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भावलक्षणविधानम्
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देवद्रव्यापहरणका प्रत्यक्षफल
देवाद्यन्यधनाहृतेः परपुरे मृत्युं गताक्रंदनात् । स्वावासे शपनाद्विवादकरणादुल्लंघ्य शक्ति निजाम् ॥ वृत्तेः पापचरित्रतः परिणताद्वक्रात्कषायोग्रतो । मित्रद्रोहमुख स्वपुण्यकुलसद्भार्यायुरादिक्षयः ॥ १०६ ॥
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अर्थ — देवद्रव्यादि परद्रव्यके अपहरण करनेसे देखा गया है कि दूसरे स्थान में ही उसका मरण होता है, उसके घरपर रोते ही रहते हैं। दूसरोंको गाली देना, दूसरोंके साथ झगडा करना, अपनी शक्तिको उल्लंघन कर वृत्ति रखना, पापाचरणमें मग्न होना, कषायकी उताको धारण करना, मित्रद्रोह करना आदि बातोंसे पुण्य, कुल, सद्भार्या व आयु आदिका क्षय होता है ॥ १०६ ॥
हिंसां मा कुरु मानृतं वद चुरां मुञ्चाङ्गनां मा स्पृश ॥ कांक्षां मा कुरु जैनमार्गनिजसप्तक्षेत्र भुक्तिं कुरु । दुष्टे स्वामिनि सेवकेशपति च क्रुध्यत्यलं जीव भी । मौनीभूय निवर्त्य गच्छति यथा पुण्याय तिष्ठ क्षमी ॥१०७॥
अर्थ- हे जीव ! हिंसा मतकर, झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, त्रियों को स्पर्श मत कर, परिग्रहों की अभिलाषाका परित्याग कर जैन मार्ग से अपने सप्तक्षेत्रोंका अनुभव कर । जिस प्रकार दुष्ट स्वामी होने पर सेवक के ऊपर अत्यधिक क्रोधित होता है, गाली देता है, परंतु शिष्ट सेवक पुण्य के लिए क्षमा धारण कर मौनसे जाता है, इसी प्रकार कर्मके परतंत्रता से तुम्हारे लिए कष्ट होनेपर भी कषायोद्रिक्त न होकर उदासीनसे अनुभव करो। तुम्हारा भला होगा ॥ १०७ ॥
संसारे दुःखभीरूणां केषामस्ति विशोधनम् । यद्भेदमधिगम्याहं तद्ब्रवीम्यागमोक्तितः ॥ १०८ ॥