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चतुर्विधदाननिरूपण
हुआ ऐसा न समझना चाहिये | यह मैंने धर्मके लिए ही दिया, ऐसा सत्पुरुषोंको विचार करना चाहिये ॥ २०९॥
धर्मोपकारिभूपेन गृहीतं यत्समं धनं ॥
मयाद्य. दत्तं तत्सर्व ममा नेति चिंतयेत् ॥ २१० ॥ अर्थ-सत्पुरुषोंको सदा यह भावना करनी चाहिये कि मैंने आज धर्मोपकारी राजाको जो कुछ भी धन दिया है और जो उसने ग्रहण किया है, वह पापके लिए नहीं अपितु पुण्यार्जनके लिए दिया है ऐसा विचार करना चाहिये ।। २१० ॥
निजग्रामाधिपेनाद्य यावद्व्यं समाहृतं ॥
तत्सर्व दण्डवद्दत्तं मया जीव न चिंतयेः॥ २११ ॥ अर्थ--मैने आज अपने प्रामाधिपके लिए जो दण्डके रूप में द्रव्य दिया है वह सब अन्यायके लिए नहीं दिया धर्मके लिए दिया है इसलिए उस विषय में मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए ऐसा सत्पुरुष विचार करें ॥ २११ ॥
मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतेः । प्रभासुरात्माचनदानशासनम् ।। मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं ।
धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥२१२॥ अर्थ- समस्त आहेत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ २१२ ॥
इत्यभयदानविधिः