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दानफलविचार
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भी स्वर्गापवर्ग सुखसाधनसमर्थ इस लोकको तृणके समान समझकर, उसः मानकषायके कारणसे रत्नत्रयात्मक, धर्म, निर्दोषदेव, गुरु, स्वजन, पुरजन, राजा, स्वयंका पाप, पुण्य, आदि किसीकी भी परवाह नहीं करता है, वह अनेक लोगोंका कोपभाजन बनता है, लोग उसे शाप देते हैं । राजा आदिकेद्वारा भी वह दण्डित होता है। इसलिए आत्मकल्याणको चाहनेवाले हे भव्य ! इस गर्वका परित्याग कर स्वभाषसे सद्धर्ममार्गका आश्रय करो । तभी तुम्हारा हित होसकता है ॥ १२२॥
मनरहित दान मनोऽन्तरेण यो दानं करोति स जडो जनः ।
भोगाशक्तो महाभाग्यः षढोऽन्धस्त्रीजनो यथा ॥ १२३ ।। अर्थ-मनकी भावनाके विना जो दान करता है वह सचमुचमें मनुष्य नहीं है, जड है। उसकी हालत महान् भाग्यशाली होनेपर भी भोगने में असमर्थ श्रीमंत समान व भोगने की इच्छा होनेपर भी नपुंसक स्त्रीके समान है ॥ १२३ ।।
मनो विनैव कुरुते दानं पात्राय यः पुमान् । शिकास्नानमिवाभाति सुवर्णकलशो यथा ॥ १२४ ॥ अर्थ-मनकी भावनाके विना जो पात्रके लिए दान देता है वह दाता सुवर्णकलशके समान है, अर्थात् सुवर्णकलश होनेपर भी स्वतः सुवर्णकलशके लिए उसकी उपयोगिता नहीं है और वह जड ही है। एवं शिलास्नानके समान उस दाताका दान निरुपयोग है ॥ १२४ ॥
मन-वचनरहितदान यद्वचःकारितं दानं भाति तच्चटुकादिवत् । यथा तुलाहकः प्रस्थो मनसा वचसा विना ।। १२५ ॥