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दामफलविचार
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तिष्ठत्यंहस्तरक्षौ प्रविशति हृदि किं धर्मगौस्तत्प्रविष्टे । तस्मिन्मृत्युभवेत्तस्य च बलवदघद्वीपिनो धर्मगाश्च ॥ हत्वा न त्वा दयंते किमिव निजसुतान्सर्वथा भक्षयति । ज्ञात्वा ते धर्मगावस्तदुपजनसमा वीक्ष्य धावंति दूरात् ॥१४३।।
अर्थ-पापरूपी व्याघ्रके हृदयमें निवास करते हुए धर्मरूपी गाय उस स्थानमें प्रवेश कर सकती है ? कभी नहीं । यदि वह प्रवेश करे तो उसकी मृत्यु अवश्यमेव हो जायगी । गाय यदि व्याघ्रोंकी गुफामें प्रवेश करें तो क्या वे उस गायको न खाकर अपने बच्चोंके समान संरक्षण करते हैं ? कभी नहीं । वे खायेंगे ही, इस बातको जानकर वे गाय उन व्याघ्रोंकी गुफाओंको देखकर दूरसे जिस प्रकार भागती हैं उसी प्रकार पापी हृदयको देखकर धर्मरूपी गाय दूरसे ही भागती हैं ॥ १४३ ॥
द्वारं संश्रित्य दातुः प्रतिदिनयमलाः स्वस्थिति संविहाय । ग्लानास्याः कुंचितांगा विकृततनुवचोगद्गदध्वानकंठाः ॥ दीनोक्तीः संवदंतः कुलिशनिनदवचंडवाचो निशम्य । व्योमात्मानो भवन्नः प्रतिफलितफलाः कुर्वते किं किमाशाः॥
अर्थ-कोई कोई याचकजन दातावोंके घरके पास पहुंच कर अनेक प्रकारसे याचना करते हैं। उस समय अपने मुखको ग्लान कर, शरीरको सिकुडाकर, अपने वचनमें दीनता व्यक्त करते हुर, गद्गदकंठसे तोतले शब्दोंसे याचना करते हैं । दाताने यदि मेघगर्जना के समान क्रोधभरे वचनोंसे फटकारा तो भी सुन लेते हैं । आशा बडी बुरी चीज है, उससे मनुष्य क्या क्या नहीं करता है ॥१४४ ॥
. याचकत्व महाकष्ट है
कष्टं देहि ददामि दातृवचनं कष्टं न कष्टं ददे । ___कष्टं याचितुराशये बहुतरः क्रोधाग्निरुज्जम्मत। . .