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शास्त्रदानविचार
२९१.
साधुसेवाफल
जिनरूपधरं साधुं ये स्वार्थैरर्चयति ते । फलं लभते बहुधा जिनपूजाफलादिकम् ॥ २४ ॥
अर्थ - जो सज्जन जिनेंद्र भगवंत के रूपको धारण करनेवाले जैन साधुवोंकी बहुत भक्तिसे अपने अनेक उत्तमद्रव्योंसे पूजा करते हैं, वे उससे साक्षात् जिनेंद्रकी पूजा, पंचाश्चर्य आदिके रूपमें अनेक उत्तम फलोंको प्राप्त करते हैं ॥ २४ ॥
तद्धराञ्जनशास्त्राणि ये स्वार्थैरचर्येति ते । लभते विमलज्ञानं केवलज्ञानसाधनम् ||२५||
अर्थ – जो सज्जन लोकहितकारक पवित्रशास्त्रोंकी एवं उन शास्त्रोंको धारण करनेवाले संयमियोंकी अनेक उत्तम द्रव्योंसे पूजा करते हैं, वे केवलज्ञानको प्राप्त करने योग्य निर्मलज्ञानको प्राप्त करते हैं ॥ २५ ॥
अल्पानल्प गुणियोंकी पूजा
अल्पगुणानमितगुणानल्पज्ञानखिळवेदिनो मत्वा ये । उचितं सत्कारं ते पुण्यं बोधं स्वधर्मवर्धन बुध्या ॥ २६ ॥
अर्थ - जो सज्जन अल्पगुणियोंको विशिष्ट गुणी समझ कर एवं अल्पज्ञानियोंको अखिलज्ञानी समझकर धर्मवृद्धिकी बुद्धिसे उचित सत्कार करते हैं वे सातिशयपुण्यको व विशिष्ट निर्मलज्ञानको प्राप्त करते हैं || २६ ॥
अल्पानल्पज्ञानियोंकी पूजा
अल्पज्ञानल्पन्तानल्पानल्पश्रियो नृपानिव सर्वान | नृपनामानो मत्वा मज्ञाः कृतिनो बुधाय पुण्यं ज्ञानम् ||२७||