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दानशासनम्
अर्थ-जिसप्रकार माता अपनी पुत्रीको सुखके साथ संरक्षण करने के उद्देश्यसे जमाईका रक्षण करती है, उसीप्रकार सद्धर्मको उपकार करनेवाले समस्तजीवोंको अपने द्रव्यसे उपकार करना चाहिये ।। १०३ ॥
मिथ्यादृष्टि होनेपर भी सहकार धान्यानि लब्धं कृषिको ददाति । क्षेत्रक्रियाकारिजनाय वित्तम् ॥ यथा तथैवात्मवृषक्रियां ये ।
कुर्वति तेभ्यो द्रविणो विदद्यात् ॥ १०४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार अष्टादश प्रकार के धान्योंको प्राप्त करनेके लिए किसान खेत करनेवाले मनुष्योंको धनादिकको देता है, इसी प्रकार अपने धर्मकार्योको करनेवाले जो सज्जन हैं, उनको धनादिक देकर उपकार करना चाहिये ॥ १०४ ॥
श्रद्धानफल निदोषसद दृक्चरितं विदंतं ग्रामीणदेवाश्च नरा दयते । , - सम्यक्पबाधां परिहार्य तस्मानिर्दोषभक्तिं कुरु जैनधर्मे ॥१०५
अर्थ-निर्दोष सम्यग्दर्शन व चारित्रको धारण करनेवाले भव्यकी अनेक बाधाओंको भी दूर कर प्रामीणदेवतायें, जलदेवतायें व वनदेवतायें एवं मनुष्यगण रक्षण करते हैं । इसलिए हे भव्य ! जिनधर्म में विशिष्ट भक्तिको करो ॥ १०५ ॥
स्वग्रामावृतसैनिकं च नृपनि शप्यत्यसौ किं नृपो। योद्धारं शफ्तीह किं रिपुचमं दृष्ट्वा क्षमाशंसति ।। चित्रं मूढजनः शपत्यनुदिन निष्कारणं तिष्ठ भो । पुष्टेषु श्वसु भिक्षुकोऽपि विहान्वी षु मौनी यथा ।१०६॥