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अष्टविधदानलक्षण normore ... अर्थ-राजगण अपने भोगोपभोग में और बंधुबांधवोंके रक्षणमें अत्यंत सावधान रहते हैं । वे अपने परिभोगके लिए अथवा स्वजनोंके उपयोगके योग्य, खराब, अग्निसे जला हुआ, पुराना, नवीन अपितु खंडित, दीमक लगा हुआ, चूहेसे काटा हुआ वस्त्र काममें नहीं लेते हैं । चांदीसे मिला हुआ सोना भी काममें नहीं लेते हैं। आहारादि द्रव्योंको अपने तथा दूसरोंके उपयोगमें लेते समय अच्छी सरह परीक्षा कर लेते हैं । फिर भी आश्चर्यकी बात यह है कि राजगण पापार्जितद्रव्य दानमें देते हैं ॥ २७ ॥
प्रज्वलज्ज्चालकं वन्हिमादाय स सृणालयं । दहन्दापयिता दानमेनोऽर्पितमिवाबभौ ॥ २८ ॥
अर्थ--जो व्यक्ति इस प्रकार पापोपार्जित द्रव्यको राजासे दान दिगता हो. वह सचमुच में जलती हुई अग्निको ले आकर घासके मकान में डाल रहा है ऐसा समझना चाहिये ॥ २८ ॥
........ कुदानफल. .. पूर्वाघतोऽधजाता सहस्राधिका वहन् । :: शिष्टविप्रकुलद्रोहाहाता गच्छति दुर्गतिम् ॥ २९ ॥ ___ अर्थ-शिष्टब्राह्मणोंके कुलद्रोही राजा पापार्जित धनको दान देकर पहिलेकी अपेक्षा भी सहस्रगुना पाप कमाकर परभवमें नरकादिदुर्गति को प्राप्त करता है ॥ २९ ॥
सहनशीलता. दृष्ट्वाशीविषदष्टदुस्स्थलामिदं पीत्वा विषं भो भिषक् ।। दत्वा श्वेडहरौषधं विषमरं प्रोन्मूल्य मां रक्षतात् ॥ इत्यानम्रकुदृष्टिवन भव भो धर्मज्ञवैधातुरा- । वेवं वीरतरौ भटाविव सदा तेषामधीशामिव ॥ ३० ॥ अर्थ--आशीविषसर्पके द्वारा काटा गया मनुष्य दीनताको धारण