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चतुर्विधदाननिरूपण
अर्थ-मनुष्यने इस बात का विचार करना चाहिए कि लोक में राजाके अपराध के बाह्य ऐश्वर्य को राजा सर्व प्रकारसे नष्ट करता है। देवापराधीके बाह्य द्रव्य भी नष्ट होते हैं अंतरंग द्रव्य पुण्य भी नष्ट होता है ॥ १७२ ॥
देवस्वाम्यर्थहज्जीवे तृष्णा डिव सनिजा। स्यात्स्ववर्गेषु सा नित्या दरिद्रो जन्मजन्मनि ॥ १७३ ॥ अर्थ-जो जीव देवद्रव्य को अपहरण कर जीता है उस की तृष्णा सनिपात रोगसे पीडित रोगांकी तृषाके समान बढ़ती ही जाती है । एवं च परिग्रहोंमें उसकी लालसा स्थिर होती जाती है। इतना ही नहीं वह जन्मजन्म में दरिद्र ही होता जाता है ॥ १७३ ॥
'पारधारादत्तभूकन्यादेशग्रामधनादिकं ।
आदत्ते यो बलात्तस्य बहुहानिर्भवे भवे ॥ १७४ ॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरों से वचनसे अथवा जलधारा छोडकर दी हुई भूमि, कन्या, देश, प्राम, धन आदिको जबर्दस्तीसे छीन लेता हो उसको जन्मजन्ममें हानि उठानी पड़ती है। इसलिये परद्रव्यको कभी अपहरण करना उचित नहीं है ॥ १७४ ॥
प्रसह्य चार्थानतिपीड्य यः सतां । समाहरत्यौषण्यत एव तस्य ते ॥ अल्पक्रयानिष्ठुरकोऽयवा सदा । कुर्वति रायस्त्रिविधस्य च क्षयं ॥ १७५ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यसे, बलात्कारसे अथवा बहुत कष्ट देकर सज्जनोंका धन अपहरण करता हो, एवं अधिक कीमतके पदा
१ वाग्दत्तं च मनोदत्तं धारादत्तं न दीयते । नरकान्न निवर्तते यावच्चंद्रदिवाकरौ ॥