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হলিৰিকা
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- कलिकालमें शास्त्रस्वाध्यायकी दशा शास्त्रं पठंतो न च संति ते चेत्सम्यग्दिशंतो न च संति तेऽत्र । अध्यापयंतो न च संति तेऽज्ञास्तत्तं च तान् संति विनाशयंतः॥५९॥
अर्थ--इस पंचमकालमें पहिले शास्त्रको पढनेवाले ही नहीं हैं। पढनेवाले कदाचित् मिले तो उन शास्त्रोंके गूढरहस्यको अच्छी तरह समझानेवाले नहीं हैं। वे भी मिले तो उन पढनेवाले व प्रवचन करनेवालोंकी रक्षा कर उनसे पढवानेवाले नहीं है । कदाचित् इन सबकी प्राप्ति होजाय तो उस शास्त्रको, शास्त्र पढनेवाले, उपदेश देनेवाले व उनको रक्षण करनेवाले सज्जनोंको कष्ट देकर नाश करनेवाले मूढजन बहुत हैं ॥ ५९॥
यावद्यत्र सुवक्रबुद्धिरळया तावच्च तस्याशये । किंचिच्छुद्धमतिस्मुदृषसुचरितं ज्ञानं च भावः शुभः ॥
भक्तिर्वत्सलता विचारविनयः पुण्यं च धर्मक्रिया। . नासीनोद्भवतीह सर्वमफलं दोषाय पार्चे यथा ॥६०॥
अर्थ-जबतक इस मनुष्य के हृदयसे मायाचार-पूर्ण बुद्धि नष्ट नहीं होती अर्थात् निर्व्याज धर्मसेवनकी भावना नहीं आती है तबतक उसके चित्तमें शुद्ध निर्मलबुद्धि, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान, शुभभाव, भक्ति, वात्सल्य, विनय, पुण्य और धर्मक्रिया आदि कोई भी उत्पन्न नहीं होती है, होनेपर भी व्यर्थ हैं । पार्श्वमुनिके समान * वक्रपरिणामसे की हुई उसकी सर्व क्रियायें व्यर्थ व निष्फल हैं ॥६॥
दुराचारी विद्वानोंको कष्ट देते हैं. के मूढाः कतिचिज डा गतधना दुष्टामया दुःखिनो। भाग्याव्याः मुखिनः प्रमत्तमनसः कामेच्छवो गर्विताः॥
* जारचित्तमावच्छिन्नालातवद्यस्य चेतसि | शाश्वती वक्रबुद्धिस्तन्मिथ्यावं शल्यमुच्यते ॥