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दानफलविचार
स्मरणकर न देनेका फल यो ददामि धनं स्मृत्वा न दत्ते स भवांतरे । वंध्यद्रुम इवाभाति कर्माशक्त उदंभरिः॥ २२४ ॥. अर्थ-जो व्यक्ति दान देता हूं ऐसा मनमें स्मरणकर पीछे उसे नहीं देता हो तो वह आगेके भवमें वंध्यद्रुम ( बेकारवृक्ष ) के समान बन जाता है। और उसे अपना पेट भरना भी कठिन होता है ॥२२४
ध्यातं वित्तं न दत्तं यैर्येषां कालावधिर्मदा।
ध्यातं तैर्न फलं कार्य सेषामिष्टं न कुत्रचित् ॥ २२५ ॥ अर्थ-दूसरों को देने के लिए विचार किये हुए धनको योग्य समयमें संतोष से यदि नहीं दिया तो उस शुभ विचारका कोई फल नहीं हुआ करता है, और ऐसे लोगोंको कोई विश्वास नहीं करते । अतएव उनकी इष्टसिद्धि कहीं भी नहीं होती है ॥ २२५॥
लिखितादत्तदानफल. लिखितं तु न दत्तं यैर्यभ्यस्तेषां बहुव्ययः ।
नष्टः स्यादुद्यमः सर्वः स्वात्मीयायबहुक्षयः ॥ २२६ ॥ अर्थ-किसी को धन देनेके संबंधमें लिखकर देनेपर भी बादमें जो व्यक्ति नहीं देता है। उसे बहुत खर्चेका सामना करना पड़ता है, उसके सर्व उद्योग नष्ट होते हैं और पुण्यका भी क्षय होता है ।।२२६
. पचन देकर न देनेका फल यस्तु द्रव्यं ददाम्पुक्त्वा न दत्ते स भवांतरे।
शाल्मलीतरुवद्भाति निष्फलोधमतत्परः ॥ २२७ ॥ में अर्थ-जो व्यक्ति दान देता हूं ऐसा कहकर बादमें नहीं देता हो तो वह आगेके जन्ममें विना प्रयोजन उद्यम करनेवाले शाल्मली वृक्ष के समान होकर उत्पन्न होता है ।। २२७ ॥