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__ अर्थ-कोई २ धर्म, धन, धान्य, गाय, क्षेत्र गाजे बाजे आदिको प्रदान कर अपने नगरमें आये हुए साधर्मी भाईयोंका स्वागत करते हैं। [यह स्तुत्य है ] ॥ ११६ ॥
यावत्सूतकममस्ति नावदपि संझुद्धिर्जनानां विधि-। जैनानामिह दुम॒तौ सुखमृतौ सा स्याद्यवाशक्ति च । मुख्यानां गुरुभूपधार्मिकसनां शुद्धिर्जिना_दिभिः कार्या शासनवत्सलैरिव जनै पाय दत्तं धनम् ॥११७॥ अर्थ-लोक व शास्त्रकी विधि है कि जिस प्रकार का सूतक है उस प्रकारका शुदिविधान भी होना चाहिये । किसीका मरण दुर्मरण होता है, किसीका मरण सुखसमाधिपूर्वक होता है । इन सब बातोंको जानकर यथाशक्ति शुद्धि करनी चाहिये । मुख्य गुरु राजा व धार्मिक जनोंकी शुद्धि जिनपूजादिकोंसे होनी चाहिये । जिस प्रकार राजाके लिए धन दिया जाता है, उसी प्रकार ऐसे समय , धर्मवत्सलोंके द्वारा शुद्धिविधानका होना आवश्यक है ॥ ११७ ॥
मुनिसत्साधुराटसदृग्वतिकादिजनस्य च । धर्मोद्धारकरस्यापि दुर्मचौ सन्मृतावपि ॥ ११८ ॥ जिनभक्ताश्च यावन्तस्तावन्तः पुरुषाः सपाः । तदोषोपशमायैव शुदिमिच्छंत्रि सर्वथा ॥ ११९ ॥
पाडान्तर सुमलम् । . अर्थः-मुनि, आचार्य, सम्यग्दी, बतिक व धर्मोद्धारक आदि के मरण वा सन्मरण होनेपर जितने जिमभक्त हैं वे सर्व समानरूप से उस दोषके उपशमके लिए शोधन करें ॥ १२ ॥ उक्तंच-सर्वेषामविभागिनामभिहिता भुदिक्मिक्तात्मना । ...'
मोढाया दुहितुर्यथा पितृभषोऽप्यर्थी व तां कारयेत् ।।