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भावलक्षणविधानम्
समस्त लोगोंको नदीमें डुबा देगा । उसी तरह दान देनेवाले को उस के कार्य की प्रशंसा कर दानमें प्रवृत्त करना चाहिए। ऐसे करने से धर्मप्रभावना होगी अन्यथा धर्म का विनाश होगा। योग्य दान देने वाले की प्रशंसा करो अथवा मौन धारण करो परंतु उसकी निंदा करने से धर्मका नाश करनेका अकार्य होता है, ऐसा समझकर ऐसे कार्य से सदैव दूर रहो ॥६५॥
अस्मिन् गारिका वसन्ति नगरे वीथीषु मुष्टिर्जडैः । पुण्यं वस्तुचयं हरन्ति च यथा मुष्टिपुराणश्रुते ॥ दले यो नृपवत्फलं तलवरो बध्नाति दुष्टं यथा। द्वौ नाथौ वसतः शुभाशुभकरौ लोके यथार्याहसि ॥६६॥
अर्थ-कतरनी वगैरे चोरीके साधन लेकर राजाने स्वतः अपने कोषागारमें चोरी की थी। तब कोतवालने शोध करके राजा ही चोर है ऐसा निश्चय कर उस को पकड लिया, उस समय प्रजाने कोतवालकी बहुत प्रशंसा की । उसी तरह धनादिक वस्तुओंको हम यदि मत्पात्रादि दानमें लगायेंगे तो हम कोतवाल के समान पुण्यफल-स्वर्गादिक फल मिलेगा, हमारी इह लोकमें कीर्ति होगी और यदि हम हमारे धनादिकों को असत्कार्य में विनियुक्त करेंगे तो स्वयं ही दृष्टांतमें प्रदर्शित किये राजाके समान दंडित होगे अर्थात् पापसे दुर्गतिदुःख भोगेंगे । ऐसा समझकर सत्पात्रादिक को दान देना चाहिए ॥६६॥
सदा विकलदुःपरिग्रहबहुग्रहैः पीडितम् । मनोऽतिमरुदुच्चलत्सलिलवीचिवत्कंपयते ॥ सवेल [ग] जलमध्यकम्पिततृणांगवत्कम्पते । ज्वलज्ज्वलनपात्रसंकथितवारिवत्क्षुभ्यते ॥ ६७ ॥ अर्थ-मन परिप्रहसे रहित होने पर भी वायुसे ऊपर उठी हुई जलतरंगके समान सदैव चंचल व शोकप्रस्त रहता है। यदि दुष्ट