विद्वानोंके प्रति कोई दाक्षिण्य नहीं है अर्थात् उन की कोई परवाह ही उनको नहीं रहती है । इसी प्रकार उनके हृदय में कोई भी प्राणियोंके प्रति दयाभाव नहीं रहता है । इसलिए उनके हृदयमें विनयादिक गुण नहीं हुआ करते हैं। वे दूसरोंको सदा दोष लगाते रहते हैं, सज्जनोंके साथ कुतर्क करते हैं । अनंतानुबंधि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ दानशासनम् आदि कषायोंसे युक्त रहते हैं, साधुजनोंको गाली देते हैं, और अपने धर्माबांधवोंको कष्ट देते हैं। ऐसे दुष्ट जहां रहते हैं उनका सहवास पवित्र गुणोंको धारण करनेवाले जिनभक्त कभी न करें ॥ २ ॥ जीवानां भावभेदाः स्युः स्वादुवच्च कषायवत् । तिक्तवत्कटुवत्केचित्केचित्कटुवदम्लवत् ॥ ३ ॥ रसानामिह सर्वेषामेको द्वौ वा यथा त्रयः । चत्वार इव पंचेव षडूसा इव भूतले ॥ ४ ॥ अर्थ--जीवोंके परिणाम अनेक प्रकारके होते हैं। जिस प्रकार रसोंके भेद स्वादु, कषाय, तीखा, कटु, लवण, अम्लके रूपमें होते हैं उसी प्रकार जीवके परिणामोंमें भी अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं ॥ ३ - ४ ॥ यथा स्निन्धी यथा रूक्षो यथा शीतो यथोष्णकः । गुरुवल्लघुवत्केचिन्मृदुवत्खरवत्सदा ॥ ५॥ अर्थ-किसीका परिणाम स्निग्ध रहता है, किसीका रूक्ष राता है, किसीका शीत तो किसीका उष्ण, और किसीका गुरु तो किसीका लघु रहता है । और किसीका मृदु परिणाम रहता है और किसीका कर्कश परिणाम रहता है अर्थात् आठ प्रकारके स्पोंके समान जीवोंके परिणाम भी होते हैं ॥ ५॥ सेव्यं बालयुवाल्पमध्यफलमेवा!चित कार्कटं । वृद्धं चेदहिरद्य विक्षिपति यत्तद्वच्च केचिज्जनाः ॥ सेव्यं वृद्धमिवाद्य संस्कृतिवशात्केचिच्च कूष्मांडिकं । बालं यद्विषवद्वदति भिषजः सेव्यं न संस्कारतः ॥ ६॥ अर्थ-ककडी बिलकुल कोमल, थोडा कठोर तथा कोमलकठोर ऐसी अवस्थाओमें भी सेव्य है। परंतु जब वह पूर्ण कठोर होती है तब उसे कोई भी मनुष्य नहीं खाता है । उसी तरह कितनेक मनुष्य, बाल, Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् ३०७ तरुण व मध्य अवस्थामें सेवा योग्य होते हैं । जब वे वृद्ध होते हैं तब वे सेवाके लिए अयोग्य हो जाते हैं । अर्थात् उन के परिणाम निर्मल नहीं होते हैं । लोभादिकसे दूषित होते हैं इसलिए वे आदर योग्य नहीं रहते हैं । कुष्मांड फल जब पूर्ण पक्क हो जाता है तब उस को संस्कृत करके अर्थात् शक्करकी चासनी वगैरह मिलाकर उसका सेवन करते हैं । परंतु जब वह बिलकुल कोमल रहता है तब उसको संस्कार करके भी खाना योग्य नहीं है । क्यों कि वह बाल्यावस्था में विषतुल्य है ऐसा वैद्य कहते हैं॥६॥ जीवाः केचिदिवाय चिर्भटफळ सेव्यं न संस्कारतः । सेव्य केवलमेव सेव्यमखिलं स्यावृद्धमन्तेऽमृतम् ।। केचित् पूज्यसुसेव्यमेव फलमप्यूरिवं सर्वदा । दोषाणां सरुजां न पथ्यमिह तद्वैषम्यभामां सदा ॥ ७ ॥ अर्थ-कितनेक जीव कचरियाके समान सेवनीय ही होते हैं । उनके ऊपर संस्कार करने की आवश्यकता नहीं होती है । अर्थात् उनके परिणामोंमें निर्मलता संस्कारके विना ही रहती है । कचरिया जब पक जाती है तब अमृतके समान मीठी होती है । उसी तरह कितनेक जीवोंके परिणाम अमृतके समान पूर्ण पापरहित तथा हितकारक होते हैं । फूट नाम का फल [ ककडी विशेष ] नीरोग आदमी को हितकर होता है। परंतु रोगीको वह पथ्य नहीं है । उसी तरह कितनेक जीव सदोष लोगोंसे सेवनीय नहीं होते हैं। यदि वे उनकी सेवा सहवास करेंगे तो उनका अहित होगा ॥ ७ ॥ मूलं च कायः कुसुमं फलं च श्वतं च जम्ब्वाः परिणामकाले । रक्तं मुकृष्णं सरसं फलं च सुस्वादुमिष्टं भवभेदि शीतम् ॥८॥ अर्थ:- जंबूवृक्षका मूल, काय, पुष्प, फल ये सबके सब श्वेत हैं, परंतु वह पकते ममय लाल होकर फिर काला होता है। परंतु Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - खाते समय स्वादिष्ट व मीठा लगता है । व परिणाम शीत है । इस प्रकार के परिणामको धारण करनेवाले कोई जीव होते हैं ॥ ८ ॥ सेवासमये सरसं वदनं विरसं करोति वस्त्वाखलम् । सरसं विरसं वक्त्रं रुणद्धि कंठं पूरीषमूत्रं च ॥ ९॥ अर्थः-उस फलको सेवन करते समय सरस मालुम होता है, परंतु मुखको विरस करता है । एवं समस्त अन्य सरस पदार्थके खाने पर भी उसे विरस कर देता है । मुखको विरस करता है। कंठ व मलमूत्रको रोकता है ॥ ९ ॥ केचित्कंका यथा जंतुघातका मित्रभेदकाः। केचित्कंका इवाभान्ति फेशदोषापहारिणः ॥ १० ॥ अर्थः-कोई कंघे जिस प्रकार शिरपर रहे हुए जू आदि प्राणियोंका नाश करते हैं, इस प्रकार कोई २ मित्रोंको भेद करनेवाले होते हैं । कोई कंघे जिस प्रकार केश के दोषोंको दूर करते हैं, उसी प्रकार कोई २ मनुष्योंका परिणाम रहता है ॥ १० ॥ भेदकृज्जन्तुहा कश्चित्सस्नेहे सति कंकवत् । .. निस्नेहेऽपि च जन्तुघ्नस्तस्मिन्नाभिमुखः सदा ॥ ११ ॥ अर्थ-कोई कंघा जिस प्रकार शिरपर तेलके रहनेपर जू आदि को भेद करनेवाला व उसे नाश करनेवाला होता है । उसी प्रकार कोई २ अत्यधिक स्नेह रहनेपर भी वहां भेदभाव उत्पन्न करते हैं व उन को हानि पहुंचाते हैं । कोई कंघा तेल न रहने पर भी जंतुका नाश करता है । इसी प्रकार कोई प्रेम न रहनेपर भी दूसरोंकी हानि ही करते हैं । इस प्रकार इन लोगोंसे हमेशा दूर रहना चाहिए ॥ ११ ॥ आदत्ते दोषिणां दोषान् निर्दोषो विमुखीभवेत् ।। सदोषो रक्तं पिबति निर्दोष नैव रक्तपाः ।। १२ ॥ अर्थ- हमेशा दोषी ही दोषियोंके दोषको ग्रहण करता है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् निर्दोषी दोषको ग्रहण करने के लिए प्रयत्न नहीं करता है । दोषी जलौकही दुष्ट रक्त को पीते हैं । निर्दोषी कभी नहीं पीते ॥ १२ ॥ शुष्कास्थिदशनादस्रं पिवन्वेति न कुक्कुरः । केचिदत्र न जानन्ति पुरोऽपि बहुवेदनाम् ॥ १३ ॥ : ३०९ अर्थ - जिस प्रकार कुत्ता सूखी हड्डीको खाते हुए अपने दांत ब मुखसे निकलनेवाले रक्त को पीते हुए भी उसे नहीं जानता है, उसी प्रकार कितने ही सज्जन अपने सामने अनेक प्रकार के दुःख होने पर भी उसे नहीं जानते हैं ॥ १३ ॥ गेहूं यत्र गते शुनीह मनुजैर्घातं भवत्यद्भुतं । नाचत्स गृहप्रवेशमपि ते दण्डाहतिं नात्यजेत् । चिन्त्यमेव सोऽप्यधफलं भुङ्गे यथा विष्टपे । भुञ्जानास्सकला भवन्ति दूरितं यन्नाशयन्त्यैहिकम् ॥ १४ ॥ अर्थ — कोई कुत्ते अपरिचित मनुष्य के घर में घुस जाते हैं तब उस घरका मालिक उनको पीटता है उस समय वे कुत्ते भोंकने लगते हैं । परगृद्दमें घुसनेका स्वभाव कोई कुत्ते नहीं छोडते हैं । अतः वे हमेशा दंडे से पीटे जाते हैं । पीटनेवाला आदमी तथा कुत्ते दोनों ही अपने अपने कार्य पापसंचय ही करते हैं । उसी तरह कोई जीव प्राणियोंको दुःख देते हैं । प्राणी अपने पूर्व कृतकर्मका फल भोगते हैं। तथा दुःख देनेवाले भी अपने इहपरलोक को बिगाडकर पाप संचय करते हैं । इस प्रकार विचार कर जीत्रोंको दुःखित करना योग्य नहीं है, ऐसा मनमें विचार करना चाहिये ॥ १४ ॥ मा कुरु शुचं कृतज्ञप्राणिष्वमधम इति बुधा बुवेत । भवतोऽपि निकृष्टतरं दृष्ट्वा श्वानं कृतज्ञनामानम् ॥ १५ ॥ अर्थ – हे जीव ! मैं कृतज्ञप्राणियों में अधम हूं । इस प्रकार की चिंता मत करो। तुमसे भी अधिक निकृष्ट कृतज्ञ कुत्ते को देख कर अपने मन में समाधान कर लेना चाहिए || १५ || Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् श्वानो जानन्ति दुर्गधं ज्ञानेन क्ष्मागतं शवम् । . न निधानं तथा नीचा दोषान् पश्यन्ति नो गुणान् ॥१६॥ __ अर्थ-कुत्ता अपने ज्ञानबल से भूमिके अंदर रक्खे हुए शव के दुर्गंध को जान सकता है। परंतु भूमि में कोई निधि हो तो उसे नहीं जान सकता है। इसी प्रकार नीचमनुष्य दोषको ही ग्रहण कर सकते हैं । गुण को ग्रहण नहीं कर सकते ॥ १६ ॥ अवन्त्यदन्ति हिंसन्ति विक्रीणन्त्यामिषाशिनाम् । जावाला इव वस्तादीन् वर्तन्ते कतिचिजनाः ॥ १७ ॥ अर्थ-भेडिये लोग बकरे आदि को संरक्षण करते हैं, खाते हैं; मारते हैं एवं मांसभक्षकों को बेचते भी हैं । इस प्रकार के परिणाम के भी कोई दुष्ट रहते हैं ॥ १७ ॥ स्वकीयधर्मानुगुणास्त एव पुण्येऽधिकेऽतिप्रतिकूलवृत्ताः। . किंचिन जानन्ति हिताहितं वं मत्तास्तुमीना इव केचिदत्र ॥१८॥ . अर्थ-कोई कोई पुरुष पूर्वजन्मके धर्माचरणसे अधिक पुण्यशाली हो जाते हैं। परंतु वे प्रतिकूल आचरण करते हैं। जलमें सुखसे विहरने वाले मत्स्य जैसे मत्त होकर अपना हिताहित नहीं जानते हुए मरणवश होते हैं उसी तरह वे पुरुष भी अपना हिताहित नहीं जानते हैं। __ अन्योऽन्यलंघनविघृष्टिविरोधवृत्ता नित्यव्यथाः सततलून पुनर्भवाच । विण्मूत्रकम्बकसशर्करकीलपङ्क चर्मानुरक्तचरणा इव कंचिदत्र ॥ १९॥ अर्थ-जैसे कोई पुरुष आपसमें पावोंसे लड़ते हैं तब उनके पाव व्यथित होते हैं । उनके नखोंमें दर्द होने लगता है। तथा जिनके पावोंमें विष्टा, मूत्र, कांटे, कीचड वगैरहसे तकलीफ हो रही है ऐसे मनुष्योंके समान जो जीव आपसमें विरोध करते हैं उनको इहलोक में Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् द्वेषविकार से दुःख होता है तथा परलोकमें भी पापोदय से दुःख ही मोगना पडता है । अतः आपसमें द्वेष ईर्ष्या वगैरह छोडने चाहिये जिससे उभय लोकमें सुख होता है ॥ १९ ॥ ये स्वस्वानाश्रितास्तेषां मनोऽनुगुणवर्तिनः । - अभेदविषयासक्ताः केचिद्वेश्याजना इव ॥२०॥ अर्थ:-जिस प्रकार वेश्या जो धन देते हैं उनके मनके अनुकूल वर्ताव करती हैं एवं अभेदरूपमें विषयासक्त होती हैं उसी प्रकार इस संसारमें कोई २ सज्जन होते हैं ॥२०॥ वृथा मृत्युं गता मीनाः पललेशाशया यथा । विवेकरहिताः केचिद्विनष्टा ईषदाशयाः ॥ २१ ॥ अर्थ-जरासे मांसके टुकडेके लोभसे मछलियां अपने प्राणको खो लेती हैं, इसी प्रकार इस संसारमें कई विवेकरहित सज्जन क्षुद्र अभिप्रायके वशीभूत होकर नष्ट होते हैं ॥ २१ ॥ काहारा भारपिच्छन्ति किञ्चिन्नान्दोलनस्थितिम् । कृतांहसो यथा केचित्कर्मभारान्वहन्त्यलम् ॥२२॥ अर्थः-कहार लोग केवल भारको चाहते हैं या भारको जानते हैं, कंपकपीमें [ झूले ] रहे हुए कोई पदार्थकी अपेक्षा व परिज्ञान उनको नहीं है । इसी प्रकार इस संसारमें कई सज्जन कर्मार्जन करते हुए कर्मभारको ही वहन करते हैं ॥ २२ ॥ विशंन्त्यहन्यवटं नक्तं यान्ति लांभनका यथा। पुण्यकालेऽतिविमुखाः पापे केचित्सुखच्छवः ॥२३॥ __ अर्थ-जमीन खोदने वाले मनुष्य दिनमें गड्ढा खोदते हुए नीचे जाते हैं परंतु जब रात हो जाती है तब ऊपर आते हैं उसी तरह कितनेक पुरुष पुण्य करने के समय में पुण्य कृत्य से विमुख होकर Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् पाप में तत्पर होते हैं तथा पाप करने में तत्पर होकर उस से सुख प्राप्ति की इच्छा करते हैं । ऐसे विचारोंसे वे इह पर लोक में हितको नष्ट कर के दुःख को ही भोगते रहते हैं ||२३॥ स्वर्गान्नरं नरात्स्वर्ग क्रमाश्चिततपः पराः । केचिन्मिथ्यादृशो यान्ति मुहुः शाखामृगा यथा ॥२४॥ - अर्थ – कोई २ मिथ्यादृष्टि तपश्चर्याके फलसे स्वर्ग से नरपर्यायको, मनुष्यपर्याय स्वर्गको इस प्रकार क्रमसे वार २ जाते आते रहते हैं, जिस प्रकार कि बंदर वृक्षोंपर एक शाखासे दूसरी शाखापर कूदते रहते हैं ॥ २४ ॥ घनध्वनिश्रुतेरेव निर्विषाः शिखिनो यथा ॥ नटन्ति निरघाः केचिद्धर्मोत्साहध्वनेस्तथा ॥ २५ ॥ अर्थ - मेघकी ध्वनि के सुनते ही जिस प्रकार मयूर निर्विष होते हैं, उसी प्रकार कोई २ पापरहित सज्जन धर्मोत्साह को उत्पन्न करने वाले शब्दको सुनते ही मंदकषायी होते हैं || २५॥ व्याघ्रध्वनिश्रुतेरेव पलायन्ते यथा मृगाः ॥ तथा हिंसाश्रुतेरेव पलायन्तेऽघभीरवः ॥ २६ ॥ अर्थ - जिस प्रकार व्याघ्रके शब्दको सुनते ही मृगगण भाग जाते हैं उसी प्रकार हिंसाविषयको सुनते ही पापभीरु सज्जन भाग जाते हैं ॥ २६ ॥ श्वानचंद्रोदयं दृष्ट्वा भषन्ते वात्यसूयया ॥ केचिद्धन्यजनं दृष्ट्वा प्रद्विषन्त्यत्यसूयया ॥ २७ ॥ अर्थ – चंद्रमा के उदय होते ही ईर्षासे कुत्ते भोकने लगते हैं, उसी प्रकार कोई २ सज्जन व धर्मात्माओंसे ईर्षा द्वेष करते रहते हैं ॥ २७ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् कोई परोपदेशमें पंडित होते हैं. परेषां प्रवदन्तोऽपि शुभाशुभफळं सदा ॥ केचित्स्वयं न जानन्ति माणिक्याः पक्षिणो यथा ॥२८॥ अर्थ-दूसरों को शुभाशुभ फलको अपने शकुन से कहते हुए भी रस्म व पक्षी स्वयं उस शुभाशुभ को नहीं जानते हैं। इसी प्रकार कोई परोपदेश में पंडित रहते हैं ॥ २८ ॥ ___ कोई बैलके तुल्य होते हैं.. परस्त्रीसंगमासक्ताः परार्थभृतविग्रहाः ॥ त्रातदेहेन्द्रियसुखाः केचिच्च वृषभा यथा ॥ २९ ॥ अर्थ संसार में ऐसे भी कोई मनुष्य हैं जो बैलके समान परस्त्रीसंगममें आसक्त रहते हैं, दूसरोंकी सेवामें ही सदा तत्पर रहते हैं, अपने देह व इंद्रियके सुखमें ही सदा मग्न रहते हैं ॥ २९ ॥ कोई पिंगलके तुल्य मिष्टवचनी होते हैं. मागच्छताद्य पुरतोऽध्वनि पीडनास्ती त्येवं ब्रुवन्त इव पिङ्गलपक्षिणोऽत्र । मांसाशिनः सुवचसा परिपूजनीया, मांसाशिनोऽपि कतिचिच्छुभभाषिणःस्युः ॥३०॥ अर्थ-पिंगल पक्षी अपने वचनसे कहता है कि आगे आज तुम मत जावो, मार्ग में पीडा है । मांसभक्षी होने पर भी उसका वचन शकुनशास्त्र में ग्राह्य है । इसीप्रकार इस संसार में मांसभक्षी भी कोई मीठे वचन को बोलनेवाले होते हैं ।। ३० ॥ ___ कोई चिकोडतुल्य होते हैं. केचित्स्वकुक्षिभृत्यर्थ लोकेष्टानि फलान्यपि । पातयन्तः स्वपुण्यानि चिक्रोडा इव जन्तवः ॥ ३१ ॥ अर्थ-चिक्रोड नामक जो जंतु है वह अपने उदरपूरण के Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ दानशासनम् ३१ ॥ लिए लोगों को इष्ट ऐसे भी सर्व फलों को गिराते रहते हैं, उसी प्रकार इस संसार में कितने ही सज्जन पुण्यका नाश करते हैं कोई सिंहके तुल्य पाप कमा लेते हैं. गजो हतः केसरिणात्मनोऽयं भवेददन्तीव च जम्बुकाद्याः ॥ वृथा क्रुधैकः प्रहतस्तदर्थानन्ये हरन्त्यात्मन एव पापम् ||३२|| अर्थ -- सिंह क्रोध से हाथीको मारता है, परंतु उसका मांस शृगाल वगैरे प्राणी भक्षण करते हैं। सिंह गजवध के पापसे लिप्त होता है । इसीप्रकार कोई पुरुष क्रोधसे किसीको मारता है और उस के धनादिक अन्य लोग उठा लेते हैं । हरण करते हैं । मारने वालेको केवल पाप की ही प्राप्ति होती है ॥ ३२ ॥ कोई संकेतादिसे प्रणाम करते हैं. सङ्केताङ्गसंस्पृष्ट्या बधिराः शयिता यथा । प्रणमन्ति समङ्गाय नमन्ति कतिचित्तथा ॥ ३३ ॥ अर्थ - कितने ही बहरे संकेत, अंगस्पर्शन आदि से शयनादि क्रिया करते हैं । उसीप्रकार इस संसार में अनेक व्यक्ति संकेतादिसे ही प्रणाम वंदना आदि क्रिया करते हैं ||३३|| कोई बिल्ली के तुल्य हिंसातुर होते हैं. स्थित्वा ध्यायन्ति माजरा वृषाविष्टबिलान्तिके । एकाग्रचिन्तया केचिद्यथा हिंसातुरास्तथा || ३४॥ अर्थ- जैसे बिल्ली चूहे के बिलके बाहर बैठकर ध्यान करती है, उसी प्रकार इस संसार में कोई एकाग्रचितांसे ध्यान करते हुए हिंसातुर रहते हैं ॥ ३४ ॥ कोई हिंसा नंदी होते हैं. मार्जारनकुलश्वाला दृश्यान्पश्यन्त्यइर्निशम् । यथा हिंसानंदिजनो व्यनक्ति सुकृतहास || ३५॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् अर्थ--मार्जार नकुलादि प्राणी जिस प्रकार रात्रिंदिन एकमेकको देखकर वैरविरोधको धारण करते हैं या रात्रिंदिन हिंसा करनेमें ही आनंदित होते हैं, इसी प्रकार इस संसारमें कोई कोई मनुष्य भी हिंसा करनेमें ही आनंद मानते हैं ॥ ३५ ॥ कोई कूर्मके तुल्य भ्रमण करते हैं. हिंसया दुर्गतिं गत्वा लब्धा हिंसत्यसन्नराः । उन्मजन्ति निमज्जन्ति केचित्कूर्मा इवाम्भसि ॥ ३६ ॥ अर्थ-कोई हिंसाके फलसे दुर्गतिको जाकर वहां भी पुनः प्राणियों का वध कर पुनः दुर्गतिमें परिभ्रमण करते हैं । इस प्रकार जलमें कछुबेके समान संसारसागरमें बराबर गोते लगाते फिरते हैं ॥३६॥ पापी उल्लूके तुल्य धर्मको देखते नहीं. प्रकाशद्वेषिणः केचि का वा खनका इव । धर्ममार्गप्रकाशं न पश्यन्ति दुरितान्धकाः ॥ ३७॥ अर्थ-उल्लू व घंस जिस प्रकार प्रकाशसे नफरत करते हैं उसी प्रकार कोई पापीजीव धर्ममार्गके प्रकाशको देखना नहीं चाहते हैं ॥३७॥ कोई चूहेके तुल्य विवेकहीन होते हैं. हिताहितं न जानन्तो वृषाः पश्यन्त्यहर्निशम् ।। सद्गुणोच्छेदिनी लोके यथा केचिद्गुणापहाः ॥३८॥ अर्थ-जिप्त प्रकार चूहे अपने हिताहितको नहीं देखते, तथा उत्तम तंतुओंसे निर्मित वस्त्रादिकोंको नष्ट करते हैं। इसी प्रकार कोई २ गुणको अपहरण करनेवाले पुरुष सद्गुणको नाश करते हैं एवं अपने हिताहितको नहीं देखते हैं ॥ ३८ ॥ कोई कौवेके तुल्य मर्मभेदी होते हैं. पश्चाद्यङ्गवणान् दृष्ट्वा खादन्त्यहीव वायसाः । केचिन्मर्माणि सर्वेषां सर्वदोद्घाटयन्त्यलम् ॥ ३९ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् - - अर्थ-जिस प्रकार कौवे जानवरोंके शरीर पर जखम देखकर उसे खोदने लगते हैं, खाते हैं । उसी प्रकार कोई २ जीव दूसरोंके दुःखकी अवस्थामें भी उनके मर्मस्थलको भेदते हैं ॥३९॥ __ कोई मनुष्योंका नाश करते हैं कारयन्ति स्वयं पापं केचिदाश्रित्य भूपतीन् । नाशयन्ति जनान् राज्ये छकाः खगमृगान्यथा ॥ ४० ॥ अर्थ-कोई २ सज्जन राजाके आश्रयसे स्वयं पाप करते हैं, एवं दूसरोंसे पाप कराते हैं, जैसे कोई मनुष्य पाले हुए चतुर पशु, पक्षीके द्वारा दुसरे पशु, पक्षीको पकडते हैं ॥ ४० ॥ कोई तृणके तुल्य होते हैं. वर्षाकाले प्रवर्धन्ते ग्रीष्मे नश्यन्ति च स्वयम् । वृष्टयुत्पन्नतृणानीव केचिज्जीवन्ति सर्वथा ॥ ४१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार कोई घास बरसातमें उत्पन्न होते हैं एवं गरमीमें नष्ट होते हैं, इसी प्रकार कोई २ जीवों की हालत है । परंतु कोई २ बरसातमें उत्पन्न हुए घास सदा ही जीते हैं । उसी प्रकार किन्ही २ जीवोंका परिणाम होता है ॥ ४१ ॥ स्पृष्टा यथा गाः सकलाश्च भद्रास्तुष्टा मनस्येव भवन्ति वृद्धाः । - सुरा इवामी ललनाः समीक्ष्य स्पृष्ट्वा तथाहादितमानसाः स्युः ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिस प्रकार अच्छी वृद्ध गायें बैलोंको स्पर्श करने मात्रसे मनमे ही संतुष्ट होती हैं, इसी प्रकार कोई २ अच्छी स्त्रियां अपने पति को देखकर व स्पर्शकर मनमें संतुष्ट होती हैं ॥ ४२ ॥ बलात्कारसे परस्त्री गमन करते हैं. हठादाक्रमितुं गाश्च धावन्ति वृषभा यथा ॥ मसान्याङ्गना केचिदगीकुर्वन्ति मानवाः ॥ ४३ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् अर्थ:-जिस प्रकार कोई बैल जबर्दस्ती गायके सेवन करने के लिए जाते हैं, उसी प्रकार कितने ही पुरुष परस्त्रियोंके प्रति जबर्दस्ती व आसक्तचित्तसे प्रवृत्ति करते हैं ॥ ४३ ॥ क्षेत्रे कूटाकृष्टे वृष्टेऽनन्तादयो यथैधन्ते । बाह्याशुद्धेन तपसा येनान्तरघानि चाशु वर्धन्ते ॥१४॥ अर्थ:-जिस प्रकार उभाड खेत में वर्षाके पडने पर अनेक सस्य विशेष उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार बाह्यमें अशुद्धि होनेपर तपश्चर्या के करनेसे अंतरंग में पाप की वृद्धि होती है ॥ ४४ ॥ कोई कैदीके तुल्य भोगकी इच्छा करता है. इच्छन्ति भोगान् स्मरणेन नित्यं भोगान्तरायेण तपो भवेन्न । ध्यायन्ति केचिन्मनुजा यथास्मिन् काराळये शृंखलिता हि चौराः ॥ ४५ ॥ अर्थ-कोई मनुष्य नित्य ही भोगकी इच्छा करते हैं, स्मरण करते हैं, परंतु भोगांतरायके उदयसे उसकी प्राप्ति नहीं होती है । भोगोंकी प्राप्ति होनेसे वे तप करते हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये । जिस प्रकार कारागृहमें पड़ा हुआ चोर अपने छुटकारेका ही ध्यान किया करता है, उसी प्रकार उस व्यक्तिकी हालत है ॥४५॥ दुष्टोंके लिये उपकार अपकारके लिये होता है. हितं पयो विषायैव सर्पाणामिव जायते । केषां चिटुक्रमावानां स्यात्कृतं पुण्यमंहसे ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस प्रकार सर्प को पिलाया हुआ हितकर दूध भी विष ही हुआ करता है, उसी प्रकार कोई कोई दुष्टोंको किया हुआ उपकार भी अपकार के लिए हुआ करता है, पुण्य भी पापके रूप में परिणत होता है ॥ ४६॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ दानशासनम् - - - कर्म मूढार्जितं सर्व किञ्चिदुद्भवति स्फुटम् ॥ .. अकृष्टानासतृणक्षेत्रेषप्तसुबीजवत् ॥ ४७ ॥ ...' अर्थ-उपार्जित कर्मों से कोई कर्म उदयमें आकर फल देते हैं, सर्व कर्म फल नहीं देते हैं। बोये गए सब बीजोंसे धान्य उत्पन्न नहीं होता है. कुछ बीज अंकुरित होकर उन थोडेसे थोडी धान्योत्पत्ति होगी ॥ ४७॥ प्रवृद्धपुण्यानि तदात्र केचिद्धरन्ति सार्थानि समाहितानि ॥ प्रवृद्धसस्यानि यथात्र मार्यो हरन्ति सार्थानि समीहितानि॥४८॥ ___ अर्थ-पुण्यसे प्राप्त हुआ धनादिक पापोदयसे नष्ट होता है जैसे उत्पन्न हुआ धान्य धान्यमारी रोगसे नष्ट होता है । अतः प्राप्त हुए भी धनादिक पदार्थोको लोग पापोदयसे भोग नहीं सकते.ऐसा समझकर पुण्य लोग प्राप्तिके ही कार्य हमेशा करना चाहिये ॥ ४८ ॥ __केचित्कुर्वन्ति दानस्य विघ्नं विघ्नार्जनक्षमाः। .... शुक्रपश्चिमकाजेंद्रचापो वृष्टिहरो यथा ॥ ४९ ॥ - अर्थ-किसी किसी का स्वभाव ही यह है कि दान में विघ्न उपस्थित किया जाय, वे अंतराय कर्म का अर्जन करते हैं । जिस प्रकार कि शुक्रग्रह के पश्चिम में रहने वाला इंद्रधनुष नियम से वृष्टि को दूर करता है, उसी प्रकार वह भी दान कार्य नहीं होने देता है ॥ १९ ॥ मुगंधिरंभोष्णजलेन मृत्यु गतेव केचिदुरिते प्रविष्टे ॥ क्षयं प्रयोति क्रमतः सुगंधिरंभामवंतीव वृषं तु जैनाः ॥ ५० ॥ अर्थ-जिस प्रकार गरम पानीसे सुगंधी केले का वृक्ष नष्ट होता है उसी प्रकार पापप्रविष्ट होनेसे यह व्यक्ति नष्ट होता है । जिस प्रकार उस केले के वृक्ष की रक्षा करते हैं उसी प्रकार धर्मकी रक्षा करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।। ५० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् ... क्षरेयं वाशितं तस्य यथा कुक्षौ न तिष्ठति ।.. ... केषां चेतसि सद्धर्मस्तथा पुण्यं न तिष्ठति ॥ ५१ ॥ अर्थ-कुत्तेके द्वारा पीया हुआ घी उप्त के पेटमें कभी नहीं ठहरता है। उसी प्रकार किसी किसीके हृदय में सद्धर्म तथा पुण्य कभी नहीं ठहरता है ॥ ५१॥ ' वस्त्राक्रान्तनिशाकान्तिलयं याति यथातपे । धर्मेच्छा सुकृतं केषां दुस्संगात् क्षीयते क्रमात् ।। ५२ ॥ अर्थः-वस्त्र में व्याप्त हरिद्रा का रंग धूपमें नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार किसी किसीके धर्भ धारण करने की इछा व पुण्य नीचसंगतिसे नष्ट होते हैं ।। ५२ ॥ यथा वह्निमुखे सूतः सद्यो नास्ति त्रसदृशाम्। - मिथ्याक्सृष्टिवाग्द्रव्यभक्तिभिर्टगयक्षयः ॥ ५३ ॥ ... अर्थ-जिस प्रकार अग्निमुखमें उत्पन्न या रक्खा हुआ पदार्थ तरक्षण नष्ट होता है, उसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टियोंको कष्ट पहुंचा कर, मिथ्या दृष्टियोंकी उत्पत्ति में प्रेरणा, द्रव्यदान, भक्ति आदिमें मदत पहुंचाता है " उस के दर्शन व पुण्य शीघ्र नष्ट होते हैं ॥ ५३ ॥ . आमकुंभे यथा तोयं सद्यस्तस्य विभेदकृत् । । हृद्यपके न धर्मोऽयं पीतौषधमिव ज्वरे ॥ ५४ ॥ अर्थ-कच्चे घडे में भरा हुआ पानी जिस प्रकार शीघ्र उस का भेदन करता है, उसी प्रकार कच्चे हृदय में स्थित धर्मकी भी हालत होती है। जिस प्रकार यह मनुष्य ज्वरको हालत में औषध पीता है तो वह ज्वर का भेदन करता है, उसी प्रकार उस धर्म की भी हालत . होती है ॥ ५४ ॥ ...गावः प्रजाः पदं ज्ञात्वा कृत्वा बीजं वपन्यहो । .. तथा न कृतिनः कुर्युः पुण्यबीजं वपन्ति न ॥ ५५ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० दानशासनम् अर्थ-प्रजागण योग्य स्थानको जानकर अथवा स्थानसंस्कार कर बीजका वपन करते हैं, परंतु खेद है कि सज्जन लोग उस प्रकार योग्य स्थानको जानकर पुण्यबीजका वपन नहीं करते हैं ॥५५॥ जारस्य स्त्रीविवादात्मकटयति सदा तन जारापतिस्तु । मौनीभूत्वाऽऽशये क्षुभ्यति च खलु तयोः क्लिश्यते बंधुवर्गः॥ सा निश्शंका स चैवं सुखयति दुरितं चिन्वते क्लेशतोऽमी । निर्विघ्नात्सा स जीवत्यनिशमघकरं पुण्यमाहुर्मुनींद्राः ।।५६।। अर्थ-जार पुरुषका अपने स्त्रीके साथ जब कलह हो जाता है तब उसका अन्य स्त्रीके साथ संबंध है यह बात प्रकट होती है। अथवा वह जार पुरुष मौन धारण कर लेगा तो भी मन उसका क्षुब्ध अर्थात् शंकित होता है । वह जार पुरुष जिस स्त्रीके साथ संबंध रखता है उस के बंधुवर्ग उम्र के साथ द्वेष करते हैं । यद्यपि जारिणी अपने जारके साथ संभोग करके उस को खुश करती है तो भी उन दोनोंको पाप ही लगता है । कदाचित् बांधवगण न होनेसे वे निर्विघ्न कार्य करते हैं तो भी उनका पूर्वपुण्य पाप के लिए ही कारण होता है ऐसा मुनीश्वर भव्य जीवोंको कहते हैं । तात्पर्य-पुण्योदयसे अकार्य सफल होता है तो भी उस से पाप बंध ही होगा तथा नरकादि दुर्गतियोंकी प्राप्ति होगी ऐसा समझकर अकार्य का त्याग ही करना चाहिए ॥५६॥ पापकर पुण्य. केचिदाखटितुं गत्वा शून्यहस्ता भवन्त्यहो । तेषां पापकरं पुण्यं प्रवदन्ति मुनीश्वराः ॥५७॥ अर्थ-कोई कोई मनुष्य शिकार खेलने के लिए जाते हैं, वहांपर उनको शिकार न मिलने पर शून्यहस्तसे ही लौटते हैं । परंतु मनमें बडे दुःखी होते हैं। यद्यपि शिकार न मिलना यह उनका पुण्य ही है, परंतु उससे पुनः दुःखी होना व शिकार खेलनेकी प्रवृत्ति यह सब पापकर है, इसलिए यह पापकर पुण्य है, उससे पापार्जन होता है, इस प्रकार मुनिगण कहते हैं ।५७॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् ...... पुण्यकर पाप. केचिदाखेटितुं गत्वा शून्य हस्ता भवन्त्य हो । तेषां पुण्यकरं पापं ब्रुवन्तीह मुनीश्वराः ॥ ५८॥ अर्थ-कोई कोई शिकार खेलने के लिए जाते हैं, शिकार कुछ भी न मिलनेपर शून्य हस्तसे लौटते हैं । परंतु मनमें खिन्न नहीं होते हैं । प्रत्युत इर्षित होते हैं कि आज शिकार नहीं मिला तो अच्छा हुआ, मेरे हाथसे होनेवाली हिंसासे में बच गया, उन प्राणियोंकी भी रक्षा हुई । यद्यपि उनकी क्रिया पाप है तथापि परिणामसे पुण्यकर है। जारत्वादिकृतिस्मृत्योर्बाधा बहुविधा भवेत् । तेषां पुण्यकरं पापं कर्मरूपविदो विदुः ॥ ५९॥ अर्थ-जारत्वादिदुष्कृतियों को करके जो व्यक्ति उन कृतियों से होनेवाली बाधावोंको विचार कर पश्चात्ताप करते हैं । एवं उन पापोंको छोडते हैं तो उनका पाप पुण्यकर है, ऐसा कर्मस्वरूपको जानने वाले महर्षि कहते हैं ॥ ५९॥ पापकर पुण्य, विना राजादिवाधां यज्जारस्यावति जारताम् । तस्य पापकर पुण्यं कर्मरूपविदो विदुः ॥ ६ ॥ . अर्थ-जो व्यक्ति राजादिकी बाधासे दूसरे जारव्यक्ति की जारता को संरक्षण करता है अर्थात् उस जारपुरुषको कोई कष्ट नहीं होने देता है, वह पापकर पुण्य है, इस प्रकार महर्षिगण कहते हैं ॥ ६ ॥ क्रुद्धोऽपवादाचकितोऽपि यो जनो दंष्ट्रा विदार्याशयमस्रमाशु । तथा पिपासु वि वर्तते यथाप्यलर्क आबद्धगलो दिदंक्षुकः ॥ __ अर्थ-जो मनुष्य निंदासे भययुक्त होता है तथा क्रुद्ध होता है, तब वह अपनी दाढ़ें खटखटांता है, अपना मुख फाडता है । उस ४१ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ दानशासमम् समय वह दंश करनेके लिए उधुक्त होकर जिसने अपना मुख फाडा है ऐसे पागल कुत्तेके समान दिखता है ॥ ६१ ॥ . झंझावाते जाते पतिते करकोच्चये रसालानाम् । प्रपतन्ति फलानि यथा केचिच्च महान्तरायवन्तः स्युः ॥६२॥ अर्थ-विशिष्ट आंधी चलनेपर जिस प्रकार वृक्षसे आम्रफलादि पतित होते हैं उसी प्रकार कोई २ सज्जनोंको अकस्मात. कर्मवश महा अंतराय उपस्थित होता है ॥ ६२ ॥ स्वामिद्रोही योऽहंदापहर्ता दातुः शक्ति योऽप्यविज्ञाय भोक्ता । भोज भोज तद्गृहस्यापकर्ता सोऽयं क्षिप्रं याति पापं दरिद्रम्॥६३॥ .. अर्थः-जो व्यक्ति स्वामिद्रोही है, देवद्रव्यको अपहरण करनेवाला है, दाताकी शक्तिको न जानकर ही उससे लाभ उठाना चाहता है, किसी घरका रोज रोज खाकर भी उसको अपकार करता है, वह , व्यक्ति शीघ्र ही तीव्रपापको संचय करता है । एवं उसके फलसे दरि. द्रताको प्राप्त करता है ॥ ६३ ॥ जारान् ये तर्पयन्त्यर्थै स्तेषां जन्मान्तरेऽत्र च । सर्वे दृग्गोचराः कान्ता वश्याः स्युः स्वांगना इव ॥६४ ॥ अर्थ-जार पुरुषको धन देकर जो खुष करते हैं उनकी स्त्रियां इस जन्म में तथा परजन्म में मानो जार पुरुष की ही स्त्रियां हैं इस प्रकार उन के वश होती हैं । अर्थात् जार पुरुषको दान देना उसका आदर करना वगैरह कार्य करने से अपने वंशकी शुद्धि नष्ट होती है अतः जारादिक दुराचारियोंको दानादिक नहीं देना चाहिये ॥६॥ तरण्डमापूरितसर्वमानवं नदीतटं तारयति प्रकुप्यति । तदन्तरस्थानिह सर्वमानवान् शपत्यमी तिष्ठ यथा स मौनिनः ।। अर्थ-जिस में लोक बैठे हैं ऐसी नावको नाविक नदीके किनारे लगाता है । परंतु उसको यदि लोग गाली देकर कुपित करेंगे तो यह Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् समस्त लोगोंको नदीमें डुबा देगा । उसी तरह दान देनेवाले को उस के कार्य की प्रशंसा कर दानमें प्रवृत्त करना चाहिए। ऐसे करने से धर्मप्रभावना होगी अन्यथा धर्म का विनाश होगा। योग्य दान देने वाले की प्रशंसा करो अथवा मौन धारण करो परंतु उसकी निंदा करने से धर्मका नाश करनेका अकार्य होता है, ऐसा समझकर ऐसे कार्य से सदैव दूर रहो ॥६५॥ अस्मिन् गारिका वसन्ति नगरे वीथीषु मुष्टिर्जडैः । पुण्यं वस्तुचयं हरन्ति च यथा मुष्टिपुराणश्रुते ॥ दले यो नृपवत्फलं तलवरो बध्नाति दुष्टं यथा। द्वौ नाथौ वसतः शुभाशुभकरौ लोके यथार्याहसि ॥६६॥ अर्थ-कतरनी वगैरे चोरीके साधन लेकर राजाने स्वतः अपने कोषागारमें चोरी की थी। तब कोतवालने शोध करके राजा ही चोर है ऐसा निश्चय कर उस को पकड लिया, उस समय प्रजाने कोतवालकी बहुत प्रशंसा की । उसी तरह धनादिक वस्तुओंको हम यदि मत्पात्रादि दानमें लगायेंगे तो हम कोतवाल के समान पुण्यफल-स्वर्गादिक फल मिलेगा, हमारी इह लोकमें कीर्ति होगी और यदि हम हमारे धनादिकों को असत्कार्य में विनियुक्त करेंगे तो स्वयं ही दृष्टांतमें प्रदर्शित किये राजाके समान दंडित होगे अर्थात् पापसे दुर्गतिदुःख भोगेंगे । ऐसा समझकर सत्पात्रादिक को दान देना चाहिए ॥६६॥ सदा विकलदुःपरिग्रहबहुग्रहैः पीडितम् । मनोऽतिमरुदुच्चलत्सलिलवीचिवत्कंपयते ॥ सवेल [ग] जलमध्यकम्पिततृणांगवत्कम्पते । ज्वलज्ज्वलनपात्रसंकथितवारिवत्क्षुभ्यते ॥ ६७ ॥ अर्थ-मन परिप्रहसे रहित होने पर भी वायुसे ऊपर उठी हुई जलतरंगके समान सदैव चंचल व शोकप्रस्त रहता है। यदि दुष्ट Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशासनम् Arr.. ...... परिग्रह हो तो मनुष्योंका मन बेगयुक्त जलके बीच में रहे हुए तृण के समान बार २ चंचल होता है। और यदि परिग्रहसंग्रह अत्यधिक होगया तो उस से अग्नि की बालासे संतप्त पात्र में स्थित उबलते हुए पानीके समान मन की स्थिति होती है । अतः सत्पात्रमें दान देने से ही मनःशान्ति होती है ऐसा समझकर दान कार्य में मन को लगाना चाहिए ॥ ६७॥ न विघ्नाः सन्ति केषांचित्पापिनां पापमूर्तये ॥ न विघ्नाः सन्ति केषांचित्कृतिनां पुण्यमूर्तये ॥ ६८ ॥ अर्थ-लोकमें विघ्न अंतराय किसे नहीं है ! अपितु अवश्य है, परंतु पुण्यशालियोंको अपने पुण्यमूर्तित्वके प्रभाव से विष्न नहीं होते है व आनेपर भी दूर होते हैं ।। ६८॥ दर्शनचारित्ररहित ज्ञान. निरुप्तक्षेत्रवृत्तिववृत्तिमब्द इवादृशः ॥ ज्ञानं कृषिकवत्तस्य जीवितं निष्फलं भवेत् ॥६९।। दृष्टिवृत्तविहीनस्य परं ज्ञानप्रभाविनः । जीवितं निष्फलं तस्य निरर्थ क्षेत्रवृष्टिवत् ।।७०॥ अर्थ-चारित्र व दर्शनसे रहित ज्ञान व्यर्थ है, जिस प्रकार किसानको, खेतीका ज्ञान होनेपर भी यदि उसने बीज नहीं बोया तो वह निष्फल है। बोया तो भी वृष्टि आदिकी अनुकूलता नहीं मिली तो उसका ज्ञान निष्फल है। उसी प्रकार दर्शन व चारित्रसे रहित विशिष्टज्ञानको धारण करनेवाले प्रभावी व्यक्तिका भी जीवन निष्फल है । अतः ज्ञानार्जनके साथ श्रद्धा. नमें दृढता व चारित्रके पालन के लिए भी प्रयत्न करना चाहिये ॥७०॥ ___ गुरुवोंकी अनुमतिके घिना चारित्रपालननिषेध. ग्रामजनपत्यनुज्ञा विना नराः कुर्वतेऽत्र यत्कार्यम्। . हानिः स्यात्तेन यथा गुर्वनुमतिमन्तरेण यवृत्तम् ॥७१॥ . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् ३२५ anhvvwwnnnnn... .www अर्थ-जिस प्रकार लोकमें ग्रामपति व जनपतिकी अनुमतिके लिये विना कोई कार्य करें तो उसकी हानि होती है। उसी प्रकार गुरुवोंकी अनुमतिके विना जो चारित्रको पालन करते हैं उनकी हानि होती है। अर्थात् व्रतग्रहणादिक गुरुसाक्षीपूर्वक ही होना चाहिये ॥ ७१ ॥ यद्यत्कार्यमिमें जना नृपजनानुज्ञां विना कुर्वसे ॥ नाशं यान्ति फलं लभेत न यथा तत्तेन जीवा गुरोः ॥ सानुज्ञां च विना स्वयं व्रतमिता धर्मेतरं वर्तनं । सम्यग्धर्मफलं प्रयान्ति न विना तीर्थेशमन्येन च ॥७२॥ " अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि मनुष्य जो कार्य राजकीय परवानगीके बिना ही करते हैं, उससे उनकी हानि होती है, एवं उस कार्य से उन को भी फल नहीं मिलता है । इसी प्रकार हे जीव ! जो व्यक्ति गुरुवोंकी अनुमति व उपदेश आदिके विना स्वतः ही व्रत प्रहण करते हैं उनकी हानि होती हैं, वे धर्मबाह्यवर्तन भी कर सकते हैं। एवं उनको यथेष्ट फल नहीं मिल सकता है । क्यों कि तीर्थकर परमेष्ठियोंके द्वारा प्रतिपादित मार्गपर गये विना धर्मका समीचीन फल नहीं मिल सकता है ॥ ७२।। व्यर्थ अर्थ. स्यात्स्वेशार्थो न धर्माय न भोगाय मनागपि ॥ यस्य तज्जीवनं व्यर्थ यथा बालेय जीवनम् ॥ ७३ ॥ अर्थ-जिन पुरुषोंका धन धर्मसाधन में और भोग में तिल मात्र भी उपयुक्त नहीं होता है, उनका जीवन गधेके जीवन के समान व्यर्थ है । ऐसा समझकर अपने धनका सत्कार्य में उपयोग करो। अन्यथा गवेमें और तुममें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा ॥ ७३ ॥ गेहे चौरावृते लोके तत्रस्थे जाग्रति स्वयम् । मुक्त्वा तदैव धावन्ति न ज्ञानाश्रयत्ययम् ॥ ७४ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ दानशासनम् अर्थ-घर पर जिस समय चोर आयें उस समय घरवाले जगते हों तो वे चोर भाग जाते हैं, चोरी नहीं करते, इसी प्रकार विवेकसे जो मनुष्य जागृत है उसे पापरूपी चोर स्पर्श नहीं करता है ॥७४॥ ये कुर्वन्ति बाल सुताय सततं तैराश्रयन्ति ग्रहास्तं मत्कोटकमक्षिकाच चटका देशं च काका इव ॥ ते गौडं मकदान्यवामनिशं दातृनिमे याचकाः । निःशंकं मुदृशं च दीनमिति तं मत्वा विमुश्चंति ते ॥ ७५ ॥ अर्थ-जो पुत्रप्राप्ति के लिए बलि देते हैं । तथा प्रहोंका जप पूजनादिक कार्य करते हैं। ऐसे लोगोंका याचकजन आश्रय करते हैं। जैसे गुडका मत्कोटक, मक्षिका वगैरह प्राणी आश्रय करते हैं। परंतु जो पुत्रप्राप्ति के लिए बलि देना, प्रहपूजन इत्यादिक कार्य नहीं करते हैं जो निःशंक और सम्यग्दृष्टि हैं, उनका याचक लोग आश्रय नहीं करते हैं । ऐसे पुरुषोंको दीन समझकर याचक त्याग करते हैं ॥७५॥ येऽन्यद्विषः सुतप्रीता जीवन्ति स्वपरिग्रहे । तेषां न भूतिर्न मनास्वास्थ्यं रोगादिभिथा ॥ ७६ ।। अर्थ-जो अपने पुत्रोंके प्रति प्रीति करते हुए, दूसरोंसे द्वेष करते हैं, सदा अपने परिग्रहोंको ही संरक्षण करना चाहते हैं, उन की संपत्ति व्यर्थ है, उनका मन भी मलिन है । स्वास्थ्य भी रोगादि से संयुक्त होता है अर्थात् वे सदा अस्वस्थ रहते हैं ।। ७६ ॥ दत्तयमुक्तवचनं निशाम्य तद्वारमाश्रित्य चिरं वसंति । दैन्यं कृतं भूरि यथेतदर्थो लब्धो न मोचाश्रितकीरवाराः ॥७७॥ ___ अर्थ-अमुक दाता दान देता है ऐसा वचन सुनने पर याचक उस के द्वारका आश्रय लेकर दीर्घ कालतक याचना करते रहते हैं। और जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए याचना करते हैं वह वस्तु नहीं Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीषलक्षणविधानम् मिली तो केलेके फल का आश्रय छोड देनेवाले कीरके समान दाताको छोड देते हैं ।। ७७ ॥ नो लज्जा नाभिमानो न पटुतरमतिनों विवेको न बंधु-। नों मित्रं नाभिजातिनं च सुकृतबकं न व्रतं धर्मधीन ॥ नो देवो नो गुरु! पतिरिह पितरौ नो वधूतॊ वचोर्थो । नायव्यार्जनं यो ग्रहिल इव स तस्यांगजग्रस्तचित्तः ॥ ७८ ॥ ... अर्थ-जो याचक जन हैं उनको न लज्जा है, न अभिमान है, न तीक्ष्णतर बुद्धि है, न निवेक है, बंधु भी नहीं है, मित्र भी नहीं है, कुलीनता नहीं है, पुण्य नहीं, व्रत नहीं, धर्मबुद्धि नहीं, देव नहीं, गुरु नहीं, पति, मातापिता, स्त्री वगैरे कोई भी नहीं है । वह कामवेदना से पीडित चित्तवाले के समान रहता है ॥ ७८ ॥ साधवो दोषमायान्ति खळसंगात्मभूतकम् । शुद्धान्तो दोषमायाति जारैकसहवासतः ॥ ७९ ॥ अर्थ--दुष्टोंके संगसे सज्जन भी दोषको प्राप्त होते हैं। जारों के सहवाससे शुद्ध अंतःपुरस्त्रियां भी दोष को प्राप्त होती है ॥ ७९ ॥ को वा स्त्रियो वल्लभ एव धीमान्यो गाढसंगं कुरुते स एव ॥ रूपं न वृत्तं न कुलं न जातिः शाकस्य चौच्छिष्टमिवासमीक्षन् ।।. अर्थ-जो पुरुष स्त्रीको दृढसंभोग से खुष करता है, उसी के . ऊपर वह प्रेम करती है । वही उसका वल्लभ है। खिया रूप, चारित्र कुल तथा जातीका विचार नहीं करती है । जैसे कोई दीन पुरुष झूठे शाकका विचार नहीं करता हुआ उसको लेता है । उसी तरह अयोग्य स्त्रियां अयोग्य पुरुषको भी अपना वल्लभ समझती है ॥ ८ ॥ दैव लौकिक उत्साही ये विघ्नं कुर्वते यदि ॥ देशगेहे वरक्षोभो मृत्युवा सर्वथा भवेत् ।। ८१॥ अर्थ--जो व्यक्ति दैव कार्यमें व लौकिक कार्य में विघ्न उपस्थित Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानशालनम् करता है, उसके फलसे देशमें, घर पर क्षोभ उत्पन्न होता है, कदाचित् मरण भी होता है ।। ८१ ॥ बद्धगाोऽन्यरंध्रेण पुंलक्ष्म स्थान च कचित् ॥ महादोषान्वितो जीवः पुण्यलक्ष्म विमुंचति ॥ ८२ ॥ अर्थः-जो जीव-मनुष्य हमेशा दुसरेके दोष देखने में तत्पर रहता है, उसको पुरुषका चिह्न प्राप्त नहीं होगा अर्थात् वह प्रति जन्म में स्त्री तथा नपुंसक अवस्थाको प्राप्त होगा। स्वयं बहुत दोषी होने से पवित्र चिह्न उस को छोड देते हैं॥ ८२ ॥ देवस्थानपुरेशत्वं वंशपुण्यादिपर्दनम् । पापापकीर्तिप्रभृति दुगुणत्रजवर्धनम् ॥ ८३ ॥ अर्थ-देवस्थानद्रोह, राजद्रोह, वंशकी पुण्यहानि, पाप, अपकीर्ति, आदि दुर्गुणों की वृद्धि को मनुष्य कभी न करे ॥ ८३ ॥ देवस्थानग्रामवाधिपत्यं नो सत्पुण्यस्यास्ति तन्मुक्तिरन्यैः । नो चेत्सास्या द्वित्रिवर्षातरेषु स्वस्यापि स्थानत्रयस्यापि नाशः॥८४। ___ अर्थ--पुण्यहीन प्राणीको देवस्थानाधिपत्य, प्रामाधिपत्य आदि प्राप्त नहीं हो सकते हैं। हो तो भी दूसरे उसे छुडायेंगे, यदि नहीं छुडावें तो दो तीन वर्षोंमें अपना व अपने स्थानत्रयका नाश होता है। सदृष्टिसत्कारमहं करोमीत्युक्त्वा पुनस्तं न करोत्युदास्ते । यः सोऽप्यवृद्धबहुमूलहानेः क्लिश्नाति चात्मीयधनानि दत्वा ॥ ___ अर्थ- सम्यग्दृष्टी जीवोंका सत्कार मैं करूंगा, इस प्रकार वचन देकर जो उपेक्षा करता है, उसके धनका नाश होता है, वृद्धि नहीं होती है, धन को देकर भी वह दुःख उठाता है ॥ ८५॥ . क्षेत्राणि सप्त कृतिनो भुवि न स्पृशन्ति । तेषां च सूतकिजना न विशति गेहम् ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधामम् शूद्रो गृहं स्पृशति संविशति प्रदोषो। दोषा भवेयुरनिशं विविधः क्षयः स्यात् ॥८६॥ अर्थ-जो धनिक लोग सप्त क्षेत्रों में दान देते नहीं, उनके गेहको इतना अपवित्र समझना चाहिए कि सूतकी लोग भी उनके घर में प्रवेश करने से अधिक अपवित्र होंगे। ऐसे धनिकोंके घर में यदि शूद प्रवेश करे तो अधिक ही दोष प्रविष्ठ होते हैं और वे धनिकोंके घर नष्ट होते हैं ॥ ८६ ॥ ये सूतकिजनाश्च स्युः कृतिनो न स्पृशंति से । कुलीना अपि जायन्ते सवृत्ताः शीलशालिनः ॥ ८७ ॥ - अर्थ--जो सूतकी जन पुण्यक्षेत्रका स्पर्श नहीं करते थे सज्जन कुलीन, सच्चारित्र, शीलवान् होते हैं ॥ ८७ ॥ __ पूजाके नामसे द्रव्यापहरणका दोष जिनपूजार्थमाहत्य निष्फलो यत्कृतोद्यमः । अस्पृष्ट्वा जिनपूजार्थमिष्टार्थः स्यात्कृतोद्यमः ॥ ८८ ॥ अर्थ- जिनपूजाके नामसे जो दूसरोंके द्रव्यको अपहरण करने के लिए प्रयत्न करता है उससे कोई अच्छा फल नहीं मिल सकता है । अच्छे भावसे यदि जिनपूजाके लिए प्रयत्न करके जिनपूजा न कर सके तो भी श्रावक इष्टार्थ को प्राप्त करता है ॥ ८८ ॥ पुण्यायुषां विषाहारः परश्वधयतीव भोः। धर्मार्थः कृतिनां सद्यो दण्डं क्लेशं करोति सः ॥ ८९ ॥ अर्थ-जिनका आयुष्य दानादि कृत्योंके करनेसे पवित्र होगया है ऐसे धनिक लोग, यदि धर्मके लिए जिसका उपयोग करना है ऐसे धनका उपयोग स्वार्थ के लिए करेंगे तो उनका यह अकृत्य कुल्हाडीके समान उनका नाश करेगा । अर्थात् देवद्रव्य खानेसे नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है ॥ ८९॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दानशासनम् स्वाम्यादिद्रव्यापहरणफल. वंचना स्वामिदेवार्थे पित्राद्यर्थे करोति यः । सोऽसाध्यक्षयरोगीव क्रमान्मुंचति जीवनम् ॥ ९० ॥ अर्थ-स्वामिद्रव्य, देवद्रव्य, पितृद्रव्य आदि में जो ठगता है वह असाध्य क्षयरोगी के समान कष्ट भोगकर क्रमसे जीवनको छोडता है अर्थात् मरता है ॥ ९ ॥ पात्रके बहानेसे द्रव्यापहरणफल यः परद्रव्यमाहत्य पात्रव्याजाच्च जीवति । इहामुत्र स जीवः स्याद्विष्टिकारो यथा जनः ॥ ९१ ॥ - अर्थ-जो पात्रके बहानेसे दूसरोंके द्रव्यको अपहरण कर जीता है; वह इइलोक व परलोक में एक मजूरके समान दुःखी जीवनको व्यतीत करता है ॥ ९१ ॥ पुण्यवान् को पापकर्म आश्रय नहीं करते हैं शुचित्वतः सर्वशुभोदयः स्यादनिष्टकर्माणि न चाभयंति ॥ सुगंधिगेहं न विशंति कीटास्ततः कृतिज्ञाः शुचितां लभेरन् । __ अर्थ–परिणामकी विशुद्धि से पुण्यकर्मका उदय होता है जिससे कि अशुभकर्म उस ममुष्य का आश्रय नहीं करते हैं । जिस प्रकार कि सुगंधि ( औषधविशेष, धर्मात्मा ) के घर में कोई कीटक व रोगादिक प्रवेश नहीं करते । इसलिए कृतज्ञ पुरुषोंको परिणाम में निर्मलताको प्राप्त करना चाहिए ॥ ९२ ॥ अशुभपरिणामसे पापात्रय अशुचित्वं करोत्येवाशुभकर्मास्रवं सदा । दुर्गघिमंदिरं कीटाः प्रविशति यथा तथा ॥ ९३ ॥ अर्थ-परिणाम की अशुभता सदा अशुभ कर्मासवको करती है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् जिस प्रकार कि दुर्गंधयुक्त घर आदि में कीडे आदि प्रवेश करते हैं उसी प्रकार अशुभ परिणामसे अशुभ कर्म आते हैं ॥ ९३ ॥ जैन मुनियोंके समाधिभंगफल जिनमुनिसमाधिसमये चित्तनिरोधं करोति यस्तस्य । गेहपुरदेशनाशः स्वस्थानोच्चाटनं भवेनियमात् ॥ ९४ ॥ अर्थ – जैन मुनियोंकी समाधिके समय में जो व्यक्ति उनके चित्तमें क्षोभ उत्पन्न करता है, उसका घर, नगर, देश आदिका नाश होता है, इतना ही नहीं अपने स्थानका उच्चाटन होता है ॥ ९४ ॥ पापभीरु गुरुजनोंके असानपर नहीं बैठते आसने यत्र तिष्ठन्ति राजानो गुरवो बुधाः ॥ तत्र तत्रासने जैना न वसन्त्यघभीरवः ॥ ९५ ॥ ३३१ अर्थ - जिस आसनपर राजा, गुरु व विद्वान् विराजमान होते हैं, - उस आसन पर पापभीरु जैन कभी नहीं बैठते हैं ।। ९५ ॥ विदुषा गुरुणा राज्ञा साकमेकासने बुधाः । तत्तुल्यधर्मरहिता न तिष्ठेयुः कदाचन ॥ ९६ ॥ अर्थ - विद्वान, गुरु, व राजाके आसनपर उनके समान गुणोंसे विरहित सामान्यजनोंको कभी न बैठना चाहिए ॥ ९६ ॥ सज्जन पापकार्यको त्याग दें त्यक्त्वाऽस्तेऽमजीर्णे वा सन्निपाते च कामिनीम् ॥ कृतीव पापकृत्यानि कषायानिव पुण्यवान् ॥ ९७ ॥ अर्थ - जिस प्रकार अजीर्ण होनेपर अन्नका, सन्निपात होनेपर स्त्रीका, पुण्यवान् व्यक्ति कषायोंका त्याग करता है उसी प्रकार सज्ज - पाका त्याग करना चाहिए ॥ ९७ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ दानशासनम् - र तपश्चरणसे सुख नानेकक्षणसन्निभैकजनने वाजं ? विनान्तर्बहि-। ग्रंन्थं सर्वमिषं विहाय तपसि क्षान्तः कषायोज्झितः । यो वर्तेत मुनिः स चापरिमितं काळं प्रयासं विना । स्वर्गे सौख्यकरं सुखं त्वनुभवेबुध्दैव कुर्यात्तपः ॥ ९८ ॥. अर्थ -- अत्यंत चंचल, नश्वर इस अंतरंग व बहिरंग परिग्रहको त्याग कर जो व्यक्ति उत्तमक्षमादिगुणोंको धारणकर, कषायोंका परित्याग कर तपश्चर्यामें लीन रहता है । वह मुनि अपरिमितकाल पर्यंत स्वर्गीयसुखका अनुभव करता है । इस प्रकार जानकर शुद्ध अंतःकरणसे तपश्चर्या करनी चाहिए ॥ ९८ ॥ उच-क्षणैकनिभमेकमन्पनि विनानमेवाखिलं । परिग्रहमिमं विहाय करणत्रयान्निर्मले ॥ लसत्तपसि वर्ततेऽपरिमितं च कालं मुखं । सदानुभवितुं भवेदिह विना प्रयास क्षमः ॥ ९९ ॥ अर्थ-कहा भी है, क्षणभर भी जिसका भरोसा नहीं है, ऐसे परिग्रहको त्यागकर मन वचन कायकी विशुद्धि से जो तपश्चर्या करता है वह अपरिमित कालतक सुखको विना श्रमके ही अनुभव करता है अर्थात् मोक्षलक्ष्मीको पाता है ॥९९॥ . आचरणके अनुसार फल मत्वा जैनजनान्विशारदजनान् दत्वा च तेभ्यो धनं । विस्मृत्यात्मगुणांश्च चेतसि च तदोषान् स्मरन्ती जनाः॥ शंसन्तीह पुरो नमन्ति चरमे काले च पापोदया-। . द्वंधोऽयं भुवि पातको नट इमानंचन्ति निदन्ति च ॥१०० अर्थ-जो भव्यजीव सैन-विद्वान लोगोंका सन्मान करके धन देते Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् anAmAAAA. aanA है, परंतु उनके गुणोंको भूलकर उनके दोषोंका स्मरण करते रहते हैं। तथा उनको प्रत्यक्षमें नमस्कार कर परोक्षमें उनकी निंदा करते हैं ऐसे लोगोंको जो कर्मबंध होता है उसका उदय होनेपर वे भी प्रत्यक्षमें पूज्य होते हैं परंतु परोक्षनिंदाके पात्र बनते हैं। अर्थात् उनकी प्रत्यक्ष तो स्तुति होती है परंतु परोक्षमें लोग उनकी बुराई करते हैं। जैसा जो आचरण करेगा वैसा फल मिलता है, यह इस श्लोकका अभिप्राय समझना चाहिये ।। १०० ॥ स्वक्षेत्रको छोडनेवाला पापी है स्वकीयसुक्षेत्रयुगं विहाय दुःक्षेत्रयुग्मेऽपि च वर्तते यः। इहाप्यमुत्रात्महितं सुतं (ख) न लभेत धर्म स च पापवान् भवेत् ॥ अर्थ-जो व्यक्ति अपने सच्चे देव गुरुवोंके क्षेत्रको छोडकर दूसरोंके मिथ्याक्षेत्रों में प्रवृत्ति करते हैं वे इहपरमें सुखको प्राप्त नहीं कर सकते, उनके हाथसे धर्माचरण भी नहीं हो सका है, वह पापी है ॥ १०१ ॥ ___ मातापितादिकोंकी निंदाका फल मातापित्रीरुदास्ते यो धर्मे संघे जिने गुरौ । . सोऽरिभिः स्वैः परनित्यं भवेद्वध्यो भवे भवे ॥ १०२ ॥ अर्थ-जो माता, पिता, धर्म, संघ, जिनदेव व गुरु आदिकी अबहेलना या उपेक्षा करता है, वह भवभवमें शत्रुओंके द्वारा मारा जाता है । और सदा कष्टका अनुभव करता है ॥ १०॥ . स्वद्रव्यको छोडकर परद्रव्यका अपहरण न करें यत्पापागमने यदर्जितमिदं हस्तागतं स्वं धनं । .. सर्व नश्यति तत्क्षणे परधनं राज्ञाहतं सर्वदा ॥ सर्वे ते बुध वंचयन्ति च परैः क्लिश्नाति चिसे भवान् । क्लेशं मा कुरु मा स्पृशान्यधनमात्मन्यतो जीव भोः ।। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ दानशासनम् AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAD - अर्थ-जिस समय पापका उदय होता है, उस समय मनुष्यके द्वारा अर्जित व अपने पासमें स्थित धनका नाश होता है । सर्व मनुष्य उसे ठगनेका प्रयत्न करते हैं। जिसका धन नष्ट होता है वह मनमें दुःखी होता है। ऐसे जीवोंको आचार्य उपदेश देते हैं कि भो भोले भाले जीव ! अपने मनमें दुखी मत होवो, अपने द्रव्यसे भिन्न दूसरोंके धनको स्पर्श मत करो । क्यों कि स्वतः के धन के मष्ट होने का कारण ही यह है कि तुमने पूर्वमें परद्रव्यका अपहरण किया है अतः पुनः उस पापको मत करो ॥ १०३ ॥ देवव्यापहरणनिषेध बेन द्रव्यमिहाहृतं जिनपतेस्तस्यापि हस्तागतं ॥ दायं दायमि (म) येत् पुरो न लभते माया भवेत्स्थापितम् ॥ निद्रव्यात्कुरुते धनव्ययकरान्कृष्यादिकानुधमां-। स्तत्र श्रीमति चंद्विरिक्त इव चास्पृष्ट्वाऽईतं जीव भो॥१०४॥ अर्थ-जिसने देवद्रव्यका अपहरण किया, उसके हाथमें आया हुआ धन भी नष्ट होता है, आगे नहीं मिलता है, कहीं गाढकर रक्खे तो वह भी नहीं मिलता है, अदृश्य होता है । निर्धनी होनेसे वह खेती आदि उद्योगको करता है। तथापि धनके विना उसमें भी कोई उपयोग नहीं होता है । अतएव हे जीव ! देवद्रव्यका स्पर्श मत कर ॥ १०४ ॥ देवद्रव्यादिसे ईर्ष्या नहीं करें मनोवपुर्वाग्गृहवप्रवित्तविरोधमेषां सुदृगादिकानां ।। करोति यस्तस्य जिमार्थकेया नैस्वं मृतिर्वाऽघविवृद्धिरेव ॥ अर्थ- जो व्यक्ति मन, वचन, काय व अपनी प्रवृत्तिसे सम्यग्दृष्टि साधर्मि सजनोंका विरोध करता है एवं देवद्रव्यसे ईर्ष्या करता है, उससे उसकी हानि होती है । पापकी वृद्धि होती है, विशेष क्या ? कदाचित् मरण ही होता है ॥ १०५ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविधानम् ३३५ देवद्रव्यापहरणका प्रत्यक्षफल देवाद्यन्यधनाहृतेः परपुरे मृत्युं गताक्रंदनात् । स्वावासे शपनाद्विवादकरणादुल्लंघ्य शक्ति निजाम् ॥ वृत्तेः पापचरित्रतः परिणताद्वक्रात्कषायोग्रतो । मित्रद्रोहमुख स्वपुण्यकुलसद्भार्यायुरादिक्षयः ॥ १०६ ॥ - अर्थ — देवद्रव्यादि परद्रव्यके अपहरण करनेसे देखा गया है कि दूसरे स्थान में ही उसका मरण होता है, उसके घरपर रोते ही रहते हैं। दूसरोंको गाली देना, दूसरोंके साथ झगडा करना, अपनी शक्तिको उल्लंघन कर वृत्ति रखना, पापाचरणमें मग्न होना, कषायकी उताको धारण करना, मित्रद्रोह करना आदि बातोंसे पुण्य, कुल, सद्भार्या व आयु आदिका क्षय होता है ॥ १०६ ॥ हिंसां मा कुरु मानृतं वद चुरां मुञ्चाङ्गनां मा स्पृश ॥ कांक्षां मा कुरु जैनमार्गनिजसप्तक्षेत्र भुक्तिं कुरु । दुष्टे स्वामिनि सेवकेशपति च क्रुध्यत्यलं जीव भी । मौनीभूय निवर्त्य गच्छति यथा पुण्याय तिष्ठ क्षमी ॥१०७॥ अर्थ- हे जीव ! हिंसा मतकर, झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, त्रियों को स्पर्श मत कर, परिग्रहों की अभिलाषाका परित्याग कर जैन मार्ग से अपने सप्तक्षेत्रोंका अनुभव कर । जिस प्रकार दुष्ट स्वामी होने पर सेवक के ऊपर अत्यधिक क्रोधित होता है, गाली देता है, परंतु शिष्ट सेवक पुण्य के लिए क्षमा धारण कर मौनसे जाता है, इसी प्रकार कर्मके परतंत्रता से तुम्हारे लिए कष्ट होनेपर भी कषायोद्रिक्त न होकर उदासीनसे अनुभव करो। तुम्हारा भला होगा ॥ १०७ ॥ संसारे दुःखभीरूणां केषामस्ति विशोधनम् । यद्भेदमधिगम्याहं तद्ब्रवीम्यागमोक्तितः ॥ १०८ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ दामशासनम् अर्थ - संसार में दुःख भीरुवोंकी विशुद्धि किस प्रकार होती है । उन के भेदको मैं जानकर आगमानुसार कथन करूंगा ॥ १०८ ॥ जिनधर्म के अपवादको दूर करें यथागमं यथाकालं यथाशक्ति यथोचितम् । भूपाः प्रजागः शान्त्यर्थ दंडं स्वीकुर्वते यथा ॥ १०९ ॥ जिनधर्मापवादांश्च दृष्ट्वा श्रुत्वाऽघभीरवः ॥ श्रुतेहि कुर्युः संशुद्धिं तारतम्येन सर्वथा ॥ ११० ॥ अर्थ - जिस प्रकार राजा यथागम, यथाकाल, यथाशक्ति, यथा उचित आदि बातोंको विचार कर प्रजावों के पापकी शांति के लिए दंड विधानको स्वीकार करते हैं । उसी प्रकार पापभीरु सज्जन जिनधर्म के अपवादको देखकर अथवा सुनकर तारतम्यसे शास्त्रोक्तविधि से उसका शोधन करें ॥ १०९ ११० ॥ अविभक्तों की शुद्धि. एकेनैव कृते दोषे सर्वेषामविभागिनाम् । शुद्धे सम्बन्धिनां सर्वशुद्धिः स्यादेकशुद्धितः ॥ १११ ॥ अर्थ-कहीं कहीं एक व्यक्ति के दोषसे उनके साथ रहनेवाले अनेक व्यक्तियोंको दोष लगता है । इसलिए उस महापातकी एक है। व्यक्तिकी शुद्धि होनेपर सबका शोधन हो सकता है । यह अविभक्तों के लिए नियम है ॥ १११ ॥ विभक्तों की शुद्धि. विभक्तानां तु सर्वेषामन्तरेक घृताघतः ॥ शुद्धिः स्यात्तस्य नान्येषामूढ कन्येव पैठकात् ॥ ११२ ॥ अर्थ - विभक्तोंके लिए सबका भिन्न २ रूपसे ही शोधन होना चाहिये । अर्थात् जिसने पातक किया है उसीका शोधन हो । दूसरों की आवश्यकता नहीं है ॥ ११२ ॥ 1 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाविधानम् - न नत्संबंधिना दोषो न विकारोऽधने धनि । धनिसंबंधिनामंजस्तस्य कुगाद्विशोधनम् ।। ११३ ॥ अर्थ-कोई गरीब पुरुषने पाप किय हो तो उसके संबंधीजनोंको सहकारी न होने से प्रायश्चित्त ग्रहण करनेकी जरूरत नहीं है । वह अकेला ही पापका प्रायश्चित्त करे ! परंतु धन के सहायकोंने यदि पाप किया होतो धनी और उसके सहायकोंको भी प्रायश्चित्त लेना आवश्यक है ॥ ११३ ॥ कार्येण धर्मेण कुलेन वृत्तात्संबंधहीनाय जनाय वित्तम् । । दचे स्वकीय प्रतिभूरिवार्या जैनस्य दोषोपशमाय दद्युः ॥ ११४ ॥ __अर्थ-कार्यसे, धर्मसे, कुलसे, चारित्रसे जो व्यक्ति पतित है, उसे अपने द्रन्यको देनेसे विशिष्ट दोष लगता है, लोग उस क्रियाको अच्छी ननरसे नहीं देखते हैं। किसी साधर्मी सज्जनके दोषके उपशमके लिए द्रव्यका प्रदान करना चाहिये ॥ ११ ॥ राजापराधिमजुनं परिसव भृत्यांइछेत्तुं शिरः पवि च गच्छत एवं दृष्ट्वा । दत्वा धनं खलु विमोचयतीव लोको जैनांचितापशमनाय धनानि दधुः ॥ ११५ ॥ अर्थ-अपराधी मनुष्य के छेदन करनेके लिए गजाकी आज्ञा हुई तो सेवकजन उसे पकडकर लेजाते हैं, उस मार्गमें कोई दयालु उसे देखता है तो धन देकर उसे छुडाने के लिए प्रयत्न करता है । उसी प्रकार अपने साधर्मियोंके द्वारा अर्जितपापके शमनके लिए धनका व्यय करना चाहिये ।। ११५॥ एके वृष धनं धान्यं गा क्षेत्र कोहलादिकम् । दत्वेवात्मपुराविष्टाञ्जनान् पति जिनाश्रितान् ॥ ११६ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me __ अर्थ-कोई २ धर्म, धन, धान्य, गाय, क्षेत्र गाजे बाजे आदिको प्रदान कर अपने नगरमें आये हुए साधर्मी भाईयोंका स्वागत करते हैं। [यह स्तुत्य है ] ॥ ११६ ॥ यावत्सूतकममस्ति नावदपि संझुद्धिर्जनानां विधि-। जैनानामिह दुम॒तौ सुखमृतौ सा स्याद्यवाशक्ति च । मुख्यानां गुरुभूपधार्मिकसनां शुद्धिर्जिना_दिभिः कार्या शासनवत्सलैरिव जनै पाय दत्तं धनम् ॥११७॥ अर्थ-लोक व शास्त्रकी विधि है कि जिस प्रकार का सूतक है उस प्रकारका शुदिविधान भी होना चाहिये । किसीका मरण दुर्मरण होता है, किसीका मरण सुखसमाधिपूर्वक होता है । इन सब बातोंको जानकर यथाशक्ति शुद्धि करनी चाहिये । मुख्य गुरु राजा व धार्मिक जनोंकी शुद्धि जिनपूजादिकोंसे होनी चाहिये । जिस प्रकार राजाके लिए धन दिया जाता है, उसी प्रकार ऐसे समय , धर्मवत्सलोंके द्वारा शुद्धिविधानका होना आवश्यक है ॥ ११७ ॥ मुनिसत्साधुराटसदृग्वतिकादिजनस्य च । धर्मोद्धारकरस्यापि दुर्मचौ सन्मृतावपि ॥ ११८ ॥ जिनभक्ताश्च यावन्तस्तावन्तः पुरुषाः सपाः । तदोषोपशमायैव शुदिमिच्छंत्रि सर्वथा ॥ ११९ ॥ पाडान्तर सुमलम् । . अर्थः-मुनि, आचार्य, सम्यग्दी, बतिक व धर्मोद्धारक आदि के मरण वा सन्मरण होनेपर जितने जिमभक्त हैं वे सर्व समानरूप से उस दोषके उपशमके लिए शोधन करें ॥ १२ ॥ उक्तंच-सर्वेषामविभागिनामभिहिता भुदिक्मिक्तात्मना । ...' मोढाया दुहितुर्यथा पितृभषोऽप्यर्थी व तां कारयेत् ।। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावलक्षणविशनम् हिंसादुर्मतिदूषणे च महतां धर्मापकीर्ती भटौं। ..साले तं पतितेऽप्यति च यथा सा स्थाचयाशक्तिका १३० - अर्थ-जो भव्य अविभक्त है उन सर्व को शुद्धि कही है । परंतु वे अविभक्त नहीं हो तो उन को शुद्धि नहीं है। जिस कन्याका विवाह हो गया है वह भिन्नगोत्रा हो जाने से उसके पितादिक जैसे दोष शुद्धिके लिए योग्य हैं वैप्ती वह नहीं है । हिंसा, दुर्मरण, दूषण लगाना, धर्म की निंदा करना, पर्वतादिकसे गिरकर पडना इत्यादिक पातक हो जाने पर यथाशक्ति शुद्धि प्रहण करके पाप से मुक्त होना चाहिए । विमोचयन् रोगमरं भिषग्यथा विमांचयन् दैन्यमरं नृपो यथा । मृते च बंधावसुखोपशोतये यथातिदुरवं स्वजनेन मोचयन्॥१२१ __ अर्थ-जिस प्रकार वैद्य रोगको छुडाता है, राजा दीनता की छुडाता है, उसी प्रकार किसी बंधुका मरण होनेपर अपने कुटुंबियोंक दुःखकी उपशांति के लिए उन के दुःख को दूर करते हुए शुद्धि विधान करना चाहिए ॥ १२१ ॥ धनका उपयोग नृपोऽर्जितार्थ निजसैन्यपुष्टये यथा प्रजार्थो नृपवप्रकर्मणे । जिनाश्रिता जैनजनाधांतये ददाति सर्वच धनं तथा जनः॥१२२ जिस प्रकार राजाके द्वारा संचित धन अपनी सेनाके पोषणके लिए है। प्रजावोंका धन राजाके संरक्षणके लिए है। उसी प्रकार जिनभक्क जीवोंका धन साधर्मी भाईयोंके पापकी अशांतिके लिए उपयोगमें आना चाहिये । उसी प्रकार के कार्योंमें सज्जन अपने धनको देते हैं ॥१२२॥ शुद्धिविधान अनुकंपैकं क्षपयति गर्दैकं गुरुदयैकमिति दोषस्य । निजगुरुदत्तव्रतधृतिरेकं भागं ततोऽतिनिर्दोषाः स्युः ॥१३॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानशालनम् अर्थ-किसी २ दोषको अनुकंपा ही दूर कर देती है, किसीकी शुद्धि गईणासे होती है, किसी दोषकी शुद्धि अपने गुरुके द्वारा दिए दुए व्रत के पालनसे होती है । दोषके तारतम्यसे झुद्धिविधानमें भी तारतम्य है। . यदि अल्पदोष दुआ तो व्यस्त्र ब अधिक दोष हुआ तो समस्त शुद्धिविधानं भेदोंका उपयोग करना चाहिये ॥ १२३ ।। शाकेऽब्दे त्रियुगाग्निशीतगुयुतेऽतीते विषावत्सरे । माघे मासि च शुक्लपक्षदशमे श्रीवासुपूज्यर्षिमा ॥ प्रोक्तं पावनदानशासनमिदं ज्ञात्वा हितं कुर्वतां । दानं स्वर्णपरीक्षका इव सदा पात्रत्रये धार्मिकाः॥१२४॥ अर्थ-श्री वासुपूज्यऋषिने यह दानशासन नामका पवित्र शास्त्र शालिवाहन शक १३४३ विषु संवत्सरके माघ शुद्ध दशमाके दिन रचा है। इस अंथका अभिप्राय जानकर भव्यजीव अपना हित करें। सुवर्ण परीक्षक जैसे सच्चा सोना ग्रहण करते हैं उसी तरह धार्मिक लोग इस ग्रंथसे ज्ञान प्राप्त कर तीन प्रकारके सत्पात्रोंको दान देवे व अपना हित करें ॥ १२४ ॥ 9 भद्रं भूयात् । S ' Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमान पाबना भाजी कल्याण बाँदर मिया ला सोलापूर