________________
भावलक्षणविधामम्
शूद्रो गृहं स्पृशति संविशति प्रदोषो। दोषा भवेयुरनिशं विविधः क्षयः स्यात् ॥८६॥ अर्थ-जो धनिक लोग सप्त क्षेत्रों में दान देते नहीं, उनके गेहको इतना अपवित्र समझना चाहिए कि सूतकी लोग भी उनके घर में प्रवेश करने से अधिक अपवित्र होंगे। ऐसे धनिकोंके घर में यदि शूद प्रवेश करे तो अधिक ही दोष प्रविष्ठ होते हैं और वे धनिकोंके घर नष्ट होते हैं ॥ ८६ ॥
ये सूतकिजनाश्च स्युः कृतिनो न स्पृशंति से ।
कुलीना अपि जायन्ते सवृत्ताः शीलशालिनः ॥ ८७ ॥ - अर्थ--जो सूतकी जन पुण्यक्षेत्रका स्पर्श नहीं करते थे सज्जन कुलीन, सच्चारित्र, शीलवान् होते हैं ॥ ८७ ॥
__ पूजाके नामसे द्रव्यापहरणका दोष जिनपूजार्थमाहत्य निष्फलो यत्कृतोद्यमः ।
अस्पृष्ट्वा जिनपूजार्थमिष्टार्थः स्यात्कृतोद्यमः ॥ ८८ ॥ अर्थ- जिनपूजाके नामसे जो दूसरोंके द्रव्यको अपहरण करने के लिए प्रयत्न करता है उससे कोई अच्छा फल नहीं मिल सकता है । अच्छे भावसे यदि जिनपूजाके लिए प्रयत्न करके जिनपूजा न कर सके तो भी श्रावक इष्टार्थ को प्राप्त करता है ॥ ८८ ॥
पुण्यायुषां विषाहारः परश्वधयतीव भोः। धर्मार्थः कृतिनां सद्यो दण्डं क्लेशं करोति सः ॥ ८९ ॥ अर्थ-जिनका आयुष्य दानादि कृत्योंके करनेसे पवित्र होगया है ऐसे धनिक लोग, यदि धर्मके लिए जिसका उपयोग करना है ऐसे धनका उपयोग स्वार्थ के लिए करेंगे तो उनका यह अकृत्य कुल्हाडीके समान उनका नाश करेगा । अर्थात् देवद्रव्य खानेसे नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है ॥ ८९॥