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दानशासनम्
स्निग्धामत्र शिखीव दातृहृदये नीतिस्त्वमोघेत्यहो (१)
ोकेनैकपुरं क्षयेन कुरुते पापस्य किं किं फलम् ॥१४५॥ अर्थ-लोकमें दूसरों के पास जाकर "देहि" ऐसा कहना कष्ट है । देता हूं यह कहना भी कष्ट है, नहीं देता हूं कहना भी कष्ट है। दाता यदि देने के लिए संकोच करें तो याचक अनेक प्रकारके आशयोंको प्रकट करते हुए याचना करता है, तब दाताकी क्रोधाग्नि बढती है । जिस प्रकार अग्निपर तेल पडनेपर वह प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार दाताका कोध बढता है । एक ही व्यक्तिसे एक नगर नष्ट होता है, इस प्रकारकी कहावत है वह सत्य है, पापका फल क्या क्या नहीं होता है ? ॥ १४५ !
पूर्णे पूरितमानसे, स्थितधृतिश्री हीयशोबुद्धयो । देव्यः पंच वसंति यस्य स नरो दतिव नो याचिता ।। शुष्कं तच्च यदाभवद्यदि तदा नियोति ता देहि वा-। ग्द्वारेऽरुंधति दातरीह कुटवत्पापं शिखी स्यात्तयोः॥१४६॥ अर्थ-जिसप्रकार मानससरोवरमें श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि इस प्रकार पांच देवियों का निवास है, उसी प्रकार दाताके मनरूपी मानससरोवरमें धृति (धैर्य ) श्री ( संपत्ति ) ही ( लज्जा ) यश ( कीर्ति ) बुद्धि (ज्ञान ) नामक पांच देवियां निवास करती हैं । वह दाता हमेशा दाता ही बना रहता है, याचक नहीं रहता है। जब वह मानस सरोवर किसी कारणसे शुष्क होजाता है तो वे देवियां निकलजाती हैं, इसी प्रकार दाताके हृदयमें दानबुद्धि न रहे तो उपर्युक्त पंत्र देवियां भी निकल जाती हैं। यदि उस समय दात ने उनको रोकनेका प्रयत्न नहीं किया तो अग्नि जिस प्रकार मकानको जलाती है इस प्रकार दाता व पात्रको पापरूपी अग्नि जलाती है। सारांश यह है कि दाताको सदा अपने हृदयमें धृति आदि गुणोंको धारण करना चाहिये ॥४६॥