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पात्रभेदाधिकारः
दीक्षा के लिए अयोग्य पुरुष.
कोभिक्रोधिविरोधिनिर्दयशपन् मायाविनां मानिनां । केवल्यागमधर्मसंघविबुधावर्णानुवादात्मनाम् ॥
मुंचामो वदतां स्वधर्मममलं सद्धर्मविध्वंसिनां । चित्तक्लेशकृतां सतां च गुरुभिर्देया न दीक्षा क्वचित् ॥४१
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अर्थ - जो लोभी हो, क्रोधी हो, धर्मविरोधी हो, निर्दयतासे दूसरोंको गाली देता हो, मायावी व मानी हो, केवली, आगम, धर्म, संघ और देव इनपर मिथ्या दोषारोपण करता हो, " मौका आनेपर मैं निर्मल धर्म छोड़ दूंगा " ऐसा कहता हो, सद्धर्मका नाशक हो, के चित्तमें क्लेश उत्पन्न करनेवाला हो उसे गुरुजन दीक्षा कभी नहीं देवें ॥ ४१ ॥
स्त्रीणां भक्तिर्न च निजपतौ सेवकानां च देवे | भक्तानां सा न च गुरुजने सा न शिष्याधिकानां ॥ तास्ते ते वा विमलसुकृताच्छिन्न काचस्थधारां (2) यांतीवामि सदा दुर्गतिं तद्व्रजेयुः ॥ ४२ ॥
अर्थ --- लोकमें जिन स्त्रियोंकी भक्ति अपने पतिपर, सेवकों की भक्ति स्वामीपर, भक्तोंकी देवोंपर, शिष्योंकी गुरुजनोंमें यदि नहीं रहती है तो उनका जन्म व्यर्थ है । उनका पुण्यनाश होता है एवं वे नरकादि दुर्गतिको प्राप्त करते हैं ॥ ४२ ॥
सक्रियं कंबळं नष्टं नष्टं वासोऽक्रियं यथा ।
सक्रियः पापवान् नष्टः पुमानप्य क्रियस्तथा ॥ ४३ ॥
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अर्थ- हमेशा ओढना वगैरह कार्य में लाया गया कंबल नष्ट होता है। तथा उपयोग में नहीं लाया गया कपडा नष्ट होता है । उसी तरह अयोग्य आचरण करनेवाला अर्थात् पापक्रिया करनेवाला पुरुष नष्ट
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