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दानफलविचार
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कापी है, इन तीनों प्रकारोंसे उसकी हानि होती है। और उसके दान व पुण्यका क्षय होता है, एवं उसका कोई फल नहीं है ॥ २३१ ॥
पुण्यपापभेद यथा करोतीह सुगंधपुष्पं मनोहरत्वं सुकृतं तथैव । यथा करोतीह कुगंधपुष्पं मनोजुगुप्सां दुरितं तथैव ॥२३२॥
अर्थ-जिस प्रकार सुगंध पुष्प अपने सुगंधके द्वारा मनुष्य के मनको हरण कर लेता है अर्थात् मनुष्यको अच्छा लगता है उसी प्रकार पुण्यकर्म भी मनुष्यको सुख पहुंचाता है । दुर्गंधपुष्प जिस प्रकार घृणा उत्पन्न करता है उसी प्रकार पापकर्म मनुष्यको दुःख पहुंचाता है ॥ २३२ ॥
दातावोंकी शक्ति देखकर याचना करें यावत्पशूधसि पयोऽस्ति विहाय सर्व । पाकाय तस्य पयसोऽर्धमुपाहरंतः ।। गोपा इवात्र भुवि दातृजनस्य शक्तिं । याचेत चित्तमधिगम्य गुणं च मर्त्यः ॥ २३३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार ग्वाले लोग गायके स्तनसे सर्व दूधको न निकालकर उसके अर्धभाग ही अपने कामके लिए लेते हैं उसीप्रकार दातावोंकी शक्ति, मनोवृत्ति व गुणको जानकर ही उनसे धनकी याचना करें ॥ २३३ ॥
वा फलति न फलतीति क्षेत्रं भूपा यदा हरंति धनम् । . धनमधनमजानंतो दानमिति द्रव्यमाहरंति जनाः ॥ २३४॥
अर्थ-खेतमें उत्पन्न अच्छा हुआ है या नहीं इस बातको न जानकर ही राजा लोग धनको वसूल कर लेते हैं। इसी प्रकार यह धनवान् है या निर्धन है यह न जानते हुए ही उन लोगोंसे याचकजन धन लेते हैं ॥ २३४ ॥