________________
चतुर्विधदाननिरूपण
मन्वानास्त्रिदिवागतः स मघवानेवायमिंद्रो महां-। स्तन्वाना निजबंधुर्गसहिताः श्रीजैनपूजोत्सवान् । चिन्वानाः सुकृतोच्चयं निरुपमं स्वर्गापवर्ग पदं ॥
धुन्वाना रजसाक्तवस्त्रमिव चात्माघोत्करं धार्मिकाः॥३३ अर्थ-जो मनुष्य पूजादि महोत्सव करानेवाले भव्यको यह साक्षात् स्वर्गलोकसे उतरा हुआ इंद्र है ऐसा समझकर अपने बंधुजनोंके साथ युक्त होकर उसके धर्मकार्यमें बहुत हर्षसे योग देते हैं वे स्वर्गापवर्गको देनेवाला पुण्यसंचय करते हैं एवं च उसके बलसे मलिन वस्त्रक मलके समान आत्मामें लिप्त पापोंके समूहको नष्ट करते हैं ॥ ३३ ॥
आहूताखिलजैनबंधुरिह तैरालोच्य देशादिभिः । प्रत्यहं सविवेकसविधिभिः श्रेष्ठ दिने वोत्सवं ॥ राजा बांधवभृत्यवर्गसहितो मुक्त्वैव भोगद्वयं ।
युद्ध शत्रुलयं करोत्यघलयं कुर्यात्स पुण्यार्जनं ॥३४॥ अर्थ-जिनमहोत्सवको करनेके पहिले सब देशों से जैन बंधुवोंको बुलाकर उनके साथ महोत्सवमें आनेवाले विघ्नोंको निवारण करनेका उपायविचार करना चाहिये, तदनंतर मंगल मुहूर्तको देखकर राजा बंधुजन, सेवक आदिसे युक्त होकर, भोगोंसे मुक्त होकर बहुत भाकिसे जिनपूजा महोत्सव करें जिस प्रकार राजा युद्ध में शत्रुवोंका नाश करता है उसी प्रकार ऐसे महोत्सवोंसे पापका नाश करता है पुण्यका संपादन करता है ॥ ३४ ॥
दृष्ट्वाईन्महपत्रिका सहृदया दूतं पुरस्कृत्य तत्- । पूजार्थे परिगृह्य साधुसहितो गत्वा बहिचिंतनं ॥ मुक्त्वानम्य जिनान्गुरूनपि बुधान्भक्तान्निजान्बांधवान् । स्थित्वा तत्र शुभाशयांश्च सकलान् संभावरंतु स्थिरं॥३५ अर्थ-जिस समय जिनमहोत्सवके निमंत्रणपत्र लेकर कोई दूत