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विषयानुक्रमणिका
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सप्तमोऽध्यायः।
पृष्ठ श्लोक २६७ मंगलाचरण २६८ प्रतिज्ञा
१३४ २ २६९ धार्मिक लक्षण
१३४ ३ २४० पांच प्रकार के पात्र २७१ पात्रा भेद २७२ उत्तम पात्र
१३५-३६ ६-१२ २७३ एकाकीविहारनिषेध
१३६ १३ २७४ गुरुसेवा
१३७ १४ २७५ गुरु के प्रति कर्तव्य
१३७-३९ १५.२० २७६ आर्यिकाओं के साथ मुनियोंका निवास निषेध १४० - २१ २७७ एकाकीविहारसे दोष
१४० २२ २७८ अभिमान निषेध
१४१ २३ २७९ दीक्षोद्देश्य
१४१-४४ २४.१० २८० दीक्षा के लिए अयोग्य पुरुष १४५.४७ ४१-५१ २८१ मिथ्यादृष्टियोंसे धर्म की हानि होती है १४८ ५२ २८२ गुरुवोंकी हमेंशा सेवा करनी चाहिए १४८ ५३ २८३ साधु भोजनसमयमें श्रावककी निंदा न करें १४९ ५१ २८४ दुर्जन अपनी दुष्टता कभी नहीं छोडते १४९ ५५ २८५ शिष्य आज्ञाकारी वधूके समान रहें १४९ । ५६ • २४६ सम्यग्दृष्टियोंके परिणाम
१५०-५१५७-६२ २८७ पहिले सम्यग्दर्शन होता है २८८ क्रोधादिसे किन्ही २ के सम्यग्दर्शन नष्ट होता है १५२ ६४ २८९ व्यवहार सम्यग्दर्शनके अभाव में निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है
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