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पात्रभेदाधिकारः
निंदा करते हैं । इसलिये बुद्धिमान् पुरुष पर-स्त्रियोंके घर क्यों प्रवेश करेगा ? ॥ ९७ ॥
ईग्दोषमनारतं न कुरुते निर्दोषदृग्वान्स यः । पुण्यात्मा नमिताननोऽपि तरुणीवाचोऽप्यश्रृण्वन्क्षमी ॥ विद्वान्स्वर्गसुखादिदं व्रतमिदं निर्दोषमेधावति । . पात्रं मध्यममित्युशंति मुनयस्तं कर्मविध्वंसिनः ॥ ९८ !!
अर्थ-जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है वह उपर्युक्त प्रकारके परस्त्रीजनित दोषोंको कभी नहीं करता है। उसे परस्त्रियोंके मुखको देखना भी पसंद नहीं है और न उनके वचन सुनने में सहन होता है। वे सचमुचमें बुद्धिमान् हैं | पुण्यात्मा हैं । ऐसे लोग स्वर्गादि संपत्तिको देनेवाले व्रतोंको निर्दोषरूपसे पालन करते हैं । उनको सर्वकर्मको नष्ट करनेवाले जिन मुनींद्र मध्यम पात्रके नामसे कहते हैं । अर्थात् गृहस्थों के सर्वव्रतोंको निरतिचार पालन कराने के लिए.शील बहुत प्रबल साधन
धर्म वर्द्धयति क्षमां रचयति क्रोधं विवादं नृणां । शक्त्या वा वचसा नयेन मृदुना यस्तंभयत्यन्वहं ॥ धर्मच्छिद्रमुपावृणोति सकलं संघ मुदा रक्षति ।। पात्रं मध्यममाहुरुत्तमजनास्तं मयमुद्यदृशम् ॥ ९९ ॥ अर्थ-जो जिनधर्मकी प्रभावनाको बढाता है, क्षमा धारण करता है, क्रोध व विवादको अपनी शक्तिके द्वारा मिष्टवचनसे और चतुर नीतिसे रोक देता है । सदा धर्मके दोषको ढकने के लिए उद्यत रहता है, सर्व जैनसंघकी संतोषसे रक्षा करता है, उस सम्यग्दृष्टिको मध्यम पात्र ऐसा उत्तम ऋषिगण कहते हैं ॥ ९९ ॥
जघन्यपात्र निर्दोषसुदृशं पुंसां सर्वजीवहितैषिणं ॥ पश्यंतं मातृवज्जैन जघन्यं पात्रमुत्तमाः ॥ १० ॥