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दानशासनम्
ऐसे प्रभावक गुरु हों तो भी उनमें रत्नत्रयात्मक धर्म नहीं मिलता है, कदाचित् रत्नत्रयात्मक धर्मके उपदेश देनेवाले गुरु मिले भी उन कर्मपीडितोंको उसे सुननेकी इच्छा नहीं होती है, कदाचित् इच्छा हो भी वह उपदेश उनको रुचता नहीं, रुचे तो भी हृदयमें प्रवेश नहीं करता है, कदाचित् हृदय में प्रवेश करे तो भी वहांपर वह उपदेश बहुत दिनतक टिकता नहीं, कदाचित् टिक भी जाय चंद्रमासे समुद्र के बढने के समान तपे हुए घी में पानीके समान, दरिद्र में ऐश्वर्य के समान अनेक दोषोंको अर्थात द्रव्य भाव कर्मोको उत्पन्न करके आत्मामें विकार उत्पन्न करते हैं एवं उन धर्मविचारोंका नष्ट करते हैं । ये सब सुयोग प्राप्त होकर पापात्मा धर्मात्मा बने इस के लिए मुख्यतया काललब्धिकी अत्यंत आवश्यकता है ॥ १३७ ॥
गुरुक्रमोल्लंघनतत्परा ये जिनक्रमोल्लंधनतत्परास्ते ।
तेषां न दृष्टिन गुरुन पुण्यं वृत्तं न बंधुन त एव मूढाः१३८ अर्थ--जो मनुष्य गुरुवों की परंपराको उल्लंघन करना चाहते हैं अर्थात् गुरुवों की आज्ञाको नहीं मानते हैं वे जिनेंद्रभगवंतकी आज्ञा को ही उल्लंघन करने में तत्पर हैं ऐसा समझना चाहिए । उन लोगों में सम्यक्त्व नहीं है । उन को कोई गुरु नहीं, उन्हें पुण्य का बंध नहीं, चारित्र की प्राप्ति नहीं, उन का कोई बंधु नहीं विशेष क्या? वे अपना अहित कर लेने वाले मूढजन हैं ॥ १३८ ॥
निजधर्मवंशपारंपर्यागतसत्क्रम व्यतिक्रम्य ।
यो वर्तते स उत्सक इह तेन च धर्मवंशहानिःस्यात्॥१३९ अर्थ-सर्वज्ञपरंपरासे आए हुए सन्मार्ग को उल्लंघन कर जो आचरण करता है वह धार्मिकमनुप्योंमें उत्सक कहलाता है । अर्थात् उस का यह विचार रहता है कि मैं जो कुछ बोलता हूं वहीं