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दानशासनम्
र्थीको कम कीमत में खरीदता हो तथा दूसरों के प्रति सदा निष्ठुर व्यवहार करता हो उस व्यक्तिके भूत भविष्यत् वर्तमान ऐसे तीनों प्रकार के धन नष्ट होते हैं ॥ १७५॥ ..
दशांशबंधादतिवृद्धितो मिषात । धनं स सर्व लभते वृषार्पितं ॥ नृपारिचोराग्न्यधमणीवस्मृत-।
र्धवेन दग्धेन धराटवी क्षयेत् ॥ १७६ ॥ अर्थ-जो अपना कोष बढानेके निमित्तसे प्रजासे दशांश का लेंगे ऐसा नियम करके भी उनसे सर्वधन लेता है. तथा. शत्रु रूप राजाका, चोरका, कर्जा जिसने लिया है तथा जो विस्मृतिसे धनको छोड गये हैं ऐसे लोगों का धन ग्रहण करता है. वह राजा अग्नीसे, जली हुई भूमी के समान नष्ट होगा. इस श्लोकका अर्थ हमारे समझमें ठीक नहीं आया है । अतः अभिप्राय लिखा है ॥ १७६ ॥
पहाशार्जितवित्तस्य सर्वस्य क्लिश्यते मनः। निक्षेपार्थहरस्येवामुत्रिकाथहरस्य वा ॥ १७७ ॥ अर्थ---बहुत लोभी होकर जो धन कमाता है उसके मनको इस कार्यसे बहुत दुःख उत्पन्न होता है अथवा ऐसा पुरुष सबके द्वारा पीडित किया जाता है । जिससे उसका मन खिन्न होता है । जैसे कोई धनिक किसी का धन अपने पास रखता है तथा मांगनेपर उस को देता नहीं उस समय वह उसको बहुत कष्ट देता है क्यों कि वह धनिक उस दीनके आगेके जीवनकोही बिगाड देता है। इस श्लोकका केवल अभिप्रायमात्र लिखा है ॥ १७७ ॥
यत्पीडितं बलामिवात्मपतिं गृहीत्वा । व्याहूय शीघ्रमरये वितरेत्कुतंत्रम् ॥