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दानफलविचार
त्रिकरणशुद्धिकी आवश्यकता चित्ते भाग्यसमिच्छवोपि चरितैर्यन्नाशयंत्युक्तिभिवृत्तः के मनसा वचोभिरिह के वाचैव हद्वर्त्तनैः । हृवृत्तैः कतिचिचोभिरपि के वाग्वर्तनश्चेतसा ॥
वाग्वृत्तर्मनसापि भाग्यमपि यत् पुण्यं सुपुण्येच्छवः॥१२९॥ अर्थ संसारमें प्रत्येक मनुष्य भाग्यकी अभिलाषा करते हैं। परंतु कोई मनमें भाग्यकी इच्छा करते हुए भी अपमे आचरणों से उस भाग्य को बिगाडते हैं । कोई अपने आचरणसे उसकी इछा करते हुए भी वचमोंसे उसकी बिगाड करते हैं। कोई वचनसे उसे चाहते हुए भी मनसे उस भाग्यको बिगाडते हैं। कोई हृदय व चारित्र इन दोनोंसे उसकी अपेक्षा करते हुए भी वचनसे उसको बिगाडते हैं । कोई वचनसे उसकी अपेक्षा करें तो भी मन व वर्तनसे उसकी बिगाड करते हैं। इसी प्रकार पुण्यकी अपेक्षा करनेवाले सज्जन पुण्यको चित्तसे चाहने पर भी अपने आचरणोंसे उसका तिरस्कार करते हैं । अर्थात पापमय वृत्तिको धारण करते हैं । कोई अपने आचरणसे पुण्यकी आकांक्षा करते हुए भी वचनसे उसका घात करते हैं। कोई वचनसे पुण्यकी अपेक्षा करें तो भी वे मनसे उस पुण्यकी हानि करते हैं । कोई मन व आचरणसे पुण्यकी अपेक्षा करते हुए भी वचनसे उस पुण्यको नाश करते हैं। कोई वचनसे उस पुण्यकी अपेक्षा करें तो भी मन व आचरण से उसको बिगाडते हैं । कोई वचन व आचरणसे उसकी अपेक्षा करते हुए भी मनसे उसको बिगाडते हैं। कोई मनसे उसकी अपेक्षा करते हुए भी वचन व आचरणसे उसका नाश करते हैं। और कोई मन, वचन व कायसे पुण्यका अर्जन करें तो वे मन, बचन व कायसे ही उसका नाश भी करते हैं। त्रिकरणशुद्धिसे विकल होकर जो भी पुण्यार्जन करें वह व्यर्थ है । बिकरणशुद्धिपूर्वक किए गए कार्योसे ही यथार्थ पुण्यबंध व उससे सौभाग्य प्राप्त होता है॥१२९