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- दानशासनम्
स्वाम्यादिद्रव्यापहरणफल. वंचना स्वामिदेवार्थे पित्राद्यर्थे करोति यः ।
सोऽसाध्यक्षयरोगीव क्रमान्मुंचति जीवनम् ॥ ९० ॥ अर्थ-स्वामिद्रव्य, देवद्रव्य, पितृद्रव्य आदि में जो ठगता है वह असाध्य क्षयरोगी के समान कष्ट भोगकर क्रमसे जीवनको छोडता है अर्थात् मरता है ॥ ९ ॥
पात्रके बहानेसे द्रव्यापहरणफल यः परद्रव्यमाहत्य पात्रव्याजाच्च जीवति ।
इहामुत्र स जीवः स्याद्विष्टिकारो यथा जनः ॥ ९१ ॥ - अर्थ-जो पात्रके बहानेसे दूसरोंके द्रव्यको अपहरण कर जीता है; वह इइलोक व परलोक में एक मजूरके समान दुःखी जीवनको व्यतीत करता है ॥ ९१ ॥
पुण्यवान् को पापकर्म आश्रय नहीं करते हैं शुचित्वतः सर्वशुभोदयः स्यादनिष्टकर्माणि न चाभयंति ॥ सुगंधिगेहं न विशंति कीटास्ततः कृतिज्ञाः शुचितां लभेरन् । __ अर्थ–परिणामकी विशुद्धि से पुण्यकर्मका उदय होता है जिससे कि अशुभकर्म उस ममुष्य का आश्रय नहीं करते हैं । जिस प्रकार कि सुगंधि ( औषधविशेष, धर्मात्मा ) के घर में कोई कीटक व रोगादिक प्रवेश नहीं करते । इसलिए कृतज्ञ पुरुषोंको परिणाम में निर्मलताको प्राप्त करना चाहिए ॥ ९२ ॥
अशुभपरिणामसे पापात्रय अशुचित्वं करोत्येवाशुभकर्मास्रवं सदा । दुर्गघिमंदिरं कीटाः प्रविशति यथा तथा ॥ ९३ ॥ अर्थ-परिणाम की अशुभता सदा अशुभ कर्मासवको करती है।