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दातृलक्षणविधिः
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दानमें प्रशस्त. शुचिः पटुः साधुमनोनुकूलपथ्यान्नदाने निपुणोऽनुरागी ॥ मुदृग्वती तृप्तमनाः श्रमघ्नो भुक्तिप्रदाने यतिनां प्रशस्तः॥६३॥
अर्थ-मन, वचन, कायसे शुद्ध दानकार्यमें निपुण साधुवोंके मनके अनुकूल संयमवर्धक पथ्य आहारको देने में समर्थ, धर्मानुरागी, सम्यग्दृष्टि, व्रती, संतृप्त मनवाला, साधुवोंके श्रमको दूर करनेवाला, यतियोंके आहारदान में प्रशस्त है ॥ ६३ ॥
सूतकी व आहारदान. स्नाता चतुर्थदिवसे पक्तुं योग्या तु दानयोग्या न ॥ :. दत्तेऽने तु तया सा उत्तरजन्मनि च पुत्ररहिता स्यात् ।।
' अर्थ-रजस्वला स्त्री चौथे दिन में स्नानसे शुद्ध होकर घरमें रसोई बना सकती है । वह रसोई घरवालोंके ही काम में आसकती है । वह चौथे दिन मुनिदान नहीं दे सकती । यदि इस आज्ञाको उल्लंघन कर वह दान देवें तो उत्तरभवमें संतानविहीन होती है अर्थात् वंध्या होकर उत्पन्न होती है ॥ ६४ ॥ .
दत्तेऽनं सूतकी या स्यादवीरा साग्रजन्मनि ॥ न कुर्यात्मूतकी दानं पूजां दुर्गतिदुःखकृत् ॥ ६५ ॥ अर्थ-सूतकी स्त्री यदि मुनियोंको दान देवें तो वह आगे के जन्ममें पुत्रसंतानसे रहित होकर उत्पन्न होती है। इसलिए सूतकी दान व देवगुरुपूजाको न करें । अन्यथा वह नरकादिदुर्गतिको प्राप्त करती है ॥ ६५ ॥
स्वहस्तकर्तव्य. .... धर्मेषु स्वामिसेवायां पुत्रोत्पत्तौ श्रुतोद्यमे ॥
भैषज्ये भोजने दाने प्रतिहस्तं न कारयेत् ।। ६६ ॥