________________
दानशसिनम्
कार्यो में वह नहीं लिया जाता, इसी प्रकार ब्राह्मण भी शास्त्रोंके ज्ञानभारको वहन करनेके लिये समर्थ हैं। पापभारको धारण करनेके लिये वह योग्य नहीं है ॥ २३ ॥
शालिसस्योपमा विप्रा नित्यपुण्यक्रियान्विताः । राजानोऽद्रिनिभास्तेषां तेऽघभारं वहति किं ॥ २४ ॥
अर्थ -- नित्य पुण्यक्रियामें संलग्न ब्राह्मण शालिसस्य (धान) के समान है, राजा लोग पहाड के समान हैं, इसलिये राजावों के पापभारको वे ब्राह्मण किस प्रकार धारण कर सकते हैं ? ॥ २४ ॥
शरस्त्वक्सारवन्न स्याच्छियुः खदिरवन्न च काराचवन मंदारो विप्रो भूपालवन्न च ॥ २५ ॥
अर्थ -- जिसप्रकार लोकमें दर्भ बांसके समान नहीं हो सकता है । सैंजिनका पेड खैर के समान नहीं होसकता है । मंदारवृक्ष काराचके समान नहीं बन सकता है। इसी प्रकार ब्राह्मण राजाके समान कभी नहीं बन सकता है ॥ २५ ॥
कुदान स्वरूप.
पापार्पितार्थदाता स्याद्राजा क्ष्वेडान्नदातृवत् ।
विप्रः पापार्थमादाता मृतिमेति शुको यथा ॥ २६ ॥
अर्थ - पापोपार्जित धनको दान करनेवाला राजा विषमिश्रित अन्नको दान करनेवाले के समान है । उस पापधनको लेनेवाला ब्राह्मण विषाहारपरीक्षित तोते के समान मरणको प्राप्त करता है अर्थात् भ्रष्ट होता है ॥ २६ ॥
वस्त्रं कच्चरमग्निदग्धमनवं भिन्नं नवं खण्डितम् । स्त्रीकीलाखुभिरर्जुनं सकपटं सम्यक्परीक्ष्याधिपाः ॥ आहारादिसुभोज्यवस्तु सकलं दाने स्वभ्रुक्तौ सदा । भुंजाना दुरितार्पितं धनमलं यच्छंति चित्रं नृपाः ॥ २७॥