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अष्टविधदानलक्षण
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संचालन के लिये, अभयपरिपालन करनेवाले राजधर्मके पालनके लिये, उपर्युक्त तीनों उद्देश्योंको सिद्ध करने योग्य पात्रोंके लिये जो द्रव्य दिया जाता है, उसे व्यवहार निश्चय धर्मको जाननेवाले विद्वानोमें दान कहा है ॥ ५॥
दानका भेद । सामान्यं दोषदं दानमुत्तमं मध्यमं तथा ।
जघन्यं सर्वसंकीर्ण कारुण्यौचित्यमष्टधा ॥ ६॥ अर्थ-दान सामान्य, दोषद, उत्तम, मध्यम, जघन्य, संकीर्ण, कारुण्य और औचित्यके भेदसे आठ प्रकारसे वर्णित है ॥ ६ ॥
सामान्यदानलक्षण राजा निजारिकृतसंगरवारणार्थ । प्रस्थापितं बलमिवावति सर्वमन्यैः ॥ जैनोत्सवेऽरिकृतविघ्नविनाशकेभ्यः
सामान्यमुक्तमखिलं सुजनैः प्रदत्तम् ॥ ७ ॥ अर्थ-अपमी शत्रुसेनाको निवारण करनेके लिये प्रेषित अपने मित्र राजावोंकी सेनाको राजा जिस प्रकार बहुत आदर विनयके साथ । देखता है, उसी प्रकार जिनोत्सवमें उपस्थित होनेवाले विघ्नोंको दूर करनेके लिये साधर्मि भाईयों के द्वारा दी गई सर्व प्रकारकी सहायता सामान्यदान कहलाता है ॥ ७ ॥
पात्रभेदाननालोच्य जैनान्धर्मेक्षकानपि ।
सत्कृत्यानादिकं दत्तं दानं सामान्यमुच्यते ॥ ८॥ .. अर्थ-~-पात्रभेदोंका विभाग न करके, जिनोत्सवमें आये हुए जैनि
१ उक्तं च--अर्थाद्यवंचको भूत्वाप्यवितुं स्वबलं सदा।
दत्ते यथोचितं द्रव्यं दानं सामान्यमीरितं ॥