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भाषाविधानम्
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न नत्संबंधिना दोषो न विकारोऽधने धनि ।
धनिसंबंधिनामंजस्तस्य कुगाद्विशोधनम् ।। ११३ ॥ अर्थ-कोई गरीब पुरुषने पाप किय हो तो उसके संबंधीजनोंको सहकारी न होने से प्रायश्चित्त ग्रहण करनेकी जरूरत नहीं है । वह अकेला ही पापका प्रायश्चित्त करे ! परंतु धन के सहायकोंने यदि पाप किया होतो धनी और उसके सहायकोंको भी प्रायश्चित्त लेना आवश्यक है ॥ ११३ ॥ कार्येण धर्मेण कुलेन वृत्तात्संबंधहीनाय जनाय वित्तम् । । दचे स्वकीय प्रतिभूरिवार्या जैनस्य दोषोपशमाय दद्युः ॥ ११४ ॥ __अर्थ-कार्यसे, धर्मसे, कुलसे, चारित्रसे जो व्यक्ति पतित है, उसे अपने द्रन्यको देनेसे विशिष्ट दोष लगता है, लोग उस क्रियाको अच्छी ननरसे नहीं देखते हैं। किसी साधर्मी सज्जनके दोषके उपशमके लिए द्रव्यका प्रदान करना चाहिये ॥ ११ ॥
राजापराधिमजुनं परिसव भृत्यांइछेत्तुं शिरः पवि च गच्छत एवं दृष्ट्वा । दत्वा धनं खलु विमोचयतीव लोको
जैनांचितापशमनाय धनानि दधुः ॥ ११५ ॥ अर्थ-अपराधी मनुष्य के छेदन करनेके लिए गजाकी आज्ञा हुई तो सेवकजन उसे पकडकर लेजाते हैं, उस मार्गमें कोई दयालु उसे देखता है तो धन देकर उसे छुडाने के लिए प्रयत्न करता है । उसी प्रकार अपने साधर्मियोंके द्वारा अर्जितपापके शमनके लिए धनका व्यय करना चाहिये ।। ११५॥
एके वृष धनं धान्यं गा क्षेत्र कोहलादिकम् । दत्वेवात्मपुराविष्टाञ्जनान् पति जिनाश्रितान् ॥ ११६ ॥