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चतुर्विधदाननिरूपण
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सीतेच रावणगृहांतगतान्यगेहा- ।
इंतुं स्मरत्यनयलब्धधनं नितातं ॥ १७८ ॥ . अर्थ-जो धन अन्याय व बलात्कारसे अपहरण किया गया हो वह अपने स्वामीको अनेक प्रकार के कुतंत्रसे शीघ्र पकडकर शत्रुके हाथमें दे देता है । जिस प्रकार बहुत कष्ट पाया हुआ सेवक स्वामी से चिढकर उसे शत्रुके हाथमें दे देता हो । एवं जिस प्रकार सती सीता रावणके घरसे अन्य घर होनेसे छोडकर जाना चाहती थी इसी प्रकार अन्यायोपार्जित धन दूसरेके पास जरूर चला जायगा । उससे कभी सुख नहीं मिल सकता ॥ १७८ ॥ । यो बहाशार्जितार्थस्सन् कुर्वन्स बहुधा वृष । .....
दोषी वांछभिव स्वास्थ्यं भुक्त्वैवापथ्यमौषधम् ॥१७९॥ अर्थ-जो व्यक्ति अत्यंत लोभसे न्यायान्याय; योग्यायोग्य विचार न करके बहुत धनको कमाता हो एवं उस पापके उपशम के लिये अनेक धर्मकार्य करता हो सचमुचमें वह रोगीके समान है जो वात, पित्त, कफके विकारसे पीडित हो, स्वास्थ्यकी इच्छासे औषधिका सेवन भी करता हो साथमें अपथ्य भी करता हो ॥ १७९ ॥ . सत्पुरुषोऽर्जयति धनं यत् सकलजनष्टसाधुवृदयैव स्यात् . तस्य धनस्य च हानि नुपहतधर्मबलसुगुप्तस्यैव ॥१८०
अर्थ-सज्जनलोग न्यायसे जिस धनका उपार्जन करते हैं वह धन संपूर्ण इष्ट जन व साधु संतोंकी वृद्धि के लिये कारण होता है। एवं धर्मकार्यमें उसका विनियोग होता है । उस धन की हानि कभी नहीं होती, उसे कोई अपहरण भी नहीं करता, एवं धर्म कार्यों की रक्षा उससे होती है अत एव धर्मबल भी उसकी रक्षा करता है. ॥ १८० ॥