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दानशासनम्
देवाय संकल्प्य निजं धनं यो । दत्ते न तस्मै खलु तस्य दोषः ॥ करोति राज्ञा च मिथो विवादां- | स्तेजोर्थधर्मात्मजळाभनाशान् ॥ १८९ ॥
अर्थ- जो व्यक्ति अपने धनको देवकार्य में संकल्प करके फिर उसे उस कार्य के लिये नहीं देता हो एवं अपने घरखर्च के लिये उपयोग में लेता हो उसे तीव्र पापबंध होता है । उस पाप से उसे राजा के साथ बंधुवोंके साथ व अन्य मित्रोंके साथ विवाद होता है । लोक सब उसे निंदाकी दृष्टिसे देखते हैं, इतनाही नहीं उसका तेज मंद होता है । द्रव्यका नाश होता है, धर्मकी हानि होती है, संततिका लाभ नही हो पाता है ॥ १८१ ॥
धर्मद्रव्यं दुरितहरणं यन्निकायाश्रितं चे- । दुत्पद्यंते वृषकुळहरास्तत्र जीवाश्च दृष्टाः || शून्ये यत्रावनिपतिगृहे चित्तनेत्रातिरम्ये । निर्धूतोद्यद्विभवसुजना संविशंतीव भूताः ॥ १८२ ॥
अर्थ - पापनाश करनेके लिये समर्थ धर्मद्रव्यको अपहरण कर जो कोई अपने घरमें लेजाकर रखता हो या उसे अपने घर काम में लेता हो उसके घर में दुष्ट संतान उत्पन्न होती हैं । वे धर्म व कुल 1 संस्कारको नष्ट करनेवाले होते हैं । जिसप्रकार अनेक विभावों से युक्त सुंदर राजमहल भी यदि शून्य हो जाय तो उस में भूत प्रेतादिक प्रवेश करते हैं इसीप्रकार धर्मकर्म से शून्य ऐसे घर में दुष्ट जीव प्रवेश करते हैं ॥ १८२ ॥
चेतः क्लेशं कृत्वैवान्नादिद्रव्यमाहरत्यपि यः ।
तस्य सुकृतव्ययः स्याद्वतभंगोऽपि च ततोऽघवृद्धिश्व ॥ १८३