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दानशासनम्
पट्टादीनि मणीन्वणिग्भिरिव सज्ज्ञानं बुधैस्साधुभिः ।
स्वानीकैश्च जयंत्यरीनिव स भो पापं जय श्रावकै॥३०॥ अर्थ-जिसप्रकार देशकी रक्षा सज्जनोंसे, धनधान्यकी रक्षा प्रजाजनोंसे, स्वास्थ्यकी रक्षा वैद्योंसे, बंधुवोंसे स्त्रीकी प्राप्ति, स्त्रीसे संतानकी प्राप्ति, वैश्योंसे वस्त्राभूषण इत्यादिकी प्राप्ति, विद्वान् साधुवोंसे ज्ञानकी प्राप्ति, तथा शत्रुवोंकी जय अपनी सेनासे होती है इसी प्रकार उत्तम श्रावकोंकी रक्षा कर पापको जीतना राजाका धर्म है ॥ ३० ॥
जिनेंद्रधर्मतेजांसि वर्द्धयंतीह ये नराः ।
तमोपहातेजोवत्ते भवेयुस्सतेजसः ॥ ३१ ॥ अर्थ-इस लोकमें जो व्यक्ति अपने धनके द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करते हैं उनका तेज अंधकारको नष्ट करनेवाले सूर्यके समान अत्यंत उज्ज्वल होता है ! उनकी कीर्ति बढती है ॥ ३१ ॥
परंपरायातजिनार्चनाविधि-प्रमाणमाचार्यमुखर्विचार्य । जिनेंद्रधर्मोल्वणमेव कुर्वते ते धार्मिका धर्मविचारपेशलाः ॥३२
अर्थ-जो मनुष्य परंपरासे आया हुआ जिनपूजनविधान वगैरहको आगमॉस जानकर अथवा गुरूवोंसे विचारकर जिनधर्मकी प्रभावना करते हैं वे धार्मिक हैं । धर्मकार्योंके करनेमें दक्ष हैं एवं अपनी धर्मभावनासे कर्मको नाश करनेके लिये समर्थ हैं ॥ ३२ ॥
१ चित्रदारुशिलारूपकिंवान्यति ये हतां ।। से संति कृतिनस्तद्वन्मुनिगणधरादिवत् ।। सोऽयं जिनःसुरगिरिननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः
• सलिलानि साक्षात् । . इंद्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततःकथमियंन ।
महोत्सवश्रीः॥