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दानशासनम्
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अर्थ-जिस समय पापका उदय होता है, उस समय मनुष्यके द्वारा अर्जित व अपने पासमें स्थित धनका नाश होता है । सर्व मनुष्य उसे ठगनेका प्रयत्न करते हैं। जिसका धन नष्ट होता है वह मनमें दुःखी होता है। ऐसे जीवोंको आचार्य उपदेश देते हैं कि भो भोले भाले जीव ! अपने मनमें दुखी मत होवो, अपने द्रव्यसे भिन्न दूसरोंके धनको स्पर्श मत करो । क्यों कि स्वतः के धन के मष्ट होने का कारण ही यह है कि तुमने पूर्वमें परद्रव्यका अपहरण किया है अतः पुनः उस पापको मत करो ॥ १०३ ॥
देवव्यापहरणनिषेध बेन द्रव्यमिहाहृतं जिनपतेस्तस्यापि हस्तागतं ॥ दायं दायमि (म) येत् पुरो न लभते माया भवेत्स्थापितम् ॥ निद्रव्यात्कुरुते धनव्ययकरान्कृष्यादिकानुधमां-। स्तत्र श्रीमति चंद्विरिक्त इव चास्पृष्ट्वाऽईतं जीव भो॥१०४॥
अर्थ-जिसने देवद्रव्यका अपहरण किया, उसके हाथमें आया हुआ धन भी नष्ट होता है, आगे नहीं मिलता है, कहीं गाढकर रक्खे तो वह भी नहीं मिलता है, अदृश्य होता है । निर्धनी होनेसे वह खेती आदि उद्योगको करता है। तथापि धनके विना उसमें भी कोई उपयोग नहीं होता है । अतएव हे जीव ! देवद्रव्यका स्पर्श मत कर ॥ १०४ ॥
देवद्रव्यादिसे ईर्ष्या नहीं करें मनोवपुर्वाग्गृहवप्रवित्तविरोधमेषां सुदृगादिकानां ।। करोति यस्तस्य जिमार्थकेया नैस्वं मृतिर्वाऽघविवृद्धिरेव ॥
अर्थ- जो व्यक्ति मन, वचन, काय व अपनी प्रवृत्तिसे सम्यग्दृष्टि साधर्मि सजनोंका विरोध करता है एवं देवद्रव्यसे ईर्ष्या करता है, उससे उसकी हानि होती है । पापकी वृद्धि होती है, विशेष क्या ? कदाचित् मरण ही होता है ॥ १०५ ॥