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चतुर्विधदाननिरूपण
अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंके मनको दुःख पहुंचाकर उनके अनादिक द्रव्योंको अपहरण करता हो एवं उससे स्वयं सुखका अनुभव कर रहा हो उसके पुण्यका नाश होता है । एवं सर्व संपत्तियों में प्रधान व्रतरूपी संपत्ति नष्ट हो जाती है, इतनाही नहीं पापकी वृद्धि होता है । इसलिये परधनको अपहरण करना उचित नहीं है॥१८३॥
अन्यौकाकृतभुक्तयो नृपतयो दत्वैव भुक्तिव्ययं । ज्ञात्वा द्वित्रिगुणाधिकं धनपटं गच्छंति विद्वन्यदा ॥ तद्धार्मिक एव शुद्धसुकृतं वांछन्वते शुदधी-।
र्दातान्यालयभुक्तिभाक्प्रतिदिनं दद्यात्तदर्थ मुदा ॥१८४ अर्थ-जिस प्रकार राजा किसी दूसरे घरमें भोजन करके भाता है तो उस धरवालेको भोजनका मूल्य एवं दुगुने तिगुने धन वस आदि देकर चला जाता है इसी प्रकार विद्वान श्रावक धार्मिक व दाता हो तो उसे पुण्यप्राप्तिकी यदि इच्छा है तो दूसरोंके घर में भोजन करे तो उसके बदले में कुछ न कुछ जरूर देवें ॥१८४॥
कायत्तं कर्तृहस्तेन वित्तं योषायत्तं योषितः पाणिनैव । प्राचं पुण्यं चात्महस्तेन पापं स्वेनैव स्युर्वचका दस्यवश्व ॥ अर्थ-घरके मालिक स्वयं व उसकी आज्ञासे दिये गये धनको . ग्रहण करना चाहिये । घरमें यदि मालिक न हो तो मालिकिन स्वयं हो उसके हाथ से दिये गये धन वा उसकी आज्ञासे दिये गये धनको प्रहण करना चाहिये उसमें पुण्य होता है। ऐसा न होकर सेवकोंके हायसे गृहीत वा स्वयं अपने हाथसे गृहीत धन पापका कारण होता ' है। इस प्रकार स्वयं ग्रहण करनेवाले वंचक व चोर कहलाते हैं ।
शिथिले जिनगेहे सति सधना जैना उदासते तेषाम् । गृहधनतेजोमानप्राणादिकहानिराशु स्यात् ॥१८६ ।।