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चतुर्विधदाननिरूपण
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आगम है, मैं जो कुछ भी करता हूं वही आचार है। इस प्रकार के उच्छृखल विचार से उस व्यक्तिद्वारा धर्म का ही नाश होता है १३९
बाधते नृपसेवकानपि वचोगात्रैश्च ये सागस- । स्ते कारागृहबाध्यदण्ड्यसकलच्छेद्या भवेयुर्यथा ॥ ये रत्नत्रयधारिणस्त्रिकरणैस्ते सागसो दुर्गती। ते बाध्या बहुदण्ड्यखण्ड्यसकलच्छेद्याश्च वध्यास्तथा ॥ अर्थ-जिस प्रकार इस लोकमें राजाके सेवकोंको भी कोई वचन व शरीरके द्वारा बाधा पहुंचा तो वह राजाके अपराधी कहलाते हैं, उनको कारगृहका दण्ड मिलता हैं वहांपर उन्हे अनेक प्रकारकी बाधा दीजाती है, दण्ड दिया जाता है, समय आनपर उनका सर्व नाश किया जाता है। इसीप्रकार जो रत्नत्रयधारी साधुवोंको मन वचन कायसे कष्ट पहुंचाते हैं वे अपराधी हैं, वे भी उस पापके कारण नरकादि दुर्गतिमें जाकर जन्म लेते हैं। और वहांपर अन्य नारकी जीवोंके द्वारा उनको अनेक प्रकारसे बाधा दीजाती है। दण्ड मिलता है, वध किया जाता है । एवं उसका सर्बनाश किया जाता है । इसलिये वीतरागी साधुवोंको कभी कष्ट न पहुंचाना चाहिये ॥ १४० ॥ .
मुक्तिनास्ति कलौ वपत्रमिव सुक्षेत्र जिनर्षिद्वयं । जैना निस्वकृषीवला इव सदा भृत्यैश्च तत्र क्रियां । श्रेयोदामिह कारयति विमुखा दृक्ष्वेव कालाघतो ॥
राज्ञां विष्टिमित्राफला मुफलदैर्दानानि पूजाधनैः ॥ १४१ अर्थ-इस पंचमकालमें इस भरतक्षेत्रसे मुक्ति नहीं हो सकती, जिस प्रकार कि दरिद्री कृषकको निजका खेत नहीं होता है । मुक्तिस्थानको प्राप्त करनेयोग्य क्षेत्र जिनदेव
और जिनमुनि है । उनके प्रति जो क्रिया श्रावकोंकी होनी चाहिये वह योग्यरूपसे नहीं हो पाती, पूजाप्रतिष्ठादि श्रेयस्कर क्रियाको श्रावक अपने