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चतुर्विधदाननिरूपण
सुख देनेवाली यधपि वेश्या है तथापि उस दासीके साथ विरोध करने से उस को वेश्या से भी ठीक सुख नहीं मिल सकेगा ऐसा समझकर उस दासीके साथ विरोध नहीं करते हैं । परन्तु दुःख इस का है की जिनेंद्र देवके साक्षात् सेवक पुरोहितोंको आदरकी दृष्टि से देखते नहीं है।
ये ये राज्ञां सेवकाःसंति ते ते । पूज्याः सेव्या सेवका न प्रजानां ॥ तास्तेषामेवोपकुर्वेति सेवा। . भीताः प्रीता राण्मनो लब्धुकामाः ॥ १४४ ॥ .
अर्थ--राजा की मर्जी को प्राप्त कर लेने की इच्छा रखने वाले मनुष्य राजसेवकों को बडे पूज्यदृष्टि से देखते हैं अर्थात् राजसेषक प्रजावोंके लिए आदरणीय हैं, वे प्रजावाके सेवक नहीं हैं । प्रजा उन राजसेवकोंको भय से स्नेहसे उपकार करती है एवं उन की सेवा करती है। यह लौकिक नीति है ॥१४४ ॥
ये ये नो देवार्चकारसंति ते ते । पूज्याः सेव्या सेवकारस्युः प्रजानां ॥ नार्थस्तेषां ताभिरर्थ विनाधं ।
भीताः प्रीता आजुषा [?] वा तदर्थात् ॥ १४५॥ अर्थ-जो भगवान्के अर्चक हैं वे सब हम . श्रावकोंके लिये पूज्य हैं, उनकी सेवा करने योग्य है । परंतु पंचमकालके दोषसे प्रजायें उनकी सेवा करना छोडकर वेही सबके सेवक बनगये हैं। उनको उनकी सेवाके बदले नैवेद्यके सिवाय और कुछ मिलता भी नहीं है । जो मिलता है उसीमें संतुष्ट होकर भयसे सबकी सेवा करते हैं. यह काल दोष है ॥ १४५ ॥ 'ये येऽर्चति जिनं गुरूनुपचरंत्यत्मिजास्तेऽा ते ।
सद्भक्त्योपचरंति पूजकजनाः स्युस्ताः स पुण्यं तयोः ।।