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दानशासनम्
होता है। तथा क्रिया नहीं करनेवाला अर्थात् पुण्यप्राप्ति नहीं करनेवाला अलसी आदमी भी नष्ट होता है अर्थात् संसारमें भ्रमण करता है।
देहे जिनगृहे गेहे पत्तने गगने भुवि । उद्भवंति यथोत्पाता धर्ममार्गे तथा जडाः ॥ ४४ ।। अर्थ-देह, जिनमंदिर, घर, नगर, आकाश व भूमिमें जिस प्रकार उत्पात-अशुभ चिह्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धर्ममार्गमें अज्ञानियोंकी उत्पत्ति होती है ॥ ४४ ॥
तपोभंग कृतं सर्व यद्यैस्तद्धहिरात्मभिः । मिथ्यर्धिधर्मनाशाभ्यां मधुपिंगळपावत् ॥ १५ ॥ अर्थ-बहिरात्मा मधुपिंगल, पार्श्वमुनिके तमान मिथ्याऋद्धिको प्राप्त कर धर्मनाश करनेवाले एवं अपने सर्व तपको भंग करनेबाले बहिरात्मा मुनि भी होते हैं ॥ ४५ ॥
पुण्यं पुण्यवतां वृष्टिवर्षयत्यतिपापिनः ।
सा न स्पृशति वृष्टिः स्थाद्वृतिश्च सदृशी तयोः ॥४६॥ अर्थ--पुण्यवानों को ही पुण्यकी वृष्टि होती है। अतिपापियोंको बइ पुण्य वृष्टि स्पर्श नहीं करती। एवंच व्रत व सम्यग्दर्शन भी उन पापियों को स्पर्श नहीं करते ॥ ४६॥
सितार्जुनादीनि च शालिसस्यैः प्रवृद्धिमायोति यथा तथैव । कृतानि सर्वाणि तपांसि भव्यै
रभंगवृत्तीनि भवंत्यभव्यैः ॥ ४७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार खेतमें सस्योंके साथ अनेक घास भी पैदा होकर बढते हैं उसी प्रकार भव्योंके द्वारा अभंगवृत्तिसे किये जानेवाले तप अभव्योंके लिए भी वृद्धि के लिए होते हैं ॥ ४७ ॥