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दानशासनम्
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शत्रुणा पीडित इव ग्रंथस्तं पीडयत्यलं ।
स निस्ववृद्धवद्भाति तस्य लक्ष्मीनिरेत्यरं ॥ ९३ ॥ अर्थ-पापोपार्जित परिग्रह, रोगीसे, दरिद्रीसे, भूखेसे, क्रोधित होकर अपहरण किया हुआ द्रव्य सदा वर्जनीय है । वह परिग्रह शत्रुके समान पौडा देनेवाला है । वह यदि श्रीमंत होनेपर भी पापोदयसे उसके पाप से दरिद्री वृद्धको तरुण स्त्री जिस प्रकार छोडकर चल जाती है उसी प्रकार लक्ष्मी उसको छोडकर चली जाती है ॥ ९२ ॥ ९३ ॥
गोवर्गगुप्तिविधिदुर्बलकार्षिका स्यात् । । ज्ञात्येव नोऽयमिति कस्य मुरक्षरक्ष, उक्त्वेति तं प्रवितरति यथाश्रितानां ॥
त्राणासमर्थनृपतीन्खलु मुंच शीघ्रं ॥ ९ ॥ अर्थ--जो किसान बहुत दयासे युक्त होकर गाय आदिकी रक्षा करता है एवं उनको हरतरहसे सम्हालता है, वह जब उनकी रक्षा करनेमें असमर्थ हो जाय तो उस समय उन प्राणियोंको भूखे मारने इत्यादि में पाप होता है ऐसा समझकर उसे किसीको दे देता है परंतु देते समय इतना जरूर कह देता है कि इसको अभी तक मैं बहुत प्रीतिसे पालन पोषण कर रहा था, अब असमर्थ होनेसे तुमको सोंप रहा हूं इसलिये तुम इसकी अच्छी सम्हाल करना, इसे कोई कष्ट न होने पावे । ठीक इसी प्रकार अपने आश्रित जनोंकी रक्षामें असमर्थ राजा उनको रक्षा करनेकी प्रेरणा करते हुए दूसरोंको सोंप देवें । यह भी अभयदानही है ॥ ९४ ॥
भूपा भुवं पांति त एव संतस्तानव लांत्यादधते सदैव । भूपालशब्दस्य निरुक्तिरुक्ता वीक्ष्यावबुध्यार्थमलं वदेत्ता ९५
अर्थ---इस पृथ्वी में रहनेवाले जीवोंको न्यायनीतीसे जो रक्षा करते हैं वे ही भूप कहलाते हैं । वे ही सत्पुरुष हैं । वे सत्पुरुषोंका