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भावलक्षणविधानम्
निर्दोषी दोषको ग्रहण करने के लिए प्रयत्न नहीं करता है । दोषी जलौकही दुष्ट रक्त को पीते हैं । निर्दोषी कभी नहीं पीते ॥ १२ ॥ शुष्कास्थिदशनादस्रं पिवन्वेति न कुक्कुरः । केचिदत्र न जानन्ति पुरोऽपि बहुवेदनाम् ॥ १३ ॥
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अर्थ - जिस प्रकार कुत्ता सूखी हड्डीको खाते हुए अपने दांत ब मुखसे निकलनेवाले रक्त को पीते हुए भी उसे नहीं जानता है, उसी प्रकार कितने ही सज्जन अपने सामने अनेक प्रकार के दुःख होने पर भी उसे नहीं जानते हैं ॥ १३ ॥
गेहूं यत्र गते शुनीह मनुजैर्घातं भवत्यद्भुतं । नाचत्स गृहप्रवेशमपि ते दण्डाहतिं नात्यजेत् ।
चिन्त्यमेव सोऽप्यधफलं भुङ्गे यथा विष्टपे । भुञ्जानास्सकला भवन्ति दूरितं यन्नाशयन्त्यैहिकम् ॥ १४ ॥ अर्थ — कोई कुत्ते अपरिचित मनुष्य के घर में घुस जाते हैं तब उस घरका मालिक उनको पीटता है उस समय वे कुत्ते भोंकने लगते हैं । परगृद्दमें घुसनेका स्वभाव कोई कुत्ते नहीं छोडते हैं । अतः वे हमेशा दंडे से पीटे जाते हैं । पीटनेवाला आदमी तथा कुत्ते दोनों ही अपने अपने कार्य पापसंचय ही करते हैं । उसी तरह कोई जीव प्राणियोंको दुःख देते हैं । प्राणी अपने पूर्व कृतकर्मका फल भोगते हैं। तथा दुःख देनेवाले भी अपने इहपरलोक को बिगाडकर पाप संचय करते हैं । इस प्रकार विचार कर जीत्रोंको दुःखित करना योग्य नहीं है, ऐसा मनमें विचार करना चाहिये ॥ १४ ॥
मा कुरु शुचं कृतज्ञप्राणिष्वमधम इति बुधा बुवेत । भवतोऽपि निकृष्टतरं दृष्ट्वा श्वानं कृतज्ञनामानम् ॥ १५ ॥ अर्थ – हे जीव ! मैं कृतज्ञप्राणियों में अधम हूं । इस प्रकार की चिंता मत करो। तुमसे भी अधिक निकृष्ट कृतज्ञ कुत्ते को देख कर अपने मन में समाधान कर लेना चाहिए || १५ ||