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पात्रभेदाधिकारः
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बह्वीः स्त्रियोपि गृहन्ति भूपालतनया यथा
सुखानुभवनासक्ता अज्ञातोभयलक्षणाः ॥ ४८ ॥ अर्थ--सुखानुभवमें तल्लीन होनेवाले राजपुत्र मातृकुल तथा पितृकुल की शुद्धि रहित ऐसी भी स्त्रियां उपभोगनेके लिये अन्तःपुरमें रखते हैं । उसी तरह कितनेक पुरुष जिनदीक्षा हितकर है, और पारिव्राजक दीक्षा अहित कर ऐसा विचार न कर भाविसुखकी आशा से कोई भी दीक्षा धारण करते हैं । यह उनका अविवेक योग्य नहीं है ॥ १८ ॥
यथोदानोऽनिलः क्रुद्धो भोज्यद्रव्याणि यस्तथा ।
उद्दारयति दुष्कर्म पुण्यकर्म निवारयेत् ॥ ४९॥ अर्थ-यदि उदान वात कुपित हो जाय तो भोजन द्रव्यको वमन कराता है उसी प्रकार पापकर्म पुण्यकर्मके फलको भोगने नहीं देता है ॥ १९॥
कृतपुण्योदयात्पूर्व दोषाः प्रादुर्भवेत्यरं ।
उत्तबीजोदयात्सर्वा उद्भवंत्यखिलाः कलाः ॥ ५० ॥ __ अर्थ-पुण्यके फलके उदय आनेके पहिले अनेक दोष प्रकट होते हैं। जैसे कि बोये हुए बीज उगनेके पहिले अन्य तृण सस्यादि उत्पन्न होते हैं ॥ ५० ॥
मंदाग्नेगुरुभोजनेन विगळत्तेजा अनल्पागसा । स्वल्पायुर्विषभोजनाद्गतधना नष्टाधिकाराद्यथा ॥ निर्भाग्या नृपसेवया धृतधनाः स्वस्वाभ्युदासीनतः ।
क्रुद्धाद्या गुरुदीक्षयैव कतिचिन्नाशं गता दुर्गतिं ॥ ५१ ॥ अर्थ-मंदाग्निको धारण करनेवाले कितने ही लोग गरिष्ट भोजन करके कांतिरहित होते हैं । महत्पाप करनेसे स्वल्पायु होते हैं । आसन्नमरणजीव विषके भोजन करनेसे नष्ट होते