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महर्षिवासुपूज्यविरचित दानशासनम्
. मंगलाचरण यस्य पादाब्जसवंधाघ्राणनिर्मुक्तकल्मषाः ... ये भव्याः सति तं देवं जिनेंद्र प्रणमाम्यहम् ॥ १ ॥
अर्थ- जिस भगवंतके अक्षय अनंतगुणों के प्रदान करने में दक्ष ऐसे पादकमलोंके सुगंधको सूंघकर भव्यजन रत्नत्रयात्मक धर्मके पालन करनेसे कर्ममलकलंकसे मुक्त होकर संसारपंकसे छूटते हैं ऐसे जिनेंद्र भगवंतको मैं भक्तिसे नमस्कार करता हूं ॥१॥ - इस प्रकार आचार्य ग्रंथकी निर्विघ्नसमाप्तिके लिये मंगलाचरण कर आगे प्रतिज्ञाश्लोक कहते हैं:
अष्टविधदानलक्षण दानं वक्ष्ये न वारीव सस्यसंपत्तिकारणम् ।
क्षेत्रोप्तं फलतीव स्यात्सर्वस्त्रीषु समं सुखम् ॥२॥ अर्थ-आचार्य परमेष्ठी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस ग्रंथ में दानविषयका निरूपण करेंगे। परंतु सामान्यदानका नहीं। जिसप्रकार लोकमें पानी बरसता, है, वह सभी प्रकारके भूमियोमें जाकर सभी प्रकारको सस्यवृद्धिका कारण बन जाता है और जिस प्रकार सभी