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दानशासनम्
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आवे तो उसका हर्षसे सन्मान करना चाहिये, एवं उस पूजाके लिये योग्य सामग्री वगैरह लेकर अपने बंधुबांधव व साधुसंयमियोंके साथ मंदिरके लिये रवाना होना चाहिये । मंदिरमें आकर बाह्य विचारको छोडकर देव गुरु विद्वान व सुदृष्टि जीवोंका यथायोग्य नमस्कार करें एवं एवं शुभविचारसे युक्त होकर स्थिरचित्तसे उस शुभ महोत्सव में योग देवें ॥ ३५ ॥
अतुं शत्रुषलं व्रजामि नृपतेः सेवार्थमंगं दधे ।
मुक्त्वैवात्मपरिग्रहं निजगुरोरग्रेऽङ्गभागोचितं ॥ __ इत्थं स्वीकृतसुव्रतो रणतले निश्शेषसन्यासवां- ।..
स्त्वं जीवात्र जिनोत्सवेषु सुभटो वर्तस्व नित्यं यथा॥३६॥ अर्थ-हे आत्मन् ! जिसप्रकार युद्ध करनेके लिये रणभूमिमें जानेवाला वीर सैनिक प्रतिज्ञा करता है कि " मैं शत्रुसेनाको जीतने के लिये जा रहा हूं। स्वामिसेवाके लिये मेरा शरीर समर्पित है। जबतक मैं स्वामिसेवासे निवृत्त न होऊ तबतक मेरेलिये सब प्रकारके भोगोपभोगोंका त्याग रहे " इसीप्रकार जिनोत्सवमें जानेवाला जीव भी यह प्रतिज्ञा करें कि " कर्मरूपी शत्रुवोंको जीतनेकोलिये जिनचैत्यालयमें जारहा हूं। मैं जिनेंद्र भगवंतकी पूजाकेलिये अपना शरीर अर्पण कर चुका हूं । जबतक इस पुण्यमहोत्सवसे निवृत्त नहीं होऊं तबतक मेरेलिये सर्व भोगोपभोग पदार्थोंका त्याग है," इसलिये जिम पूजामें भी वारके समान रहे ॥ ३६ ॥
योद्धारो रणरंगवीररिपुभिस्त्यक्तांगनान्नादिकाः। निश्शंकादिगुणा इवाहतमहे विण्मूत्रशंकादिना । नो गच्छति पुरः प्रयोति चरम पद्भ्यां क्षिपत्येव नो-॥ नेक्षते न निजं स्मरति निलये जैना वसंतश्चिरं ॥३७॥ अर्थ-जो योद्धा शत्रुवोंसे युद्ध करनेके लिये रणरंगमें जाते हैं वे