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दानशासन
कर वैद्यसे जिस प्रकार कहता है कि " कृपानिधान वैद्यराज! मेरे ऊपर दया करके सर्पके द्वारा काटे हुए स्थलको आप देखकर तथा चसकर विषहर औषधि देकर मेरी रक्षा कीजिये ", आचार्य कहते हैं कि भो धर्मको जाननेवाले पुरुष ! तू उस प्रकार दीनता धारण न कर ! एक होशियार वैद्यके समान, रणभटके समान या सेनापतिके समान बनना सीखो । सारांश यह है कि कष्टकालमें भी दीनता धारण न कर धैर्यके साथ उसे सहन करना चाहिये ॥ ३० ॥
गायत्री दोषही यदुदितबलतो राजपापार्पितार्थ । स्वीकुर्वन्मयंदोषं हरति किळ सदा ध्यायतां ब्राह्मणानां ॥ विघ्नांस्तैरुत्थिताघं तदितबलवदीनतायाचकत्वं । तज्जं किं हंति वंध्यातुजफलसदृशं नार्थनां पुण्यदानं ॥३१ ।
अर्थ- ब्राह्मणोंका गायत्री-मंत्र (पंच नमस्कार-मंत्र ) सर्व दोषको दूर करनेवाला है । जिसके उदयसे यह मनुष्य राजाके पापोपार्जित दोषको भी दूर कर सकता है। बडे २ विघ्न उससे दूर होते हैं । राजाके आश्रयको पाकर पापधनके लिए दीनता या याचकवृत्ति करने में कोई लाभ नहीं है । वह वंध्यासुतके समान कोई फल देनेवाली क्रिया नहीं है । इससे पुण्य लाभके बजाय पापका ही संचय होता है ॥३१॥
फलकच्छत्रकवचकरा इव दयालवः । निर्दोषाहारदातेव पात्रदातार उत्तमाः ॥ ३२ ॥
अर्थ-युद्धस्थानमें काममें आनेयोग्य ढालकी मूठ, कवच, छत्रको तैयार करनेवाले जिसप्रकार दयालु होते हैं, जिस प्रकार निर्दोष आहार देनेवाला दयालु होता है उसी प्रकार निर्दोष पात्रको दयासे दान देनेवाले उत्तम दाता कहलाते हैं ॥ ३२ ॥
रजकाः कच्चरं क्षारचूर्णादिविधिभिर्यथा । पूतं कुर्वति गुरवो राजापं नाशयत्ययः ॥ ३३ ॥