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दानशासनम्
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मर्यादाके भीतर नहीं देना वित्तमुक्तं न दत्तं यैर्येषां प्रागवधेर्मुदा।
उक्तं तैर्न फलं कार्य तेषामिष्टं न कुत्रचित् ॥ २२८ ॥ अर्थ--जो सज्जन देनेकी बात कहकर मुदतके अंदर नहीं देते हैं उनका कहना व्यर्थ है। उन्हे कोई भी विश्वास नहीं करता है। अतः उनके मनोरथकी सिद्धि कहीं भी नहीं होती है ।। २२८॥
अयोग्यधनग्रहणफल योऽदायं दायमाहृत्य वर्तते स भवेद्धनम् ।
सक्लेशो निष्फलोद्योगो मृतपुत्रांगनेशवत् ॥ २२९ ॥ अर्थ-जो अपने लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है ऐसे धनको अपहरण कर धनवान् कहलाता है, वह सदा दुःखी रहता है। संतान के मृत होने के बाद स्त्रीका पति बने रहना जिस प्रकार निष्फल व दुःखकर है उसी प्रकार उसकी हालत है ॥ २२९ ॥
कृतसेवाधिकं वित्तं येषां दत्तं पुरा च यैः ।
ते सर्वे किंकरास्तेषामधिश्रीणां भवांतरे ॥ २३० ॥ अर्थ-जो राजा वगैरे अपने सेवकोंको उनकी सेवासे भी अधिक धन देकर संतुष्ट करते हैं या पूर्वजन्ममें देकर संतुष्ट किया है, वे मृत्य पुनः अन्यभवमें भी उन श्रीमंतोंके ही ईमानदार नौकर होकर उत्पन्न होते हैं ॥ २३० ॥ स्मृत्वा न दत्तमुक्त्वा दत्तं द्रव्यं समाहृतं येन । त्रिभिरेतै होनिः स्यात् दानस्यायस्य तस्य नास्ति फलम् ॥२३१॥
अर्थ-जो व्यक्ति देनेके विचार कर नहीं देता हो, देनेकी बात कहकर नहीं देता हो एवं दिए हुए को पुनः अपहरण करता हो, वह