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दानशासनम्
__ अर्थ-जो सज्जन अपने पुत्रोंको पढानेवाले विद्वानोंको अल्प वेतनको देकर उनसे बहुतसे उद्योग कराते हैं, उनके व उनके पुत्रोंके ज्ञान, पुस्तक आदिका नाश होता है । यदि शब्दसे द्रव्यनाश भी होता है ऐसा समझना चाहिये ॥ ५५ ॥
पुस्तकादि न्यासापहरणनिषेध न्यस्तं दत्तं पतितं विस्मृतमिह पुस्तकादि वंचित्वा । यो नास्ति वदति तस्य ज्ञानावरणं च दर्शनावरणम् ॥५६॥
अर्थ-जो सज्जन अपने पास दूसरोंकी रक्खी हुई, दी हुई, पडी हुई, भूलकर रही हुई पुस्तकादिज्ञानसाधनको ठगकर ' हमारे पास नहीं है, ऐसा कहता है उसे ज्ञानावरण व दर्शनावरणकर्मका बंध होता है ॥५६॥
इससे शानदर्शनावरणकर्मका बंध होता है । ज्ञानविषयस्सर्वो ज्ञानावरणं पटस्थदीप इव । दृशमावृणोति सर्वो दृग्विषयो रविमिवावृणोत्यन्दः ॥५७॥ अर्थ-ज्ञानके संबंधमें जो मनुष्य दोष करता है उससे पत्राच्छादित दीपकके समान ज्ञानावरणके द्वारा उसका ज्ञान आवृत होता है। इसीप्रकार दर्शनके संबंधमें जो दोष करता है उससे दर्शनावरणसे उसकी दर्शनशक्ति आवृत होती है जिसप्रकार मेघसे सूर्यबिंब आवृत होता है ॥ ५७॥
मिथ्यादृष्टि सहग्वचनसंदर्भ यो निराकुरुते यदा।
तदा कुदृष्टिस्तस्यापि दृष्टिानावृतिर्भवेत् ॥ ५८ ॥ अर्थ--सम्यग्दृष्टियोंके हितकारी वचनोंको जो निराकरण करता है वही मिध्यादृष्टि है, उसे भी ज्ञानावरण व दर्शनावरणकर्मका बंध होता है ॥ ५८ ॥