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दानशासनम्
अन्योन्यानकूलयोगवशतः पापं च पापप्रदं । कोपाः कोपकराः शमाः शमकराः भावाः स्युराज्यावमाः अर्थ---जो जिनेंद्र भगवंत व जिनमुनियोंकी पूजा करते हैं वे अहंत परमेष्ठीके प्रजा हैं, इस पंचमकामें जो उनका सत्कार करते हैं वे पुण्यका बंध करते हैं । परस्पर अनुकूलवृत्तिसे दोनोंको पुण्यबंध होता है । एवं एक दूसरेके अनुकूल प्रवृत्ति न होकर वैषम्यभाव रहे तो पापकर्मका बंध होता है । क्योंके लोकमें देखा जाता है कि क्रोध से क्रोधकी वृद्धि होती है, शांतिसे दूसरा मनुष्य भी शांत होजाता है। जिस प्रकार अग्निमें पड़ा हुआ घी अग्निको प्रज्वलित करनेवाला है। जलमें पड़ा हुआ वी ठण्डा होता है, इसीप्रकार भाव जैसें होते हैं उसी प्रकार उसकी परिणति होती है ।। १४६ ॥
ये धर्मार्जितसौख्यमप्यनुभवद्भपा वृषध्वंसिनो । से ज्ञातार्थगुणाश्च वन्हिबलतोऽपथ्याशिनो दुःखिनः ॥ कर्म नंति दृगईदाश्रितजना दुःकर्मसंवर्तिनः ।
सर्वे पंचमकालदोषबलतो मूढा इहेवाभवन् ॥१४७॥ . अर्थ-जो राजा व श्रीमंत लोग पूर्वजन्म में आचरण किए हुए धार्मिक वृत्तियों के पुण्यसे सुखको अनुभव करते हुए उस धर्मको नष्ट करते हैं वे वे अज्ञानी ठीक उसी प्रकार हैं जिस प्रकार कि अनेक भोज्यपदार्थोके गुणको जानते हुए एवं अग्निके बल होनेपर भी अयोग्य आहार को खाकर दुःखी हो जाते हैं । सम्यक्त्व गुण कर्मको नाश करते है । परंतु खेदकी बात है कि इस पंचमकालके दोषसे जिनधर्माश्रित मनुष्य मूर्खतासे पापकर्मकी ओर प्रवृत्ति करते हैं ॥१४७॥