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चतुर्विधदाननिरूपण
राजश्वक्रमवंति शत्रुहनने दक्षं यथा कार्षिकाः । कृष्यर्थं भृतिभुग्वृषानपि सदा रक्षति लोके यथा ॥ सद्धर्मानुगुणं परिग्रहमिमं पांत्येव तेषामयः । याद्धर्माननुकूलरक्षणविधिविष्टक्रिये वाघदा ॥ ९० ॥
अर्थ - जिसप्रकार राजा शत्रुत्रोंसे अपनी रक्षा के लिये समर्थ सेनाका रक्षण करते हैं, किसान लोग कृषि के योग्य बैल मनुष्य आदि की रक्षा करते हैं उसी प्रकार धार्मिक गृहस्थोंको उचित है कि वे धर्म के अनुकूल परिग्रहों की रक्षा करें अर्थात देवकार्य, राजकार्य, गाईस्थ्यकार्य एवं व्यवहारकार्यको संपन्न करनेके लिये अपने कुटुंबीजनों की रक्षा करें, अपने आश्रित जनोंपर अनुग्रह करें, यहांतक इसी उद्देइसे गाय भैंस आदिको भी पालन करें, इस प्रकार पुण्यमय उद्देश्य से किये हुए कार्यसे पुण्यबंध होता है । इसके विरुद्ध जो आचरण करते अर्थात् उपर्युक्त चार प्रकारके उद्देश विरुद्ध आरंभ करते हैं वे पापका संचय करते हैं जैसे किसको पकडकर बलात्कारसे उससे कार्य कराना पापके लिये कारण होता है ॥ ९० ॥
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ग्रंथपुरदेश सैन्यं यस्य भवेन्नानुकूलमपि तस्य । पुण्यं न नार्थलाभो यशो न भूतिर्न हानिरतिभीः स्यात् ॥९१
अर्थ - जिसके लिये परिग्रह, पुर, देश, सेना आदि प्रतिकूल है उसको पुण्यकी प्राप्ति नहीं, अतएव सुख नहीं, द्रव्यलाभ नहीं, यश की प्राप्ति नहीं, ऐश्वर्यकी उसे प्राप्ति नहीं होसकती, प्रत्युत उनसे उसकी हानि होती है और अतिशय भय उत्पन्न होता है । इसलिये इन सबको अपने अनुकूल बनाने से गृहस्थजीवन सुखमय होता है ॥९१॥
ग्रंथः पापागतस्तप्तो निस्वतोऽनन्नतोऽनिशं ।
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आदतं मुक्तिद्रव्यं स्वकर्तृतः ॥ ९२ ॥