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दानशासनम्
स्त्रियोंमें समान श्रेणीका सुख है, उस प्रकार हम दानका उद्देश नहीं रखना चाहते हैं, हेयोपादेयज्ञानसे युक्त दानका ही हम निरूपण करेंगे ॥ २ ॥
ग्रंथोपदेश्य पात्र. शुद्धसददृष्टिभिः शुद्धपुण्योपार्जन लपटेः । सार्द्धं ब्रूयादिमं ग्रंथ नेतरैस्तु कदाचन ॥ ३ ॥
अर्थ – यह ग्रंथ पंचविंशति - दोषरहित शुद्ध सम्यग्दृष्टियों को एवं पात्रापात्र के भेदको समझनेवाले सप्तगुणों से युक्त होकर पुण्योपार्जन करने में तत्पर, ऐसे श्रावकोंके लिये ही उपदेश देने योग्य है । अन्य दर्शनज्ञानचारित्रसे रहित मिथ्यात्वियोंके साथ में इस ग्रंथका विवेचन नहीं करना चाहिये || ३ ॥
दत्वा द्वित्रिगुणं करं च सकलां विष्टिं च कृत्वा प्रजाः । सद्दव्यव्ययमात्तवप्रनिचये सम्यक्फले निष्फले ॥ प्रत्यब्दं बहुसुक्रियाः क्रमकृतास्ताभिश्च ताः कुर्वते । मुक्त्वा सत्क्रममुत्तमं सुखभुजो बांछंति जैनास्तथा ॥४॥ अर्थ - प्रजाजन दुगुना तिगुना कर राजाको देते हुए एवं राजाकी अनेक प्रकार से सेवा करते हुए अपनी खेतको फलवान् बनाने के लिये उसमें प्रतिवर्ष बहुत प्रयत्न करते हैं । फिर भी यह निश्चय ही नहीं रहता है कि उसमें सफलता ही हो । पूर्वाचार्यक्रम से आया हुआ दानपूजादिसे उत्पन्न सुखको छोडकर जैन भी उसी प्रकार के सावद्यजनित सुखको चाहने लगे हैं यह आश्चर्य की बात है ॥ ४॥
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दानका लक्षण धर्मकारणपात्रय धर्मार्थं येन दीयते । यद्दव्यं दानमित्युक्तं तद्धमर्जिन पण्डितैः ॥ ५ ॥
अर्थ -- आत्मीय सद्धर्मोपार्जन के लिये, धर्मानुकूल गार्हस्थ्य धर्मके