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चतुर्विधदाननिरूपण
देशे यस्य पुराविष्टजनानोदयते च ये । .... दापयंति न ते तत्र जीवंति मुखिनश्चिरं ॥ २७॥ · अर्थ-जो राजा अपने राज्य में प्रविष्ट प्राणियोंको कष्ट नहीं देता है एवं दूसरोंसे नहीं दिलाता है वह राजा एवं उसकी प्रजा सुखसे जीते हैं ॥ २७ ॥
नृस्त्रीगोधनधान्यवृक्षवसनाद्याहत्य यस्मिन्गते । स्वस्थानान्नपते सदोनमभवत्खेदं विधत्से हृदि । लोकोत्साहहतेश्च देवविभवच्छेदे मुदं मा कृथाः ॥ विघ्नं मा कुरु मापि कारय महं निर्विघ्नमेवाखिलं ॥२८॥ अर्थ-हे राजन् ! दूसरे जीवोंको कष्ट देना पाप है, उनकी स्त्री, गाय, धन, धान्य, वृक्ष, वस्त्र इत्यादिको अपहरण करनेसे उनके हृदय में बडा भारी धक्का पहुंचता है जिससे उनको भयंकर दुःख होता है, दूसरोंकी संपत्तिका छेद करनेसे उनका उत्साह भंग होता है, इस लिये दूसरोंको कष्ट पहुंचाने में आनंद मत मानो, दूसरों के उत्साहमें विघ्न उपस्थित मत करो, दुसरोंसे न करावो ताकि तुम्हारे भी सर्व कार्य निर्विन हो ।॥ २८ ॥ विघ्नान्वितेवहिकसर्वकार्येष्वयंति नो तानि पुरोभिवृद्धि । देवे महे सर्वविनाशहेतुर्ब्रयादविघ्नं कुरु भव्य बुद्धया ॥ २९ ॥
अर्थ-हे भव्य राजन् ! ऐहिक विवाहादिकार्यों में यदि विघ्न उपस्थित हुए तो पुरोभिवृद्धि नहीं होती है । देवता महोत्सवमें यदि विश्न उपस्थित हुआ तो वह सर्वनाशके लिये कारण है, इस लिये ऐहिक परलौकिक कार्यों में विघ्न उपस्थित म होसके ऐसा प्रयत्न करो ॥२९॥
स्वान्देशान्मुजनैरवंति च जनैर्धान्यार्थमारोग्यकं । देशभिरंगना इव भुतांस्ताभिर्लभते नृपाः ॥